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Monday, June 27, 2022

BSEB Class 10 Hindi Godhuli Chapter 1 श्रम विभाजन और जाति प्रथा Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 10th Hindi Godhuli Chapter 1 श्रम विभाजन और जाति प्रथा Book Answers

BSEB Class 10 Hindi Godhuli Chapter 1 श्रम विभाजन और जाति प्रथा Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 10th Hindi Godhuli Chapter 1 श्रम विभाजन और जाति प्रथा Book Answers
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Bihar Board Class 10th Hindi Godhuli Chapter 1 श्रम विभाजन और जाति प्रथा Textbooks Solutions PDF

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Bihar Board Class 10th Hindi Godhuli Chapter 1 श्रम विभाजन और जाति प्रथा Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
Format DOC/PDF
Class 10th
Subject Hindi Godhuli Chapter 1 श्रम विभाजन और जाति प्रथा
Chapters All
Provider Hsslive


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Bihar Board Class 10 Hindi श्रम विभाजन और जाति प्रथा Text Book Questions and Answers

बोध और अभ्यास

पाठ के साथ

श्रम विभाजन और जाति प्रथा क्लास 10th Bihar Board प्रश्न 1.
लेखक किस विडंबना की बात करते हैं ? विडंबना का स्वरूप क्या है ?
उत्तर-
लेखक महोदय आधुनिक युग में भी “जातिवाद” के पोषकों की कमी नहीं है जिसे विडंबना कहते हैं।
विडंबना का स्वरूप यह है कि आधुनिक सभ्य समाज “कार्य-कुशलता” के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। चूंकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए . इसमें कोई बुराई नहीं है।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा Class 10 Bihar Board प्रश्न 2.
जातिवाद के पोषक उसके पक्ष में क्या तर्क देते हैं ?
उत्तर-
जातिवाद के पोषक ‘जातिवाद’ के पक्ष में अपना तर्क देते हुए उसकी उपयोगिता को सिद्ध करना चाहते हैं- .

  • जातिवादियों का कहना है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता’ के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है क्योंकि श्रम-विभाजन जाति प्रथा का ही दूसरा रूप है। इसीलिए श्रम-विभाजन में कोई बुराई नहीं है।
  • जातिवादी समर्थकों का कहना है कि माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार ही यानी गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
  •  हिन्दू धर्म पेशा-परिवर्तन की अनुमति नहीं देता। भले ही वह पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त ही क्यों न हो। भले ही उससे भूखों मरने की नौबत आ जाए लेकिन उसे अपनाना ही होगा।
  • जातिवादियों का कहना है कि परंपरागत पेशे में व्यक्ति दक्ष हो जाता है और वह अपना कार्य सफलतापूर्वक संपन्न करता है।
  • जातिवादियों ने ‘जातिवाद’ के समर्थन में व्यक्ति की स्वतंत्रता को अपहृत कर सामाजिक बंधन के दायरे में ही जीने-मरने के लिए विवश कर दिया है। उनका कहना है कि इससे सामाजिक व्यवस्था बनी रहती है और अराजकता नहीं फैलती।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा प्रश्न उत्तर Class 10 Bihar Board प्रश्न 3.
जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लेखक की प्रमुख आपत्तियाँ क्या हैं ?
उत्तर-
‘जातिवाद’ के पक्ष में दिए गए तको पर लेखक ने कई आपत्तियाँ उठायी हैं जो चिंतनीय

  • लेखक के दृष्टिकोण में जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है।
  • जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं करता।
  • मनुष्य की व्यक्तिगत भावना या व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान या महत्त्व नहीं रहता।
  • आर्थिक पहलू से भी अत्यधिक हानिकारक जाति प्रथा है।
  • जाति प्रथा मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्मशक्ति को दबा देती है। साथ ही अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय भी बना देती है।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा Bihar Board Class 10 प्रश्न 4.
जाति भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कही जा सकती?
उत्तर-
भारतीय समाज में जाति श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप नहीं कही जा सकती है। श्रम के नाम पर श्रमिकों का विभाजन है। श्रमिकों के बच्चे को अनिच्छा से अपने बपौती काम करना पड़ता है। जो आधुनिक समाज के लिए स्वभाविक रूप नहीं है।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा का प्रश्न उत्तर Bihar Board Class 10 प्रश्न 5.
जातिप्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण कैसे बनी हुई है।
उत्तर-
जातिप्रथा मनुष्य को जीवनभर के लिए एक ही पेशे में बांध देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में उद्योग-धंधों की प्रक्रिया तथा तकनीक में निरंतर विकास और अकस्मात् परिवर्तन होने के कारण मनुष्य को पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है। किन्तु, भारतीय हिन्दू धर्म की जाति प्रथा व्यक्ति को पारंगत होने के बावजूद ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है जो उसका पैतृक पेशा न हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

Shram Vibhajan Aur Jati Pratha Class 10 Question Answer प्रश्न 6.
लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या किसे मानते हैं और क्यों?
उत्तर-
लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या जाति प्रथा को मानते हैं। जाति प्रथा के कारण पेशा चुनने में स्वतंत्रता नहीं होती। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रूची का इसमें कोई स्थान नहीं होता। मजबुरी बस जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा के प्रश्न उत्तर Bihar Board Class 10 प्रश्न 7.
लेखक ने पाठ में किन प्रमुख पहलुओं से जाति प्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है ?
उत्तर-
जाति प्रथा के कारण श्रमिकों का अस्वभाविक विभाजन हो गया है। आपस में ऊँच-नीच की भावना भी विद्यमान है। .
जाति प्रथा के कारण अनिच्छा से पुस्तैनी पेशा अपनाना पड़ता है। जिसके कारण मनुष्य की पूरी क्षमता का उपयोग नहीं होता। आर्थिक विकास में भी जातिप्रथा बाधक है।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा का सारांश Bihar Board Class 10 प्रश्न 8.
सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने किन विशेषताओं को आवश्यक माना है:
उत्तर-
डॉ. भीमराव अंबेदकर ने सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए निम्नांकित विशेषताओं का उल्लेख किया है –

  • सच्चे लोकतंत्र के लिए समाज में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व भावना की वृद्धि हो।
  • समाज में इतनी गतिशीलता बनी रहे कि कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचालित हो सके।
  • समाज में बहुविध हितों में सबका भाग होना चाहिए और सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए।
  • सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए।
  • दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारा होना चाहिए।

इन्हीं गुणों या विशेषताओं से युक्त तंत्र का दूसरा नाम लोकतंत्र है।
“लोकतंत्र शासन की एक पद्धति नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान भाव हो।”

भाषा की बात

श्रम विभाजन और जाति प्रथा Pdf Bihar Board Class 10 प्रश्न 1.
पाठ से संयुक्त, सरल एवं मिश्र वाक्य चुनें।
उत्तर-
सरल वाक्य-पेशा परिवर्तन की अनुमति नहीं है। तकनीकी में निरंतर विकास होता है। विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता है।
संयुक्त वाक्य – मैं जातियों के विरूद्ध हूँ फिर मेरी दृष्टि में आदर्श समाज क्या है?
लोकतंत्र सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।
जातिप्रथा कम काम करने और टालू काम करने के लिए प्रेरित करता है।

मिश्र वाक्य-विडंबना की बात है कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है।
जाति प्रथा की विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन करती है। कुशल व्यक्ति का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता को सदा विकसित करें।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित के विलोम शब्द लिखें-
उत्तर-
सभ्य – असभ्य
विभाजन – संधि
निश्चय – अनिश्चय
ऊंचा – नीच
स्वतंत्रता – परतंत्रता
दोष – निर्दोष
सजग – निर्जग
रक्षा – अरक्षा
पूर्णनिर्धारण – पर निर्धारण

प्रश्न 3.
पाठ से विशेषण चुनें तथा उनका स्वतंत्र वाक्य प्रयोग करें।
उत्तर-
सभ्य = यह सभ्य समाज है।
मैतृक = मोहन के पास पैतृक संपत्ति है।
पहली = गीता पहली कक्षा में पढ़ती है।
यह = यह निर्विवाद रूप से सिद्ध है।
प्रति = साथियों के प्रति श्रद्ध हो।
हानिकारक = जाति हानिकारक प्रथा है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित के पर्यायवाची शब्द लिखें –
उत्तर-
दूषित = गंदा, अपवित्र .
श्रमिक = मजदूर, श्रमजीवी
पेशा = रोजगार, नौकरी
अकस्मात = एकाएक, अचानक
अनुमति = आदेश, निर्देश
अवसर – मौका, संयोग
परिवर्तन = बदलाव, रूपान्तर
सम्मान = प्रतिष्ठा, मान

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण-संबंधी प्रश्नोत्तर

1. यह विडंबना की ही बात है कि युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है, इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार वह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिये श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है और चूंकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिये इसमें कोई बुराई नहीं है, इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिये हुये है, श्रम विभाजन निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परन्तु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों के विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत अवतरण किस पाठ से लिया गया है और इसके लेखक कौन हैं ?
(ख) इस युग में किसके पोषकों की कमी नहीं है और क्यों?
(ग) भारत की जाति प्रथा की सबसे बड़ी विशेषता क्या है?
(घ) सभ्य समाज की क्या आवश्यकता है?
(ङ) श्रम-विभाजन में आपत्तिजनक कौन-सी बात है ?
उत्तर-
(क)प्रस्तुत अवतरण श्रम विभाजन और जाति प्रथा शीर्षक लेख से लिया गया है। इसके लेखक डॉ. भीमराव अम्बेदकर जी हैं।
(ख) इस युग में जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। जातिवाद श्रम विभाजन का एक अभिन्न अंग है। श्रम विभाजन के आधार पर ही जातिवाद की आधारशिला रखी गयी है।
(ग)भारत की जाति प्रथा की सबसे प्रमुख विशेषता है कि वह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करा देती . है। ऐसी व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज में नहीं है।
(घ)समर्थन के आधार पर सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिये श्रम विभाजन में आवश्यक अंग मानता है। जाति प्रथा श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है। यदि श्रम विभाजन न हो तो सभ्य समाज की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती है।
(ङ) श्रम-विभाजन सभ्य समाज के लिये अत्यंत आवश्यक अंग है। जाति प्रथा श्रमिक विभाजन का ही रूप है। किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों के विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती है। सभ्य समाज की ऐसी व्यवस्था ही श्रम-विभाजन की आपत्तिजनक बातें हैं।

2. जाति प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपने पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति प्रथा
का दूषित सिद्धात यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण, जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही, अर्थात
गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

प्रश्न
(क) गद्यांश के पाठ एवं लेखक का नाम लिखिए।
(ख) लेखक के अनुसार जाति प्रथा को स्वाभाविक श्रम-विभाजन क्यों नहीं माना जा सकता?
(ग) लेखक के अनुसार सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
(घ) जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत क्या है ?
(ङ) किस प्रथा को श्रम विभाजन मान लेना स्वाभाविक विभाजन नहीं है।
उत्तर-
(क) पाठ का नाम-श्रम विभाजन और जाति प्रथा
लेखक का नाम-डॉ. भीमराव अंबेदकर।
(ख)क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।
(ग)सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तियों की क्षमता का विकास इस सीमा तक किया जाए जिससे वे अपने पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सकें।
(घ)सामाजिक स्तर के अनुसार गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर .देना जाति प्रथा का दूषित सिद्धांत है।
(ङ)जाति प्रथा को श्रम विभाजन मान लेना स्वाभाविक विभाजन नहीं है।

3. श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है।
जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्व नहीं रहता। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत-से लोग निर्धारित कार्य को अरुचि के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकर प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारुचि व आत्मशक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।

प्रश्न
(क) गद्यांश के पाठ एवं लेखक का नाम लिखिए।
(ख) श्रम-विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त क्यों है ?
(ग) आज उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या क्या है ?
(घ) जाति प्रथा में कुशलता प्राप्त करना कठिन क्यों है ?
(ङ) जाति प्रथा आर्थिक पहलू से भी हानिकर है, क्यों?
उत्तर-
(क) पाठ का नाम– श्रम विभाजन और जाति प्रथा
लेखक का नाम– डॉ. भीमराव अंबेदकर।
(ख) श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है, क्योंकि इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत रुचि का कोई स्थान नहीं रहता है। यह मानवीय स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता।
(ग) जातिगत निर्धारित कार्य को लोग अरुचि के साथ विवशतावश करते हैं। ऐसा करना … गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या है।
(घ) जाति प्रथा में परंपरागत कार्य से लोग आजीवन जुड़े रहते हैं। यह प्रथा दुर्भावना से ग्रस्त रहकर दिल-दिमाग का उपयोग किये बिना कार्य करने के लिए प्रेरित करती है जिसके चलते कुशलता प्राप्त करना कठिन है।
(ङ) जाति प्रथा आर्थिक पहलू से भी हानिकर है, क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा रुचि व आत्मशक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।

4. किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिये जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचरित हो सके। ऐसे समाज के बहुविध हितों में सबका भाग होना चाहिये तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिये। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिये। तात्पर्य यह है कि दूध पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है, इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।

प्रश्न
(क) लोकतंत्र कैसे समाज की परिकल्पना करना चाहता है ?
(ख) लोकतंत्र का स्वरूप कैसा होना चाहिये।
(ग) भाईचारे का संबंध दूध और पानी के मिश्रण-सा क्यों बताया गया है?
(घ) किनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिये।
उत्तर-
(क) लेखक एक आदर्श समाज की स्थापना चाहता है, ऐसा समाज जो जाति प्रथा . से ऊपर उठकर स्वतंत्रता, समता, भ्रातृत्व पर आधारित हो। आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिये जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके।
(ख) लोकतंत्र केवल शासन पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक दिनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव हो।
(ग) दूध और पानी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों में विच्छेदन नहीं किया जा सकता है। शुद्ध दूध में भी पानी का कुछ-न-कुछ अंश रहता ही है। सभ्य समाज ने जाति प्रथा के नाम पर श्रम का भी विभाजन कर दिया है। विविध जातियों का मिश्रण ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र की ऐसी व्यवस्था ही भाईचारा है। विविध धर्म, सम्प्रदाय के होकर भी हम भारतीय हैं। हमारा संबंध. अक्षुण्ण है। यही कारण है कि भारत में भाईचारे का संबंध दूध और पानी की तरह है।
(घ) सभ्य समाज ने जाति प्रथा के नाम पर समाज को विभक्त कर दिया है। ऐसे समाज में सबको भाग लेना चाहिये तथा एक-दूसरे की रक्षा के लिये सजग रहना चाहिये।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. सही विकल्प चुनें –

प्रश्न 1.
श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा के लेखक कौन हैं ? ।
(क) महात्मा गाँधी
(ख) जवाहरलाल नेहरू
(ग) राम मनोहर लोहिया
(घ) भीमराव अम्बेदकर
उत्तर-
(घ) भीमराव अम्बेदकर

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका किसकी है ?
(क) भीमराव अंबेदकर
(ख) ज्योतिबा फूले
(ग) राजगोपालाचारी
(घ) महात्मा गाँधी
उत्तर-
(क) भीमराव अंबेदकर

प्रश्न 3.
सभ्य समाज की आवश्यकता क्या है ?
(क) जाति-प्रथा
(ख) श्रम-विभाजन
(ग) अणु-बम
(घ) दूध-पानी
उत्तर-
(ख) श्रम-विभाजन

प्रश्न 4.
निम्नलिखित रचनाओं में से कौन सी रचना डॉ. अम्बेदकर की है
(क) द कास्ट्स इन इंडिया
(ख) द अनटचेबल्स, यू आर दे
(ग) हू आर शूद्राज
(घ) इनमें से सभी
उत्तर-
(घ) इनमें से सभी

प्रश्न 5.
भीमराव अंबेदकर के चिंतन तथा रचनात्मकता के इनमें से कौन प्रेरक व्यक्ति माने जाते हैं?
(क) महात्मा बुद्ध
(ख) कबीर दास
(ग) ज्योतिबा फूले
(घ) सभी
उत्तर-
(घ) सभी

रिक्त स्थानों की पूर्ति

प्रश्न 1.
इस युग में भी जातिवाद के……….. की कमी नहीं है।
उत्तर-
पोषकों

प्रश्न 2.
जाति-प्रथा मनुष्य की….. पर आधारित नहीं है।
उत्तर-
रुचि

प्रश्न 3.
भारत में जाति-प्रथा…….का कारण है।
उत्तर-
बेरोजगारी

प्रश्न 4.
भाई-चारे का दूसरा नाम…… है।
उत्तर-
लोकतंत्र

अतिलघु उत्तरीय

प्रश्न 1.
श्रम-विभाजन कैसे समाज की आवश्यकता है?
उत्तर-
श्रम-विभाजन आज के सभ्य समाज की आवश्यकता है।

प्रश्न 2.
जाति-प्रथा स्वाभाविक विभाजन नहीं है। क्यों?
उत्तर-
रुचि पर आधारित नहीं होने के कारण जाति-प्रथा स्वाभाविक विभाजन नहीं है।

प्रश्न 3.
बाबा साहब भीमराव अंबेदकर की दृष्टि में आदर्श समाज कैसा होगा? ..
उत्तर-
बाबा साहब भीमराव अंबेदकर की दृष्टि में आदर्श समाज स्वतंत्रता समता और . बंधुत्व पर आधारित होगा।

प्रश्न 4.
भीमराव अम्बेदकर का जन्म किस प्रकार के परिवार में हुआ था?
उत्तर-
भीमराव अम्बेदकर का जन्म एक दलित परिवार में हुआ था।

प्रश्न 5.
“बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म” नामक पुस्तक किसने लिखी?
उत्तर-
“बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म’ नामक पुस्तक भीमराव अम्बेदकर ने लिखी थी।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा लेखक परिचय

बाबा साहेब भीमराव अंबेदकरका जन्म 14 अप्रैल 1891 ई० में मह, मध्यप्रदेश में एक दलित परिवार में हुआ था । मानव मुक्ति के पुरोधा बाबा साहेब अपने समय के सबसे सुपठित जनों में से एक थे । प्राथमिक शिक्षा के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर उच्चतर शिक्षा के लिए न्यूयार्क (अमेरिका), फिर वहाँ से लंदन (इंग्लैंड) गए । उन्होंने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और पूरा वैदिक वाङ्मय अनुवाद के जरिये पढ़ा और ऐतिहासिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक मौलिक स्थापनाएँ प्रस्तुत की। सब मिलाकर वे इतिहास मीमांसक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् तथा धर्म-दर्शन के व्याख्याता बनकर उभरे । स्वदेश में कुछ समय उन्होंने वकालत भी की। समाज और राजनीति में बेहद सक्रिय भूमिका निभाते हुए उन्होंने अछूतों, स्त्रियों और मजदूरों को मानवीय अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए अथक संघर्ष किया। उनके चिंतन व रचनात्मकता के मुख्यत: तीन प्रेरक व्यक्ति रहे – बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले ! भारत के संविधान निर्माण में उनकी महती भूमिका और एकनिष्ठ समर्पण के कारण ही हम आज उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता कह कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं । दिसंबर, 1956 ई० में दिल्ली में बाबा साहेब का निधन हो गया ।

बाबा साहेब ने अनेक पुस्तकें लिखीं । उनकी प्रमुख रचनाएँ एवं भाषण हैं – ‘द कास्ट्स’ इन इंडिया : देयर मैकेनिज्म’, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट’, ‘द अनटचेबल्स, हू आर दे’, ‘हू आर शूद्राज’, बुद्धिज्म एंड कम्युनिज्म’, बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’, ‘थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स’, ‘द राइज एंड फॉल ऑफ द हिन्दू वीमेन’, ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्टआदि । हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से ‘बाबा साहब अंबेदकर संपूर्ण वाङ्मय’ नाम से
21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है।

यहाँ प्रस्तुत पाठ बाबा साहेब के विख्यात भाषण ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ के ललई सिंह यादव द्वारा किए गए हिंदी रूपांतर ‘जाति-भेद का उच्छेद’ से किंचित संपादन के साथ लिया गया है । यह भाषण ‘जाति-पाति तोड़क मंडल’ (लाहौर) के वार्षिक सम्मेलन (सन् 1936) के अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया था, परंतु इसकी क्रांतिकारी दृष्टि से आयोजकों की पूर्णत: सहमति न बन सकने के कारण सम्मेलन स्थगित हो गया और यह पढ़ा न जा सका । बाद में बाबा साहेब ने इसे स्वतंत्र पुस्तिका का रूप दिया । प्रस्तुत आलेख में वे भारतीय समाज . में श्रम विभाजन के नाम पर मध्ययुगीन अवशिष्ट संस्कारों के रूप में बरकरार जाति प्रथा पर मानवीयता, नैसर्गिक न्याय एवं सामाजिक सद्भाव की दृष्टि से विचार करते हैं । जाति प्रथा के विषमतापूर्वक सामाजिक आधारों, रूढ़ पूर्वग्रहों और लोकतंत्र के लिए उसकी अस्वास्थ्यकर प्रकृति पर भी यहाँ एक संभ्रांत विधिवेत्ता का दृष्टिकोण उभर सका है । भारतीय लोकतंत्र के भावी नागरिकों के लिए. यह आलेख अत्यंत शिक्षाप्रद है।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा Summary in Hindi

पाठ का सारांश :

प्रस्तुत पाठ में लेखक महोदय ने जाति प्रथा के कारण समाज उत्पन्न रूढ़िवादिता एवं लोकतंत्र पर खतरा को चित्रित किया है।

आज के वैज्ञानिक युग में भी “जातिवाद” के पोषकों की कमी नहीं है। उनका तर्क है कि आधुनिक समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। चूंकि जाति-प्रथा भी श्रम-विभाजन का दूसरा रूप है। परन्तु जाति-प्रथा के कारण श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन, विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, . जो विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

अस्वाभाविक श्रमविभाजन के कारण मनुष्य स्वतंत्र रूप से अपनी पेशा का चुनाव नहीं कर सकता। माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त और अपर्याप्त होने के कारण वह. भूखों मर जाए। पैतृक पेशा में वह पारंगत नहीं हो इसके बाद भी चुनाव करना पड़ता है। जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित कार्य को ‘अरूचि’ के साथ विवशतावश करते हैं। ऐसी परिस्थिति में स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है।

लेखक की दृष्टि में आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृत्व पर आधारित होगा। भ्रातृत्व अर्थात् भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। आदर्श समाज में गतिशीलता होनी चाहिए कि वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके। दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है। और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।

शब्दार्थ :

विडंबना : उपहास
पोषक : समर्थक, पालक, पालनेवाला
पूर्वनिर्धारंण : पहले ही तय कर देना
अकस्मात . , : अचानक
प्रक्रिया : किसी काम के होने का ढंग या रीति
प्रतिकूल : विपरीत, उल्टा
स्वेच्छा : . अपनी इच्छा
उत्पीड़न : बहुत गहरी पीड़ा पहुँचाना, यंत्रणा देना
संचारित : प्रवाहित ..
बहुविध : अनेक प्रकार से
प्रत्यक्ष : सामने, समक्ष
भ्रातृत्व : भाईचारा, बंधुत्व.
वांछित : आकांक्षित, चाहा हुआ


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