BSEB Class 11 Hindi मीराबाई के पद Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi मीराबाई के पद Book Answers |
Bihar Board Class 11th Hindi मीराबाई के पद Textbooks Solutions PDF
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Board | BSEB |
Materials | Textbook Solutions/Guide |
Format | DOC/PDF |
Class | 11th |
Subject | Hindi मीराबाई के पद |
Chapters | All |
Provider | Hsslive |
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BSEB Class 11th Hindi मीराबाई के पद Textbooks Solutions with Answer PDF Download
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प्रश्न 1.
मीरा अपने सच्चे प्रीतम के साथ किस तरह रहने को तैयार हैं?
उत्तर-
मीरा अपने सच्चे प्रीतम के साथ हर परिस्थिति में रहने के लिए तैयार हैं। उसके प्रीतम कृष्ण उसे जो पहनने के लिए देंगे वही पहनने के लिए तैयार है। जो खाने के लिए उसके प्रीतम के द्वारा दिया जाएगा उसी से मीरा अपनी क्षुधा की तृप्ति करेगी, जो स्थान रहने के लिए कृष्ण देंगे वह वहीं निवास करेगी और यदि वे बेच भी दें तब भी वह कृष्ण प्रदत्त नयी स्थिति में रह लेगी।
प्रश्न 2.
“मेरी उण की प्रीत पुराणी, उण बिन पल न रहाऊँ।”-का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पद सगुण भक्ति धारा की कृष्णोपासक कवयित्री मीराबाई द्वारा रचित है। कृष्ण के प्रति मीरा का एकनिष्ठ अटूट सर्मपण उत्तरोत्तर अतीव वेग से उमड़ते भावों से परिपूर्ण है। मधुर भाव की उत्कट प्रेमानुभूति से वशीभूत मीरा श्रीकृष्ण मीरा श्रीकृष्ण के प्रति सर्वात्म समर्पण करती है। वह श्रीकृष्ण पर लुट चुकी, मिट चुकी है। श्रीकृष्ण के रंग में रंग में रंगी मीरा उनसे पुरानी प्रीति को स्वीकार करते हुए एक पल भी अकेले नहीं रहना चाहती है। मीरा का अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रति सर्वात्म समर्पित प्रेम व्यजित है। मीरा के प्रेम में उमड़ते हुए ऐसे प्रेम-वेग सहज ही दृष्टिगोचर होता है।
प्रश्न 3.
कृष्ण के प्रति तोड़ने पर भी मीरा प्रीत तोड़ने को तैयार नहीं है। क्यों?
उत्तर-
मीराबाई रूढ़ियों से ग्रसित मध्यकालीन समाज की सामाजिक बंधनों को तोड़कर नटवर नागर (श्रीकृष्ण) की प्रेम दीवानी बनकर उन्हें सच्चा प्रियतम के रूप में अपनाया है। वह तो श्रीकृष्ण के जादुई पाश में इस तरह बँधी है कि उसका अपना अस्तित्व ही उनमें विलीन हो गया है। विधवा मीरा तत्कालीन सामाजिक नियमों के अनुसार सती न होकर श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति की उन्मत घोषणा करती है। उन्होंने श्रीकृष्ण को ही अपना वास्तविक पति और प्रियतम स्वीकार करती है।
पति को वह कैसे छोड़ सकती है जिसके प्रेम में वह अस्तित्वविहीन हो गई है। कृष्ण के द्वारा प्रीत तोड़ देने पर भी वह उनसे प्रीत जोड़ने को मजबूर है। वह श्रीकृष्ण के संग तरुवर और पक्षी, सरवर और मछली, गिरिवर और चारा, चंदा और चकोरा, मोती और धागा तथा सोना और सुहागा के समान रहना चाहती है। वस्तुतः मीरा का किसी भी परिस्थिति में प्रीत नहीं तोड़ने की जादुई पाश में बंध चुकी है।
प्रश्न 4.
मीरा ने कृष्ण के लिए कौन-कौन-सी उपमाएँ दी हैं? वे कृष्ण की तुलना में स्वयं को किस रूप में प्रस्तुत करती हैं?
उत्तर-
मीरा ने कृष्ण के लिए निम्नलिखित उपमानों का प्रयोग किया है-तरुवर (पेड़), सरवर (सरोवर), गिरिवर (हिमालय पर्वत), चन्दा (चन्द्रमा), मोती और सोना।
मीरा ने कृष्ण की तुलना में स्वयं को क्रमशः पंखिया (पारवी, पक्षी), मछिया (मछली), चारा (घास), चकोरा (चकोर, चक्रवाक पक्षी), धागा और सोहागा के रूप में प्रस्तुत किया है।
प्रश्न 5.
“तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी” में ठाकुर का क्या अर्थ है?
उत्तर-
उपर्युक्त पक्ति में आगत ठाकुर शब्द का अर्थ स्वामी, मालिक, सर्वस्व, सर्वेश, भर्तार आदि है।
प्रश्न 6.
पठित पद के आधार पर मीरा की भक्ति-भावना का परिचय अपने शब्दों में
उत्तर-
कृष्ण भक्त कवियों में मीराबाई का नाम स्वर्णाक्षरों में भक्ति-शिखर पर अकित है। मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की कृष्ण भक्ति है। इस भक्ति में विनय भावना, समर्पण भावना, वैष्णवी प्रीत, अवधा भक्ति के सभी रंग शामिल हैं। कृष्ण प्रेम में अस्तित्व-विहीन मीरा तरुवर पर पक्षी, सरोवर में मछली, गिरिवर पर चारा, चंदा के साथ चकोर, मोती के साथ धागा और सोना के लिए सोहागा के रूप में रहना चाहती है। तमाम तरह की लोक-मर्यादा को छोड़कर श्रीकृष्ण को पति मानकर कहती है-“तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी”।
मीरा ने आँसुओं के जल से जो प्रेम-बेल बोई थी, अब वह फैल गई है और उसमें आनन्द-फल लग गए हैं। वह सौन्दर्य और प्रेम के जादुई पाश में पूर्णतः बंध चुकी है। वह हर . पल अब श्रीकृष्ण को येन-केन प्रकारेण रिझाना चाहती है। वह कहती है
रेणु दिन वा के संग खेलूँ
ज्यूँ-त्यूँ ताही रिझाऊँ।
मीरा के पदों की कड़ियाँ समर्पण भाव से ओत-प्रोत है। इस समर्पण में प्रेमोन्माद के रूप में वह प्रकट होती है। उनका उन्माद और तल्लीनता, आत्मसमर्पण की स्थिति में पहुँच गया है
‘मीरा के प्रभु गिरधर नागर
बार-बार बलि जाऊँ।’.
मीरा की भक्ति में उद्दामता है, पर अंधता नहीं। उनकी भक्ति के पद आंतरिक गूढ़ भावों के स्पष्ट चित्र हैं। मीरा के पदों में श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्ष पाए जाते हैं, पर उनमें विप्रलंभ शृंगार की प्रधानता है। उन्होंने ‘शांत रस’ के पद भी रचे हैं।
मीरा की भक्ति के सरस-सागर की कोई थाह नहीं है, जहाँ जब चाहो, गोते लगाओ। इसमें रहस्य साधना भी समाई हुई है। संतों के सहज योग को मीरा ने अपनी भक्ति का सहयोगी बना लिया था।
प्रश्न 7.
“गिरिधर म्हारो साँचो प्रीतम” यहाँ साँचो विशेषण का प्रयोग मीरा ने क्यों किया है?
उत्तर-
कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई उनकी उपासना प्रियतम (पति) के रूप में करती है। यह रूप अत्यन्त मनोहारी है। उन्होंने श्रीकृष्ण को ही अपना वास्तविक पति और सच्चा प्रियतम बताया-‘गिरिधर म्हारो साँचो प्रीतम’। युवावस्था में विधवा मीरा ने वैधव्यता को, जो उनकी नजर में सांसारिक और झूठा था, को धता बताकर स्वयं को अजर-अमर स्वामी श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। अर्थात् ‘साँचो’ विशेषण मीरा की कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ अटूट समर्पण की पराकाष्ठा है।
प्रश्न 8.
मीरा की भक्ति लौकिक प्रेम का ही विकसित रूप प्रतीत होती है। कैसे? यह दोनों पदों के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रेम के दो स्वरूप हैं-
(i) जगतिक या सांसारिक प्रेम और (2) ईश्वरीय या आध्यात्मिक प्रेम। किसी शायर ने कहा है-“हकीकी इश्क से पहले मिजाजी इश्क होता है।” अर्थात् ईश्वर से प्रेम करने या होने के पूर्व सांसारिक प्रेम होता है। जो अपने रक्त सम्बन्धियों से, अपने परिवेश से प्रेम नहीं कर पाएगा वह ईश्वर से क्या खाक प्रेम करेगा।
मीरा कृष्ण को ‘पिया’ संबोधन देती है। पिया अर्थात् पति। भारतीय समाज में पति-पत्नी ‘के सम्बन्ध को अत्यन्त आदरणीय, सम्मानित स्थान प्राप्त है। विशेषकर हिन्दू समाज में जहाँ हर विषम परिस्थिति में यह दाम्पत्य बंधन अटूट बना रहता है। पति-पत्नी एक-दूसरे के व्यक्तित्व के परिपूरक होते हैं। एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं। मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम निवेदन एक पत्नी के प्रणय निवेदन की तरह ही है। अन्तर सिर्फ इतना भर है कि कृष्ण यहाँ अलौकिक, परमपुरुष ब्रह्म स्वरूप हैं। जैसे एक पतिव्रता हर परिस्थिति में, सुख-दुख में पति के प्रति एकनिष्ठ बनी रहती हैं संतुष्ट होती हैं। मीरा भी कृष्ण के प्रति ऐसी ही भावना व्यक्त करती हैं। अत: यह – कहना ठीक ही है कि मीरा की भक्ति लौकिक प्रेम का विकसित रूप है।
मीराबाई के पद भाषा की बात।
प्रश्न 1.
मैं, म्हारो, उण आदि सर्वनाम हैं। दिये गये पदों से सर्वनामों को चुनकर लिखें।
उत्तर-
मीराबाई राजस्थान की थी। उनकी रचनाओं में राजस्थानी बोली के शब्द आये हैं। सर्वनाम भी राजस्थानी बोली के ही प्रयोग में लाये गये हैं।
- म्हारो – मेरा
- उण – वह, उसका, उसके
- तोसों – तुमसे तितही – वहीं
- वा – उसके
- ताही – उसको
- सोई – वहीं।
प्रश्न 2.
प्रथम पद में मीरा ने कृष्ण और अपने लिए कुछ उपमान या अप्रस्तुत दिये हैं। उन्हें अलग-अलग लिखें।
उत्तर-
कृष्ण के लिए प्रयुक्त उपमान मीरा के लिए प्रयुक्त उपमान
- तरुवर – पंखिया
- सरवर – मछिया
- गिरिवर – चारा
- चंदा – चकोरा
- सोना – सोहागा
- ठाकर – दासी
प्रश्न 3.
मीरा के इन पदों में भक्ति रस है। भक्ति रस का स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति है। अन्य रसों की सूची उनके स्थायी भावों के साथ बनाएँ।
उत्तर-
रसो वै सः अर्थात् रस ब्रह्म ही है। रसो की संख्या भिन्न आचार्यों ने आत नौ और ग्यारह निर्धारित की है। स्थायी भावों से साथ इन रसों की सूची निम्नवत है–
प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखें रात, दिन, प्रभु, तरु, तालाब, चन्द्रमा, सोना।
उत्तर-
- रात – निशा, रजनी, रात्रि।
- दिन – दिवा, दिवस।
- प्रभु – स्वामी, ठाकुर
- तरु – वृक्ष, पेड़, तड़ाग
- तालाब – सर, सरोवर, तडाग।
- चन्द्रमा – चन्द्र निशापति, रजनीपति, निशाकर, चाँद।
- सोन – कनक, स्वर्ण, सुवर्ण, हेम, हिरण्य।।
प्रश्न 5.
मीरा की भाषा ब्रज मिश्रित राजस्थानी है। ये दोनों हिन्दी क्षेत्र की उपभाषाएँ हैं। बिहार प्रदेश में कितनी उपभाषाएँ बोली जाती हैं? उनकी सूची क्षेत्रवार बनाएँ।
उत्तर-
बिहार प्रांत में निम्नलिखित उपभाषाएँ बोली जाती हैं जिनके नाम के आगे उनका क्षेत्र उल्लिखित हैं
- भोजपुरी-छपरा, सीवान, गोपालगंज, पश्चिमी चम्पारण, आरा, भोजपुर, रोहतास, कैमूर।
- मैथिली-पूर्वी चम्पारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, मधुबनी, पूर्णिया, अररिया, कटिहार, सहरसा, मधेपुरा सुपौल।
- मगही-पटना, गया, चतरा, औरंगाबाद।
- अंगिका-भागलपुर, पूर्णिया का कुछ भाग नौगछिया।
- वञ्जिका-वैशाली और पूर्वी चम्पारण का कुछ भाग।
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
मीराबाई के पद लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मीरा के कृष्ण के प्रति समर्पण भाव का विवेचन करें।
उत्तर-
मारा कृष्ण के प्रति अनन्य भाव से समर्पित है। वह दिन-रात कृष्ण के चरणों में पड़ी रहकर उनकी रूप माधुरी निहारना चाहती है। यह हर तरह से कृष्ण को रिझाना चाहती है। वह ऐसी समर्पिता है कि कृष्ण जो पहचानें, जो खिलावें अर्थात् जैसे रखना चाहें उन्हीं की दासी बनकर रहना चाहती है। यह समर्पण-भाव अपने उत्कर्ष पर वहाँ पहुँच जाता है जहाँ वह कृष्ण द्वारा बेचे जाने पर बिक जाने के लिए तैयार हो जाती है। सारांशत: वह एक पूर्ण समर्पिता और दासी भाव की प्रेमिका है।
प्रश्न 2.
मीरा की दृष्टि में कृष्ण का क्या स्थान है?
उत्तर-
मीरा ने कृष्ण के लिए कुछ विशेष शब्दों का प्रयोग अपने प्रसंग में किये हैं। इन शब्दों से कृष्ण के विषय में मीरा की दृष्टि ज्ञात होती है। प्रथमतः मीरा की दृष्टि से गिरिधर रूप है वह जिसमें उन्होंने पर्वत धारण कर जन-समूह की घोर वृष्टि से रक्षा की। अतः मीरा की दृष्टि में कृष्ण सबके रक्षक हैं। तृतीय, मीरा के कृष्ण नागर हैं। सागर वह व्यक्ति होता है .. जो सभ्य, शिष्ट, संस्कारवान और मृदु वचन एवं आचरण का धनी होता है। अंतः मीरा के कृष्ण श्रेष्ठ पुरुष हैं।
प्रश्न 3.
कृष्ण के प्रति मीरा किस भाव से समर्पिता है?
उत्तर-
मीरा ने कृष्ण को अपना प्रेमी और पति माना है। स्वभावत: उसने अपने को प्रेमिका के रूप में रखा है। लेकिन उसके प्रेमिका रूप में पत्नी जैसा समर्पण और दासी जैसा सेवा-भाव मिला हुआ है। एक वाक्य में वह पूर्णतः समर्पिता और सेविका प्रेमिका है जो कृष्ण को खुले शब्दों में पति मानती है।
मीराबाई के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
मीरा कृष्ण से प्रीति क्यों तोड़ना नहीं चाहती है?
उत्तर-
मीरा की दृष्टि में कृष्ण के समान सर्व रूप-गुण सम्पन्न कोई दूसरा पुरुष है ही नहीं लिससे वह प्रीति कर सके। इसलिए कृष्ण उसके लिए विकल्पहीन पुरुष हैं।
प्रश्न 2.
मीरा ने किन उपमानों के सहारे अपने और कृष्ण के सम्बन्ध को व्यक्त किया है?
उत्तर-
मीरा ने सरोवर और मछली, पेड़ और पक्षी, पर्वत और घास, चन्द्रमा और चकोर, मोती और धागा तथा सोना और सुहागा जैसे उपमानों द्वारा अपने और कृष्ण के सम्बन्ध को व्यक्त किया है?
प्रश्न 3.
मीरा के कृष्ण कैसे व्यक्ति हैं?
उत्तर-
मीरा के कृष्ण नागर हैं, रक्षक हैं और सच्चे प्रियतम हैं। यही कारण है कि मारा की भक्ति कृष्ण में लीन है।
प्रश्न 4.
मीराबाई किस प्रकार की कवयित्री हैं?
उत्तर-
मीराबाई कृष्णभक्ति वाली कवयित्री है।
प्रश्न 5.
मीराबाई के प्रथम पद में किसकी व्यंजना हुई है?
उत्तर-
मीराबाई के प्रथम पद में एकांतिक प्रेम और समपर्ण भाव दोनों की व्यंजना हुई है।
प्रश्न 6.
श्रीकृष्ण के प्रति मीरा की समर्पण-भावना उनके किस पद में दिखाई देती है?
उत्तर-
श्रीकृष्ण के प्रति मीराबाई की समर्पण-भावना द्वितीय पद में दिखाई देती है।
मीराबाई के पद वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
I. सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें।
प्रश्न 1.
मीरावाई किस काल के कवयित्री हैं?
(क) रीतिकाल
(ख) भक्तिकाल
(ग) वीरगाथाकाल
(घ) आधुनिक काल
उत्तर-
(ख)
प्रश्न 2.
मीरवाई के उपास्य थे
(क) कृष्ण
(ख) राम
(ग) शिव
(घ) ब्रह्मा
उत्तर-
(क)
प्रश्न 3.
मीरा के पद का संकलन किस ग्रंथ में है?
(क) प्रेमाश्रु
(ख) प्रेमवाणी
(ग) प्रेम सुधा
(घ) इनमें कोई नहीं
उत्तर-
(ख)
प्रश्न 4.
मीरा के प्रथम पद मे किसका वर्णन है?
(क) एकान्तिक प्रेम का
(ख) आत्म समर्पण का
(ग) अनन्य भक्ति का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)
प्रश्न 5.
दूसरे पद में मीरा के किस रूप की व्यंजन हुई है?
(क) एकान्तिक प्रेम की
(ख) कृष्ण के प्रति समर्पण की
(ग) एकांगिक प्रेम की
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख)
II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।
प्रश्न 1.
मीरा…………..भक्तिधारा की प्रतिनिधि कवयित्री के रूप में जानी जाती है।
उत्तर-
सगुण
प्रश्न 2.
मीरा की तुलना भारतीय साहित्य में तमिल की वैष्णव भक्त कवयित्री………………से की जाती
उत्तर-
गोदा (अंडाल)
प्रश्न 3.
पहले पद में मीरा का प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रति वेपरवाह…………व्यंजित हैं।
उत्तर-
ऐकान्तिक प्रेम
प्रश्न 4.
तुम भये…………मैं तेरी मछिया।
उत्तर-
सरवर
प्रश्न 5.
तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी…………..।
उत्तर-
दासी।
मीराबाई पद कवि परिचय (1504-1563)
हिन्दी साहित्य की भक्ति रस शाखा में सबसे महत्त्वपूर्ण के रूप में प्रेम दीवानी “दरद दिवाणी” मीराबाई का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इनके जीवन-वृत्त में अनेक किम्वदतियाँ समाहित हैं, जिससे इनकी जीवनी अलौकिक घटनाओं से युक्त हो जाती है। कुछ घटनाएँ सत्य भी है जिनका वर्णन मीरा की कई रचनाओं में हुआ है। अनेक रचनाओं का उल्लेख होते हुए भी मीराबाई की पदावली ही सबसे प्रमाणिक मानी गयी है। तत्कालीन वातावरण की दृष्टि से संतों की ये शिष्या दिखती हैं किन्तु धार्मिक दृष्टि से सगुण भक्ति के समीप पड़ती है।
यही कारण है कि मीरा के भाव संतों के भाव जैसे ही अनुभूतिमय है और उनकी शैली में अधिक कोमल, तरल और प्रांजलं है। मीरा का आलंबन अलौकिक है और भक्तिभाव की दृष्टि से मीरा का प्रेम व्यापार रहस्यवाद के अन्तर्गत आता है। मीरा के आराध्य सगुण कृष्ण हैं जबकि रहस्यवाद निर्गुण ब्रह्म और जीव के मधुर रागात्मक सम्बन्ध पर आधारित है। यही कारण है कि मीरा न तो पूर्णतः संतों की श्रेणी में आती है और न भक्तों की श्रेणी में। मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की है। सगुण ईश्वर के साथ भक्त कवि अपना भावपूर्ण व्यापार चलाते हैं। मीरा अपने आराध्य देव को प्रेमी ही नहीं पति भी मानती हैं–
“मेरो तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।”
“मैं तो गिरिधर के घर जाऊँ
गिरिधर म्हारों सांचों प्रीतम देखत रूप लुभाऊँ।”
कृष्ण के बिना मीरा का जीवन कठिन हो गया है-
“पिया बिन रहयो न जाई।”
“पिया बिन मेरी सेज अलूनी, जागत रैन बहावे।”
फागुन आया हुआ है और कृष्ण पास नहीं हैं-
“होरी पिया बिन खारी”
मीरा के समक्ष को लेकर कोई औपचारिक बंधन नहीं है। उनका स्पष्ट कथन है-
“मेरी उनकी प्रीत पुराणी उण बिन पल न रहाऊँ
पूरब जनम की प्रीत पुराणी, सो कस छोड़ी जाय।”
मीरा के काव्य में रूपासक्तिजन्य माधुर्य भाव का वर्णन हुआ है जो कृष्ण के सौन्दर्याकर्षण पर आधारित है-
“मोहन के मैं रूप लुभाणी
सुन्दर वदन कमल दल लोचन
बाँकी चितवन मद मुस्कानी”
आली रे मेरे नैना वान पड़ी
चित चढ़ी मोरे माधुरी मूरत, उरबीच आन पड़ी।”
मीरा तो कृष्ण के हाथों पहले ही दर्शन में बिक गयी और उनके साथ हो गयी-
“मैं ठाढ़ी गृह आपणो री, मोहन निकसे आई
वदन चन्द्र प्रकाशत हिली मंद-मंद मुस्काई
लोग कुटुम्बी गरजे ही बरजे ही, बतिया कहत बनायी
चंचन निपट अकट नहीं मानत, परहित गये बिकाई।”
मीरा की माधुर्य भक्ति में प्रगाढ़ता के साथ अनुभूति की गंभीरता भी है-
“रमईया बिन नींद न आवे
नींद न आवै विरह सतावै प्रेम की आँच डुवाब
होरी पिया बिन लागै खारी
सूनो गाँव देस सब सूना सूनी सेज अटारी।”
कला पक्ष की दृष्टि से भी मीराबाई का काव्य अत्यन्त समृद्ध है। इनके काव्य में संयोग और वियोग श्रृंगार के साथ शांत रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। संयोग शृंगार का वर्णन देखें
“आवत मोरी गलियन में गिरधारी
मैं तो छुनि गई लाज की मारी।”
वियोग शृंगार का एक उदाहरण
‘हे री ! मैं तो दरद दीवाणी म्हारा दरद न जाणै कोई
प्रीतम बिन तम जाइ न सजनी दीपक भवन न भावै हो
फूलन सेल सूल हुई लागी जागत रैनि बिहावै हों।”
शांत रस का वर्णन देखें-
“स्याम बिन दुःख पावा सजनी
कुण महाँ धीर वंधावा
राम नाम बिनु मुकति न पावा फिर चौरासी जावां
साध संगत मा भूलणां जावा मूरख जनम गमावां
मीरा के प्रभु थारी सरणे जोत धरत पद पावां।”
मीरा ने काव्य में प्रकृति चित्रण अपने प्रकृत रूप में उपस्थित है-
“मतवारे बादल आये रे, हरि को सनेसो कबहु न लाये
गाजै पवन मधुरिमा मेहा अति झड़ लाये रे
कारो नाग विरह अति जारी मीरा मन हरि भायो रे।”
मीरा की भाषा में गुजरती, राजस्थानी और ब्रजभाष में तीनों की त्रिधारा दीखती है। वस्तुतः इन तीनों भाषा-क्षेत्रों से इनका सम्बन्ध रहा है।
मीरा की शैली पद है जिसके साथ ‘सरसी’, विष्णुपद, दोहा, सवैया, शोभन, तांटक और .. कुण्डल छन्दों का भी प्रयोग किया है।
मीरा के काव्य में सादृश्यमूलक अलंकार जैसे उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति, उदाहरण, . विभावना, समासोक्ति अर्थान्तर न्यास, श्लेष, वीप्सा और अनुप्रास की प्रधानता है। कहा जा सकता है कि मीरा के काव्य का भाव और कला दोनों पक्ष समृद्ध हैं। किन्तु सबके बावजूद मीरा में कवि कर्म प्रधान नहीं है। कृष्ण के लिए उनकी दिवानगी ही प्रधान और प्रसिद्ध है।
मीराबाई के पद कविता का भावार्थ
मीराबाई के प्रथम पद
प्रस्तुत पद में कृष्ण को समर्पित भक्त कवयित्री मीराबाई कृष्ण को ही सम्बोधित करते हुए कहती है हमारे बीच एक रागात्मक सम्बन्ध बना है। यदि इस सम्बन्ध को तुम अपनी तरफ से तोड़ भी देते तो तब भी मेरा एकनिष्ठ प्रेम जारी रहेगा। मैं यह सम्बन्ध कभी नहीं तोडूंगी। इसका एक कारण है कि तुम्हारे जैसा गुण सम्पन्न इस संसार में और कोई नहीं जिससे तुमसे बिछुड़ने के बाद सम्बन्ध बना सकूँ, जोड़ सकूँ।
वैसे हमारा सम्बन्ध अस्तित्व-सा अन्योन्याश्रित हैं। प्रभु मेरे यदि तुम तरुवर हो तो मैं उस पर निवास करने वाली पक्षी हूँ, चिड़िया हूँ। तुम्ही इस “पाखी” के सहायक हो। यदि तुम सरोवर हो तो उसमें जीवन धारण करने वाली मैं मछली हूँ। जल ही जिसका जीवन है। यदि तुम पर्वत राज हो तो मैं उसकी गोद में वाली हरियाली हूँ। यदि तुम चन्द्रमा हो तो मैं तुमको एक टक निहारने वाला चकोर हूँ। यदि तुम मोती हो तो मैं क्षुद्र धागा हूँ जिसमें गूंथ कर माला तैयार होती है। यदि तुम स्वर्ण, कंचन हो तो मैं सोहागा (एक रासायनिक पदार्थ) हूँ। यदि तुम ब्रज के स्वामी ठाकुर हो तो मैं तेरी सेविका हूँ, चरणों की दासी हूँ।
मीरा रचित इस पद में केवल यही नहीं कथित है कि जीव हर रूप और स्थिति में ईश्वर पर निर्भर है बल्कि यह भी व्यजित तथ्य है कि जीव से ही ईश्वर को सार्थक्य प्राप्त होता है। जिस पेड़ पर पक्षी निवास नहीं करते वह मनहूस माना जाता है। वह सरोवर ही क्या जहाँ जीवन का अस्तित्व ही नहीं हो। मोती कीमती और चमकदार होकर भी किसी की ग्रीवा तक पहुंचने के लिए तुच्छ धागे पर ही निर्भर है। सोने को अपनी स्वाभाविक आभा पाने के लिए सोहागा की संगती चाहिए ही। वह स्वामी क्या जिसके सेवक अनुचर नहीं हो।
मीरा प्रकारान्तर से यह तथ्य कृष्ण को समझा देना चाहती है कि तुम चाहकर भी सम्बन्ध-विच्छेद कर सकते। जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध, भक्त और भगवान का सम्बन्ध शाश्वत होता है, काल निरपेक्ष होता है।
प्रस्तुत पद में मीरा ने कृष्ण के लिए पिया, प्रभु, ठाकुर जैसी सम्बोधन संज्ञाओं का और अपने लिए ठाकुर की दासी का प्रयोग कर रागात्मक सम्बन्ध को एक महनीयता प्रदान की है। . रूपक, उदाहरण जैसे अलंकार से सज्जित यह पद, अद्वितीय मारक क्षमता से भी युक्त है।
मीराबाई के द्वतीय पद
कृष्ण की कर्षण शक्ति से प्रभावित मध्यकालीन भक्तिधारा की मधुराभक्ति की साधिका राधिका के समतुल्य दीवानी मीरा रचित इस पद में उनका हृदयोद्गार व्यक्त है। मीरा श्रीकृष्ण के सौन्दर्य और प्रेम के जादुई पाश में इस तरह बंधी हुई है कि उनके निजत्व का निरसन हो चुका है। उनका कहना है कि मेरा गन्तव्य कृष्ण हैं। मैं उसी के घर जाऊंगी। वे ही मेरे सच्चे प्रियतम हैं। जिसके रूप से देखकर लुब्ध हो चुकी हूँ। मैं कृष्ण के साथ अभिसार करने हेतु सन्नद्ध हूँ। जैसे ही रात हागी मैं कृष्ण के पास जाऊँगी और रात पर रास में सहभागी बन सुबह होने के साथ ही इस पर घर को वापस आ जाऊंगी।
कृष्ण भी मुझ पर रीझ जाएँ, मोहित हो जाएँ, इसके लिए सत-दिन उनके रंग संग तरह-तरह के खेलती रहूँगी। अब यह सब इच्छा पर होगा कि मुझे खाने-पीने और पहनने के लिए क्या देते हैं। मेरी ऐसी जातर्तिक कोई इच्छा शेष नहीं है। मेरा और कृष्ण का प्रेम बहुत पुराना और गहरा है। उनके बिना अब एक पल का जीना भी असंभव है। वे अपने आश्रय में जहाँ स्थान देंगे वही मेरा निवास होगा और यदि वे मुझे दूसरे के हाथों बेचना भी चाहें तो मुझे कोई मलाल नहीं होगा। क्योंकि मेरा “मैं’ अब बाकी बचा ही नहीं है। मीरा कहती है कि मेरे स्वामी तो गिरधर नगर है। जिन पर मैं बार-बार बलि जाती हूँ कृष्ण पर अपने को न्योछावर करती हूँ।”
प्रस्तुत पद में सम्पर्ण के भावना की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हुई है। जैसे कबीर ने सवयं को राम का कुत्ता घोषित किया। शांत रस की इस रचना में अनुप्रास की छटा देखते बनती है। एकनिष्ठ प्रेम और आत्मोत्सर्ग की यह सर्वोत्तम प्रस्तुति है।
मीराबाई के पद कठिन शब्दों का अर्थ
गिरधर-गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले, कृष्ण। तोसों-तुमसे। तरुवर-श्रेष्ठ वृक्ष। पॅखिया-पक्षी। सरवर-तालाब। मछिया-मछली। गिरिवर-पर्वतराज। सोहागा-सोना का शुद्ध करने के लिए प्रयुक्त क्षार। ठाकुर-स्वामी। म्हारो-मेरा। साँचो-सच्चा। रैण-रातः। दिना-दिन। रिझाऊँ-प्रसन्न करूँ। तितही-वहीं। नागर-विदग्ध, चतुर, रसिक। बलि जाऊ-छिवर हो जाऊँ। वा-उसको। ताही-उसको। सोई-वही।
मीराबाई के पद काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या
1. जो तुम तोड़ो, पिया……………कौन संग जोड़ें।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ राजस्थान कोकिला मीरा द्वारा रचित हैं। इन पंक्तियों में मीरा कहती हैं कि हे कृष्ण, तुम मेरे प्रियतम हो, मैं तुमसे प्रेम करती हूँ। तुम पर मेरा अधिकार नहीं है अत: तुम चाहो तो मुझसे अपनी प्रीति तोड़ ले सकते हो। लेकिन मैं तुमसे प्रीत नहीं तोडूंगी। अगर तुमसे प्रीत तोड़ लूँ तो जोडूंगी किससे? अर्थात् तुम्हारे सिवा मेरा कोई नहीं है। अतः तुम करो या न करो मगर मैं तो तुमसे ही प्रीति करूँगी, क्योंकि तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है जिससे मैं प्रेम कर सकूँ। मीरा ने अलग भी कहा है-मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई। अतः ये पंक्तियाँ कृष्ण के प्रति मीरा के अनन्य प्रेम को व्यक्त करती हैं।।
2. तुम भये तरुवर………..हम भये सोहागा।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में मीरा कृष्ण से अपनी अनन्य प्रीति का निवेदन करती कहती हैं कि कृष्ण तुम तरुवर हो और मैं उस पर आश्रय पाने वाली चिड़िया। तुम सरोवर हो तो मैं उसमें रहने वाली मछली जो तुमसे अलग होते ही तड़प-तड़प कर मर जायेगी। तुम पर्वत हो तो मैं उस पर उगने वाली घास। तुम चन्द्रमा हो तो मैं चकोर। तुम मोती तो मैं धागा। तुम सोना हो तो मैं सोहागा।
अभिप्राय यह है कि उक्त अनेक उदाहरणों के सहारे मीरा ने कृष्ण के साथ अपनी उस भक्ति का परिचय दिया है जो निर्भरा भक्ति कहलाती है। इसमें भक्त भगवान को अपना आधार मानता है जिसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं होता।
3. मीरा कहे प्रभु……………मेरी दासी:
व्याख्या-
इन पंक्तियों में मीरा कहती है कि हे व्रज में निवास करने वाले मेरै प्रभु ! तुम मेरे . ठाकुर हो और मैं तुम्हारी दासी अर्थात् मुझमें-तुममें स्वामी-सेविका वाला प्रेम है। इन पंक्तियों
मे मीरा का अभिप्राय सामान्य दासी कहने से नहीं है वह बताना चाहती है कि वह कृष्ण की ऐसी प्रिय पत्नी है जो दासी की तरह पूर्ण समर्पण भाव से अपने स्वामी की सेवा करती है और उसी. में सुख मानती है।
4. मैं गिरिधर के घर जाऊँ………….लुभाऊँ।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ मीरा द्वारा रचित पद से ली गयी हैं। यहाँ मीरा द्वारा अपने प्रियतम कृष्ण के पास जाने का उल्लेख किया गया है। मीरा कहती हैं कि कृष्ण मेरे सच्चे प्रियतम हैं। वे अत्यन्त सुन्दर हैं। उनकी रूप माधुरी मोहक है। अत: मैं देखते ही उन पर लुब्ध हो जाती हूँ। जिस तरह भ्रमर फूल पर सतत् मँडराता रहता है। उसी तरह मैं उनकी रूप माधुरी के सम्मोहन में सतत् उन्हीं के समीप रहना और उनकी रूप माधुरी निहारते रहना चाहती हूँ।
5. रैण पडै तब ही उठ जाऊँ…………….ताही रिझाऊँ।
व्याख्या-
मीरा द्वारा रचित “मैं गिरिधर के घर जाऊँ” पद से गृहीत इन पंक्तियों में यह बताने की चेष्टा की गई है कि वह कृष्ण के सौन्दर्य और प्रेम की दीवानी है। अतः एक पल भी अलग रहना उसे स्वीकार नहीं। यही कारण है कि जैसे ही रात होती है उनकी सेवा में चली जाती और भोर होने पर ही उनसे अलग होती है। दिन में भी उनके साथ खेलती रहती हूँ। इस तरह चाहे दिन हो या रात मैं आठों पहर उन्हीं के साथ खेलती या सेवा में रहती हूँ। वे जैसे रीझते है उसी तरह उन्हें रिझाती हूँ। उन्हें जो पसंद है वही आचरण करती हूँ और इस तरह एक आज्ञाकारिणी प्रेमिका या पत्नी के रूप में मैं सेविका धर्म का तन्मयता से पालन करते हुए उनकी प्रसन्नता पाने के लिए प्रयल करती रहती हूँ।
6. जो पहिरावै सोई पहिरूँ…………….पल न रहाऊँ।
व्याख्या-
मीरा ने अपने पद की प्रस्तुत पंक्तियों में अपने पूर्ण समर्पण भाव को व्यक्त किया है। वह पूरी तरह अनुगता और सेवापरायण दासी है। वह पति रूप श्री कृष्ण से कोई अपेक्षा नहीं करती। उसमें पाने की नहीं देने की लालसा है। अत: आदर्श सेविका की तरह वह कहती है कि वे जो पहनाते हैं वही पहनती हूँ जो देते हैं वही खाती हूँ। मेरी उनसे प्रीत पुरानी है। मैं उनसे अलग एक पल भी नहीं रह सकती हूँ। मीरा के इस कथन से यह बात स्पष्ट है कि मीरा ने भक्त होने के बाद अपने समस्त राजकीय संस्कारों का त्याग कर दिया था। खाने-पहनने की रुचि भूल कर जो मिलता था वही प्रभु प्रसाद समझकर खा लेती थी और जो भी वस्त्र मिल जाता था उससे तन ढंक लेती थी।
7. जहाँ बैठावें तितही बैढूँ………………बार-बार बलि जाऊँ।
व्याख्या-
अपने पद की प्रस्तुत पंक्तियों में मीरा ने कृष्ण के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त किया है। वह कृष्ण के प्रेम में दीवानी है। अत: जीवन के सारे क्रियाकलाप, सुख-दुःख को कृष्ण इच्छा का प्रसाद मानकर सादर स्वीकार करती है। वह कृष्ण को अपना नियामक और प्रेरक मानती है और कहती है कि वे जहाँ बैठाते हैं वहीं बैठी रहती हूँ। यदि वे मुझे बेच दें तो उनकी खुशी के लिए मैं सहर्ष बिक जाऊंगी। मेरे प्रभु गिरिधर हैं अर्थात् पर्वत भी उठाकर संकट से रक्षा करने में समर्थ हैं। वे नागर हैं अर्थात् शिष्ट, सभ्य, संस्कारवान और चतुर हैं। अतः मैं बार-बार उन पर अपने को न्योछावर करती हूँ।
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