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Friday, June 24, 2022

BSEB Class 10 Social Science Political Science Chapter 1 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 10th Social Science Political Science Chapter 1 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Book Answers

BSEB Class 10 Social Science Political Science Chapter 1 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 10th Social Science Political Science Chapter 1 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Book Answers
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Bihar Board Class 10th Social Science Political Science Chapter 1 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
Format DOC/PDF
Class 10th
Subject Social Science Political Science Chapter 1 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी
Chapters All
Provider Hsslive


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Bihar Board Class 10 Political Science लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Text Book Questions and Answers

Class 10 Social Science Bihar Board प्रश्न 1.
‘हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती’। कैसे?
उत्तर-
प्रत्येक समाज में सामाजिक विभिन्नता पायी जाती है। समाज में विभिन्न धर्म, जाति, भाषा, समुदाय, लिंग इत्यादि के लोग रहते हैं जो सामाजिक विभिन्नता का सूचक है। यह आवश्यक नहीं है कि ये राजनीतिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का आधार हो, क्योंकि भिन्न समुदाय के विचार भिन्न हो सकते हैं, लेकिन हित समान होगा। उदाहरण के लिए मुम्बई में मराठियों की हिंसा का शिकार व्यक्तियसों की जातियाँ भिन्न थीं, धर्म भिन्न थे और लिंग भी भिन्न हो सकता है, परन्तु उनका क्षेत्र एक ही था। वे सभी एक ही क्षेत्र विशेष के उत्तर भारतीय थे। उनका हित समान था। वे सभी अपने व्यवसाय और पेशा में संलग्न थे। उपर्युक्त कथनों के अध्ययन करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जायेगा कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं ले पाती है।

Bihar Board Class 10th Social Science Solution प्रश्न 2.
सामाजिक अन्तर कब और कैसे सामाजिक विभाजनों का रूप ले लेते हैं?
उत्तर-
सामाजिक अन्तर एवं सामाजिक विभाजन में बहुत बड़ा अन्तर पाया जाता है। सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अन्तर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं। सवर्णों और दलितों का अन्तर एक सामाजिक विभाजन है, क्योंकि दलित सम्पूर्ण देश में आमतौर पर गरीब, वंचित एवं बेघर हैं और भेदभाव के शिकार हैं जबकि सवर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं। अर्थात् दलितों को महसूस होने लगता है कि वे दूसरे समुदाय के हैं। अतः हम कह सकते हैं कि जब एक तरह का सामाजिक अन्तर अन्य अन्तरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसूस होने लगता है कि वे दूसरे समुदाय के हैं तो इससे सामाजिक विभाजन की स्थिति पैदा होती है। जैसे- अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अन्तर सामाजिक विभाजन है। वास्तव में उपर्युक्त कथनों के अध्ययन के बाद यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक अन्तर उस समय सामाजिक विभाजन बन जाता है जब अन्य अन्तरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है।

Bihar Board Class 10 Social Science Notes प्रश्न 3.
‘सामाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणामस्वरूप ही लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता है। भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में इसे स्पष्ट करें।
उत्तर-
सामाजिक विभाजन दुनिया के अधिकतर देशों में किसी-न-किसी रूप में मौजूद है और यह विभाजन राजनीतिक रूप अख्तियार करती ही है। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के लिए सामाजिक विभाजनों की बात करना और विभिन्न समूहों से अलग-अलग वायदे करना स्वाभाविक बात है। हमारे देश भारत में लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था पायी जाती है। जनता अपने प्रतिनिधियों को मतदान के माध्यम से चुनकर देश की संसद या राज्य की विधानसभाओं में भेजती है।

भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन का असर देश की राजनीति पर बहुत हद तक पड़ता है। साथ ही सरकार की नीतियाँ भी प्रभावित होती हैं। अगर भारत में पिछड़ों एवं दलितों के प्रति न्याय की मांग को सरकार शुरू से खारिज करती रहती है तो आज भारत विखंडन के कगार पर होता। लोकतंत्र में सामाजिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति एक सामान्य बात है और यह एक स्वस्थ राजनीतिक का लक्षण भी है। राजनीति में विभिन्न तरह के सामाजिक विभाजन की अभिव्यक्ति ऐसे विभाजनों की बीच संतुलन पैदा करने का भी काम रहती है। परिणामतः कोई भी सामाजिक विभाजन एक हद से ज्यादा उग्र नहीं हो पाता और यह प्रवृत्ति लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायक भी होता है। लोग शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीक से अपनी मांगों को उठाते हैं और चुनावों के माध्यम से उनके लिए दबाव बनाते हैं। उनका समाधान पाने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक विभाजन की राजनीति के फलस्वरूप भारतीय लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता है।

Bihar Bord Solution.Com Class 10 प्रश्न 4.
सत्तर के दशक से आधुनिक दशक के बीच भारतीय लोकतंत्र का सफर (सामाजिक न्याय के संदर्भ में) का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर-
सत्तर के दशक के पहले भारत की राजनीति सवर्ण सुविधापरस्त हित समूहों के हाथों में थी। अर्थात् 1967 तक भारतीय राजनीति में सवर्ण जातियों का वर्चस्व रहना। सत्तर से नब्बे तक के दशक के बीच सवर्ण और मध्यम पिछड़े के उपरान्त पिछड़ी जातियों का वर्चस्व तथा तथा दलितों की जागृति की अवधारणाएँ राजनीतिक गलियारों में उपस्थित दर्ज कराती रहीं और नीतियों को प्रभावित करती रहीं। भारतीय राजनीति के इस महामंथन में पिछड़े और दलितों का संघर्ष प्रभावी रहा। आधुनिक दशक के वर्षों में राजनीति का पलड़ा दलितों और महादलितों (बिहार के संदर्भ में) के पक्ष में झकता दिखाई दे रहा है। सरकार की नीतियों के सभी परिदृश्यों में दलित न्याय की पहचान सबके केन्द्र-बिन्दु का विषय बन गया है।

प्रश्न 5.
सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम किन-किन चीजों पर निर्भर करता है?
उत्तर-
सामाजिक विभाजन की राजनीति तीन तत्वों पर निर्भर करती है जो निम्नलिखित हैं

1. लोग अपनी पहचान स्व. अस्तित्व तक ही सीमित रखना चाहते हैं, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा उप-राष्ट्रीय या स्थानीय चेतना भी होती है। कोई एक घटना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है। भारत के संदर्भ में कहा जा सकता है कि जबतक बंगाल बंगालियों का, तमिलनाडु तमिलों का, महाराष्ट्र मराठियों का, आसाम असमियों का, गुजरात गुजरातियों की भावना का दमन नहीं होगा तबतक भारत की अखण्डता, एकता तथा सामंजस्य खतरा में रहेगा। अतएव उचित यही है कि पहचान के लिए सभी चेतनाएँ अपनी-अपनी मर्यादा में रहें और एक दूसरे की सीमा में दखल न दें. सरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि अगर लोग अपने बहु-स्तरीय पहचान को राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा मानते हैं तो कोई समस्या नहीं हो सकती। उदाहरण स्वरूप-बेल्जियम के अधिकतर लोग खुद को बेल्जियाई (Belgian) ही मानते हैं, भले ही वे डच और जर्मन बोलते हैं। हमारे देश में भी ज्यादातर लोग अपनी पहचान को लेकर ऐसा ही नजरिया रखते हैं। भारत विभिन्नताओं का देश है, फिर भी सभी नागरिक सर्वप्रथम अपने को भारतीय मानते हैं। तभी तो हमारा देश अखण्डता और एकता का प्रतीक है।

2. किसी समुदाय या क्षेत्र विशेष की मांगों को राजनीतिक दल कैसे उठा रहे हैं। संविधान ” के दायरे में आने वाली और दूसरे समुदायों को नुकसान न पहुँचाने वाली माँगों को मान लेना आसान ‘ है। सत्तर के दशक के पूर्व के राजनीतिक स्वरूप तथा अस्सी एवं नब्बे के दशक में राजनीति परिदृश्य में बदलाव हुआ और भारतीय समाज में सामंजस्य अभी तक बरकरार है। इसके विपरीत युगोस्लाविया में विभिन्न समुदाय के नेताओं ने अपने जातीय समूहों की तरफ से ऐसी माँगें रखीं कि जिन्हें एक देश की सीमा के अन्दर पूरा करना संभव न था। इसी के परिणामस्वरूप युगोस्लाविया कई टुकड़ों में बँट गया।

3. सामाजिक विभाजन के राजनीति का परिणाम सरकार के खर्च पर भी निर्भर करता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सरकार इन मांगों पर क्या प्रतिक्रियाएं व्यक्त करती हैं। अगर भारत में पिछड़ों एवं दलितों के प्रति न्याय की माँग को सरकार शुरू से ही खारिज रहती तो आज भारत बिखराव के कगार पर होता। लेकिन सरकार ने इनके सामाजिक न्याय को चिह्न मानते हुए सत्ता में साझेदार बनाया और उनको देश की मुख्य धारा में जोड़ने का ईमानदारी से प्रयास किया। फलतः छोटे संघर्ष के बावजूद भी भारतीय समाज में समरसत्ता और सामंजस्य स्थापित है। पुनः बेल्जियम में भी सभी समुदायों के हितों को सामुदायिक सरकार में उचित प्रतिनिधित्व दिया गया। परन्तु . श्रीलंका में राष्ट्रीय एकता के नाम पर तमिलों के न्यायपूर्ण माँगों को दबाया जा रहा है। ताकत के दम पर एकता बनाये रखने की कोशिश अकसर विभाजन की ओर ले जाती है।

प्रश्न 6.
सामाजिक विभाजनों को संभालने के संदर्भ में इनमें से कौन-सा बयान लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लागू नहीं होता?
(क) लोकतंत्र राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते सामाजिक विभाजनों की छाया (reflection) राजनीति पर भी पड़ता है।
(ख) लोकतंत्र में विभिन्न समुदायों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से अपनी शिकायतें जाहिर करना संभव है।
(ग) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों को हल (accomodate) करने का सबसे अच्छा तरीका है।
(घ) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों के आधार पर (on the basis of social division) समाज विखण्डन (disintegration) की ओर ले जाता है।
उत्तर-
(क) लोकतंत्र राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते सामाजिक विभाजनों की छाया (reflection) राजनीति पर भी पड़ता है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित तीन बयानों पर विचार करें
(क) जहाँ सामाजिक अन्तर एक दूसरे से टकराते हैं (Social differences overlaps), वहाँ सामाजिक विभाजन होता है।
(ख) यह संभव है एक व्यक्ति की कई पहचान (multiple indentities) हो।
(ग) सिर्फ भारत जैसे बड़े देशों में ही सामाजिक विभाजन होते हैं।

इन बयानों में स कौन-कौन से बयान सही हैं?
(अ) क, ख और ग
(ब) के और ख
(स) ख और ग
(द) सिर्फ ग
उत्तर-
(ब) के और ख

प्रश्न 8.
निम्नलिखित व्यक्तियों में कौन लोकतंत्र में रंगभेद के विरोधी नहीं थे?
(क) किग मार्टिन लूथर
(ख) महात्मा गांधी
(ग) ओलंपिक धावक टोमी स्मिथ एवं जॉन कॉलेंस
(घ) जेड गुडी
उत्तर-
(ग) ओलंपिक धावक टोमी स्मिथ एवं जॉन कॉलेंस

प्रश्न 9.
निम्नलिखित का मिलान करें
(क) पाकिस्तान
(अ) धर्मनिरपेक्ष
(ख) हिन्दुस्तान
(ब) इस्लाम
(ग) इंग्लैंड
(स) प्रोस्टेंट
उत्तर-
(क) (ब), (ख) (अ), (ग) (स)।

प्रश्न 10.
भावी समाज में लोकतंत्र की जिम्मेवारी और उद्देश्य पर एक अक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर-
वर्तमान में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था संसार के अधिकतर देश अपना रहे हैं, क्योंकि लोकतंत्र में लोगों के कल्याण की बातों को प्रमुखता दी जाती है आज लोकतंत्र अपनी जड़ें जमा .. चुका है और यह धीरे-धीरे परिपक्वता की ओर अग्रसर है।

लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था एक ऐसी शासन-व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनकर संसद या विधानसभा में भेजते हैं। यह लोगों के कल्याण, सामाजिक समानता, आर्थिक समानता तथा धार्मिक समानता इत्यादि का पक्षधर है। इसी शासनतंत्र के अन्तर्गत लोक-कल्याणकारी राज्य बनाया जा सकता है। इस शासन-व्यवस्था में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और वे प्रतिनिधि जनता की भलाई के लिए कार्य करते हैं।

वर्तमान समय में लोकतंत्र का क्रमिक विकास इस बात का सूचक है कि यह शासन-व्यवस्था औरों से अच्छी है लोकतंत्र एक ऐसा आधार प्रस्तुत करती है जिसमें लोगों के कल्याण के साथ-साथ समाज का विकास भी संभव है। यह भावी समय के लिए एक ऐसा आधार प्रस्तुत करती है जिसमें लोगों के कल्याण की भावना छुपी है। लोकतंत्र का दीर्घकालीन उद्देश्य है-एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना जिसमें आम लोग का विकास, आर्थिक समानता, धार्मिक. समानता एवं सामाजिक समानता निहित होती है। इस प्रकार लोकतंत्र भावी समाज के लिए जिम्मेवारीपूर्ण कार्य करता है।

प्रश्न 11.
भारत में किस तरह जातिगत असमानताएँ जारी हैं ?
उत्तर-
भारत में भिन्न जाति के लोग रहते हैं, चाहे वे किसी धर्म से संबंध रखते हों। यहाँ जातिगत विशेषताएँ पायी जाती हैं, क्योंकि भारत विविधताओं का देश है।
दुनिया भर के सभी समाज में सामाजिक असमानताएँ और श्रम विभाजन पर आधारित समुदाय विद्यमान है। भारत इससे अछूता नहीं है। भारत की तरह दूसरे देशों में भी पेशा का आधार वंशानुत है। पेशा एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में स्वयं ही चला आता है। पेशे पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति कहलाती है। यह व्यवस्था जब स्थायी हो जाती है तो श्रम विभाजन का अतिवादी रूप कहलाता है जिसे हम जाति के नाम से पुकारने लगते हैं। यह एक खास अर्थ में समाज में दूसरे समुदाय से भिन्न हो जाता है। इस प्रकार के वंशानुगत पेशा पर आधारित समुदाय जिसे हम जाति कहते हैं, की स्वीकृति ति-रिवाज से भी हो जाती है। इनकी पहचान एक अलग समुदाय के रूप में होती है और इस समुदा. के सभी व्यक्तियों की एक या मिलती-जुलती पेशा होती है। इनके बेटे-बेटियों को शादा-आपस के समुदाय में ही होती है और खान-पान भी समान समुदाय में ही होता है। अन्य समुदाय में इनके संतानों की शादी न तो हो सकती है, और न ही करने की कोशिश करते हैं। महत्वपूर्ण परिवारिक आयोजन और सामुदायिक आयोजन में अपने समुदाय के साथ एक पांत में बैठकर भोजन करते हैं। कहीं-कहीं तो ऐसा देखा गया है कि अगर एक समुदाय के बेटा या बेटी दूसरे समुदाय के बेटा या बेटी से शादी कर लेते हैं तो उसे. पांत से काट दिया जाता है। अपने समुदाय से हटकर दूसरे समुदाय में वैवाहिक संबंध बनाने वाले परिवार को समुदाय से निष्कासित भी कर दिया जाता है।

प्रश्न 12.
क्यों सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे तय नहीं हो सकते? इसके _ : दो कारण बतावें। .
उत्तर-
(i) किसी भी निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया गया है कि उसमें मात्र एक जाति के मतदाता रहें। ऐसा हो सकता है कि एक जाति के मतदाता की संख्या अधिक हो सकती है, परन्तु दूसरे जाति के मतदाता भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। अतएव हर पार्टी एक या एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा करना चाहता है।
(ii) अगर जातीय भावना स्थायी और अटूट होती तो जातीय गोलबंदी पर सत्ता में आनेवाली पार्टी की कभी हार नहीं होती है। यह माना जा सकता है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ जातीय गुटों से संबंध बनाकर.सत्ता में आ जाये, परन्तु अखिल भारतीय चेहरा पाने के लिए जाति विहीन, साम्प्रदायिकता के परे विचार रखना आवश्यक होगा।

प्रश्न 13.
विभिन्न तरह की साम्प्रदायिक राजनीति का ब्योरा दें और सबके साथ एक-एक उदाहरण दें।
उत्तर-
जब हम यह कहना आरंभ करते हैं कि धर्म ही समुदाय का निर्माण करता है तो साम्प्रदायिक राजनीति का जन्म होता है और इस अवधारणा पर आधारित सोच ही साम्प्रदायिकता कहलाती है। हम प्रत्येक दिन साम्प्रदायिकता की अभिव्यक्ति देखते हैं, महसूस करते हैं, यथा धार्मिक पूर्वाग्रह, परम्परागत धार्मिक अवधारणायें एवं एक धर्म को दूसरे धर्म से श्रेष्ठ मानने की मान्यताएँ।

साम्प्रदायिकता की सोच प्रायः अपने धार्मिक समुदाय की प्रमुख राजनीति में बरकरार रखना चाहती है। जो लोग बहुसंख्यक समुदाय के होते हैं उनकी यह कोशिश बहुसंख्यकवाद का रूप ले लेती है, उदाहरणार्थ श्रीलंका में सिंहलियों का बहुसंख्यकवाद। यहाँ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार ने भी सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए अपने बहुसंख्यकपरस्ती के तहत . कई कदम उठाये। यथा–1956 में सिंहली को एकमात्र राज्यभाषा के रूप में घोषित करना, विश्वविद्यालय और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देना, बौद्ध धर्म के संरक्षण हेतु कई कदम उठाना आदि। साम्प्रदायिकता के आधार पर राजनीति गोलबंदी साम्प्रदायिकता का दूसरा रूप है। इस हेतु पवित्र प्रतीकों; धर्मगुरुओं और भावनात्मक अपील आदि का सहारा लिया जाता है। निर्वाचन के वक्त हम अक्सर ऐसा देखते हैं। किसी खास धर्म के अनुयायियों से किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने की अपील करायी जाती है और अन्त में साम्प्रदायिकता का भयावह रूप तब हम देखते हैं, जब सम्प्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार होता है। : विभाजन के समय हमने इस त्रासदी को झेला है। आजादी के बाद भी कई जगहों पर बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा हुई है। उदाहरण-नोआखली में भयावह साम्प्रदायिक दंगे हुए।

प्रश्न 14.
जीवन के विभिन्न पहलुओं का जिक्र कर जिसमें भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव है या वे कमजोर स्थिति में हैं ?
उत्तर-
भारत एक विकासशील देश है। यहाँ स्त्रियों की स्थिति उतनी बेहतर नहीं है जितना एक विकसित देश में होती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले स्त्रियों की स्थिति बहुत ही विकट थी और आजादी के बाद स्त्रियों की स्थिति में बहुत थोड़ा बदलाव आया लेकिन वह काफी नहीं था। अगर वर्तमान परिदृश्य में देखा जाय तो भारत में स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ है, परन्तु उनके सुधार के लिए बहुत कुछ किया जाना शेष है।

भारत में समय-समय पर महिलाओं ने अपनी स्थिति को सुधारने के लिए या जागृति लाने के लिए समय-समय पर मान्दोलन किया। पुरुषों के बराबर दर्जा पाने के लिए गोलबंद होना आरंभ किया। सार्वजनिक बोवन के विभिन्न क्षेत्र पुरुष के कब्जे में है। यद्यपि मनुष्य जाति की आबादी में महिलाओं का हिस्सा आया है। आज महिलाएं वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक, कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षक इत्यादि पेशे में दिखाई पड़ती हैं, परन्तु हमारे देश में महिलाओं की तस्वीर अभी भी उतनी संतोषजनक नहीं है, अभी भी महिलाओं के साथ कई तरह के भेदभाव होते हैं। इस बात का संकेत निम्नलिखित तथ्यों से हमें प्राप्त होता है

  • महिलाओं में साक्षरता की दर अब भी मात्र 54% है जबकि पुरुष 76%। यद्यपि स्कूली शिक्षा में कई जगह लड़कियाँ अव्वल रही हैं, फिर भी उच्च शिक्षा प्राप्त करनेवाली लड़कियों का प्रतिशत बहुत ही कम है। इस संदर्भ के लिए माता-पिता के नजरिये में भी फर्क है। माता-पिता की मानसिकता बेटों पर अधिक खर्च करने की होती है। यही कारण है कि उच्च शिक्षा में लड़कियों की संख्या सीमित है।
  • शिक्षा में लड़कियों के इसी पिछड़ेपन के कारण अब भी ऊँची तनख्वाह वाली और ऊँचे पदों पर पहुँचनेवाली महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है।
  • यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार एक औरत औसतन रोजना साढ़े सात घंटे से ज्यादा काम करती है, जबकि एक पुरुष औसतन रोज छ: घंटे ही काम करता है। फिर भी पुरुषों द्वारा किया गया काम ही ज्यादा दिखाई पड़ता है क्योंकि उससे आमदनी होती है। हालांकि औरतें भी ढेर सारे ऐसे काम करती हैं जिनसे प्रत्यक्ष रूप से आमदनी होती है। लेकिन इनका ज्यादातर काम घर की चहारदीवारी के अन्दर होती है। इसके लिए उन्हें पैसे नहीं मिलते। इसलिए औरतों का काम दिखलाई नहीं देता।
  • लैंगिक पूर्वाग्रह का काला पक्ष बड़ा दुखदायी है, जब भारत के अनेक हिस्से में माँ-बाप को सिर्प लड़के की चाह होती है। लड़की जन्म लेने से पहले हत्या कर देने की प्रवृति इसी मानसिकता का परिणाम है।

उपर्युक्त तथ्यों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भारत में स्त्रियों की स्थिति कमजोर है, उनके साथ भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 15.
भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है ?
उत्तर-
भारत में महिला आन्दोलन की मुख्य मांगों में सत्ता में भागीदारी की मांग सर्वोपरि रही। औरतों ने यह सोचना प्रारंभ कर दिया कि जबतक औरतों का सत्ता पर नियंत्रण नहीं होगा, तबतक . इस समस्या का निपटारा नहीं होगा। परिणामस्वरूप राजनीतिक गलियचारों के इस बात की बहस … शुरू हो गयी कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने का सबसे बेहतर तरीका यह होगा कि चुने हुए प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी बढ़ायी जाये। यद्यपि भारत के लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 59 हो गयी है, फिर भी यह 11 प्रतिशत के नीचे है। पिछले लोकसभा चुनाव में 40% महिलाओं की पारिवारिक पृष्ठभूमि आपराधिक थी, परन्तु इस बार 15वीं लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने अपराधियों को नकार दिया। 90% महिला सांसद स्नातक हैं। महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ना लोकतंत्र के लिए शुभ है। अतः भारत की विधायिकाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों की तुलना में बहुत कम है।

प्रश्न 16.
किन्हीं दो प्रावधानों का जिक्र करें जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाते हैं
उत्तर-
हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं जिनमें दो इस प्रकार हैं

  • हमारे देश में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। . श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंगलैण्ड में ईसाई धर्म को जो दर्जा दिया गया ‘ है, उसके विपरीत भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
  • हमारे संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक घोषित है।

प्रश्न 17.
जब हम लगिक विभाजन की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय होता है
(क) स्त्री और पुरुष के बीच जैविक अन्तर।
(ख) समाज द्वारा स्त्रियों और पुरुषों को दी गयी असमान भूमिकाएँ।
(ग) बालक और बालिकाओं की संख्या का अनुपात।
(घ) लोकतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं को मतदान अधिकार न मिलना।
उत्तर-
(क) स्त्री और पुरुष के बीच जैविक अन्तर।

प्रश्न 18.
भारत में यहाँ औरतों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है-
(क) लोकसभा
(ख) विधानसभा
(ग) मंत्रीमण्डल
(घ) पंचायती राज्य संस्थाएँ
उत्तर-
(घ) पंचायती राज्य संस्थाएँ

प्रश्न 19.
साम्प्रदायिक राजनीतिक के अर्थ संबंधी निम्न कथनों पर गौर करें। साम्प्रदायिक राजनीति किस पर आधारित है?
(क) एक धर्म दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है।
(ख) विभिन्न धर्मों के लोग समान नागरिक के रूप में खुशी-खुशी साथ रहते हैं।
(ग) एक धर्म के अनुयायी एक समुदाय बनाते हैं।
(घ) एक धार्मिक समूह का प्रभुत्व बाकी सभी धर्मों पर कायम रहने में शासन की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
उत्तर-
(घ) एक धार्मिक समूह का प्रभुत्व बाकी सभी धर्मों पर कायम रहने में शासन की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 20.
भारतीय संविधान के बारे में इनमें से कौन-सा कथन सही है ?
(क) यह धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है।
(ख) यह एक धर्म को राजकीय धर्म बनाता है।
(ग) सभी लोगों को कोई भी धर्म मानने की आजादी देता है।
(घ) किसी धार्मिक समुदाय में सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है।
उत्तर-
(क) यह धर्म के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है।

प्रश्न 21.
……….पर आधारित विभाजन सिर्फ भारत में है।
उत्तर-
जाति, धर्म और लिंगा

प्रश्न 22.
सूची I और सूची II का मेल कराएं

उत्तर-
1. (ख), 2. (क), 3. (ग), 4. (ग)

Bihar Board Class 10 History लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Additional Important Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
संविधान के किस अनुच्छद में नागरिकों को स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है ?
(क) अनुच्छेद 15
(ख) अनुच्छेद 19
(ग) अनुच्छेद 18
(घ) अनुच्छेद 14
उत्तर-
(ख) अनुच्छेद 19

प्रश्न 2.
मैक्सिको ओलंपिक की घटना एक
(क) रंगभेद का
(ख) सांप्रदायिकता
(ग) जातिवाद का
(घ) आतंकवाद
उत्तर-
(क) रंगभेद का

प्रश्न 3.
देश को सामाजिक विभेद के कारण विखंडन का सामना करना पड़ा?
(क) श्रीलंका
(ख) बाल्जयम
(ग) यूगोस्लाविया
(घ) भारत
उत्तर-
(ग) यूगोस्लाविया

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में एक गलत बयान कौन-सा है ?
(क) लोकतंत्र में सामाजिक विभेद का राजनीति पर अवश्य प्रभाव पड़ता है।
(ख) लोकतंत्र सामाजिक विभेद के आधार पर देश को विखंडित करने में सहायक होता है।
(ग) लोकतंत्र को सामाजिक विभेद से उत्पन्न समस्याओं को हल ढूँढने का सबसे अच्छा तरीका माना जाता है।
(घ) लोकतंत्र में विभिन्न समुदाय अपनी मांगों को शांतिपूर्ण तरीके से शासन के सामने उपस्थित कर सकते हैं।
उत्तर-
(ख) लोकतंत्र सामाजिक विभेद के आधार पर देश को विखंडित करने में सहायक होता है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में एक सही बयान, कौन-सा है?
(क) बड़े लोकतांत्रिक देशों में ही सामाजिक विभेद उत्पन्न होते हैं।
(ख) सामाजिक विभेद का राजनीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
(ग) एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक व्यक्ति की कई पहचान होती है।
(घ) सामाजिक विभेद हमेशा लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध होते हैं।
उत्तर-
(ख) सामाजिक विभेद का राजनीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर (20 शब्दों में उत्तर दें)

प्रश्न 1.
सामाजिक विभेद की उत्पत्ति का एक कारण बताएं ?
उतर-
सामाजिक विभेद की उत्पत्ति को एक प्रमुख कारण जन्म है।।

प्रश्न 2.
विविधता राष्ट्र के लिए कब घातक बन जाती है ?
उत्तर-
जब धर्म, क्षत्र, भाषा, जाति, संप्रदाय के नाम पर लोग आपस में उलझ पड़ते हैं, तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर बना देता है। विविधताएँ जब सीमा का उल्लंघन करने लगती है तब सामाजिक विभाजन अवश्यंभावी हो जाता है तथा राष्ट्र के लिए घातक बन जाते हैं।

प्रश्न 3.
भारत में सर्वधर्म समन्वय का एक उदाहरण प्रस्तत करें।
उत्तर-
भारत म मादरी के शहर वाराणसी में नाजनीन नामक एक मुस्लिम लड़की ने हनुमान-भक्तों की पवित्र पुस्तक हनुमान चालीसा को उर्दू में लिपिबद्ध कर सर्वधर्म समन्वय का एक उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया।

प्रश्न 4.
उत्तरी आयरलैंड में एक ही धर्म के दो समूहों के प्रतिनिधित्व करनेवाली दो राजनीतिक पार्टियों के नाम बताएँ। .
उत्तर-
उत्तरी आयरलैंड में एक ही धर्म को दो समूहों प्रोटेस्टैंटो और कैथोलिकों को प्रतिनिधित्व करनेवाली दो राजनीतिक पार्टियाँ थी-नेशनलिस्ट पार्टियाँ तथा यूनियनिस्ट पार्टियाँ।

प्रश्न 5.
सामाजिक विभेद्रों की राजनीति का एक अच्छा परिणाम बताएं।
उत्तर-
सामाजिक विभेदों की राजनीति का एक अच्छा परिणाम यह है कि अधिकांश लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभेद और राजनीति में अटूट संबंध देखने को मिलता है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर (60 शब्दों में उत्तर दें)

प्रश्न 1.
सामाजिक विभाजन राजनीतिक विभाजन में कैसे बदल जाता है?
उत्तर-
लोकतंत्र में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के बीच प्रतिद्वन्द्विता का माहोल होता है। इस प्रतिद्वन्द्विता के कारण कोई भी समाज फूट का शिकार बन सकता है। अगर राजनीतिक दल समाज में मौजूद विभाजनों को हिसाब से राजनीतिक होड़ करने लगे तो इससे सामाजिक विभाजन राजनीतिक विभाजन में बदल सकता है और ऐसे में देश विखंडन की तरफ जा सकता है। ऐसा कई देशों में हो चुका है।

प्रश्न 2.
‘विविधता में एकता’ का अर्थ बताएँ।
उत्तर-
विविधता में एकता भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की अपनी विशेषता रही है। भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। भारत में विविधता धार्मिक तथा सांस्कृतिक आधार पर है। हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख तथा ईसाई विभिन्न धर्मों के माननेवाले लोग भारत में हैं तथा उनकी सांस्कृतिक पहचान भी अलग-अलग है। लेकिन एक-दूसरे के पर्व-त्योहारों में वे शरीक होते हैं तथा वे अलग-अलग होते हुए पहले वे भारतवासी हैं। इसलिए कहा जाता है कि भारत में विविधता ये भी एकता विद्यमान है।

प्रश्न 3.
सामाजिक विभेद किस प्रकार सामाजिक विभाजन के लिए उत्तरदायी है ? …
उत्तर-
समाज में व्यक्ति के बीच कई प्रकार के सामाजिक विभेद देखने को मिलते हैं जैसे जाति के आधार पर विभेद, आर्थिक स्तर पर विभेद धर्म के आधार पर तथा भाषाई आधार पर विभेद। ये सामाजिक विभेद तब सामाजिक विभाजन का रूप ले लेती हैं. जब इनमें से कोई एक सामाजिक विभेद दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं। जब किसी एक समूह को यह महसूस होने लगता है कि वे समाज में बिल्कुल अलग हैं तो उसी समय सामाजिक विभाजन प्रारंभ हो जाता है।

प्रश्न 4.
सामाजिक विभेद एवं सामाजिक विभाजन का अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर-
जब हम क्षेत्र में रहनेवाले विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय के द्वारा लोगों के बीच विभिन्नताएं पाई जाती हैं तो वे सामाजिक विभेद का रूप धारण कर लेते हैं। वहीं दूसरी तरफ – धन, रंग, क्षेत्र के आधार पर विभेद सामाजिक विभाजन का रूप ले लेता है। श्वेतों का अश्वेतों
के प्रति, अमीरों का गरीबों के प्रति व्यवहार सामाजिक विभाजन का कारण बन जाता है। भारत में सवर्णों और दलितों का अंतर सामाजिक विभाजन का रूप ले रखा है।

प्रश्न 5.
सामाजिक विभेदों में तालमेल किस प्रकार स्थापित किया जाता है ?
उत्तर-
लोकतंत्र में विविधता स्वाभाविक होता है परंतु ‘विविधता में एकता’ भी लोकतंत्र का ही एक गुण है। अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को गले लगाया जाता है। एक धर्मनिरपेक्ष ये विभिन्न धर्म, भाषा तथा संस्कृति के लोग एक साथ मिलजुलकर रहते हैं। उनमें यही धारणा विकसित हो जाती है कि उनके धर्म, भाषा रीति-रिवाज अलग-अलग तो अवश्य है परंतु उनका राष्ट्र एक है। बेल्जियम की लोकतांत्रिक व्यवस्था में विभिन्न भाषा-भाषी एवं क्षेत्र के लोगों के बीच अच्छा तालमेल है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (लगभग 150 शब्दों में उत्तर दें)

प्रश्न 1.
हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती। कैसे?
उत्तर-
यह आवश्यक नहीं है कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप ले ले। सामाजिक विभिन्नता के कारण लोगों में विभेद की विचारधारा अवश्य बनती है, परन्तु यही विभिन्नता कहीं-कहीं पर समान उद्देश्य के कारण मूल का काम भी करती है। सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में बहुत बड़ा अंतर है।

सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं। सवर्णों एवं दलितों के बीच अंतर एक सामाजिक विभाजन है, क्योंकि दलित संपूर्ण देश में आमतौर पर गरीब वंचित, सुविधाविहिन एवं भेदभाव के शिकार हैं, जबकि सवर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं। दलितों को यह महसूस होने लगता है कि वे दूसरे समुदाय के हैं।

परंतु इन सबके बावजूद जब क्षेत्र अथवा राष्ट्र की बात होती है तो सभी एक हो जाते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं हो तो।

प्रश्न 2.
सामाजिक विभेदों की उत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डालें। ..
उत्तर-
किसी भी समाज में सामाजिक विभेदों की उत्पत्ति के अनेक कारण होते हैं। प्रत्येक . समाज में विभिन्न भाषा, धर्म, जाति संप्रदाय एवं क्षेत्र के लोग रहते हैं। इन सबों के आधार पर उनमें विभेद बना रहता है। सामाजिक विभेद का सबसे मुख्य कारण जन्म को माना जाता है। किसी व्यक्ति का जन्म किसी परिवार विशेष में होता है। उस परिवार का संबंध किसी न किसी जाति, समुदाय, धर्म, भाषा क्षेत्र से होता है। इस तरह उस व्यक्ति विशेष का संबंध भी उसी जाति, समुदाय, धर्म, भाषा तथा क्षेत्र से हो जाता है। इस प्रकार जाति, समुदाय, धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर सामाजिक विभेदों की उत्पत्ति होती है।

कुछ अन्य प्रकार से भी सामाजिक विभेद उत्पन्न होते हैं जिनका जन्म से कोई संबंध नहीं। होता है। जैसे लिंग, रंग, नस्ल; धन आदि भी विभेद लोगों में पाया जाता है जो कालांतर में सामाजिक विभेद का रूप ले लेते हैं। स्त्री-पुरुष; काला-गोरा लंबा-नाटा, गरीब-अमीर, शक्तिशाली और कमजोर का विभेद भी सामाजिक विभेद की उत्पत्ति का कारण होते हैं। व्यक्तिगत पसंद से भी सामाजिक विभेद की उत्पत्ति होती है। कई व्यक्ति धर्म परिवर्तन करके एक अलग समुदाय बना लेते हैं। कुछ लोग अंतरजातीय विवाह संबंध स्थापित कर अपनी अलग पहचान बना लेते हैं। कुछ लोग अपने परिवार की परंपराओं से हटकर अलग विषय का अध्ययन करने, पेशे, खेल, उद्योग-धंधे तथा सांस्कृतिक गतिविधियों का चयन कर अलग सामाजिक समूह के सदस्य बन जाते हैं और इस तरीके से भी सामाजिक विभेद उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 3.
सामाजिक विभेदों में तालमेल और संघर्ष पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
लोकतंत्र में विविधता स्वाभाविक है। परंतु विविधता में बनता भी लोकतंत्र का ही 24 गुण है। अधिकांश लोकतांत्रिक राज्यों में धर्म निरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाया जाता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य में विभिन्न धर्मों के माननेवाले लोग मिल-जुलकर साथ रहते हैं। उनमें यह धारणा .. विकसित हो जाती है कि उनके धर्म अलग-अलग अवश्य हैं, परंतु उनका राष्ट्र एक है। एक से सामाजिक असमानताएँ कई समूहों में मौजूद हों तो फिर एक समूह के लोगों के लिए दूसरे समूहों से अलग पहचान बनाना मुश्किल हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि किसी एक मुद्दे पर कई समूहों के हित एक जैसे हो जाते हैं। विभिन्नताओं के बावजूद लोगों में सामंजस्य का भाव पैदा होता है। उत्तरी आयरलैंड और नीदरलैंड दोनों ही ईसाई बहुल देश हैं। उत्तरी आयरलैंड में वर्ज और धर्म के बीच गहरी समानता है।

सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी अनेक विभिन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं। अमरीका में श्वेत और अश्वेत का अंतर एक सामाजिक विभाज्य भी बन जाता है क्योंकि अश्वेत लोग आमतौर पर गरीब हैं, बेघर हैं तथा भेदभाव का शिकार हैं। हमारे देश में भी दलित आमतौर पर गरीब और भूमिहीन हैं। उन्हें भी अक्सर भेदभाव और अन्याय का शिकार होना पड़ता है। जब एक तरह का सामाजिक अंतर अन्य अंतरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसूस होने लगता है कि वे दूसरे समुदाय के हैं तो इससे एक सामाजिक विभाजन की स्थिति पैदा होती है। विभिन्नताओं में टकराव की स्थिति किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए लाभदायक नहीं हो सकती।

Bihar Board Class 10 History लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Notes

  • लोकतांत्रिक राज्य में केवल भाषा और क्षेत्र की विविधता ही नहीं होती है, वरन ग धर्म जाति संप्रदाय लिंग जैसे विभेद भी अवश्य देखने को मिलते हैं।
  • लोकतांत्रिक राज्यों में जनता के बीच विभिन्नताओं असमानताओं तथा विभेदों के रहते हुए भी उनके बीच तालमेल स्थापित किया जाता है।
  • लोकतंत्र सैद्धांतिक रूप से समानता पर आधृत शासन-पद्धति है।
  • विभिन्न लोकतांत्रिक पद्धतियों में विरोधाभास के उदाहरण भी मिलते हैं जिसे विद्वानों ने लोकतंत्र में इंद्व की भी संज्ञा दी है।
  • लोकतंत्र में विविधता तथा विभिन्नताओं के कारण सामाजिक विभाजन की संभावना बनी रहती है।
  • सामाजिक विभेदों की उत्पत्ति के कारणों में जन्म सबसे बड़ा कारण होता है। जन्म के अतिरिक्त व्यक्तिगत विभेद तथा व्यक्तिगत पसंद के कारण भी सामाजिक विभेदों की उत्पत्ति होती है।
  • सामाजिक विभेद ही सामाजिक विभाजन और सामाजिक संघर्ष के लिए मूलरूप से उत्तरदायी है।
  • विविधता कभी-कभी सामाजिक एकता को बनाए रखने में भी सहायक होता है।
  • सामाजिक विभेद हमेशा सामाजिक विभाजन का कारण बने, यह आवश्यक नहीं है।
  • भिन्न-भिन्न जाति के लोग भी समान धर्म में आस्था रखते हुए सामाजिक विभेद को मिटाने में सहायक होते हैं।
  • लोकतंत्र में विविधता स्वामित्व है, परंतु विविधता में एकता भी लोकतंत्र का ही एक गुण है।
  • सामाजिक विभेद लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक भी है। धर्म धन क्षेत्र भाषा जाति संप्रदाय के नाम पर आपस में उलझना लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर बना डालता है। इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है।
  • जब तक विविधताएँ एक सीमा में रहती है तब तक कोई परेशानी नहीं होती है, परंतु जब विविधताएँ सीमा का उल्लंघन करने लगती है तब सामाजिक विभाजन अवश्यभावी हो जाता है और आपसी संघर्ष में वृद्धि हो जाती है।
  • जब सामाजिक विभेद अन्य विभेदों से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है तब स्वाभाविक रूप से सामाजिक विभाजन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
  • विभिन्नताओं में टकराव की स्थिति लोकतानिक व्यवस्था के लिए घातक है।
  • सामाजिक विभेदों का लोकतांत्रिक राजनीति पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता है। विभिन्न राजनीतिक दलों का गठन भी सामाजिक विभेदों के आधार पर होता है। उत्तरी आयरलैंड में नेशनलिस्ट पार्टियाँ तथा युनियननिष्ट पार्टियों का गठन प्रोटेस्टेंटो और कैथोलिको का प्रतिनिधित्व करने के लिए हुआ है। विभिन्न राजनीतिक दल अपनी प्रतिदिता का आधार भासामाजिक विभेद को बना लेते हैं।
  • जब सामाजिक विभेद सजनीतिक विभेद में परिवर्तित हो जाता है तब देश का विखंडन अवश्यभावी हो जाता है। यूगोस्लाविया इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
  • सामाजिक विभेदों की राजनीति के अच्छे परिणाम भी देखने को मिलते हैं। अधिकांश लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभेद और राजनीतिक में अटूट संबंध देखने को मिलता है।
  • सामाजिक विभेद की राजनीति के परिणाम तीन बातों पर निर्भर करते हैं- स्वयं की पहचान की चेतना, समाज के विभिन्न समुदायों की मांग को राजनीतिक दलों द्वारा उपस्थित करने का तरीका तथा सरकार की मांगों के प्रति सोच।
  • सामाजिक विभेदों की राजनीति का हमेशा गलत परिणाम होगा, इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि सामाजिक विभेदों की राजनीति लोकतंत्र को सशक्त करने में सहायक होता है।
  • सामाजिक विभेदों की राजनीति से लोकतांत्रिक व्यवस्था में संघर्ष और हिंसा की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है, परंतु इसपर काबू करने का प्रयास भी होता रहता है।
  • सामाजिक विभेद की राजनीति का परिणाम अच्छा ही हो, इसके लिए शासन को कुछ सावधानियां बरतने की आवश्यकता है।

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