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Monday, June 27, 2022

BSEB Class 10 Hindi Godhuli Chapter 4 नाखून क्यों बढ़ते हैं Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 10th Hindi Godhuli Chapter 4 नाखून क्यों बढ़ते हैं Book Answers

BSEB Class 10 Hindi Godhuli Chapter 4 नाखून क्यों बढ़ते हैं Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 10th Hindi Godhuli Chapter 4 नाखून क्यों बढ़ते हैं Book Answers
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Bihar Board Class 10th Hindi Godhuli Chapter 4 नाखून क्यों बढ़ते हैं Textbooks Solutions PDF

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Bihar Board Class 10th Hindi Godhuli Chapter 4 नाखून क्यों बढ़ते हैं Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
Format DOC/PDF
Class 10th
Subject Hindi Godhuli Chapter 4 नाखून क्यों बढ़ते हैं
Chapters All
Provider Hsslive


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Bihar Board Class 10 Hindi नाखून क्यों बढ़ते हैं Text Book Questions and Answers

बोध और अभ्यास

पाठ के साथ

नाखून क्यों बढ़ते हैं प्रश्न उत्तर Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 1.
नाखून क्यों बढ़ते हैं ? यह प्रश्न लेखक के आगे कैसे उपस्थित हुआ?
उत्तर-
नाखून क्यों बढ़ते हैं ? यह प्रश्न लेखक के आगे उनकी लड़की के माध्यम से उपस्थित हुआ।

Nakhun Kyon Badhate Hain Question Answer Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 2.
बढ़ते नाखूनों द्वारा प्रकृति मनुष्य को क्या याद दिलाती है ?
उत्तर-
प्राचीन काल में मनुष्य जंगली था। वह वनमानुष की तरह था। उस समय वह अपने नाखून की सहायता से जीवन की रक्षा करता था। दाँत होने के बावजूद नख ही उसके असली हथियार थे। उन दिनों अपने प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिए नाखून ही आवश्यक अंग थे। कालान्तर में मानवीय हथियार ने आधुनिक रूप लिया और बंदूक, कारतूस, तोप, बम के रूप में मनुष्य की रक्षार्थ प्रयुक्त होने लगा। नखधर मनुष्य अत्याधुनिक हथियार पर भरोसा करके आगे की ओर चल पड़ा है। पर उसके नाखून अब भी बढ़ रहे हैं। बढ़ते नाखूनों द्वारा प्रकृति मनुष्य को याद दिलाती है कि तुम भीतर वाले अस्त्र से अब भी वंचित नहीं हो। तुम्हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम वही प्राचीनतम नख एवं दंत पर आश्रित रहने वाला जीव हो। पशु की समानता तुममें अब भी विद्यमान है।

Nakhun Kyu Badhte Hai Question Answer Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 3.
लेखक द्वारा नाखूनों को अस्त्र के रूप देखना कहाँ तक संगत है ?
उत्तर-
कुछ लाख वर्षों पहले मनुष्य जब जंगली था उसे नाखून की जरूरत थी। वनमानुष के समान मनुष्य के लिए नाखून अस्त्र था क्योंकि आत्मरक्षा एवं भोजन हेतु नख की महत्ता अधि क थी। उन दिनों प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिए नाखून आवश्यक अंग था। असल में वही उसके अस्त्र थे। आज के बदलते परिवेश में, परिवर्तित समय में, इस आधुनिकता के दौर में सभ्यता के विकास के साथ-साथ अस्त्र के रूप में इसकी आवश्यकता नहीं समझी जा रही है। अब मनुष्य पशु के समान जीवनयापन नहीं करके आगे बढ़ गया है, इसलिए समयानुसार अपने अस्त्र में भी परिवर्तन कर लिया है। प्राचीन समय के लिए अस्त्र कहा जाना उपयुक्त है, तर्कसंगत है। लेकिन आज यह मानवीय अस्त्र के रूप में प्रयुक्त नहीं है।

Nakhun Kyun Badhte Hain Question Answer Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 4.
मनुष्यं बार बार नाखूनों को क्यों काटता है ?
उत्तर-
मनुष्य निरंतर सभ्य होने के लिए प्रयासरत रहा है। प्रारंभिक काल में मानव एवं पशु एकसमान थे। नाखून अस्त्र थे। लेकिन जैसे-जैसे मानवीय विकास की धारा अग्रसर होती गई मनुष्य पशु से भिन्न होता गया। उसके अस्त्र-शस्त्र, आहार-विहार, सभ्यता-संस्कृति में निरंतर नवीनता आती गयी। वह पुरानी जीवन-शैली को परिवर्तित करता गया। जो नाखून अस्त्र थे उसे अब सौंदर्य का रूप देने लगा। इसमें नयापन लाने, इसे संवारने एवं पशु से भिन्न दिखने हेतु नाखूनों को मनुष्य काट देता है। अब वह प्राचीनतम पशुवत् मानव को भूल जाना चाहता है। नाखून को सुंदर देखना चाहता है।

नाखून क्यों बढ़ते हैं प्रश्न उत्तर कक्षा 10 Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 5.
सुकुमार विनोदों के लिए नाखून को उपयोग में लाना मनुष्य ने कैसे शुरू किया? लेखक ने इस संबंध में क्या बताया है ?
उत्तर-
लेखक ने कहा है कि पशुवत् मानव भी धीरे-धीरे विकसित हुआ, सभ्य बना तब पशुता की पहचान को कायम रखनेवाले नाखून को काटने की प्रवृत्ति पनपी। यही प्रवृत्ति कलात्मक रूप लेने लगी। वात्स्यायन के कामसूत्र से पता चलता है कि भारतवासियों में नाखूनों को जम कर संवारने की परिपाटी आज से दो हजार वर्ष पहले विकसित हुई।

उसे काटने की कला काफी मनोरंजक बताई गई है। त्रिकोण, वर्तुलाकार, चंद्राकार, दंतुल आदि विविध आकृतियों के नाखून उन दिनों विलासी नागरिकों के मनोविनोद का साधन बना। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार किसी ने नाखून को कलात्मक ढंग से काटना पसंद किया तो कोई बढ़ाना। लेकिन लेखक ने बताया है कि यह भूलने की बात नहीं है कि ऐसी समस्त अधोगामिनी वृत्तियों को और नीचे खींचनेवाली वस्तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्योचित बनाया है।

नाखून क्यों बढ़ते हैं प्रश्न उत्तर Pdf Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 6.
नख बढ़ाना और उन्हें काटना कैसे मनुष्य की सहजात वृत्तियाँ हैं ? इनका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर-
मानव शरीर में बहुत-सी अनायास-जन्य सहज वृत्तियाँ अंतर्निहित हैं। दीर्घकालीन आवश्यकता बनकर मानव शरीर में विद्यमान रही सहज वृत्तियाँ ऐसे गुण हैं जो अनायास ही अनजाने में अपने आप काम करती हैं। नाखून का बढ़ना उनमें से एक है। वास्तव में सहजात वृत्तियाँ अनजान स्मृतियों को कहा जाता है। नख बढ़ाने की सहजात वृत्ति मनुष्य में निहित पशुत्व का प्रमाण है। उन्हें काटने की जो प्रवृति है वह मनुष्यता की निशानी है। मनुष्य के भीतर पशुत्व है लेकिन वह उसे बढ़ाना नहीं चाहता है। मानव पशुता को छोड़ चुका है क्योंकि पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिए पशुता की पहचान नाखून को मनुष्य काट देता है।

नाखून क्यों बढ़ते हैं प्रश्न उत्तर कक्षा 10 Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 7.
लेखक क्यों पूछता है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है, पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर ? स्पष्ट करें।
उत्तर-
लेखक के हृदय में अंतर्द्वन्द्व की भावना उभर रही है कि मनुष्य इस समय पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर बढ़ रहा है। वह इस प्रश्न को हल नहीं कर पाता है। अत: इसी जिज्ञासा ।

को शांत करने के लिए स्पष्ट रूप से इसे प्रश्न के रूप में लोगों के सामने रखता है। मनुष्य पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर बढ़ रहा है। इस विचारात्मक प्रश्न पर अध्ययन करने से पता चलता है कि मनुष्य पशुता की ओर बढ़ रहा है। मनुष्य में बंदूक, पिस्तौल, बम से लेकर नये-नये महाविनाश के अस्त्र-शस्त्रों को रखने की प्रवृत्ति जो बढ़ रही है वह स्पष्ट रूप से पशुता की निशानी है। पशु प्रवृत्ति वाले ही इस प्रकार के अस्त्रों के होड़ में आगे बढ़ते हैं।

नाखून क्यों बढ़ते हैं उत्तर Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 8.
देश की आजादी के लिए प्रयुक्त किन शब्दों की अर्थ मीमांसा लेखक करता है और लेखक के निष्कर्ष क्या हैं ?
उत्तर-
देश की आजादी के लिए प्रयुक्त ‘इण्डिपेण्डेन्स’ शब्दों की अर्थ मीमांसा लेखक करते हैं। इण्डिपेण्डेन्स का अर्थ है अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव, पर ‘स्वाधीनता’ शब्द का अर्थ है अपने ही अधीन रहना। अंग्रेजी में कहना हो, तो ‘सेल्फडिपेण्डेन्स’ कह सकते हैं।

लेखक का निष्कर्ष है ‘स्व’ निर्धारित आत्म-बंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है। मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के नि:शेष भाव से दे देने में है।

Nakhun Kyun Badhte Hain Answer Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 9.
लेखक ने किस प्रसंग में कहा है कि बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती ? लेखक का अभिप्राय स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रसंग- मैं ऐसा तो नहीं मानता कि जो कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ हमारा विशेष है, उससे हम चिपटे ही रहें। पुराने का ‘मोह’ सब समय वांछनीय ही नहीं होता। मेरे बच्चे को गोद में दबाये रखने वाली ‘बंदरिया’ मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती।

लेखक महोदय का अभिप्राय है कि सब पुराने अच्छे नहीं होते, सब नए खराब ही नहीं होते। भले लोग दोनों का जाँच कर लेते हैं, जो हितकर होता है उसे ग्रहण करते हैं।

Nakhun Kyun Badhte Hain Hindi Summary Bihar Board Class 10 Hindi प्रश्न 10.
‘स्वाधीनता’ शब्द की सार्थकता लेखक क्या बताता है ?
उत्तर-
स्वाधीनता शब्द का अर्थ है अपने ही अधीन रहना। जिसमें ‘स्व’ का बंधन अवश्य है। यह क्या संयोग बात है या हमारी समूची परंपरा ही अनजाने में हमारी भाषा के द्वारा प्रकट होती रही है। समस्त वर्णों और समस्त जातियों का एक सामान्य आदर्श भी है।

प्रश्न 11.
निबंध में लेखक ने किस बूढ़े का जिक्र किया है ? लेखक की दृष्टि में बूढ़े के कथनों की सार्थकता क्या है ?
उत्तर-
लेखक महोदय ने एक ऐसे बूढ़े का जिक्र किया है जो अपनी पूरी जिंदगी का अनुभव कुछ शब्दों में व्यक्त कर मनुष्य का सावधान करता है। जो इस प्रकार है। बाहर नहीं भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओं, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो, आत्म-तोषण की बात सोचो, काम करने की बात सोचो। लेखक की दृष्टि में कथन पूर्णतः सार्थक हैं।

प्रश्न 12.
मनुष्य की पूँछ की तरह उसके नाखून भी एक दिन झड़ जाएँगे। प्राणिशास्त्रियों के इस अनुमान से लेखक के मन में कैसी आशा जगती है ?
उत्तर-
ग्राणीशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि एक दिन मनुष्य की पूँछ की तरह उसके नाखून भी झड़ जायेंगे। इस तथ्य के आधार पर ही लेखक के मन में यह आशा जगती है कि भविष्य में मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जायेगा और मनुष्य का आवश्यक अंग उसी प्रकार झड़ जायेगा जिस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गयी है अर्थात् मनुष्य पशुता को पूर्णत: त्याग कर पूर्णरूपेण मानवता को प्राप्त कर लेगा।

प्रश्न 13.
‘सफलता’ और ‘चरितार्थता’ शब्दों में लेखक अर्थ की भिन्नता किस प्रकार प्रतिपादित करता है ?
उत्तर-
सफलता और चरितार्थता में अंतर है। मनुष्य मारणास्त्रों के संचयन से बाह्य उपकरणों के बाहुल्य से उस वस्तु को पा भी सकता है, जिसे उसने बड़े आडंबर के साथ सफलता नाम दे रखा है। परंतु मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, अपने को सबके मंगल के लिए निःशेष भाव से दे देने में है। नाखूनों को काट देना उस ‘स्व’-निर्धारित आत्म-बंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है।

प्रश्न 14.
व्याख्या करें –
(क) काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे पर निर्लज्ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर।
व्याख्या-
ग्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के नाखून क्यों बढ़ते हैं, शीर्षक से ली गयी हैं। इसका संदर्भ है-जब लेखक की बिटिया नाखून बढ़ने का सवाल पूछती है, तब लेखक इस पर चिंतन-मनन करने लगता है। इस छोटे से सवाल के बीच ही यह पंक्ति भी विद्यमान है जो लेखक के चिंतन से उभरकर आयी है।

लेखक का मानना है कि नाखून ठीक वैसे ही बढ़ते हैं जैसे कोई अपराधी निर्लज्ज भाव से दंड स्वीकार के समय मौन तो लगा जाते हैं लेकिन पुनः अपनी आदत या व्यसन को शुरू कर देते हैं और अपराध, चोरी करने लगते हैं।
यह नाखून भी ठीक उसी अपराधी की तरह है। यह धीरे-धीरे बढ़ता है। काट दिए जाने पर पुनः बेहया की तरह बढ़ जाता है। इसे तनिक भी लाज-शर्म नहीं आती। अपराधी की भी ठीक वैसी ही प्रकृति-प्रवृत्ति है।

लेखक ने मनुष्य की पाश्विक प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वह बार-बार सुधरने, सुकर्म करने की कसमें खाता है। वादा करता है किन्तु थोड़ी देर के बाद पुनः वही कर्म दुहराने लगता है। कहने का मूल भाव यह है कि वह विध्वंसक प्रकृति की ओर सहज अग्रसर होता है जबकि वह निर्णयात्मक कार्यों में अपनी ऊर्जा और मेधा को लगाता।

(ख) मैं मनुष्य के नाखून की ओर देखता हूँ तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के नाखून क्यों बढ़ते हैं’ नामक पाठ से ली गयी हैं। – इन पंक्तियों का संदर्भ मनुष्य की बर्बरता से जुड़ा हुआ है। अपने निबंध में लेखक यह बताना चाहता है कि मनुष्य के नाखून उसकी भयंकरता के प्रतीक हैं। लेखक के मन में कभी-कभी नाखून को देखकर निराशा उठती है। वह इस पर गंभीरता से चिंतन करने लगता है।

कहने का आशय यह है कि मनुष्य की बर्बरता कितनी भयंकर है कि वह अपने संहार में स्वयं लिप्त है जिसका उदाहरण—हिरोशिमा पर बम बरसाना है इससे कितनी धन-जन की हानि हुई, संस्कृति का विनाश हुआ, अनुमान नहीं लगाया जा सकता। आज भी उसकी स्मृति से मन सिहर उठता है। तो यह है मनुष्य का पाशविक स्वरूप। यहीं स्वरूप उसके नाखून की याद दिला देते हैं। उसकी भयंकरता, बर्बरता, पाशविकता, अदूरदर्शिता, अमानवीयता जिसे लेकर लेखक निराश हो उठता है। वह चिंतित हो उठता है।

लेखक की दृष्टि में मनुष्य के नाखून भयंकर पाशवी वृत्ति के जीते-जागते उदाहरण हैं। मनुष्य की पशुता को जितनी बार काटने की कोशिश की जाय फिर भी वह मरना नहीं चाहती। किसी न किसी नवीन रूप को धारण कर अपने विध्वंसक रूप को प्रदर्शित कर ही देती है।

(ग) कमबख्त नाखून बढ़ते हैं तो बढ़ें, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ पाठ से ली गयी हैं।
इन पंक्तियों का संदर्भ जुड़ा है – लेख के अंत में द्विवेदीजी यह बताना चाहते हैं कि ये कमबख्त नाखून अगर बढ़ता है तो बढ़े, किन्तु मनुष्य उसे बढ़ने नहीं देगा।

लेखक के कहने का आशय यह है कि मनुष्य अब सभ्य और संवेदनशील हो गया है, बुद्धिजीवी हो गया है। वह नरसंहार का वीभत्स रूप देख चुका है। उसे यादकर ही वह कॉप जाता है। उसके विनाशक रूप का वह भुक्तभोगी है। हिरोशिमा का महाविनाश उसके सामने प्रत्यक्ष प्रमाण है। अतः, उससे निजात पाने के लिए वह सदैव सचेत होकर फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहा है। वह अपने विध्वंसक रूप को छोड़कर सृजनात्मकता की ओर अग्रसर होना चाहता है। वह मानव मूल्यों की रक्षा, मानवीयता की स्थापना में लगे रहना चाहता है। निरर्थक और संहारक तत्वों से बनकर शांति के साये में जीना चाहता है।

मनुष्य के इसी विवेकशील चिंतन और दूरदर्शिता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लेखक यह बताना चाहता है कि कमबख्त नाखून बढ़े तो बढ़े इससे चिंतित होने की जरूरत नहीं। अब मनुष्य सजग और सचेत है। वह उसे बढ़ने नहीं देगा उसे काटकर नष्ट कर देगा। कहने का भाव यह है कि वह क्रूरतम विध्वंसक रूप को त्याग देगा।

प्रश्न 15.
लेखक की दृष्टि में हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता क्या है ? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
लेखक की दृष्टि में हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता है अपने आप पर अपने आपको द्वारा लगाया हुआ बंधन। भारतीय चित्त जो आज की अनधीनता के रूप में न सोचकर स्वाधीनता के रूप में सोचता है। यह भारतीय संस्कृति की विशेषता का ही फल है। यह विशेषता हमारे दीर्घकालीन संस्कारों से आयी है, इसलिए स्व के बंधन को आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता है।

प्रश्न 16.
मैं मनुष्य के नाखून की ओर देखता हूँ तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। स्पष्ट . कीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्यपुस्तक हिंदी साहित्य के ललित निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ शीर्षक से उद्धृत है। इस अंश में प्रख्यात निबंधकास हजारी प्रसाद द्विवेदी बार-बार काटे जाने पर . भी बढ़ जाने वाले नाखूनों के बहाने अत्यन्त सहज शैली में सभ्यता और संस्कृति की विकास गाथा उद्घाटित करते हैं। साथ ही नाखून बढ़ने की उसकी भयंकर पाश्विक वृत्ति के जीवंत प्रतीक का भी वर्णन करते हैं।

प्रस्तुत व्याख्येय अंश पूर्ण रूप से लाक्षणिक वृत्ति पर आधारित है। लाक्षणिक धारा में ही निबंध का यह अंश प्रवाहित हो रहा है। लेखक अपने वैचारिक बिन्दु को सार्वजनिक करते हैं। मनुष्य नाखून को अब नहीं चाहता। उसके भीतर प्राचीन बर्बरता का यह अंश है जिसे भी मनुष्य समाप्त कर देना चाहता है। लेकिन अगर नाखून काटना मानवीय प्रवृत्ति और नाखून बढ़ाना पाश्विक प्रवृति है तो मनुष्य पाश्विक प्रवृत्ति को अभी भी अंग लगाये हुए है। लेखक यही सोचकर |

कभी-कभी निराश हो जाते हैं कि इस विकासवादी युग में भी मनुष्य को बर्बरता नहीं घटी है। वह तो बढ़ती ही जा रही है। हिरोशिमा जैसा हत्याकांड पाश्विक प्रवृत्ति का महानतम उदाहरण है। साथ ही लेखक की उदासीनता इस पर है कि मनुष्य की पशुता को जितनी बार काट दो वह मरना नहीं जानती।

प्रश्न 17.
नाखून क्यों बढ़ते हैं का सारांश प्रस्तुत करें।
उत्तर-
उत्तर के लिए सारांश देखें।

भाषा की बात

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के वचन बदलें
उत्तर-
अल्पज्ञ – अल्पज्ञों
प्रतिद्वंद्वियों – प्रतिद्वंद्वी
हड्डि – हड्डियाँ
मुनि – मुनियों
अवशेष – अवशेष
वृतियों – वृत्ति
उत्तराधिकार- उत्तराधिकारियों
बंदरिया – बंदर

प्रश्न 2.
वाक्य-प्रयोग द्वारा निम्नलिखित शब्दों के लिंग-निर्णय करें
उत्तर-
बंदूक – बंदूक छूट गया।
घाट – घाट साफ है।
सतह – सतह चिकना है।
अनुसधित्सा- अनुसंधिसा की इच्छा है।
भंडार – भंडार खाली है।
खोज – खोज पुराना है।
अंग – अंग कट गया।
वस्तु – वस्तु अच्छा है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित वाक्यों में क्रिया की काल रचना स्पष्ट करें।
(क) उन दिनों उसे जूझना पड़ता था। – भूतकाल
(ख) मनुष्य और आगे बढ़ा – भूतकाल
(ग) यह सबको मालूम है। – वर्तमान कार्ल
(घ) वह तो बढ़ती ही जा रही है। – वर्तमान काल
(ङ) मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा। – भविष्य काल

प्रश्न 4.
‘अस्त्र-शस्त्रों का बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा की निशानी है और उनकी बाढ़ . को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा है। इस वाक्य में आए विभक्ति चिन्हों के प्रकार बताएँ।
उत्तर-
शस्त्रों का – षष्ठी विभक्ति
मनुष्य की – षष्ठी विभक्ति
इच्छा की – षष्ठी विभक्ति
उनकी – षष्ठी विभक्ति
बाढ़ को – द्वितीया विभक्ति
मनुष्यत्व का- षष्ठी विभक्ति।

प्रश्न 5.
स्वतंत्रता, स्वराज्य जैसे शब्दों की तरह ‘स्व’ लगाकर पाँच शब्द बनाइए।
उत्तर-
स्वधर्म, स्वदेश, स्वभाव, स्वप्रेरणा, स्वइच्छा।

प्रश्न 6.
निम्नलिखित के विलोम शब्द लिखें
उत्तर-
पशुता – मनुष्यतां
घृणा – प्रेम
अभ्यास – अनभ्यास
मारणास्त्र – तारणस्त्र
ग्रहण – उग्रास
मूढ – ज्ञानी
अनुवर्तिता – परवर्तिता
सत्याचरण – असत्याचरण:

गिद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण-संबंधी प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
कुछ लाख ही वर्षों की बात है जब मनुष्य जंगली था, वनमानुष जैसा उसे नाखून की जरूरत थी. उसकी जीवन-रक्षा के लिये नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उसका स्थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था। प्रतिद्वन्द्वियों को पछाड़ना पड़ता था। नाखून उसके लिए आवश्यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा। पत्थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा (रामचंद्र जी की वानरी सेना के पास ऐसे ही अस्त्र थे।) उसने हड्डियों के भी हथियार बनाए। इन हड्डी के हथियारों में सबसे मजबूत और सबसे ऐतिहासिक का देवताओं के राजा का वज्र, जो दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था। मनुष्य और आगे बढ़ा। उसने धातु के हथियार बनाए।

जिनके पास लोहे के अस्त्र और शस्त्र थे, वे विजयी हुए। देवताओं के राजा तक को मनुष्यों के राजा से इसलिए सहायता लेनी पड़ती थी कि मनुष्यों के पास लोहे के अस्त्र थे। असुरों के पास । अनेक विद्याएँ थीं, पर लोहे के अस्त्र नहीं थे, शायद घोड़े भी नहीं थे। आर्यों के पास ये दोनों चीजें थीं। आर्य विजयी हुए। फिर इतिहास अपनी गति से बढ़ता गया। नाग हारे, सुपर्ण हारे, यक्ष हारे, गंधर्व हारे, असुर हारे, राक्षस हारे। लोहे के अस्त्रों ने बाजी मार ली। इतिहास आगे बढ़ा। पलीतेवाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों में इतिहास को किस कीचड़भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरोसा करके आगे की ओर चल पड़ा है। पर उसके नाखून अब भी बढ़ रहे हैं।

अब भी प्रकृति मनुष्य को उसके भीतर वाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है, अब भी वह याद दिला देती है कि तुम्हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम वही लाख वर्ष के पहले के नख-दंतावलंबी जीव हो पशु के साथ एक ही सतह पर विचरण करने वाले और चरने वाले।

प्रश्न-
(क) पाठ तथा लेखक का नाम लिखिए।
(ख) मनष्य को कब और क्यों नाखन की आवश्यकता थी
(ग) वज्र किसका हथियार था और वह कैसा था?
(घ) असुरों में अनेक विद्याएँ थीं फिर भी आर्यों से क्यों पराजित हुए ?
(ङ) अब भी प्रकृति मानव को क्या याद दिला देती है ?
(च) लेखक ने नख-दंतावलंबी जीव किसे कहा है ?
उत्तर-
(क) पाठ का नाम- नाखून क्यों बढ़ते हैं।
लेखक का नाम- हजारी प्रसाद द्विवेदी।
(ख) जब मनुष्य वनमानुष जैसा जंगली था तब उसे नाखून की आवश्यकता थी क्योंकि मानव नाखून की सहायता से जंगली जीवों से रक्षा करता था; भोजन उपलब्धि में जीवों को मारने में सहायता लेता था।
(ग) वज्र इन्द्र का हथियार था और वह दधीचि की हड्डियों से बना था।
(घ) असुरों के पास अनेक विधाएँ थीं, पर लोहे के अस्त्र नहीं थे। शायद घोड़े भी नहीं थे। आर्यों के पास ये दोनों चीजें थीं इसी कारण आर्य विजयी हुए और असुर पराजित।।
(ङ) मानव को प्रकृति अब भी याद दिला देती है कि तुम्हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम्हारे अन्दर अब भी पशुता विद्यमान है।
(च) मनुष्य को।

2. मानव शरीर का अध्ययन करनेवाले प्राणिविज्ञानियों का निश्चित मत है कि मानव-चित्तं . – की भाँति मानव शरीर में बहुत-सी अभ्यास-जन्य सहज वृत्तियाँ रह गई हैं। दीर्घकाल तक उनकी आवश्यकता रही है। अतएव शरीर ने अपने भीतर एक ऐसा गुण पैदा कर लिया है कि वे वृत्तियाँ अनायास ही, और शरीर के अनजाने में भी, अपने-आप काम करती हैं। नाखून का बढ़ना उसमें से एक है, केश का बढ़ना दूसरा, दाँत का दुबारा उठना तीसरा है, पलकों का गिरना चौथा है। और असल में सहजात वृत्तियाँ अनजान स्मृतियों को ही कहते हैं।

हमारी भाषा में इसके उदाहरण मिलते हैं। अगर आदमी अपने शरीर की, मन की और वाक् की अनायास घटने वाली वृत्तियों के विषय में विचार करे, तो उसे अपनी वास्तविक प्रवृत्ति पहचानने में बहुत सहायता मिले। पर कौन सोचता है ? सोचना तो क्या उसे इतना भी पता नहीं चलता कि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है।

उनहें काटने की जो प्रवृत्ति हैं, वह उसकी मनुष्यता की निशानी है और यद्यपि पशुत्व के चिह्न उसके भीतर रह गए हैं, पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है। पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसे कोई और रास्ता खोजना चाहिए। अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है।

प्रश्न-
(क) पाठ तथा लेखक का नाम लिखिए।
(ख) प्राणि विज्ञानियों का वृत्तियों के बारे में क्या मत है ?
(ग) लेखक का नख बढ़ाने की प्रवृत्ति से क्या अभिप्राय है?
(घ) मानव शरीर में विद्यमान सहजात वृत्तियाँ क्या-क्या हैं ?
(ङ) नख काटने की प्रवृत्ति किसकी निशानी है?
(च) कौन-सी प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है ?
(छ) मनुष्य को अपनी वास्तविक प्रवृत्ति पहचानने में क्या मददगार होगा?
उत्तर-
(क) पाठ का नाम- नाखून क्यों बढ़ते हैं।
लेखक का नाम- हजारी प्रसाद द्विवेदी।
(ख) प्राणी विज्ञानियों का निश्चित मत है कि मानव-चित्त की भाँति शरीर में भी बहुत-सी अभ्यासजन्य सहज वृत्तियाँ विद्यमान हैं। ,
(ग) लेखक नख बढ़ाने की प्रवृत्ति को मानव में अंतर्निहित पशुत्व का प्रमाण मानते हैं।
(घ) नाखून का बढ़ना, केश का बढ़ना, पलकों का गिरना, दाँत का दुबारा उठना इत्यादि मानव शरीर में विद्यमान सहजात वृत्तियाँ हैं।
(ङ) नख काटने की प्रवृत्ति मनुष्यता की निशानी है।
(च) अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है।
(छ) अगर मनुष्य अपने शरीर की; मन की और वाणी की अनायास घटनेवाली वृत्तियों के विषय में विचार करे, तो उसे अपनी वास्तविक प्रवृत्ति पहचानने में बहुत सहायता मिले।

3. सोचना तो. क्या उसे इतना भी पता नहीं चलता कि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है। उन्हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसकी मनुष्यता । की निशानी है और यद्यपि पशुत्व के चिह्न उसके भीतर रह गए हैं, पर वह पशुत्व को छोड़ चुका है। पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसे कोई और रास्ता खोजना चाहिए। अस्त्र बढ़ाने – की प्रवृत्ति मनुष्यता की क्रोिधिनी है।

प्रश्न-
(क) प्राणीविज्ञानी के अनुसार मानव की सहजात वृत्ति क्या है?
(ख) मनुष्यता की विरोधिनी क्या है?
(ग) नाखून बढ़ना और नाखून काटना किसकी निशानी है ?
(घ). ‘पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता’-स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(क) प्राणीविज्ञानी के अनुसार मानव की सहजात वृत्ति नाखून बढ़ाना है।
(ख) अस्त्र-शस्त्र जमा करना मनुष्यता की विरोधिनी है।
(ग) प्राणीविज्ञानी के अनुसार नाखून बढ़ाना मानव की सहजात वृत्ति है। यदि मनुष्य नाखून काटता है तो काटने की प्रवृत्ति मनुष्यता की निशानी है।
(घ) आदिकाल में मनुष्य को हिंसक होने की जरूरत थी इसलिए उसके बार-बार नाखून उग आए परन्तु आज मनुष्य सभ्य हो चुका है। वह हिंसा की भावना को नष्ट कर देना चाहता है क्योंकि उसे पता है कि वह हिंसा या पशुता के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता। उसे कोई और रास्ता खोजना चाहिए। उसे यह भी ज्ञान है कि अस्त्र-शस्त्र जमा करना मानवता का विरोध करना है।

4. हमारी परंपरा महिमामकी, उत्तराधिकार विपुल और संस्कार उज्ज्वल हैं। हमारे अनजाने में भी ये बातें एक खास दिशा में सोचने की प्रेरणा देती हैं। यह जरूर है कि परिस्थितियों बदल गई हैं। उपकरण नए हो गए हैं और उलझनों की मात्रा भी बहुत बढ़ गई है, पर मूल समस्याएं बहुत अधिक नहीं बदली हैं। भारतीय चित्त जो आज भी अधीनता’ के रूप में न सोचकर ‘स्वाधीनता’ के रूप में सोचता है, वह हमारे दीर्घकालीन संस्कारों का फल है। वह ‘स्व’ के बंधन को आसानी से छोड़ नहीं सकता। अपने-आप पर अपने-आप के द्वारा लगाया हुआ बंधन हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता है।

प्रश्न
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) हमारी परम्परा कैसी है?
(ग) भारतीय चित्त में ‘स्व’ का भाव किसका प्रतिफल है?
(घ) गद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर-
(क) पाठ- नाखून क्यों बढ़ते हैं।लेखक- हजारी प्रसाद द्विवेदी।।
(ख) हमारी भारतीय परम्परा महिमामयी, उत्तराधिकार विपुल और संस्कार उज्ज्वल हैं। यह . हमारे अनजाने में ही एक खास दिशा में सोचने की प्रेरणा देती है।
(ग) भारतीय चित्त में ‘स्व’ का भाव हमारे दीर्घकालीन संस्कारों का फल है।
(घ) हमारी महिमामयी परंपरा और उज्ज्वल संस्कार ही एक खास दिशा में सोचने की प्रेरणा देते हैं। परिस्थितियों भले बदल गई हैं, पर समस्याएं बदली नहीं हैं। हमारे मानस में ‘स्व’ का जो भाव है, जो आत्म-बंधन की स्वीकृति है, वह दीर्घकालीन संस्कारों का फल है।

5. जातियाँ इस देश में अनेक आई हैं। लड़ती-झगड़ती भी रही हैं, फिर प्रेमपूर्वक बस भी गई हैं। सभ्यता की नाना सीढ़ियों पर खड़ी और नाना और मुख करके चलनेवाली इन जातियों के लिए सामान्य धर्म खोज निकालना कोई सहज बात नहीं थी।

भारतवर्ष के ऋषियों ने अनेक प्रकार से इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की थी। पर एक बात उन्होंने लक्ष्य की थी। समस्त वर्णों और समस्त जातियों का एक सामान्य आदर्श भी है। वह है अपने ही बंधनों से अपने को बाँधना। मनुष्य पशु से किस बात से भिन्न है। आहार-निद्रा आदि पशु-सुलभ स्वभाव उसके ठीक वैसे ही हैं, जैसे अन्य प्राणियों के। लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्न हैं।

उसमें संयम है, दूसरे के सुख-दुख के प्रति संवेदना है, श्रद्धा है, तप है, त्याग है। वह मनुष्य के स्वयं के उद्भावित बंधन हैं। इसीलिए मनुष्य झगड़े-टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़-दौड़ने-वाले अविवेकी को बुरा समझता है और वचन, मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है। यह किसी भी जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। यह मनुष्यमात्र का धर्म है। महाभारत में इसीलिए निर्वैर भाव, सत्य और अक्रोध को सब वर्गों का सामान्य धर्म कहा है
प्रश्न-
(क) मनुष्य को संयमित करनेवाला कौन-सा बंधन है ?
(ख) मनुष्य किन गुणों के कारण पशुओं से भिन्न माना जाता है ?
(ग)लेखक ने ‘स्वाधीनता’ को भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा गुण क्यों माना है ?
(घ) गलत आचरण किसे माना गया है ?
उत्तर-
(क) मनुष्य को संयमित करनेवाला बंधन ‘स्व’ है। मनुष्य इस बंधन को स्वयं ही स्वीकार करता है। यही हमारी संस्कृति की विशेषता है।
(ख) लेखक के अनुसार आहार, निद्रा आदि पशुओं जैसी आदतें मनुष्य की भी है परन्तु
संयम, तप, त्याग, सुख-दुख के प्रति संवेदना आदि गुण उसे पशुओं से भिन्न बनाते हैं।
(ग) ‘स्वाधीनता’ का अर्थ है अपने ऊपर लगाया गया बंधन। अपने पर अपने द्वारा रोक लगाना भारतीय परंपरा है। मन में क्रोध आना पशुता की निशानी है परन्तु विवेक द्वारा संयमित करना मनुष्यता है।
(घ) वचन, मन और शरीर से किये गये असत्याचरण को गलत आचरण माना गया है।

6. मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े-बड़े नेता कहते हैं, वस्तुओं की कमी है, और मशीन बैठाओ, और उत्पादन बढ़ाओ, और धन की वृद्धि करो और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक बूढा था। उसने कहा था–बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो; आत्म-तोषण की बात सोचो, काम करने की बात सोचो।

उसने कहा-प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छृखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य का स्वभाव है। बूढ़े की बात अच्छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई। आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई। मैं हैरान होकर सोचता हूँ बूढ़े ने कितनी गहराई में पैठकर मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता का पता लगाया था।

प्रश्न-
(क) बड़े-बड़े नेताओं ने क्या कहा है ?
(ख) बूढ़ा कौन था? उसने क्या-क्या करने की सीख दी है ?
(ग) “एक बूढ़ा था”-लेखक ने किस बूढ़े की ओर संकेत किया है ?
(घ) लेखक हैरान होकर क्यों सोचता है ?
उत्तर-
(क) बड़े-बड़े नेताओं ने मशीन बैठाने, उत्पादन बढ़ाने, धन की वृद्धि करने और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाने को कहा है।
(ख) बूढ़ा सत्य और अहिंसा का पुजारी था। यहाँ उसने बाहर नहीं, भीतर की ओर देखने, हिंसा को मन से दूर करने, मिथ्या को हटाने, क्रोध और द्वेष को दूर करने, लोक के लिए कष्ट सहने, प्रेम.की बात सोचने, उच्छृखलता को छोड़कर ‘स्व’ को अपनाने की सीख दी है।
(ग) ‘एक बूढ़ा था’-वाक्यांश में लेखक ने महात्मा गाँधी की ओर संकेत किया है।
(घ) बूढ़े द्वारा अच्छी बातें समझाने पर भी उसे गोली मारी गई। पशुता. या हिंसा को जितनी बार भी समाप्त करने का प्रयास किया जाता है, वह बढ़ती जाती है। वास्तविक चरितार्थता का पाठ पढ़ानेवाला भी गोली का ही शिकार हुआ। लोगों की ऐसी पशुवृत्ति को देखकर लेखक हैरान हो जाता है।

7. सफलता और चरितार्थता में अंतर है। मनुष्य मरणास्त्रों के संचयन से, बाह्य उपकरणों के बाहुल्य से उस वस्तु को पा भी सकता है, जिसे उसने बड़े आडंबर के साथ सफलता नाम दे रखा है। परंतु मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए नि:शेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना वाहती है, उसको काट देना उस ‘स्व-निर्धारित आत्म-बंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है।

प्रश्न-
(क) मनुष्य की चरितार्थता किसमें है?
(ख) मनुष्य ने सफलता का नाम किसे दे रखा है ?
(ग) नाखूनों का बढ़ना और नाखूनों का कटना किस चीज का परिचायक है ?
(घ) सफलता और चरितार्थता में क्या अन्तर है?
उत्तर-
(क) मनुष्य की चरितार्थता आपसी प्रेम, मित्रता और त्याग पर निर्भर करती है वास्तव में उसी का जीवन सफल है. जो दूसरे की भलाई के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दे।
(ख) मनुष्य मरणास्त्रों के संचयन से बाह्य उपकरणों के बाहुल्य से उस वस्तु में भी पा सकता है, जिसे उसने बड़े आडंबर के साथ अर्जित किया है। इसी रूप को मनुष्य ने सफलता का नाम दे रखा है।
(ग) नाखूनों का बढ़ना उस हिंसा का परिणाम है जिसके सहारे वह सफलता पाना चाहता है। दूसरी ओर नाखूनों को काटना आत्म-निर्धारित बंधन का फल है। मनुष्य को अपने बनाए गए बंधनों में ही बंधकर रहना चाहिए तभी मनुष्य-जीवन सफल है।
(घ) अपने बंधन में बंधकर जीवनयापन करना ही सफलता हैं जबकि चरितार्थता आपसी प्रेम, मित्रता और त्याग पर निर्भर करती है। परहित के लिए सर्वस्व अर्पित कर देना ही चरित्रार्थता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्व

सही विकल्प चुनें-

प्रश्न 1.
‘नाखून क्यों बढ़ते हैं किस प्रकार का निबंध है?
(क) ललित
(ख) भावात्मक
(ग) विवेचनात्मक
(घ) विवरणात्मक
उत्तर-
(क) ललित

प्रश्न 2.
हजारी प्रसाद द्विवेदी किस निबंध के रचयिता हैं ?
(क) नागरी लिपि
(ख) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ग) परंपरा का मूल्यांकन
(घ) शिक्षा और संस्कृति
उत्तर-
(ख) नाखून क्यों बढ़ते हैं

प्रश्न 3.
अल्पज्ञ पिता कैसा जीव होता है ?
(क) दयनीय
(ख) बहादुर
(ग) अल्पभाषी
(घ) मृदुभाषी
उत्तर-
(क) दयनीय

प्रश्न 4.
दधीचि की हड्डी से क्या बना था?
(क) तलवार
(ख) त्रिशूल
(ग) इन्द्र का वज्र
(घ) कुछ भी नहीं
उत्तर-
(ग) इन्द्र का वज्र

प्रश्न 5.
‘कामसूत्र’ किसकी रचना है ?
(क) वात्स्यायन
(ख) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) भीमराव अंबेदकर
(घ) गुणाकर मूले
उत्तर-
(क) वात्स्यायन

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति

प्रश्न 1.
हर……..”दिन नाखून बढ़ जाते हैं।
उत्तर-तीसरे

प्रश्न 2.
सहजात वृत्तियाँ……”स्मृतियों को कहते हैं।
उत्तर-
अनजान

प्रश्न 3.
अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति………..विरोधी है।
उत्तर-
मनुष्यता

प्रश्न 4.
“इण्डिपेण्डेन्स’ का अर्थ है…………..।
उत्तर-
अनधीनता

प्रश्न 5.
‘स्व’ का बंधन ……….. का स्वभाव है।
उत्तर-
मनुष्य

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
जंगली मनुष्य को नाखून की जरूरत क्यों थी ?
उत्तर-
उसकी (जंगली मनुष्य) जीवन-रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी था।

प्रश्न 2.
मनुष्य का नाखून बढ़ना किस वृत्ति का परिचायक है ?
उत्तर-
नाखून बढ़ना मनुष्य की पाशविक वृत्ति का परिचायक है।

प्रश्न 3.
हड्डी के हथियारों में सबसे मजबूत हथियार किसकी हड्डी से बना था?
उत्तर-
हड्डी के हथियारों में सबसे मजबूत हथियार दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था।

प्रश्न 4.
हिरोशिमा का हत्याकांड किसका जीवंत प्रतीक है ?
उत्तर-
हिरोशिमा का हत्याकांड मनुष्य की भयंकर पाशविक वृत्ति का जीवंत प्रतीक है।

प्रश्न 5.
भारतीय संस्कृति की क्या विशेषता है. ?
उत्तर-
भारतीय संस्कृति की विशेषता है अपने-आप पर अपने-आप लगाया हुआ बंधना

प्रश्न 6.
भले और मूढ़ लोगों में क्या अन्तर है ? .
उत्तर-
भले लोग अच्छे-बुरे की जाँच कर हितकर को ग्रहण करते हैं और मूढ़ लोग दूसरों के इशारों पर भटकते रहते हैं।

प्रश्न 7.
महाभारत में सामान्य धर्म किसे कहा गया है?
उत्तर-
महाभारत में निर्वैर भाव, सत्य और क्रोधहीनता को सामान्य धर्म कहा गया है।

प्रश्न 8.
मनुष्य का स्वधर्म क्या है ?
उत्तर-
अपने आप पर संयम और दूसरे के मनोभावों का समादर करना मनुष्य का स्वधर्म है।

नाखून क्यों बढ़ते हैं लेखक परिचय

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म सन् 1907 ई० में आरत दुबे का छपरा, बलिया (उत्तर । प्रदेश) में हुआ । द्विवेदी जी का साहित्य कर्म भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास की रचनात्मक परिणति है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बांग्ला आदि भाषाओं व उनके साहित्य के साथ इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की व्यापकता व गहनता में पैठकर उनका अगाध पांडित्य नवीन मानवतावादी सर्जना और आलोचना की क्षमता लेकर प्रकट हुआ है। वे ज्ञान को बोध और पांडित्य की सहृदयता में दाल कर एक ऐसा रचना संसार हमारे सामने उपस्थित करते हैं जो विचार की तेजस्विता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का संगम है । इस प्रकार उनमें एकसाथ कबीर, तुलसी और रवींद्रनाथ एकाकार हो उठते हैं। उनकी सांस्कृतिक दृष्टि अपूर्व है। उनके अनुसार भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि समय-समय पर उपस्थित अनेक जातियों के श्रेष्ठ साधनांशों के लवण-नीर संयोग से विकसित हुई हैं।

द्विवेदीजी की प्रमुख रचनाएँ हैं – ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’, ‘विचार और वितर्क’, ‘कुटज’,’विचार-प्रवाह’, ‘आलोक पर्व’, ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद’ (निबंध संग्रह); ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचंद्रलेख’, ‘पुनर्नवा’, ‘अनामदास का पोथा’ (उपन्यास); ‘सूर साहित्य’, ‘कबीर’, ‘मध्यकालीन बोध का स्वरूप’, ‘नाथ संप्रदाय’, ‘कालिदास की लालित्य योजना’, ‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ (आलोचना-साहित्येतिहास); ‘संदेशरासक’, ‘पृथ्वीराजरासो’, ‘नाथ-सिद्धों की बानियाँ'(ग्रंथ संपादन): ‘विश्व भारती’ (शांति निकेतन) पत्रिका का संपादन । द्विवेदीजी को आलोकपर्व’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’ सम्मान एवं लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा डी० लिट् की उपाधि मिली । वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय, शांति निकेतन विश्वविद्यालय, . चंडीगढ़ विश्वविद्यालय आदि में प्रोफेसर एवं प्रशासनिक पदों पर रहे । सन् 1979 में दिल्ली में उनका निधन हुआ।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली से लिए गए प्रस्तुत निबंध में प्रख्यात लेखक और निबंधकार का मानववादी दृष्टिकोण प्रकट होता है । इस ललित निबंध में लेखक ने बार-बार काटे जाने पर भी बढ़ जाने वाले नाखूनों के बहाने अत्यंत सहज शैली में सभ्यता और संस्कृति की विकाम-गाथा उद्घाटित कर दिखायी है। एक ओर नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की आदिम पाशविक वृत्ति और संघर्ष चेतना का प्रमाण है तो दूसरी ओर उन्हें बार-बार काटते रहना और अलंकृत करते रहना मनुष्य के सौंदर्यबोध और सांस्कृतिक चेतना को भी निरूपित करता है । लेखक ने नाखूनों के बहाने मनोरंजक शैली में मानव-सत्य का दिग्दर्शन कराने का सफल प्रयत्न किया है। यह निबंध नई पीढ़ी में सौंदर्यबोध, इतिहास चेतना और सांस्कृतिक आत्मगौरव का भाव जगाता है।

नाखून क्यों बढ़ते हैं Summary in Hindi

पाठ का सारांश

बच्चे कभी-कभी चक्कर में डाल देने वाले प्रश्न कर बैठते हैं। मेरी छोटी लड़की ने जब उस दिन पूछ.दिया कि आदमी के नाखून क्यों बढ़ते हैं, तो मैं सोच में पड़ गया, हर तीसरे दिन नाखून बढ़ जाते हैं, बच्चे कुछ दिन तक अगर उन्हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अकसर उन्हें डाँटा करते हैं। पर कोई नहीं जानता कि ये अभागे नाखन क्यों इस प्रकार बढ़ा करते हैं। काट दीजिए वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे पर निर्लज्ज अपराधी की भांति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर।

कुछ लाख ही वर्षों की बात है, जब मनुष्य जंगली था; वनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन-रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्त्र थे। दाँत भी थे पर नाखून के बाद ही उनका स्थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंदियों को पछाड़ना पड़ता था, नाखून उसके लिए आवश्यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्तुओं का सहारा लेने लगा। पत्थर के ढेले और पेंड की डालें काम में लाने लगा। उसने हड्डियों के भी हथियार बनाये। मनुष्यं और आगे बढ़ा। उसने धातु के हथियार बनाए। पलीतेवाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़ भरे घाट पर घसीटा है, यह सबको मालूम है। नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरोसा करके आगे की ओर चल पड़ा है। पर उसके नाखून अब भी बढ़ रहे थे।

कुछ हजार साल पहले मनुष्य ने नाखून को सुकुमार विनोदों के लिए उपयोग में लाना शुरू किया था। वात्स्यायन के कामसूत्र से पता चलता है कि आज से दो हजार वर्ष पहले का भारतवासी नाखूनों को जम के संवारता था। उनके काटने की कला काफी मनोरंजक बताई गई है। त्रिकोण, वर्तुलाकार, चंद्राकार दंतुल आदि विविध आकृतियों के नाखून उन दिनों विलासी नागरिकों के न. जाने किस काम आया करते थे। उनको सिक्थक (मोम) और अलंक्तक (आलता) से यत्नपूर्वक रगड़कर लाल और चिकना बनाया जाता था। गौड़ देश के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को , पसंद करते थे और दक्षिणात्य लोग छोटे नखों को। लेकिन समस्त अधोगामिनी वृत्तियों को और नीचे खींचनेवाली वस्तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्योचित बनाया है, यह बात चाहूँ भी तो भूल नहीं सकता।

15 अगस्त को जब अंगरेजी भाषा के पत्र ‘इण्डिपेण्डेन्स की घोषणा कर रहे थे, देशी भाषा के पत्र ‘स्वाधीनता दिवस की चर्चा कर रहे थे। इण्डिपेण्डेन्स का अर्थ है स्वाधीनता ‘शब्द का – अर्थ है अपने ही अधीन’ रहना। उसने अपने आजादी के जितने भी नामकरण किए, स्वतंत्रता, स्वराज्य, स्वाधीनता-उन सबमें ‘स्व’ का बंधन अवश्य रखा। अपने-आप पर अपने-आप के द्वारा लगाया हुआ बंधन हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता है।

मनुष्य झगड़े-डंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़-दौड़ने वाले अविवेकी को बुरा समझता है और वचन, मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है। यह किसी भी जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। यह मनुष्यमात्र का धर्म है। महाभारत में इसीलिए निर्वैर भाव, सत्य और अक्रोध को सब वर्गों का सामान्य धर्म कहा है –
एतद्धि विततं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत!
निर्वैरता महाराज सत्यमक्रोध एव च।

अन्यत्र इसमें निरंतर दानशीलता को भी गिनाया गया है। गौतम ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य – की मनुष्यता यही है कि वह सबके दुःख-सुख को सहानुभूति के साथ देखता है।

ऐसा कोई दिन आ सकता है, जबकि मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाएगा। प्राणिशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि मनुष्य का अनावश्यक अंग उसी प्रकार झड़ जाएगा, जिस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गई है। उस दिन मनुष्य की पशुता भी लुप्त हो जाएगी। शायद उस दिन वह मारणास्त्रों का प्रयोग भी बंद कर देगा। .

नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस ‘स्व’-निर्धारित आत्म-बंधन का पुल है, जो .. उसे चरितार्थता की ओर ले जाती है। कमबख्त नाखून बढ़ते हैं तो बढ़े, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।

शब्दार्थ

अल्पज्ञ : कम जाननेवाला
दयनीय : दया करने योग्य
बेहया : बिना हया के, निर्लज्ज, वेशर्म
प्रतिद्वंद्वी : विरोधी
नखधर : नख को धारण करनेवाला, नाखून वाला
दंतावलंबी : दाँत का सहारा लेकर जीने वाला
विचरण : घूमना, भटकना
तत:किम : फिर क्या, इसके बाद क्या
असह्य : न सह सकने योग्य
पाशवी वृत्ति : पशु जैसा स्वभाव एवं आचरण
वर्तुलाकार : घुमावदार, गोलाकार
दंतुल : दाँत वाला, जिसके दाँत बाहर निकले हों
दाक्षिणात्य : दक्षिण का (दक्षिण भारतीय)
अभोगामिनी : नीचे की ओर जानेवाली
सहजात वत्ति : जन्म के साथ पैदा होने वाली वृत्ति या स्वभाव
वाक : वाणी, भाषा
निर्बोध : नासमझ, नादान
अनुवर्तिता.: पीछे-पीछे चलना
अरक्षित : जो रक्षित न हो, खुला
अनुसैधित्सा : अनुसंधान की प्रबल इच्छा
सरबस : सर्वस्व, सबकुछ
पर्वसंचित : पहले से इकट्ठा या जमा किया हुआ
समवेदना : दूसरे के दुख को महसूस करना
उद्भावित : प्रकट की गयी, उत्पन्न की गयी
असत्याचरण : असत्य आचरण, लोकविरुद्ध आचरण
निर्वैर : बिना वैर-विरोध के
उत्स : स्रोत, उद्गम, मूल
आत्मतोषण : अपने को संतुष्ट करना, अपने को समझाना ।
चरितार्थता : सार्थकता
नि:शेष : जिसका शेष भी न बचे. सम्पर्ण
तकाजा : माँग


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