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Monday, June 20, 2022

BSEB Class 11 Hindi कबीर के पद Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi कबीर के पद Book Answers

BSEB Class 11 Hindi कबीर के पद Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi कबीर के पद Book Answers
BSEB Class 11 Hindi कबीर के पद Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi कबीर के पद Book Answers


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Bihar Board Class 11th Hindi कबीर के पद Textbooks Solutions PDF

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Bihar Board Class 11th Hindi कबीर के पद Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
Format DOC/PDF
Class 11th
Subject Hindi कबीर के पद
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कबीर के पद पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

कबीर पाठ के प्रश्न उत्तर कक्षा 11 Bihar Board प्रश्न 1.
कबीर ने संसार को बौराया क्यों कहा है?
उत्तर-
कबीर ने संसार को ‘बौराया हुआ’ इसलिए कहा है क्योंकि संसार के लोग सच सहन नहीं कर पाते और न उसपर विश्वास करते हैं। उन्हें झूठ पर विश्वास हो जाता है। कबीर संसार के लोगों को ईश्वर और धर्म के बारे में सत्य बातें बताता है, ये सब बातें परम्परागत ढंग से भिन्न है, अत: लोगों को अच्छी नहीं लगती। इसलिए कबीर ने ऐसा कहा है कि यह संसार बौरा गया है, अर्थात पागल-सा हो गया है।

कबीर के पद की व्याख्या Class 11 Bihar Board प्रश्न 2.
“साँच कहाँ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना” कबीर ने यहाँ किस सच और झूठ की बात कही है?
उत्तर-
कबीर ने बाह्याडंबरों से दूर रहकर स्वयं को पहचानने की सलाह दी है। आत्मा का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। कबीर संसार के लोगों को ईश्वर और धर्म के बारे में सत्य बातें बताता है, ये सब परंपरागत ढंग से भिन्न है, अत: लोगों को यह पसंद नहीं है। संसार के लोग सच को सहन न करके झूठ पर विश्वास करते हैं। इस प्रकार कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों के बाह्यडंबरों पर तीखा कटाक्ष किया है।

कबीर के पदों की व्याख्या Class 11 Bihar Board प्रश्न 3.
कबीर के अनुसार कैसे गुरु-शिष्य अन्तकाल में पछताते हैं? ऐसा क्यों होता है?
उत्तर-
कबीर के अनुसार इस संसार में दो तरह के गुरु और शिष्य मिलते हैं। एक कोटि है सदगुरु और सद् शिष्य की जिन्हें तत्त्व ज्ञान होता है, जो विवेकी होते हैं, जिन्हें जीव-ब्रह्म के सम्बन्ध का ज्ञान होता है, ऐसे सदगुरु और शिष्यों में सद् आचार भरते हैं। इनका अन्तर-बाह्य एक समान होता है। ये अहंकार शून्य होते हैं। गुरु-शिष्य की दूसरी कोटि है असद गुरु-और असद शिष्य की। इस सम्बन्ध में कबीर ने एक साखी में कहा है-

जाके गुरु अंधरा, चेला खरा निरंध,
अंधा-अधे ठेलिय, दोनों कूप पड़प।

असद् अविवेकी बनावटी गुरु सद्ग्रन्थों का केवल उच्चारण करते हैं, वाचन करते-कराते हैं, ग्रन्थों में विहित, निहित तथ्यों को अपने आचरण में उतारते और उतरवाते नहीं हैं। अपरिपक्व ज्ञान और उससे उत्पन्न अभिमान को अपनी आजीविका बना लेते हैं। समय रहते ये चेत नहीं पाते और अन्त में जब आत्मोद्धार के लिए समय नहीं बच पाता, तब ये बेचैन हो जाते हैं। किन्तु अब इनके पास पछतावे के अलावा कुछ बचता ही नहीं है।

Class 11 Hindi Chapter Kabir Question Answer Bihar Board प्रश्न 4.
“हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना
आपस में दोउ लरि-लरि मुए, मर्म न काहू जाना।
इन पंक्तियों का भावार्थ लिखें।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ अपने समय के और अपनी तरह के अनूठे समाज-सुधारक चिंतक कबीर रचित पद से उद्धृत है। इन पंक्तियों में परम सत्ता के एक रूप का कथन हुआ है। यही मर्म है, यही अन्तिम सत्य है कि परम ब्रह्म, अल्लाह, गॉड सभी एक ही हैं। किन्तु अज्ञानतावश अलग-अलग धर्म सम्प्रदायों में बता मानव समाज अपने-अपने भगवान से प्यार करता है, दूसरे के भगवान को हेय समझता है। अपने भगवान के लिए अन्ध-भक्ति दर्शाता है। उनकी यह कट्टरता, बद्धमूलता, इतनी प्यारी होती है कि जरा-जरा सी बात पर धार्मिक भावनाएं आहत होने लगती हैं।

दो सम्प्रदायों के बीच का सौहार्द्र वैमनस्य में बदल जाता है। हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं और लड़कर कट मर जाते हैं। यदि उन्हें परम तत्त्व का, परम सत्य का, मूल-मर्म का ज्ञान होता तो पूरब-पश्चिम, मंदिर-मस्जिद, पूजा-रोजा, राम-रहीम में भेद नहीं करते। एक-दूसरे के लिए प्राणोत्सर्ग करते न कि एक-दूसरे के खून के प्यासे होते।

Bahyadambar In Hindi Bihar Board प्रश्न 5.
‘बहुत दिनन के बिछुरै माधौ, मन नहिं बांधै धीर’ यहाँ माधौ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
उत्तर-
कबीर निर्गुण-भक्ति के अनन्य उपासक थे। उन्होंने परमात्मा को कण-कण में देखा है, ज्योति रूप में स्वीकारा है तथा उसकी व्याप्ति चराचर संसार में दिखाई है। इसी व्याप्ति को अद्वैत सत्ता में देखते हुए उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है। कबीर ने ईश्वर को “माधौ” कहकर पुकारा है।

Kabir Ke Pad Class 11 Question Answer Bihar Board प्रश्न 6.
कबीर ने शरीर में प्राण रहते ही मिलने की बात क्यों कही है?
उत्तर-
प्रेम में यों तो सम्पूर्ण शरीर मन, प्राण सभी सहभागी होते हैं किन्तु आँखों की भूमिका अधिक होती है। विरह की दशा में आँखें लगातार प्रेमास्पद की राह देखती रहती हैं। विरही प्रेमी की आंकुलता-व्याकुलता का अतृप्ति का ज्ञापन आँखों से ही होता है फिर इसका क्या भरोसा कि मृत्यु के बाद यही शरीर पुनः प्राप्त हो। प्रेम यदि इसी जन्म और मनुष्य योनि में हुआ है, विरह की ज्वाला में यदि यही शरीर, मन, प्राण दग्ध हो रहे हैं तो फिर प्रेम को सार्थक्य भी तभी प्राप्त होगा जब शरीर में प्राण रहते इसी जन्म में प्रभु से मिलन हो जाए। विरह मिलन में बदल जाए। यही कारण है कि कबीर ने शरीर में प्राण रहते ही मिलते ही बात कही है।

Class 11 Hindi Kabir Question Answer Bihar Board प्रश्न 7.
कबीर ईश्वर की मिलने के लिए बहुत आतुर हैं। क्यों?
उत्तर-
हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग भक्तिकाल के निर्गुण भक्ति की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास ने ‘काचै भांडै नीर’ स्वयं को तथा ‘धीरज’ अर्थात् धैर्य की प्रतिमूर्ति ईश्वर को कहा है। अपनी व्याकुलता तथा प्रियतम से मिलकर एकाकार होने की उनकी उत्कंट लालसा उन्हें आतुर बना देती है। तादात्म्य की उस दशा में कवि अपने जीवन को कच्ची मिट्टी का घड़ा में भरा पानी माना है। यह शरीर नश्वर है। मृत्यु शाश्वत सत्य है कवि इन लौकिक दुखों (जीवन-मृत्यु) से छुटकारा पाकर ईश्वर की असीम सत्ता में विलीन होना चाहता है। अतः कबीर की ईश्वर से मिलने की आतुरता अतीव तीव्र हो गई है।

Kabir Ke Pad Class 11 Bihar Board प्रश्न 8.
दूसरे पद के आधार पर कबीर की भक्ति-भावना का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर-
हमारे पाठ्य पुस्तक दिगंत भाग-1 में संकलित कबीर रचित द्वितीय पद कबीर की भक्ति भावना का प्रक्षेपक है। वस्तुत: कबीर की भक्ति- भावना को एक विशिष्ट नाम दिया है-“रहस्यवाद”। यह रहस्यवाद साहित्य की एक स्पष्ट भाव धारा है, जिसका किसी रहस्य से कोई लेना-देना नहीं है। आत्मा-परमात्मा को प्रणय-व्यापार, मिलन-विरह आदि रहस्यवाद का उपजीव्य है।

इस रहस्यवाद में कवि स्वयं को स्त्री या पुरुष मानकर ईश्वर, आराध्य या परम ब्रह्म के साथ अपने विभिन्न क्रिया व्यापारों, क्षणों और उपलब्धियों का अत्यंत प्रांजल, भाव प्रवण वर्णन करती है।

सूफी संत की जहाँ आत्मा पुरुष और परमात्मा को नारी रूप में चित्रित करते हैं, वहाँ कबीर आदि संत कवियों ने स्वयं को नारी, प्रिया, प्रेयसी आदि के रूप में प्रस्तुत करते हुए परमब्रह्म, ईश्वर, . साईं, सद्गुरु, कर्त्तार आदि के साथ अपने रभस प्रसंग का स्नेहिल, क्षणों का निष्कलुष और प्रांजल वर्णन किया है।

कबीर की भक्ति भाव रहस्यवाद, प्रगल्भ इन्द्रिक बिम्बों प्रतीकों से पूर्ण है किन्तु शृंगारिक रचनाओं की तरह कामोद्दीपक नहीं है, जुगुप्सक नहीं है। “मेरी चुनरी में लग गये दाग” लिखकर भी कबीर का रहस्यवाद पुरइन के पत्र पर पानी की बून्द की तरह निर्लिप्त है, शीलगुण सम्पन्न है।

प्रश्न 9.
बलिया का प्रयोग सम्बोधन में हुआ है। इसका अर्थ क्या है?
उत्तर-
कबीर रचित पद में बलिया सम्बोधन शब्द आया है जिसका कोशगत अर्थ ‘बलवान’ है। किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि कबीर भाषा के डिक्टेटर हैं। “बाल्हा” शब्द ‘बलिया’ का विकृत रूप है जिसका प्रयोग कबीर ने एक अन्य पद में किया है बाल्हा आओ हमारे गेह रे। कबीर के मत से बलिया का अर्थ सर्वशक्ति सम्पन्न परमपुरुष, भर्तार और पति ही है।

प्रश्न 10.
प्रथम पद में कबीर ने बाह्याचार के किन रूपों का जिक्र किया है? उन्हें अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर-
परम्परा-भंजक; रूढ़ि-भंजक, समाज-सुधारक कबीर रचित प्रथम पद में हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदायों में व्याप्त आडम्बर पूर्ण बाह्याचारों का उल्लेख हुआ है।

तथाकथित नेमी द्वारा (नियमों का कठोरता से अनुपालन करने वाले) प्रात:काल प्रत्येक ऋतु और अवस्था में स्नान करना, पाहन (पत्थर) की पूजा करना, आसन मारकर बैठना और समाधि लगाना पितरों (पितृ) की पूजा, तीर्थाटन करना, विशेष प्रकार की टोपी, पगड़ी को धारण करना, तरह-तरह के पदार्थों की माला (तुलसी, चन्दन, रुद्राक्ष और पत्थरों की मालाएँ) माथे पर विभिन्न रंगों और रूपों में, गले में कानों के आस-पास बाहुओं पर तिलक-छापा लगाना ये सभी बाह्याडम्बर है। इनका विरोध मुखर स्वर में कबीर ने किया है।

प्रश्न 11.
कबीर धर्म उपासना के आडंबर का विरोध करते हुए किसके ध्यान पर जोर देते हैं?
उत्तर-
संत कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों के ढोंग-आडंबरों पर करारी चोट की है। उन्होंने धर्म के बाहरी विधि विधानों, कर्मकांडों-जप, माला, मूर्तिपूजा, रोजा, नमाज आदि का विरोध किया है। उन्होंने कहा है कि हिन्दू और मुसलमान आत्म-तत्त्व और ईश्वर के वास्तविक रहस्य से अपरिचित हैं, क्योंकि मानवता के विरुद्ध धार्मिक कट्टर और आडम्बरपूर्ण कोई भी व्यक्ति अथवा : .. धर्म ईश्वर की परमसत्ता का अनुभव नहीं कर सकता।

कबीर ने स्वयं (आत्मा) को पहचानने पर बल देते हुए कहा है कि यही ईश्वर का स्वरूप है। आत्मा का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है।

प्रश्न 12.
आपस में लड़ते-मरते हिन्दू और तर्क को किस मर्म पर ध्यान देने की सलाह कवि देता है?
उत्तर-
मुगल बादशाह बाबर के जमाने से हिन्दू-मुसलमान अपने पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों के कारण लड़ते-मरते चले आ रहे हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द्र की जगह साम्प्रदायिकता का जहर पूरे समाज में घुला हुआ है। दोनों ही सम्प्रदायों का तथाकथित पढ़ा-लिखा और अनपढ़ तबका ‘ईश्वर’ की सत्ता, अवस्थिति की वस्तु स्थिति से अनवगत है। मूल चेतना, मर्म का ज्ञान किसी को नहीं है।

वेद-पुराण, कुरान, हदीश लगभग सभी धार्मिक ग्रंथों पर ईश्वर के स्वरूप, उसके प्रभाव और सर्वव्यापी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान होने की बात कही गयी है। जीव और ब्रह्म में द्वैत नहीं अद्वैत का सम्बन्ध है यह भी कथित है। किन्तु द्विधा और द्वैत भाव की प्रबलता के कारण हम हिन्दू-मुसलमान लड़ते आ रहे हैं। कबीर ने स्पष्ट कहा “एकै चाम एकै मल मूदा-काको कहिए ब्राह्मण शूद्रा।”

हमें इस मर्म पर ध्यान देना है कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। हमारी उत्पत्ति समान रूप से हुई है। पालन समान हवा, पानी, अन्नादि से होता है और मृत्यु की प्रक्रिया भी परम सत्ता द्वारा नियत और नियंत्रित है। परोपकार करके हम ईश्वर के सन्निकट होते हैं। पाप करके बाह्योपचार के पचड़े में पड़कर हम ईश्वर से दूर होकर अपना इहलोक के साथ परलोक भी कष्टमय कर लेते हैं। सदाचरण निष्काम सेवा ही ईश्वरोपासना का मूल मर्म है। मानवता की निष्काम सेवा से बढ़कर इस अनित्य संसार में कुछ भी नहीं है।

प्रश्न 13.
“सहजै सहज समाना” में सहज शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है। इस प्रयोग की सार्थकता स्पष्ट करें।
उत्तर-
मध्यकालीन भारत में भक्ति की क्रांतिकारी भाव धारा को जन-जन तक पहुँचाने वाले भक्त कबीर ने ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को ‘सहजै सहज समाना’ शब्द का दो बार प्रयोग किया है। प्रस्तुत शब्द में कबीर द्वारा बाह्याडंबरों की अपेक्षा स्वयं (आत्मा) को पहचानने की बात कही गई है। अपने शब्दों में कबीर ने ये बाह्याडंबर बताए हैं-पत्थर पूजा, कुरान पढ़ाना, शिष्य बनाना, तीर्थ-व्रत, टोपी-माला पहनना, छापा-तिल, लगाना, पीर औलिया की बातें मानना आदि।

कबीर कहते हैं ईश्वर का निवास न तो मंदिर में है, न मस्जिद में, न किसी क्रिया-कर्म में है और न योग-साधना में। उन्होंने कहा है कि बाह्याडंबरों से दूर रहकर स्वयं (आत्मा) को पहचानना चाहिए। यही ईश्वर है। आत्म-तत्व के ज्ञानी व्यक्ति ईश्वर को सहज से भी सहज रूप में प्राप्त कर सकता है। कबीर का तात्पर्य है कि ईश्वर हर साँस में समाया हुआ है। उन्हें पल भर की तालाश में ही पाया जा सकता है।

प्रश्न 14.
कबीर ने भर्म किसे कहा है?
उत्तर-
कबीर के अनुसार अज्ञानी गुरुओं की शरण में जाने पर शिष्य अज्ञानता के अंधकार में डूब जाते हैं। इनके गुरु भी अज्ञानी होते हैं; वे घर-घर जाकर मंत्र देते फिरते हैं। मिथ्याभिमान के परिणामस्वरूप लोग विषय-वासनाओं की आग से झुलस रहे हैं। कवि का कहना है कि धार्मिक आडम्बरों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर की परम सत्ता से अपरिचित हैं। इनमें कोई भी प्रभु के प्रेम का सच्चा दीवाना नहीं है।

कबीर ने इन बाह्याडम्बरों के ‘भर्म’ को भुलाकर स्वयं (आत्मा) को पहचानने की सलाह देते हुए कहा है कि आत्मा का ज्ञान की सच्चा ज्ञान है। ईश्वर हर साँस में समाया हुआ है अर्थात् सच्ची अनुभूति और आत्म-साक्षात्कार के बल पर ईश्वर को पल भर की तलाश में ही पाया जा सकता है।

कबीर के पद भाषा की बात

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों का रूप लिखें
आतम, परवान, तीरथ, पियारा, सिख्य, असनान, डिंभ, पाथर, मंतर, नर्म, अहनिस, तुमकूँ।
उत्तर-

  • आतम-आत्मा
  • परवान-पत्थर
  • तीरथ-तीर्थ
  • पियारा-प्यारा
  • सिख्य-शिष्य
  • असनान-स्नान
  • डिभ-दंभ
  • पाथर-पत्थर
  • मंतर-मंत्र
  • मर्म-भ्रम
  • अहनिश-अहर्निश
  • तुमकूँ-तुमको

प्रश्न 2.
दोनों पदों में जो विदेशज शब्द आये हैं उनकी सूची बनाएँ एवं उनका अर्थ लिखें।
उत्तर-
कबीर रचित पद द्वय में निम्नलिखित विदेशज (विदेशी) शब्द आये हैं, जिनका अर्थ अग्रोद्धत है

पीर-धर्मगुरु; औलिया-संत; कितेब-किताब, पुस्तक; कुरान-इस्लाम धर्म का पवित्र ग्रंथ; मुरीद-शिष्य, चेला, अनुयायी; तदबीर-उपाय, उद्योग, कर्मवीरता; खवरि-सूचना, ज्ञान; तुर्क-इस्लाम धर्म के अनुयायी, तुर्की देश के निवासी; रहिमाना-रहमान-रहम दया करने वाला अल्ला।

प्रश्न 3.
पठित पदों से उन शब्दों को चुनें निम्नलिखित शब्दों के लिए आये हैं
उत्तर-
आँख-नैन; पागल-वौराना (बौराया); धार्मिक-धरमी; बर्तन-भांडे, वियोग-विरह, आग-अगिनि, रात-निस।

प्रश्न 4.
नीचे प्रथम पद से एक पंक्ति दी जा रही है, आप अपनी कल्पना से तुक मिलते हुए अन्य पंक्तियाँ जोड़ें- “साँच कहो तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।”
उत्तर-
साँच कहो तो मारन धावै झूठे जग पतियाना,
मर्म समझ कर चेत ले जल्दी घूटे आना-जाना,
जीवन क्या इतना भर ही है रोना हँसना खाना,
हिय को साफ तू कर ले पहले, बसे वहीं रहिमान।
छोड़ सके तो गर्व छोड़ दे राम बड़ा सुलिताना,
भाया मोह की नगरी से जाने कब पड़ जाय जाना”
चेत चेत से मूरख प्राणी पाछे क्या पछि ताना।

प्रश्न 5.
कबीर की भाषा को पंचमेल भाषा कहा गया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा है। कबीर की भाषा पर अपने शिक्षक से चर्चा करें अथवा कबीर की भाषा-शैली पर एक सार्थक टिप्पणी दें।
उत्तर-
“लिखा-लिखि की है नहीं देखा देखी बात’ “की उद्घोषणा करने वाले भाषा के डिक्टेटर और वाणी के नटराज कबीर की भाषा-शैली कबीर की ही प्रतिमूर्ति है। कबीर बहु-श्रुत और परिव्राजक संत कवि थे। हिमालय से हिन्द महासागर और गुजरात से मेघालय तक फैले उनके अनुयायियों द्वारा किये गये कबीर की रचनाओं के संग्रह में प्रक्षिप्त क्षेत्रियता का निदर्शन इस बात का सबल प्रमाण है कि कबीर “जैसा देश वैसी वाणी, शैली’ के प्रयोक्ता थे।

हालांकि उन्होंने स्पष्ट कहा है “मेरी बोली पूरबी” लेकिन भोजपुरी राजस्थानी, पंजाबी, अवधी, ब्रजभाषा आदिनेक तत्कालीन प्रचलित बोलियों और भाषाओं के शब्द ही नहीं नवागत इस्लाम की भाषा अरबी, उर्दू, फारसी के शब्दों की शैलियों का उपयोग किया है। रहस्यवादी संध्याभाषा उलटबाँसी, योग की पारिभाषिक शब्दावली के साथ ही सरल वोधगम्य शब्दों के कुशल प्रयोक्ता हैं।

“जल में रहत कुमुदनी चन्दा बसै आकास, जो जाहि को भावता सो ताहि के पास” कहने वाले कबीर “आँषि डिया झाँई पड्या जीभड्या छाल्या पाड्या” भी कहते हैं। ये आँखियाँ अलसानि पिया हो सेज चलो “कहने वाले कबीर” कुत्ते को ले गयी बिलाई ठाढ़ा सिंह चरावै गाई”। भी कहते हैं। कबीर के सामने भाषा सचमुच निरीह हो जाती है।

प्रश्न 6.
प्रथम पद में अनुप्रास अलंकार के पाँच उदाहरण चुनें।
उत्तर-
नेमि देखा धरमी देखा-पंक्त में ‘मि’ वर्ण और देखा शब्द की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार। जै पखानहि पूजै में प वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार पीर पढ़े कितेब कुराना में क्रमशः प और क वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार। उनमें उहै में उ वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार। पीतर पाथर पूजन में प वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार उपस्थित है।

प्रश्न 7.
दूसरे पद में ‘विरह अगिनि’ में रूपक अलंकार है। रूपक अलंकार के चार अन्य उदाहरण दें।
उत्तर-
रूपक अलंकार के चार अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं ताराघाट, रघुवर-बाल-पतंग, चन्द्रमुखी, चन्द्रबदनी, मृगलोचनी।

प्रश्न 8.
कारक रूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
झठे-झूठ को-द्वितीय तत्पुरुष, पखानहि-पत्थर को द्वितीया तत्पुरुष; सब्दहि-शब्द को-द्वितीय-तत्पुरुष, खबरि-सूचना ही में-सम्प्रदान तत्पुरुष; कारनि-कारण से-अपादान, तत्पुरुष, भांडै-भांड में-अधिकरण तत्पुरुष।

प्रश्न 9.
पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीर रचित पद “संतौ देखो जग बौराना’ का भावार्थ लिखें।
उत्तर-
प्रथम पद का भावार्थ देखें। प्रश्न 10. पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीर रचित द्वितीय पद का भावार्थ प्रस्तुत करें। उत्तर-द्वितीय पद का भावार्थ देखें।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर।

कबीर के पद लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर की विरह-भावना पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
कबीर परमात्मा से प्रेम करने वाले भक्त हैं। उनकी प्रीति पति-पत्नी भाव की है। परमात्मा रूपी पति से मिलन नहीं होने के कारण वे विरहिणी स्त्री की भाँति विरहाकुल रहते हैं। ये प्रियतम के दर्शन हेतु दिन-रात आतुर रहते हैं। उनके नेत्र उन्हें देखने के लिए सदैव आकुल रहते हैं। वे विरह की आग में सदैव जलते रहते हैं। एक वाक्य में उनकी दशा यही है कि “तलफै बिनु बालम मोर जिया। दिन नहिं चैन, रात नहिं, निंदिया तरप तरप कर भोर किया।”

कबीर के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर विरह की दशा में क्या अनुभव करते हैं?
उत्तर-
कबीर को विरह की अग्नि जलाती है, आतुरता और उद्वेग पैदा करती है तथा मन धैर्य से रहित हो जाता है।

प्रश्न 2.
कबीर परमात्मा से क्या चाहते हैं?
उत्तर-
कबीर परमात्मा का दर्शन चाहते हैं, विरह-दशा की समाप्ति और मिलन का सुख चाहते हैं।

प्रश्न 3.
कबीर के अनुसार हिन्दू-मुस्लिम किस मुद्दे पर लड़ते हैं? उत्तर-हिन्दू-मुसलमान नाम की भिन्नता और उपासना की भिन्नता को लेकर लड़ते हैं। प्रश्न 4. कबीर की दृष्टि में नकली उपासक क्या करते हैं?
उत्तर-
नकली उपासक नियम-धरम का विधिवत पालन करते हैं, माला-टोपी धारण करते हैं, आसन लगाकर उपासना करते हैं, पीपल-पत्थर पूजते हैं, तीर्थव्रत करते हैं तथा भजन-कीर्तन गाते हैं।

प्रश्न 5.
कबीर की दृष्टि में नकली गुरु लोग क्या करते हैं?
उत्तर-
नकली गुरु लोग किताबों में पढ़ें मन्त्र देकर लोगों को शिष्य बनाते हैं और ठगते हैं।

इन्हें अपने ज्ञान, महिमा तथा गुरुत्व का अभिमान रहता है लेकिन वास्तव में ये आत्मज्ञान से रहित मूर्ख, ठग और अभिमानी होते हैं।

प्रश्न 6.
कबीर के अनुसार ईश्वर-प्राप्ति का असली मार्ग क्या है?
उत्तर-
ईश्वर-प्राप्ति का असली मार्ग है आत्मज्ञान अर्थात् अपने को पहचानता और अपनी सत्ता को ईश्वर से अभिन्न मानना तथा ईश्वर से सच्चा प्रेम करना।

प्रश्न 7.
कबीरदास ने प्रथम पद में किसकी व्यर्थता सिद्ध की है?
उत्तर-
कबीरदास ने अपने प्रथम पद में पत्थर पूजा, तीर्थाटन और छाप तिलक को व्यर्थ बताया है।

प्रश्न 8.
कबीर ने दूसरे पद में बलिध का प्रयोग किसके लिए किया है?
उत्तर-
कबीरदास ने अपने दूसरे पद में बलिध का प्रयोग परमात्मा और सर्वशक्तिमान के लिए किया है।

प्रश्न 9.
कबीर के दृष्टिकोण में सारणी या सबद गाने वाले को किसकी खबर नहीं है?
उत्तर-
कबीरदास ने दृष्टिकोण में सारणी या सबद गाने वाले को स्वयं अपनी खबर नहीं है।

कबीर के पद वस्तनिष्ठ प्रश्नोत्तर

सही उत्तर सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें।

प्रश्न 1.
कबीरदास किस काल के कवि हैं?
(क) आदिकाल
(ख) भक्तिकाल
(ग) रीतिकाल
(घ) वीरगाथा काल
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 2.
कबीर किसके उपासक थे?
(क) निर्गुण ब्रह्म के
(ख) सगुण ब्रह्म के
(ग) निराकार ब्रह्म के
(घ) साकार ब्रह्म के
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 3.
कबीर ने इस संसार को क्या कहा है?
(क) बौराया हुआ
(ख) साश्वत
(ग) क्षणभंगुर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

प्रश्न 4.
लोग किस पर विश्वास करते हैं?
(क) सत्य पर
(ख) झूठ पर
(ग) बाह्याडम्बर पर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 5.
कबीर ने मर्म किसे कहा है?
(क) घाव को
(ख) वेदना को
(ग) रहस्य को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ग)

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न 1.
कबीर ने ‘साखी’, संबंद और……………की रचना की।
उत्तर-
रमैनी

प्रश्न 2.
कबीर, कागद की लेखी’ की जगह………..को तरजीह देते थे।
उत्तर-
आँखन-देखी

प्रश्न 3.
साँच कहाँ तो मारन धावै,………….जग पतियाना।
उत्तर-
झूठे

प्रश्न 4.
साखी सब्दहि गावत भूले…………खबरि, नहि जाना।
उत्तर-
आतम।

कबीर के पद कवि परिचय – (1399-1518)

कबीर का जन्मकाल भी निश्चित प्रमाण के अभाव में विवादास्पद रहा है। फिर भी, बहुत से विद्वानों द्वारा सन् 1399 ई० को उनका जन्म और सन् 1518 ई० को उनका शरीर त्याग मा लिया गया है। इस तरह कुल एक सौ बीस वर्षों की लम्बी आयु तक जीवित रहने का सौभाग्य संत कवि कबीर को मिला था। जीवन रूपी लम्बी चादर को इन्होंने इतने लम्बे काल तक ओढा, जीया और अंत में गर्व के साथ कहा भी कि “सो चादर सुन नर मुनि ओढ़ी-ओढ़ी के मैली कीन्हीं चदरिया।

दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धरि दीनि चदरिया।” हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग भक्तिकाल के पहले भक्त कवि कबीरदास थे। भक्ति को जन-जन तक काव्य रूप में पहुँचा कर उससे सामाजिक चेतना को जोड़ने का काम भक्तिकालीन भक्त कवियों ने किया। ऐसा भक्त कवियों में पहला ही नहीं सबसे महत्वपूर्ण नाम भी कबीर का ही माना जाता है।

कहा जाता है कि एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म लेने के बाद लोक-लाज के भय से माता द्वारा परित्यक्त नवजात शिशु कबीर बनारस के लहरतारा तालाब के किनारे नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति द्वारा पाये और पुत्रवत पाले गये।

कबीर रामानन्दाचार्य के ही शिष्य माने जाते हैं पर गुरु मंत्र के रूप में प्राप्त राम नाम को उन्होंने सर्वथा निर्गुण रूप में स्वीकार और अंगीकार किया। अनजाने सिद्ध और नाथ-साहित्य से भी गहरे तक प्रभावित रहे। विशेष पंथ या मठ-मंदिर के आजन्म विरोधी रहे। कहा जाता है कि उनको कमाल नामक पुत्र और कमाली नामक एक पुत्री भी थी।

सिकंदर लोदी जैसे कट्टर मुसलमान शासक के काल में भी ऐसी धर्म निरपेक्ष ही नहीं कट्टरता-विरोधी उक्तियाँ कबीर से ही संभव थीं। शायद उसके अत्याचार का वे शिकार हुए भी थे। मृत्युकाल में उन्होंने मगहर की यात्रा की थी।

कबीर के पद कविता का भावार्थ

प्रथम पद महान् निर्गुण संत, परम्परा, भंजक, एकेश्वरवादी चिंतक कवि, कबीर संतों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे संतो ! देखो यह संसार बौरा गया है, पागल हो गया है। इसकी विवेक . बुद्धि नष्ट हो गयी है। जब भी मैं इन सांसारिक जीवों को सत्य के बारे में बताना चाहता हूँ।

ये मुझे उल्टा-सीधा कहते हैं, मुझे मारने दौड़ते हैं और जो कुछ इनके इर्द-गिर्द माया प्रपंच है उसे ये सत्य मान बैठे हैं।

मुझे ऐसे अनेक नियम-धर्म के कठोर पालक दिखे जो हर मौसम में शरीर को कष्ट देकर स्नान करते हैं, आत्म ज्ञान से शून्य होकर पत्थर के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। अनेक पीर (धर्म गुरु) और औलिया (संत) मिले जो कुरान जैसे ग्रंथ की गलत तथ्यहीन व्याख्या अपने शिष्यों को समझा कर उनको भटका चुके हैं। उन्हें अपने पीर औलिया होने का घमंड हो गया है।

पितृ (मरे हुए पूर्वज) की सेवा पत्थरों की मूर्ति पूजा और तीर्थटन करने वाले धार्मिक अहंकारी हो चले हैं। स्वयं को संत, महात्मा धार्मिक दर्शन के लिए टोपी, माला, तिलक-छाप धारण किये हुए हैं और अपनी स्वाभाविक स्थिति भूल चुके हैं। सचमुच के महान् वीतरागी संतों द्वारा रचित साखी सबद आदि गाते घुमते चलते हैं। इस संसार के प्राणी अपने को हिन्दू-मुस्लिम में बाँट चुके हैं।

एक को राम प्यारा है तो दूसरे को रहमान प्यारे हैं। छोटी-छोटी बातों पर ये एक-दूसरे के रक्त के प्यासे हो लड़-मर पड़ते हैं? लेकिन अभिमान अहंकार के वशीभूत हो ये घर-घर बाह्याचरण का आडम्बर युक्त पूजा, कर्मकाण्ड का मंत्र देते चलते हैं। मुझे तो लगता है कि ये तथाकथित गुरु अपने शिष्यों सहित माया के सागर में डूब चुके हैं। अन्त में इन्हें पछताना ही पड़ेगा।

ये हिन्दू-मुसलमान, पीर औलिया सभी ईश्वर-धर्म के मूल तत्त्व और मर्म को भूल चुके हैं। कई बार इनकी मैंने समझाकर कहा कि ईश्वर को कर्मकाण्ड बाह्यचार से नहीं बल्कि सहज जीवन-यापन की पद्धति से ही प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि परमब्रह्म ईश्वर अल्ला अत्यंत सहज और सरल हैं।

प्रस्तुत पद में कबीर ने अपने समय के साम्प्रदायिक तनावग्रस्त माहौल का भी वर्णन किया है। पद में अनायास रूप से अनुप्रास, वीप्सा. आदि अलंकार आये हैं। पद शांत रस का अनूठा उदाहरण है।

द्वितीय पद साधना के क्षेत्र के सहज सिद्ध हठयोगी, भावना के क्षेत्र में आकर कितना कोमल प्राण, भावुक, भाव विह्वल, विदग्ध हृदय हो सकता है, यह विरोधाभास कबीर में उपलब्ध हो सकता है।

चिर विरहिणी कबीर आत्मा विरह विदग्ध अवस्था की चरम स्थिति में चीत्कार करती हुई कहती है कि हे बलिया (बाल्हा) प्रियतम तुझे कब देवूगी तेरा प्रेम मेरे भीतर इस तरह से व्याप्त हो गया है कि दिन-रात तुम्हारे दर्शन की आतूरता आकुलता बनी रहती है। मेरी आँखें केवल तुमको देखना चाहती हैं, ये लगातार खुली रहती हैं कि तुम्हारे दीदार से वंचित न हो जाएँ।

हे मेरे भर्तार (स्वामी) तुम भी इतना सोच विचार लो कि तुम्हारे बिना शरीर में जो विरहाग्नि उत्पन्न हुई है वह शरीर को कैसे जलाती होगी। मेरी गुहार सुनो, बहरा मत बन जाओ मैं जानती हूँ कि तुम धीरता की प्रतिमूर्ति हो, शाश्वत हो लेकिन मेरी शरीर कच्चा कुम्भ है और उसने प्राण रूपी नीर है। घड़ा कभी भी फूट सकता है, मृत्यु कभी भी हो सकती है। तुमसे बिछड़े हुए भी बहुत दिन हो गये, अब मन को किसी भी प्रकार से धीरता प्राप्त नहीं हो पाती।

जब तक यह शरीर है, मेरे दु:ख का नाश करने वाले तुम एक बार मुझे अपना “दरस-परस” करा दो। मैं अतृप्ति को साथ लिये मरना नहीं चाहती। तुमसे मैंने प्रेम किया है, विरह भी भोंग रही हूँ किन्तु यदि हमारा मिलन नहीं हुआ, प्रेम का सुखान्त नहीं हुआ तो यह तुम्हारे जैसे सर्वशक्तिमान आर्तिनाशक के विरुद्ध के विरुद्ध बात होगी।

प्रस्तुत पद में कबीर ने भारतीय रहस्यवाद का सुन्दर वर्णन किया है। जहाँ जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध प्रेमी और प्रेमास्पद के रूप में चित्रित है।

रूपक और अनुप्रास अलंकार के उदाहरण यत्र-तत्र उपलब्ध है। सम्पूर्ण पद में शांत रस का पूर्ण परिपाक हुआ है।

कबीर के पद कठिन शब्दों का अर्थ

पतियाना-विश्वास करना। धावै-दौड़ना। व्यापै-अनुभव। रती-तनिक (रत्ती, रती)। नेमी-नियम का पालन करने वाला। बधीर-बहरा, जो कम सुने या न सुने। आतम-आत्मा। अगिनी-अग्नि। पखानहि-पत्थर को। दादि-विनती, स्तुति। पीर-धर्म गुरु। गुसांई-गोस्वामी, मालिक। औलिया-सन्त। जिन-मत, नहीं (निषेध सूचक)। कितेब-किताब, पुस्तक। भांडै-बर्तन। मुरीद-शिष्य, चेला, अनुयायी। छता-अक्षत, रहते हुए। तदवीर-उपाय। आरतिवंत-दुःखी। डिंभ-दंभ। रहिमाना-दयालु। पीतर-पीतल, पितर, पुरखा। महिमा-महत्त्व। मूए-मरे। बलिया-प्रियतम। अहनिस-दिन-रात।

कबीर के पद काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. संतो देखत जग बौराना…………नमें कछु नहिं ज्ञाना।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी ने धार्मिक क्षेत्र में उलटी रीति और संसार के लोगों के बावलेपन का उल्लेख किया है। वे संतों अर्थात् सज्जन तथा ज्ञान-सम्पन्न लोगों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि संतो! देखो, यह संसार बावला या पागल हो गया है? इसने उल्टी राह पकड़ ली है। जो सच्ची बात कहता है उसे लोग मारने दौड़ते हैं। इसके विपरीत जो लोग गलत और झूठी बातें बताते हैं उन पर वे विश्वास करते हैं। मैंने धार्मिक नियमों और विधि-विधानों का पालन करने वाले अनेक लोगों को देखा है। वे प्रातः उठकर स्नान करते हैं, तथा मंदिरों में जाकर पत्थर की मूर्ति को पूजते हैं। मगर उनके पास तनिक भी ज्ञान नहीं है। वे अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं और उसकी आवाज को मारते हैं, अर्थात् अनसुनी करते हैं, अर्थात् अनसुनी करते हैं, सारांशतः कबीर कहना चाहते हैं कि ऐसे लोग केवल बाहरी धर्म-कर्म और नियम-आचार जानते हैं जबकि अन्त: ज्ञान से पूर्णतः शून्य हैं।

2. बहुतक देखा पीर औलिया…………..उनमें उहै जो ज्ञाना।
व्याख्या-
कबीरदास जी ने अपने पद की प्रस्तुत पंक्तियों में मुसलमानों के तथाकथित पीर और औलिया के आचरणों का परिहास किया है। वे कहते हैं कि मैंने अनेक पीर-औलिये को देखा है जो नित्य कुरान पढ़ते रहते हैं। उनके पास न तो सही ज्ञान होता है और न कोई सिद्धि होती है फिर भी वे लोगों को अपना मुरीद यानी अनुगामी या शिष्य बनाते और उन्हें उनकी समस्याओं के निदान के उपाय बताते चलते हैं। यही उनके ज्ञान की सीमा है। निष्कर्षतः कबीर कहना चाहते हैं कि ये पीर-औलिया स्वतः अयोग्य होते हैं लेकिन दूसरों को ज्ञान सिखाते फिरते हैं। इस तरह ये लोग ठगी करते हैं।

3. आसन मारि डिंभ धरि…………….आतम खबरि न जाना।
व्याख्या-
कबीरदास जी का स्पष्ट मत है कि जिस तरह मुसलमानों के पीर औलिया ठग हैं उसी तरह हिन्दुओं के पंडित ज्ञान-शूल। वे कहते हैं कि ये नकली साधक मन में बहुत अभिमान रखते हैं और कहते हैं कि मैं ज्ञानी हूँ लेकिन होते हैं ज्ञान-शूल। ये पीपल पूजा के रूप में वृक्ष पूजते हैं, मूर्ति पूजा के रूप में पत्थर पूजते हैं। तीर्थ कर आते हैं तो गर्व से भरकर अपनी वास्तविकता भूल जाते हैं। ये अपनी अलग पहचान बताने के लिए माला, टोपी, तिलक, पहचान चिह्न आदि धारण करते हैं और कीर्तन-भजन के रूप में साखी, पद आदि गाते-गाते भावावेश में बेसुध हो जाते हैं। इन आडम्बरों से लोग इन्हें महाज्ञानी और भक्त समझते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि इन्हें अपनी आत्मा की कोई खबर नहीं होती है। कबीर के अनुसार वस्तुतः ये ज्ञानशून्य और ढोंगी महात्मा हैं।

4. हिन्दु कहै मोहि राम पियारा………….मरम न काहू जाना।
व्याख्या-
कबीर कहते हैं कि हिन्दू कहते हैं कि हमें राम प्यारा है। मुसलमान कहते हैं कि हमें रहमान प्यारा है। दोनों इन दोनों को अलग-अलग अपना ईश्वर मानते हैं और आपस में लड़ते तथा मार काट करते हैं। मगर, कबीर के अनुसार दोनों गलत हैं। राम और रहमान दोनों एक सत्ता के दो नाम हैं। इस तात्त्विक एकता को भूलकर नाम-भेद के कारण दोनों को भिन्न मानकर आपस में लड़ना मूर्खता है। अत: दोनों ही मूर्ख हैं जो राम-रहीम की एकता से अनभिज्ञ हैं।

5. घर घर मंत्र देत…………….सहजै सहज समाना।
व्याख्या-
कबीरदास जी इन पंक्तियों में कहते हैं कि कुछ लोग गुरु बन जाते हैं मगर मूलतः वे अज्ञानी होते हैं। गुरु बनकर वे अपने को महिमावान समझने लगते हैं। महिमा के इस अभिमान से युक्त होकर वे घर-घर घूम-घूम कर लोगों को गुरुमंत्र देकर शिष्य बनाते चलते हैं। कबीर के मतानुसार ऐसे सारे शिष्य गुरु बूड़ जाते हैं; अर्थात् पतन को प्राप्त करते हैं और अन्त समय में पछताते हैं। इसलिए कबीर संतों को सम्बोधित करने के बहाने लोगों को समझाते हैं कि ये सभी लोग भ्रमित हैं, गलत रास्ते अपनाये हुए हैं।

मैंने कितनी बार लोगों को कहा है कि आत्मज्ञान ही सही ज्ञान है लेकिन ये लोग नहीं मानते हैं। ये अपने आप में समाये हुए हैं, अर्थात् स्वयं को सही तथा दूसरों को गलत माननेवाले मूर्ख हैं। यदि आप ही आप समाज का अर्थ यह करें कि कबीर ने लोगों को कहा कि अपने आप में प्रवेश करना ही सही ज्ञान है। तब यहाँ ‘आपहि आप समान’ का अर्थ होगा-‘आत्मज्ञान प्राप्त करना’ जो कबीर का प्रतिपाद्य है।

6. हो बलिया कब देखेंगी…………..न मानें हारि।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी ने ईश्वर के दर्शन पाने की अकुलाहट भरी इच्छा व्यक्त की है। वे कहते हैं कि प्रभु मैं तुम्हें कब देखूगा? अर्थात् तुम्हें देखने की मेरी इच्छा कब पूरी होगी, तुम कब दर्शन दोगे? मैं दिन-रात तुम्हारे दर्शन के लिए आतुर रहता हूँ। यह इच्छा मुझे इस तरह व्याप्त किये हुई है कि एक पल के लिए भी इस इच्छा से मुक्त नहीं हो पाता हूँ।

मेरे नेत्र तुम्हें चाहते हैं और दिन-रात प्रतीक्षा में ताकते रहते हैं। नेत्रों की चाह इतनी प्रबल है कि ये न थकते हैं और न हार मानते हैं। अर्थात् ये नेत्र जिद्दी हैं और तुम्हारे दर्शन किये बिना हार मानकर बैठने वाले नहीं हैं। अभिप्राय यह कि जब ये नेत्र इतने जिद्दी हैं, और मन दिन-रात आतुर होते हैं तो तुम द्रवित होकर दर्शन दो और इनकी जिद पूरी कर दो।

7. “बिरह अगिनि तन……………..जिन करहू बधीर।”
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी अपनी दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे स्वामी ! तुम्हारे वियोग की अग्नि में यह शरीर जल रहा है, तुम्हें पाने की लालसा आग की तरह मुझे दग्ध कर रही है। ऐसा मानकर तुम विचार कर लो कि मैं दर्शन पाने का पात्र हूँ या उपेक्षा का?

कबीरदास जी अपनी विरह-दशा को बतला कर चुप नहीं रह जाते हैं? वे एक वादी अर्थात् फरियादी करने वाले व्यक्ति के रूप में अपना वाद या पक्ष या पीड़ा निवेदित करते हैं और प्रार्थना. करते हैं कि तुम मेरी पुकार सुनो, बहरे की तरह अनसुनी मत करो। पंक्तियों की कथन-भगिमा की गहराई में जाने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि कबीर याचक की तरह दयनीय मुद्रा में विरह-निवेदन नहीं कर रहे हैं। उनके स्वर में विश्वास का बल है और प्रेम की वह शक्ति है जो प्रेमी पर अधिकार-बोध व्यक्त करती है।

8. तुम्हे धीरज मैं आतुर…………….आरतिवंत कबीर।
व्याख्या-
अपने आध्यात्मिक विरह-सम्बन्धी पद की प्रस्तुत पंक्तियों में कबीर अपनी तुलना आतुरता और ईश्वर की तुलना धैर्य से करते हुए कहते हैं कि हे स्वामी ! तुम धैर्य हो और मैं आतुर। मेरी स्थिति कच्चे घड़े की तरह है। कच्चे घड़े में रखा जल शीघ्र घड़े को गला कर बाहर निकलने लगता है। उसी तरह मेरे भीतर का धैर्य शीघ्र समाप्त हो रहा है अर्थात् मेरा मन अधीर हो रहा है। आप से बहुत दिनों से बिछुड़ चुका हूँ।

मन अधीर हो रहा है तथा शरीर क्षीण हो रहा है। अपने भक्त कबीर पर कृपाकर अपने दर्शन दीजिए। आपके दर्शन से ही मेरा जीवन सफल हो सकता है। कबीरदास का मन ईश्वर से मिलने के लिए व्याकुल है। उनकी अन्तरात्मा ईश्वर के लिए आतुर है। वास्तव में, ईश्वर के दर्शन से ही कबीर का जीवन सफल हो सकता है।


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