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Monday, June 20, 2022

BSEB Class 11 Hindi साहित्य शास्त्र Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi साहित्य शास्त्र Book Answers

BSEB Class 11 Hindi साहित्य शास्त्र Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi साहित्य शास्त्र Book Answers
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Bihar Board Class 11th Hindi साहित्य शास्त्र Books Solutions

Board BSEB
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शब्द-शक्ति

प्रश्न 1.
‘शब्द-शक्ति’ का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए उसके स्वरूप का विवेचना कीजिए।
उत्तर-
‘शब्द-शक्ति’ का तात्पर्य-साहित्य मूलतः शब्द के माध्यम से साकार होता है। भारतीय दर्शनशास्त्र में ‘शब्द’ को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। जिस प्रकार ब्रह्म इस जगत का स्रष्टा है, उसी की माया का विविध रूपों में प्रसार विश्व की गतिशीलता और क्रियाशीलता का आधार है। यही ‘माया’ ब्रह्म की ‘शक्ति’ भी कहलाती है। उसी प्रकार शब्द की माया अर्थात् शक्ति समस्त भाव जगत या विचार सृष्टि की विधात्री है। गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचतिमानस’ महाकाव्य के आरंभ में कहा है-‘जिस प्रकार जल और उसकी लहर कहने को भले ही अलग हैं पर वास्तव में वे दोनों हैं एक ही, उसी प्रकार ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ नाम अलग होते हुए भी, दोनों एक दूसरे से अभिन्न हैं।’

शब्द अरथ जल बीचि, सम, कहियत भिन्न-न-भिन्न
-रामचरितमानस, (बालकांड)

जैसे वस्त्र से उनका रंग, फूल से उसकी गंध और आग से उसकी तपन अलग नहीं, उसी प्रकार शब्द से उसका अर्थ अलग नहीं। शब्द और अर्थ की इसी ‘अभिन्नता’ का नाम ‘शब्दशक्ति’ है।

‘शब्द-शक्ति’ का स्वरूप-‘शब्द’ की ‘शक्ति’ क्या है-‘अर्थ’। अर्थ के माध्यम से ही किसी शब्द की क्षमता, महत्ता, सुष्टुता और प्रभविष्णुता का पता चल पाता है।

इस आधार पर ‘शब्द-शक्ति’ की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है। ‘शब्द में अर्थ को सूचित करने की जो क्षमता होती है उस ‘शद्र किन, कहते हैं। इस परिभाषा को अन्य विद्वानों ने कुछ मग्ल-रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है ‘शब्द का वह व्यापार, जिसके द्वारा किसी अर्थ का बोध होता है, ‘शब्द-शक्ति’। कहलाता है।’ एक उदाहरण द्वारा ‘शब्द-शक्ति’ के स्वरूप को समझना होगा। गष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी का गीत है-

यह मेरी नन्ही तकली,
है नाचती जैसे मछली,
मैं सूत बनाता इसमें,
मैं गाना गाता इसमें,
मैं दिल बहलाता इसमें,
मैं खेल मचाता इसमें,
यह फिरती उछली-उछली,
यह मेरी नन्ही तकली।

इस गीत में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है वे सभी ‘वाचक’ हैं अर्थात् वे अपना अर्थ स्वयं ही बता रहे हैं। यदि किसी शब्द का अर्थ पहले से पता न भी हो तो ‘कोश’ से देखकर या किसी अन्य जानकार से पूछकर मालूम कर सकते हैं। नन्हीं, तकली, मछली, सूत, गाना, दिल, . खेल, आदि के अर्थ प्रसिद्ध और सर्वज्ञात हैं। इस प्रकार के प्रसिद्ध अर्थ अर्थात् मुख्य अर्थ या वाच्य अर्थ कहलाते हैं। अर्थात् ये अर्थ प्रसिद्ध हैं और पहले से पुस्तकों में (कोश, व्याकरण आदि में) में बताए जा चुके हैं। ऐसे वाच्य अर्थ’ या ‘मुख्य अर्थ’ का बोध जिन शब्दों से होता है।

वे ‘वाचक’ शब्द कहलाते हैं। – अब इसी गीत में आए हुए ‘दिल बहलाता’, ‘खेल मचाता’ और ‘फिरती उछली-उछली’ पर ध्यान दें। ‘बहलाया’ बच्चों को जाता है। दिल बच्चा नहीं। उसे ‘बहलाना’ कैसे संभव है? इस प्रकार ‘बहलाना’ शब्द का मुख्य अर्थ ‘खुश करना’ बाधित (ठीक न लगने वाला) प्रतीत होता है। तब हम बहलाने के लक्षण से यह अर्थ मालूम करेंगे कि जैसे उदास बच्चे को किसी खेल-खिलौने से खुश किया जाता है, उसी प्रकार ‘मेरा उदास मन तकली चलाने से खुश रहता है’ (तकली चलाने में मस्त होकर मन ही उदासी दूर हो जाती है।)

इस तरह हमने एक अन्य अर्थ लक्षित कर लिया। इस अर्थ को ‘लक्ष्यार्थ’ (लक्ष्य अर्थ लक्षण से जाना गया अर्थ, कहते हैं और इस प्रकार का अर्थ देने वाला शब्द ‘लक्षक’ शब्द कहलाता है। इसी प्रकार, ‘खेल मचाना’ या ‘तकली का उछलमा प्रयोगों में भी लक्षक शब्द और लक्ष्यार्थ हैं। उछलते बच्चे (मनुष्य या जीवित प्राणी) है। तकली तो बेजान है, वह कैसे उछली-उछली फिर सकती है। इस तरह ‘उछली’ शब्द के प्रसिद्ध अर्थ ‘कूदना, ऊपर-नीचे होकर मटकना या मस्ती से ‘चलना’ बाधक (रोक) प्रतीक होती है।

अर्थात् यहाँ यह अर्थ (तकली मस्ती में झूमकर उछल रही संगत प्रतीत नहीं होता। तब हम ‘उछलना’ के लक्षण (मस्ती से झूमना) द्वारा यह लक्ष्यार्थ ग्रहण करते हैं कि जैसे बच्चे (या प्राणी) मस्ती में उछलते हैं उसी प्रकार सूत कातते समय तकली का ऊपर-नीचे होना, इधर-उधर हिलना ऐसा लगता है मानों वह मस्ती में उछल-नाच रही है।

अब, इस सारे गीत को एक-बार फिर पढ़ने पर जब हम यह जानते हैं कि तकली चलानेवाले का मन बड़ा खुश है। वह अपनी छोटी-सी तकली चलाते समय खेल-कूद जैसा आनंद अनुभव करता है। तब इसमें छिपा हुआ यह मूढ़ भाव स्पष्ट हो जाता है कि गाँधीजी ने देशवासियों को जो चरखा-तकली चलाकर अपने हाथ से सूत कातकर ‘स्वदेशी’ का संदेश दिया वह बड़ा सुखकर और आनंददायक है। यह ‘छिपा हुआ गूढ अर्थ “व्यंग्यार्थ,(व्यंग्य अर्थ अर्थात् शब्दों के माध्यम से व्यजित (प्रकट होने वाला. नया-सूक्ष्म अर्थ) कहलाता है और इस प्रकार के ‘व्यंग्यार्थ’ (गूढ़ अर्थ) वाले. शब्द (व्यंजक) कहलाते हैं।

उपर्युक्त पद्यबद्ध उदाहरण के अर्थ-सौंदर्य के विवेचन के आधार पर शब्दशक्ति का स्वरूप भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है।

प्रश्न 2.
‘शब्द-शक्ति’ के प्रमुख भेद लक्षण-उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
अथवा,
‘शब्द-शक्ति’ कितने प्रकार की है? उसके विभिनन प्रकार (भेद या रूप) लक्षण-उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
जब हम साहित्य के किसी भी वंश (पद्य या गद्य) के अर्थ-सौंदर्य पर विचार करते हैं तो पहले यह तथ्य सामने आता है कि उस गद्यांश में प्रयुक्त शब्दों में प्राप्त होने वाले अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया क्या हो सकती है। उदाहरणतया फूल शब्द का अर्थ ग्रहण करने की तीन प्रक्रियाएँ संभव है। एक-उसका शब्दकोश और लोक-व्यवहार में प्रचलित मुख्य अर्थ-किसी पौधे पर उगने वाला वह आकर्षक, रंगीन, सुंदर पदार्थ जिसमें गंध भी होती है। जैसे-गुलाब, गेंदा, चमेली, आदि। दूसरी-‘मेरे जीवन में ‘फूल’ कभी खिले ही नहीं’ इस वाक्य में फूल के अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया बदल जाएगी।

जीवन कोई पेड़-पौधा नहीं जिस पर फूल खिला करते हों। इस प्रकार मुख्य, प्रचलित या वाच्य अर्थ असंगत लगता है। उसकी प्रतीत (अर्थ की प्राप्ति) में बोध (व्यवधान) है। तब नई प्रक्रिया शुरू होती है-‘फूल के गुण लक्षण के आधार पर। फूल आनंददायक होता है। इस लक्षण की सहायता से हम यह अर्थग्रहण करेंगे-मेरे जीवन में कभी सुख-आनंददायक का अवसर आया ही नहीं। तीसरी प्रक्रिया तनिक और भी भिन्न होगी। उसमें इसी ‘फूल’ शब्द का न तो वाच्यार्थ पूर्णतः संगत होगा, न ही लक्ष्यार्थ (सुख-आनंद) उचित प्रतीत होगा। ‘कली फूल बनने से पहले ही मुरझा गई।’

हो सकता है, इस वाक्य का वाच्यार्य भी अभीष्ट हो कि (आँधी, तूफान या बाढ़ के कारण) कई कलियाँ विकसित होने से पहले ही नष्ट हो गईं। परंतु इसका व्यजित अर्थ बड़ा मार्मिक है-बच्चा यौवन आने से पहले ही काल का ग्रास बन गया अथवा बालिका (भीषण विपत्तियों के कारण) पूर्ण यौवन के सौंदर्य के आगमन से पहले ही उदास, लाचार और मरी-मरी सी हो गई है। या बालक अभी जवान ही नहीं हुआ था कि (पिता आदि के न रहने से) जिम्मेदारी के बोझ से दबकर दुबला-पतला हो गया है” आदि।

इस प्रकार हमने देखा कि किसी शब्द के अर्थ को बोध करने वाला शक्ति अर्थात् शब्द-शक्ति भिन्न-भिन्न रूपों (प्रक्रियाओं) में काम करती है। ऊपर दिए गए ‘फूल’ वाले उदाहरण से स्पष्ट है कि शब्द शक्ति से संदर्भ में शब्द मुख्यतः तीन स्तरों में विभाजित हो सकते हैं-

  • ‘वाच्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘वाचक’।
  • ‘लक्ष्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘लक्षक’।
  • ‘व्यंग्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘व्यंजक’।

पहले स्तर का अर्थ-व्यापार ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति का है, दूसरे स्तर का व्यापार ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति का तथा तीसरे स्तर का व्यापार ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति का है। इसी आधार पर ‘शब्द-शक्ति के तीन भेद माने जाते हैं-

  • अभिधा,
  • लक्षणा,
  • व्यंजना।

अभिधा शब्द-शक्ति-‘शब्द के जिस व्यापार या सामर्थ्य से उसके स्वाभाविक (प्रसिद्ध, मुख्य या प्रचलित) अर्थ का बोध होता है, उसे ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

‘अभिधा’ शब्द-शक्ति से प्राप्त अर्थ ‘वाच्यार्थ’ या ‘मुख्यार्थ’ तथा ऐसे अर्थ का बोध कराने वाला शब्द ‘वाचक’ शब्द कहलाता है। जैसे-

पंचवटी की छाया में है सुंदर पर्ण-कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर धीर वीर निर्भीक मना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर जबकि भुवन पर सोता है। (मैथिलीशरण गुप्त, पंचवटी)

इन पंक्तियों के सभी शब्द ‘वाचक’ हैं और उनसे मुख्यार्थ या वाच्यार्थ (स्वाभाविक, प्रसिद्ध या प्रचलित अर्थ) का बोध होता है। अतः यहाँ ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति है।

लक्षणा शब्द-शक्ति-‘शब्द’ के जिस व्यापार (सामर्थ्य) से, ज्ञात मुख्यार्थ में बोध होने पर, लक्षण के आधार पर किसी अन्य अर्थ का बोध होता है उसे ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति से ज्ञात अर्थ ‘लक्ष्यार्थ’ तथा उसका बोध कराने वाला शब्द ‘लक्षक’ कहलाता है।जैसे-

सपने में तुम नित आते हो, मैं हूँ अति सुख पाती।
मिलने को उठती हूँ, सौतन आँख प्रथम उठ जाती। (रामनरेश त्रिपाठी)

‘आँख’ जो स्त्री नहीं, सो वह सौत हो सकती है। प्राणी सोता या जागता (उठता) है, आँख नहीं। इस प्रकार, यहाँ आँख उठ जाती के वाच्यार्थ में बोध है। तब हम ‘सौत’ के लक्षण द्वारा यह लक्ष्यार्थ मालूम करते हैं कि जिस प्रकार किसी स्त्री की सौत (पति की दूसरी पत्नी) उसे पति से मिलने में बाधक बनती है, उसी प्रकार इस कविता में दुखी नायिका को स्वप्न में भी प्रिय-मिलन का सुख अनुभव करने में उसकी आँख बाधक बन जाती है, क्योंकि स्वप्न के समय आँखें बंद होती हैं। नायिका स्वपन में प्रिय को देखकर ज्यों ही उससे मिलने के लिए उठती है तभी आँखें खुल जाती हैं। नायिका का सुख दुःख में बदल जाता है। इस प्रकार, यहाँ ‘लक्षण’ शब्द ‘सौतन’ तथा ‘आँख उठ जाती’ द्वारा लक्ष्यार्थ की प्रतीति हुई है, अतः, “लक्षणा’ शब्द-शक्ति है।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति के व्यापार में क्रमशः दो बातें आवश्यक हैं-

  • मुख्यार्थ में बाधा होना, अर्थात् प्रसिद्ध अर्थ का असंगत प्रतीत होना।।
  • लक्षक शब्द के मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ में लक्षण (गुण-स्वभाव आदि की विशेषता) का साम्य होना।

ऊपर के उदाहरण में ‘आँख उठ जाना’ के मुख्यार्थ में बाधक स्पष्ट है-आँख उठती-बैठती जागती-सोती नहीं। यह तो प्राणी के स्वभाव या लक्षण है। फिर सौत के स्वभाव (नायिका के पति-मिलन के सुख में रुकावट डालकर उसे और सताने) तथा ‘आँख के उठ जाने’ के परिणाम में साम्य है। इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण है-

तलवारों का प्यास बुझाता, केवल तलवारों का पानी। – (सोहनलाल द्विवेदी, भैरवी)

तलवार कोई ऐसी प्राणी नहीं जिसे प्यास लगे। न तलवार में पानी (जल) होता है जो किसी की प्यास बुझाता है। तलवार का लक्षण (स्वभाव, पहचान) है-वैरी पर वार कर लहू बहाना। यह कार्य तलवार स्वयं नहीं करती, उसे थामने या चलाने वाला वीर योद्धा करता है। उसका जवाब भी कोई वीर-योद्धा ही देकर विरोधी की युद्ध संबंधी इच्छा (प्यास) पूरी करता है। इस तरह यहाँ ‘तलवार प्यास और पानी-लक्षण’ शब्द हैं जिनसे उपर्युक्त लक्ष्यार्थ की प्राप्ति हुई है।

व्यंजना शब्द-शक्ति-‘शब्द के जिस व्यापार का सामर्थ्य से, उसके मुख्यार्थ (वाच्य या प्रसिद्ध अर्थ) अथवा लक्ष्यार्थ से भिन्न किसी अन्य, विशेष, गूढ़ या प्रतीयमान अर्थ का बोध होता है उसे ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

व्यंजना शब्द-शक्ति वहाँ होती है जहाँ अभिप्रेत अर्थ स्पष्ट ज्ञात न होकर, प्रकारांतर से सांकेतिक या व्यजित होता है। अत: व्यंजना से प्रतीत होने वाला अर्थ ‘व्यंग्यार्थ’ तथा. व्यंजना-शब्द-शक्ति से युक्त शब्द ‘व्यंजक’ कहलाता है।

उदाहरण-
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।

यहाँ मुख्य (वाक्य) अर्थ यह है कि ‘संत कबीर चलती हुई चक्की को देखकर अत्यंत दुखी हैं, क्योंकि चक्की के दोनों पाटों के बीच में आने वाला कोई भी (दाना) बिना पिसे नहीं रह सकता। यह मुख्यार्थ साधारण है। कवि का अभिप्राय चक्की में पाटों द्वारा अनाज के दानों के पीसे जाने की प्रक्रिया बताना नहीं है-इसे तो सभी जानते हैं। कवि का अभीष्ट अथवा प्रतीयमान अर्थ यह है कि ‘संसार चक्की के समान है।

दिन और रात, या जन्म और मृत्यु इसके दो पाट हैं। इनके बीच फंस जाने के बाद कोई भी जीवन सुरक्षित नहीं रह पाता। व्यंग्यार्थ यह है कि ‘संसार नश्वर है जन्म और मृत्यु के चक्र से कोई भी बच नहीं सकता। ‘चक्की’ और ‘पाट’ ‘व्यंजक’ शब्द है।

इसी प्रकार-

अबला जीवन हाय ! तुम्हारा यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी। –(मैथिलीशरण गुप्त)

इन पंक्तियों का मुख्य या वाच्य (ज्ञात) अर्थ है-‘हे नारी ! तेरी कहानी बस इतनी-सी है कि तुम्हारे अंचल (वक्ष या स्तनों) में दूध और आँखों पानी है।’ कवि का अभिप्रेत अर्थ इतना ही नहीं। छुपा हुआ (व्यंग्य) अर्थात् प्रतीयमान अथवा अभीष्ट (व्यंजित) अर्थ यह है कि ‘समाज -: में नारी महा-महिमामयी होते हुए भी सदा असहाय, उपेक्षित और अशक्त ही रहती है।

उसके अंत:करण में परिवार-समाज के लिए ममत्व, स्नेह, समर्पण, सौहार्द का ही स्रोत बहता है। वह जीवन भर ममता का अमृत प्रदान करती है। किन्तु बदले में उसे मिलता क्या है-उपेक्षा, तिरस्कार, शोषण, अन्याय और स्वार्थ के रूप में जीवन भर तड़पते हुए रोते रहना, आहें भरकर तिल-तिल जलते रहना।’ इस मार्मिक अर्थ की व्यंजना (प्रतीति) कराने वाले ‘व्यंजक’ शब्द हैं-

  • ‘अंचल पें है दूध’
  • ‘आँखों में पानी’।

क्रमशः इनका व्यंग्यार्थ यातना, आहे और सिसकियाँ।

प्रश्न 3.
‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति में क्या अंतर है? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
लक्षण और व्यंजना दोनों शब्द-शक्तियाँ साधारण रूप से जाने-पहचाने, मुख्य अथवा वाच्य अर्थ से कुछ अलग, भिन्न अर्थ का बोध कराती है, इसलिए इन दोनों की अलग-अलग पहचान में कई बार भ्रांति या कठिनाई की संभावना रहती है। दोनों के स्वरूप को पृथक रूप से स्पष्ट करने के लिए, दोनों की निम्नलिखित भिन्नताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है

(1) लक्षण’ शब्द-शक्ति का अस्तित्व वही मानना चाहिए जहाँ मुख्य (वाक्य या प्रसिद्ध) अर्थ में बाधा (असंगति) हो। ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति के अंतर्गत मुख्यार्थ या वाच्यार्थ में बाधा (असंगति) नहीं होती, अर्थात् मुख्य या वाच्य अर्थ असंगत, असंभव, या असंबद्ध प्रतीत नहीं होता। जैसे-

अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी। –(सूरदास, भ्रमरगीत)

आँखों का भूखा होना संभव नहीं है, वे आहार नहीं करतीं। इस प्रकार ‘भूखी’ शब्द लक्षक है जिसका मुख्य अर्थ ‘खाने को व्याकुल होना’ बाधित अर्थात् असंभव, ‘असंगत या असंबद्ध है। इस असंगति को देखकर ही हम ‘भूख’ के लक्षण ‘व्याकुलता’, ‘उत्सुकता’, ‘तड़प’, ‘तीव्र लालसा’ के आधार पर यह लक्ष्यार्थ प्राप्त करते हैं कि ‘आँखें कृष्ण को देखने के लिए व्याकुल हैं।’

दूसरे ओर व्यंजना के अंतर्गत मुख्य (वाच्य) अर्थ का बाधिक (असंगत) होना वांछनीय नहीं जैसे-

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंक्षी को छाया नहीं फल लागै अति दूर॥ –(कबीर)

मुख्यार्थ स्पष्ट है-‘खजूर के पेड़ की तरह लंबा होने का क्या महत्त्व है? न तो वह पथिक को छाया दे सकता है और न ही आसानी से उसके फल को प्राप्त कर स्वाद लिया जा सकता है।’ यह अर्थ के रहते हुए भी एक अन्य छिपे हुए, गूढ (व्यंग्य) या प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति संभव है-‘केवल ऊँचा खानदान होने से ही कोई महान नहीं बन सकता, जब तक कि कोई दूसरों को सुख-सहानुभूति और उपकार-सहायता न दे।’

(2) इसी उदाहरण के आधार पर ‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्तियों में एक अन्य अंतर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ‘लक्षण’ शब्द-शक्ति के अंतर्गत तो मुख्य (वाच्य या प्रसिद्ध, ज्ञात) अर्थ तभी लक्ष्य (लक्षित) अर्थ में गुण, स्वभाव या लक्षण संबंधी कोई-न-कोई पारस्परिक संबंध होता है जबकि ‘व्यंजना में ‘मुख्यार्थ’ और ‘व्यंग्यार्थ’ में परस्पर संबंध होना आवश्यक नहीं। जैसे

फूल काँटों में खिला था, से पर मुरझा गया। -(रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल)

यहाँ व्यंग्यार्थ अर्थात् प्रतीयमान अर्थ यह है कि ‘जीवन संघर्षों और कष्टों से गुजर कर ही . सार्थक और सुखी होता है। ऐश-आराम में मस्त हो जाने पर जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती है। आलस्य, प्रमाद और निष्क्रियता से वह निरर्थक-सा हो जाता है।’ फूल, कांटा, खिलना, मुराना आदि के मुख्य अर्थ से इस प्रतीयमान अर्थ का कोई स्वभाव, लक्षण या गुण संबंधी साम्य नहीं।

(3) लक्षण’ और ‘व्यंजना’ के अंतर को स्पष्ट करने वाला एक अन्य मुख्य तथ्य यह है . कि ‘लक्षण’ द्वारा केवल किसी एक लक्ष्यार्थ का बोध होता है, जबकि व्यंजना शब्द-शक्ति द्वारा एक ही कथन या शब्द के अनेक अर्थों की प्रतीति की जा सकती है। हर सहृदय पाठक का श्रोता अपनी मन:स्थिति, रुचि या प्रवृत्ति के अनुसार प्रतीयमान (अभिप्रेत) अर्थ को प्रतीति कर सकता है।

जैसे-
खून खौलने लगा वीर का, देख-देखकर न संहार।
नाच रही सर्वत्र मौत थी, गूंज रहा था हाहकार॥

खौलनां पानी या दूध का स्वभाव है, नाचना प्राणी का लक्षण है, गूंजना संगीत का। यहाँ मुख्यार्थ में बाँधता (असंगति) स्पष्ट है। लक्ष्यार्थ है-वीर को क्रोध की अनुभूति, असंख्य लोगों की पल-पल मौत और रुदन-चीत्कार की आवाजों का शोर। लक्षण द्वारा प्राप्त यह अर्थ ही ग्राह्य है, अन्य कोई अर्थ संभव नहीं। परंतु नीचे दिए गए उदाहरण में ‘श्याम घटाएँ देखकर मन के उल्लसित होने’ के अनेक प्रतीयमान अर्थ (व्यंग्यार्थ) संभव हैं-

श्यामा घटा अवलोक नाचता।
मन-मयूर था उसका॥

राधा का किसी गोपी अथवा अन्य किसी कृष्णभक्त के लिए श्याम घटा श्रीकृष्ण की मोहिनी साँवली सूरत की अनुभूति का आभास दे सकती है। यदि कृषक का मन उल्लास से भर रहा है तो श्याम घटाएँ उसे अपनी अब तक की सूखी धरती में धन-धान्य की हरियाली की आशा बँधा रही हैं। तपती दुपहरी में, पसीने से सरोबार थका मुसाफिर श्याम घटाओं में सुखद राहत की अनुभूति कर सकता है।

इस प्रकार, ‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति के अस्तित्व की पहचान वास्तव में कथन के संदर्भ के आधार पर की जा सकती है। किसी ‘एक शब्द’ का लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ कथन में प्रस्तुत भाषिक संरचना के स्वरूप के अनुसार ग्रहण किया जा सकता है।

रस-ध्वनि

प्रश्न 1.
रस का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, काव्य में उसका स्थान और महत्त्व निर्धारित कीजिए।
अथवा,
रस की परिभाषा देकर स्पष्ट कीजिए कि काव्य में रस की क्या स्थिति है?
अथवा,
रस का तात्पर्य क्या है? काव्य के अंतर्गत रस-व्यंजन का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
‘रस’ शब्द का सामान्य प्रचलित अर्थ है-आनंद, स्वाद, सुख या मजा। यह अर्थ लौकिक जीवन में मानव-शरीर को अनुभव होने वाली सुविधाओं से मिलने वाली खुशी से संबंधित है। जैसे-‘कोई दृश्य देखकर हमें बड़ा ‘मजा’ आया।’ ‘अमुक गीत सुनकर कानों में मानों’ ‘रस’ घुल गया’ आदि। परंतु काव्य के अंतर्गत ‘रस’ का अभिप्राय’ एक विशेष प्रकार का अलौकिक आनंद’ है।

काव्य का आनंद व्यक्ति, स्थान या समय की सीमा में नहीं बंधा रहता। वह शाश्वत, सार्वभौम, सार्वकालिक तथा सार्वजनीत होता है। कालिदास के नाटक, बाल्मीकि के श्लोक, कबीर के पद, तुलसी के दोहे या प्रसाद, पंत आदि के गीत किसी भी युग के, किसी भी वर्ग के पाठक या श्रोता के अंत:करण को समान तृप्ति प्रदान करते हैं। एक प्राचीन ग्रंथ में कहा गया है-“जिस प्रकार एक ब्रह्मयोगी साधक को, साधना के चरम बिन्दु पर पहुँचने के बाद मिलने वाली आत्मानंद की अनुभूति अनिर्वचनीय और अलौकिक होती है उसी प्रकार काव्य द्वारा मिलने वाला आंतरिक आनंद (काव्यास्वाद अर्थात् काव्य का आसवादन) भी अलौकिक होता है।”

संस्कृत के प्राचीन आचार्य भरत ने उचित ही कहा है कि ‘रस के बिना अर्थ-अनुभूति का प्रवर्तन संभव नहीं।’

स्वरूप-संक्षेप में कहें, तो ‘काव्य-अध्ययन’ से अनुभूति होने वाला अलौकिक आंतरिक आस्वाद ही रस है। ‘इस संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि काव्य द्वारा उद्भूत अलौकिक आनंदानुभूति का कोई-न-कोई आधारभूत ‘कारण’ होना आवश्यक है। उस ‘कारण’ के साथ कुछ सहायक ‘परिस्थितियाँ’, मिलकर उसे विशेष प्रभावशाली बना देती है। इन दोनों के माध्यम से अंत:करण में अनेक भाव-तरंगों की ‘हलचल’ शुरू हो जाती है।

यह ‘हलचल’ काव्य के पाठक या श्रोता (दर्शक) के हृदय में एक ऐसी विशिष्ट ‘रागात्मक संवेदना’ को जागृत कर देती है जो अंतत: एक ‘अलौकिक आनंद’ का रूप ले लेती है। – इस प्रकार काव्य में निहित अलौकिक आस्वाद (रस) की अभिव्यंजना मुख्य रूप से इन चार घटकों पर आधारित है-कारण, उसमें सहायक परिस्थितियाँ, उनके प्रभाव से होने वाली हलचल सम्म तथा उसके परिणामस्वरूप किसी विशिष्ट रागात्मक संवेदना का आस्वाद।

इन्हीं को प्राचीन आचार्यों ने साहित्यशास्त्र की शब्दावली में क्रमशः विभाव, अनुभव, संचारी भाव तथा स्थायी भाव कहा है। इसी आधार पर भारत के सर्वप्रथम साहित्यशास्त्रीय आचार्य भरत ने अपने नाट्य-शास्त्र’ नामक ग्रंथ में ‘रस’ की यह परिभाषा प्रस्तुत की है

“विभावानुभावसंचारी संयोगात् रसनिष्पत्तिः” अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी (भाव) के संयोग से रस की निष्पत्ति (अर्थात् व्यंजना) होती है।

इस परिभाषा में यद्यपि ‘स्थायी भाव’ का उल्लेख नहीं है, तथापि भरत ने बाद में, उक्त परिभाषा को स्पष्ट करते हुए, स्थायी भाव का भी अलग से विवेचन कर दिया है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर रस के स्वरूप को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है … “विभाव अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध (जागृत या अभिव्यक्त) होने वाले स्थायी भाव के आस्वाद को ‘रस’ कहते हैं।

एक उदाहरण के माध्यम से ‘रस’ के उपर्युक्त स्वरूप को सरलतापूर्वक स्पष्ट किया जा सकता है-

खेलत हरि निकसब्रज-खोरी।
कटि कछनी पीताम्बर बाँधे, हाथ लिए भौरा चक डोरी।
गए स्याम रवि-तनया के तट, अंग लसत चंदन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिलि परी डगोरी॥ –(सूरदास, साहित्य-मंजूषा, भाग-1)

यहाँ कृष्ण और राधा “विभाव’ अर्थात् भाव के कारण है। कृष्ण का फिरकी, लटू आदि घुमाना ‘अभुभाव’ है। उनके हृदय में राधा को देखकर उठने वाले आकर्षण, औत्सुक्य, हर्ष आदि ‘संचारी भाव’ हैं। दोनों का परस्पर प्रेम (आकर्षण) अथवा ‘रति’ स्थायीभाव है जिससे ‘शृंगार’ रस की अभिव्यंजना हुई है।

रस की काव्य में स्थिति अथवा महता

‘अग्नि पुराण’ में कहा गया है कि “काव्य में भाषा का चाहे जितना भी चमत्कार हो, परंतु उसका जीवन तो रस ही है।” आचार्य वामन कहते हैं कि ‘काव्य की वास्तविक दीप्ति, चमत्कृति या क्रांति उसके रसत्व में ही निहित हैं।” एक अन्य प्रसिद्ध साहित्याशास्त्रीय आचार्य विश्वनाथ ने ‘काव्य का स्वरूप’ ही ‘रसात्मक’ बताते हुए कहा है कि-‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ अर्थात् रसात्मक रचना ही काव्य है।

स्पष्टतया ‘रस’ काव्य की आत्मा है। काव्य को पढ़ते, सुनते अथवा दृश्य काव्य (नाटक आदि) के रूप में देखते समय हमारा हृदय जो एक विशेष का आंतरिक ‘अलौकिक संतोष, तृप्ति भाव या आस्वाद अनुभव करता है, वही एक विशिष्ट साँचे में ढलकर, साहित्य-शास्त्र की शब्दावली में ‘रस’ कहलाता है।

काव्य में चित्रित अनुभूतियों से जब हमारे अंत:करण की अनुभूतियाँ एकरूप होकर, परस्पर एकरस होकर, हमारे मन-मस्तिष्क को एक आंतरिक तृप्ति का अनुभव या अस्वाद कराती है तब हम ‘व्यक्ति’ मात्र न रहकर रचनाकार, रचना और उसमें विद्यमान पात्रों तथा उस रचना के असंख्य पाठकों, श्रोताओं या दर्शकों जैसा ही सामान्य सहृदय मानव-रूप हो जाते हैं। तब हम आयु, वर्ग, जाति, देश और काल की सीमाओं में बंधे नहीं रहते। हम मानव-मात्र के रूप में प्रेम, करुणा, उत्साह आदि भावों के आस्वाद में निमग्न, तनमय और आत्मविभोर हो जाते हैं।

यही निमग्नता, तन्मयता, आत्मविभोरता काव्य के आस्वाद अथवा ‘रस’ के रूप में अभिव्यक्त होती है। स्पष्ट है कि ‘रस”काव्य का प्राण-तत्त्व है। काव्य-सौष्ठव के अन्य विविध आयाम, उपकरण अथवा माध्यम इसी के द्वारा संचालित अथवा संचालित होते हैं। उदाहरणतया किसी प्राण-हीन शरीर का रंग-रूप, अलंकरण सौष्ठव आदि निरर्थक है। यह निर्जीव है। उसी प्रकार रंस-व्यंजना के अभाव में काव्य-शोभा के अन्य प्रतिमान निरर्थक हैं।

प्रश्न 2.
‘रस के अंग’ से क्या अभिप्राय है? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
जिस प्रकार मानव-शरीर का संचालन उसके विभिन्न अंगों के माध्यम से संभव है उसी प्रकार रस की परिपूर्णता अर्थात् अभिव्यंजना उसके विभिन्न अंगों के संयोग-सामंजस्य पर आधारित है। ‘रस’ यदि काव्य की आत्मा है, तो ‘भाव’ रस का आधारभूत तत्त्व है। वहीं (भाव) अनेक रूपों, स्थितियों आदि के सोपान करता हुआ, अंततोगत्वा ‘रस-निष्पत्ति’ (रस की अभिव्यंजना) अथवा रसास्वाद की अवस्था तक पहुंचता है। आचार्य भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में इस प्रक्रिया को एक दृष्टांत के माध्यप से समझाते हुए कहा है-

“जिस प्रकार बीज से वृक्ष, वृक्ष से पत्र-पुष्प, फल का उद्भव होता है उसी प्रकार भाव से रस और रस से अन्य भाव व्यवस्थित होते हैं?”

‘भाव’ से मुख्य रूप से चार स्थितियों या रूपों के माध्यम से ‘रस’ की अवस्था प्राप्त करता है। इन्हीं को साहित्य शास्त्रीय आचार्यों ने ‘रस के चार अंग’ कहा है-

  • विभाव,
  • अनुभाव,
  • संचारी भाव,
  • स्थायी भाव।

(रस की परिभाषा भी इन्हीं चार अंगों के आधार पर की गई है-“विभाव, अनुभाव और संचारी’ भाव के संयोग से अभिव्यक्त होने वाले स्थायी भाव को ‘रस’ कहते हैं।

(1) विभाव-‘विभाव’ का अभिप्राय है-‘कारण’ अथवा ‘निमित्त’। इस आधार पर कहा जा सकता है कि “विभाव के कारण या निमित्त हैं जो काव्य, नाटक आदि में अंतःकरण की रागात्मक’ संवेदनाओं को तरंगित (उद्बुद्ध, जागृत) करते हैं।”

काव्य-रूप भाव अर्थात् ‘विभाव’ के दो पक्ष स्पष्ट हैं-एक वह जो प्रवृत्त करता है अर्थात् ‘प्रवृति का कारण’ है। दूसरा वह जो प्रवृत्ति होता है अर्थात् ‘प्रवृति से प्रेरित’ है। इन्हीं दोनों पक्षों को साहित्यशास्त्र की शब्दावली में
(1) आलंबन विभाव और
(2) आश्रय विभाव कहा जाता है।

(1) आलंबन विभाव-जो भाव की प्रवृत्ति का मूल कारण हो उसे ‘आलंबन विभाव’ कहते हैं।
(2) आश्रम विभाव-जो आलंबन की ओर प्रवृत्त होने वाला कारण है उसे ‘आश्रय विभाव’ कहते हैं।

‘विभाव’ के उपर्युक्त दोनों पक्षों के अतिरिक्त एक अन्य सहायक पक्ष भी है-‘उद्दीपन विभाव’। उद्दीपन का अभिप्राय है-उद्दीप्त अर्थात् प्रोत्साहित करने अर्थात् प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक होने वाला।
इस प्रकार ‘विभाव’ के अंतर्गत क्रमशः आलंबन, आश्रय और उद्दीपन-इन तीनों की स्थिति रहती है।

एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी-

खेलत हरि निकसे ब्रज-खोरी।।
कटि कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ लिए भौंरा, चक, डोरी॥
मोर-मुकुट, कुंडल सवननि बर, दसन-दमक दामिनी-छवि छोरी॥
गए स्याम रवि-तनया के तट, अंग लसंति चंदन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी॥
नील बसन फरिया कट पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी॥
संग लरिकिनी चलि इत आवति, दिन-थोरि, अति छबि तन-गोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी॥ – (सूरदास, साहित्य-मंजूषा, भाग-1)

यह शृंगार-रस का उदाहरण है। इसमें राधा आलंबन विभाव है। वह हरि (कृष्ण या श्याम) की आकर्षण (प्रेम)-प्रवृत्ति का कारण है। हरि आश्रय विभाव है। यह राधा के आकर्षण भाव से प्रेरित या प्रभावित है। यमुना का तट, राधा की बड़ी आँखें, मस्तक की रोली, नीली लहंगा, झूलती हुई आदि उद्दीपन विभाव हैं। ये आकर्षण (प्रेम)-भाव को उद्दीप्त करने वाले तत्त्व हैं।

(2) अनुभाव-‘अनुभाव’ का अभिप्राय है-‘पीछे (अर्थात् विभाव के पश्चात्) आने वाला भाव’ (अनु + भाव)। आश्रय जब आलंबन के प्रति प्रवृत्त होता है तब उसके द्वारा अनायास या सायाम (अपने-आप ही अथवा प्रयत्न करने पर) कुछ ऐसे हाव-भाव, चेष्टाएँ आदि होती हैं जो आकर्षण (प्रेम) की सांकेतिका या परिचायक होती है। यही ‘आश्रय की चेष्टाएँ (हाव-भाव आदि) ‘अनुभाव’ कहलाती है। साहित्यशास्त्र की शब्दावली में

“भावों का प्रत्यक्ष बोध कराने वाली आश्रय की चेष्टाएँ ‘अनुभाव’ कहलाती है।” उदाहरणतया जनक-वाटिका में सीता श्रीराम की छवि देखते ही मुग्ध हो जाते हैं। राम आलंबन और सीता आश्रय है। सीता राम की छवि बार-बार निहारना चाहती है। वह उपवन में विद्यमान पशु-पक्षियों अथवा पेड़-पौधों को देखने के बहाने बार-बार अपनी दृष्टि पीछे की ओर घुमाती है-

नख-सिख देखि राम कै सोभा
परबस सिखिन्ह लखी जब सीता
देखन मिस मृग बिहग तरु, फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि-निरखि रघुवीर छवि बाढ़ई प्रीति न थोरि।

यहाँ सीता (आश्रय) का पीछे मुड़ना, नजरें घुमा-घुमाकर देखना आदि चेष्टाएँ ‘अनुभाव’ कहलाएंगी।)

(3) संचारी भाव-‘संचारी’ शब्द का अर्थ है-‘संचरण करने वाले’ अर्थात् ‘चलते रहने वाले’ (बार-बार प्रकट-अप्रकट होते रहने वाले), अस्थिर या चंचल। ये भाव किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक रस में संचरण करते हैं, जैसे ‘हर्ष’ नामक भाव ‘अद्भुत’ रस (विस्मय स्थायी भाव) में भी रहता है, ‘शृंगार’ रस में भी और ‘हास्य’ रस में भी। अत: ‘हर्ष’ की गणना संचारी भाव में की जाती है।

इसी प्रकार वैराग्य, ग्लानि, आलस्य, चिंता, मोह, स्मृति, लज्जा, गर्व, उत्सुकता, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। इनका संचरण समय और स्थिति के अनुसार किसी भी रस में हो सकता है। इसी आधार पर “अंत:करण की अस्थिर (चंचल) प्रवृत्तियों या समय और स्थिति के अनुसार सभी रसों में संचरण करते रहने वाले भावों को संचारी भाव कहते हैं।”

मानव-मन की अस्थिर प्रवृत्तियाँ असंख्य हो सकती हैं। फिर भी काव्य-मर्मज्ञ साहित्यशास्त्रीय आचार्यों ने मुख्यतः तैंतीस (33) संचारी भावों का नामोल्लेख किया है। निम्नलिखित उदाहरण से ‘संचारी भाव’ का स्वरूप स्पष्ट हो जाएगा।

हरि अपनौ आँगन कछू गावत।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनही मनहिं रिझावत।
बाँह उठाए काजरी-धौरी, गैयनि टेरि बुलावत।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर में आवत।
माखन तनक आवनै कर लै, तनक बदन में नावत।
कबहुँक चितै प्रतिबिंब खंभ में लोनी लिए खवावत।
दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित नितही देखत भावत॥ – सूरदास साहित्य-मंजूषा भाग-1

यहाँ हरि (शिशु-कृष्ण) आलंबन है। यशोदा (जसुमति) आश्रय है। हर्ष, गर्व, मोह, उत्सुकता, धैर्य आदि संचारी भाव है।

(4) स्थायी भाव-‘स्थायी’ का अभिप्राय है-सदा स्थिर रहने वाले। साहित्यशास्त्र की शब्दावली में कहा जा सकता है कि “जो आंतरीय भाव रस के आस्वाद तक स्थिर रहकर, स्वयं ही रस-रूप में उबुद्ध (अभिव्यक्त) होते हैं उन्हें ‘स्थायी भाव’ कहते हैं।”

ऊपर सूरदास का जो पद दिया गया है उसमें ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव है जो कि ‘वात्सल्य’ रस की अभिव्यंजना के रूप में साकार हुआ है।

स्थायी भावों की संख्या अथवा उनके भेदों के संबंध में सर्वप्रथम आचार्य भरत ने अपने नाट्शास्त्र में चर्चा की है। उनके अनुसार स्थायी भाव आठ हैं-रति (स्त्री-पुरुष का प्रेम), हास, शोक, क्रोध, उत्साह, विस्मय, भय, जुगप्सा।

बाद के साहित्यशास्त्रीय आचार्यों ने ‘शम’ नामक नौवें भाव को जोड़कर इस संख्या में एक ही वृद्धि कर दी है। इसके उपरांत श्रीमद्भागवत के प्रभाव से जब काव्य में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं के हृदयस्पर्शी, सरस चित्रण की परंपरा चली तब ‘वात्सल्य’ का दसवाँ स्थायी भाव स्वीकार कर लिया गया।

प्रश्न 3.
‘रस’ के विभिनन भेदों का परिचय देते हुए, लक्षण, उदाहरण सहित उनका विवेचना कीजिए।
अथवा,
‘रस’ कितने प्रकार के होते हैं? उनके स्वरूप का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन कीजिए।
उत्तर-
‘रस’ मूलतः किसी ‘स्थायी भाव’ की अभिव्यंजना के माध्यम से अनुभव किया जाने वाला आस्वाद अथवा अलौकिक आनंद है। अतः ‘रस’ के उतने ही प्रकार या भेद संभव हैं जितने स्थायी भाव हैं। इस दृष्टि से मानव-मन की विविध भाव-तरंगें-जो ‘संचारी भाव’ कहलाती हैं-जब किसी एक मुख्य या ‘विशिष्ट भाव’ में ही समाहित हो जाती है तो वह ‘विशिष्ट या मुख्य भाव’ ही स्थायी भाव होकर रस-व्यंजना का आधार बनता है। . भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में सर्वप्रथम उल्लेखनीय नाम आचार्य भरत तथा उनके ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ का है।

उन्होंने स्थायी भावों की संख्या आठ बताते हुए, आठ ही रसों का उल्लेख किया है- शृंगार, हास्य, करुणा, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत। भरत ने रसों के ये (आठ) भेद मूलतः दृश्यकाव्य (नाटक आदि) के संदर्भ में ही प्रस्तुत किए। बाद में श्रव्यकाव्य के अन्य रूपों (प्रबंधकाव्य, कथा काव्य आदि) के संदर्भ में ‘शांत’ रस को भी मान्यता मिली। तदुपरांत, भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप, श्रीमद्भागवत के आधार पर श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को हृदयस्पर्शी, सरस-चित्रण काव्य का एक प्रमुख विषय बन गया। तब ‘वात्सल्य’ नामक दसवें रस की भी गणना होने लगी।

‘रस की परिभाषा’ एवं उसके ‘स्वरूप’ के अंतर्गत स्पष्ट हो चुका है-स्थायी भाव ही रस के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। तदनुसार दस स्थायी भावों तथा उनसे उबुद्ध होने वाले रसों की क्रम-तालिका इस प्रकार है-

हम यदि ‘रस’ की मूल परिभाषा पर ध्यान दें तो उपर्युक्त सभी (दस) रसों की परिभाषा निर्धारित करना अत्यंत सरल प्रतीत होगा।

रस की परिभाषा इस प्रकार है-

“विभव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त होने वाले स्थायी भाव को ‘रस’ कहते हैं।”

इस परिभाषा में हम जिस स्थायी भाव का उल्लेख करेंगे, उसी से अभिव्यक्त होने वाले संबंधित रस का नाम भी जोड़ देंगे।

जैसे-“विभाव, अनुभव और संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त (उबुद्ध) होने वाले . ‘रति’ स्थायी भाव से ‘ श्रृंगार’ रस की व्यंजना होती है।” अथवा ………………………

“उत्साह” स्थायी भाव से ‘वीर’ रस की व्यंजना होती है।”

इसी प्रकार परस्पर संबद्ध अन्य सभी स्थायी भावों तथा ‘रसों’ का नामोल्लेख करते हुए अभीष्ट रस की परिभाषा प्रस्तुत की जा सकती है।

यहाँ उपर्युक्त दस रसों का लक्षण-उदाहरण-सहित स्वरूप-विवेचन किया जा रहा है।

श्रृंगार-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘रति’ नामक स्थायी भाव से ‘शृंगार’ रस की अभिव्यंजना होती है।”

‘रति’ अर्थात् प्रेमासक्ति की दो स्थितियाँ संभव हैं-

  • मिलन,
  • विरह।

इसी आधार पर शृंगार रस के दो भेद माने गए हैं-

  • संयोग शृंगार,
  • वियोग शृंगार।

संयोग श्रृंगार-विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से नायक-नायिका के मिलन के रूप में उबुद्ध स्थायी भाव से ‘संयोग शृंगार’ की अभिव्यक्ति होती है। जैसे-

दुलह श्री रघुवीर बने, दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावत गीत सबै मिलि सुंदरि, वेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारित जानकी, कंचन के नग की परछाहीं।
या ते सबै सुधि भूलि गईं, कर देखि रही, पल टारत नाहीं। – (तुलसीदास, कवितावली)

यहाँ श्रीराम और सीमा ‘विभाव’ है। राम ‘आलंबन’ है। सजा हुआ मंडप, सुंदरियों के गीत, वेदमंत्रों का पाठ आदि ‘उद्दीपन’ विभाव है। सीता ‘आश्रय’ विभाव है। सीता का नग में राम का झलक देखना, देखते रह जाना, सुध-बुध भूल जाना, हाथ न छोड़ना आदि अनुभाव हैं। हर्ष, विस्मय, क्रीड़ा, अपस्मार, आवेग, मोह आदि संचारी भाव हैं और ‘रति’ स्थायी भाव है जो मिलन-आनंद के संयोग से ‘संयोग शृंगार’ के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।”

वियोग श्रृंगार की स्थिति वहाँ होती है जहाँ ‘रति’ भाव नायक-नायिका के परस्पर अलग (बिछुड़े हुए) होने के रूप में विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रंस-रूप में अभिव्यक्त होता है।” जैसे-

रो रो चिंता सहित दिन को राधिका थीं बिताती।
आँखों को थी सजल रखतीं, उन्मना थीं दिखातीं॥
शोभा वाले जलद-वपु को हो रही चातकी थीं।
उत्कंठा थी पर न प्रबला वेदना वद्धिता थी। – (अयोध्या प्रसाद हरिऔध, प्रियप्रवास)

यहाँ राधा आश्रय विभाव और श्रीकृष्ण आलंबन विभाव हैं (जो गोकुल-वृंदावन छोड़कर मथुरा जा बसे हैं)। राधा का रोना, आँखें सजल रखना, बादलों की ओर (उनमें कृष्ण के साँवले शरीर की झलक पाकर) टकटकी बाँधे रखना आदि अनुभाव हैं.। शंका, दैन्य, चिन्ता, स्मृति, जड़ता, विषाद, व्याधि, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से ‘रति’ स्थायी भाव प्रिय विरह की वेदना के कारण ‘वियोग शृंगार’ के रूप में अभिव्यक्त हुआ है।

हास्य-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘हास’ स्थायी भाव से ‘हास्य’ रस की अभिव्यक्ति होती है।” जैसे-

जब सुख का नींद कढ़ा तकिया, इस सिर के नीचे आता है।
तो सच कहता हूँ-इस सिर में, इंजन जैसे लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ बुद्धि भी फक-फक करती है।।
सपनों से स्टेशन लाँघ-लाँघ, मस्ती का मंजिल दिखती है।

यहाँ कवि का कथन ही आलंबन और पाठक-श्रोता आश्रय है। कवि कविता पढ़ते समय तकिए पर सिर टिकाने, आँखें बंद करके झूमने आदि का जो अभिनय करेगा वह ‘उद्दीपन’ विभाव होगा। कविता पढ़ या सुन कर हमारा मुस्काना, ‘वाह वाह !’ करना, झूमना आदि अनुभाव हैं। चपलता, हर्ष, आवेग, औत्सुक्य आदि संचारी भाव है। इनके संयोग से ‘हास’ स्थायी भाव की ‘हास्य’ रस के रूप में निष्पत्ति हुई है।

रौद्र-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘क्रोध’ स्थायी भाव से ‘रौद्र’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।’

जैसे-
फिर दुष्ट दुःशासन समर में शीघ्रग सम्मुख हो गया !
अभिमन्यु उसको देखते ही क्रोध से जलने लगा!
निःश्वास बारंबार उसका उष्णत चलने लगा!
रे रे नराधम नारकी ! तू था बता अब तक कहाँ?
मैं खोजता फिरता तुझे सब ओर कब से हूँ यहाँ !
मेरे करों से अब तुझे कोई बचा सकता नहीं !
पर देखना, रण-भूमि से तू भाग जाना मत कहीं ! – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

यहाँ अभिमन्यु आश्रय विभाव तथा दुःशासन आलंबन-विभाव है। युद्ध का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। अभिमन्यु का जलना, बार-बार गरम श्वास छोड़ना और कठोर वचन कहना आदि अनुभव है। असूया, अमर्ष, श्रम, धृति, चपलता, गर्व, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से उबुद्ध ‘क्रोध’ स्थायी भाव से ‘रौद्र’ रस की निष्पत्ति (व्यंजना) हुई है।

करुण-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘शोक’ स्थायी भाव से ‘करुण’ रस की अभिव्यक्ति होती है।” जैसे-

प्रिय मृत्यु का अप्रिय महासंवाद पाकर विष भरा।
चित्रस्थ-सी निर्जीव मानों रह गई हत उत्तरा।
संज्ञा-रहित तत्काल ही फिर वह धरा पर गिर पड़ी।
उस काल मुर्छा भी अहो! हिकतर हुई उसको बड़ी। – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

यहाँ उतरा आश्रय विभाव तथा उसका मृतक प्रियतम अभिमन्यु आलंबन विभाव है। दैन्य, चिंता, स्मृति, जड़ता, विषाद, व्याधि, उन्माद, मूर्छा आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से उबुद्ध ‘शोक’ स्थायी भाव से ‘करुण’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

बीभत्स-“विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘जुगुप्सा’ स्थायी भाव से ‘बीभत्स’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

यज्ञ समाप्त हो चुका, तो भी धधक रही थी ज्वाला।
दारुण दृश्य ! रुधिर के छींटे, अस्थिखंड की माला।
वेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कतार वाणी।
मिलकर वातावरण बना था, कोई कुत्सित प्राणी – (जयशंकर प्रसाद, कामायनी)

(मनु द्वारा यज्ञ में पशु की बलि चढ़ाए जाने के इस दृश्य में) श्रद्धा आश्रय विभाव तथा यज्ञ की वेदी अलंबन विभाव है। धधकती ज्वाला, लहू के छींटे, हड्डियों की माला, बलि चढ़ाए जाते पशु की घबराई चीख आदि वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। आँखें मूंदना, नाक-भौंह सिकोड़ना, मुँह फेर लेना, कानों पर हाथ रखना या नासिक के छिद्र बंद कराना आदि अनुभाव होंगे। ग्लानि, चिंता, आवेग, विषाद, त्रास आदि संचारी भाव हैं। इन सब के संयोग से उबद्ध ‘जुगुप्सा’ स्थायी भाव से ‘वीभत्स’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

भयानक-
“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘भय’ स्थायी भाव से ‘भयानक’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

उस सुनसान डगर पर था सन्नाटा चारों ओर,
गहन अँधेरी रात घिरी थी, अभी दूर थी भोर।
सहसा सुनी दहाड़ पथिक ने सिंह-गर्जना भारी,
होश उड़े, सिर गया घूम, हुई शिथिल इंद्रियाँ सारी।

यहाँ पथिक आश्रय विभाग तथा दहाड़ आलंबन विभाव है। सुनसान डगर, सन्नाटा, अंधेरी रात आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं, होश उड़ जाना, सिर घूमना, इंद्रियाँ शिथिल होना आदि अनुभाव हैं। शंका, दैन्य, चिंता, मोह, जड़ता, विषाद, त्रास आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘भय’ स्थायी भाव ‘भयानक’ रस के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।

वीर-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘उत्साह’ स्थायी भाव से अभिव्यक्त होने वाला रस ‘वीर’ रस कहलाता है। जैसे-

जिस वीरता से शत्रुओं का सामना उसने किया।
असमर्थ हो उसके कथन में मौन वाणी ने लिया॥
सब ओर त्यों ही छोड़कर निज प्रखतर शर जाल को।
करने लगा वह वीर व्याकुल शत्रु-सैन्य विशाल हो। – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

यहाँ अभिमन्यु आश्रय तथा शत्रु (कौरव-दल के सैनिक) आलंबन विभाव हैं। युद्ध का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। अभिमन्यु का इधर-उधर घुमकर बाण छोड़ना आदि अनुभाव है, असूया, श्रम, चपलता, आवेग, अमर्ष, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘उत्साह’ स्थायी भाव से ‘वीर’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

अद्भुत-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘विस्मय’ स्थायी भाव। से अभिव्यक्ति होने वाला रस ‘अद्भुत’ कहलाता है।” जैसे-

अस जिय जानि जानकी देखी।
प्रभु पलके लखि प्रीति बिसेखी।
गुरुहिं प्रनाम मनहिं मन किन्हा।
अति लाधवं उठाइ धनु लीन्हा।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।
पुनि नभ धुनमंडल सम भयऊ।
लेत चढ़ावत बैंचत गाढ़े।
काहू न लखा देख सबु ठाढ़े।
तेहि छन राम मध्य धन तोरा।
भेर भुवन धुनि घोरा कठोरा। – (तुलसीदास, रामचरितमानस, बालकांड)

यहाँ श्रीराम आलंबन विभाव तथा राजसभा में विद्यमान अन्य सभी आश्रय विभाव हैं। भारी। शिव-धनुष, सीता की व्याकुलता, स्वयंवर-सभा का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। श्रीराम का सीता की ओर निहारना, सहज भाव से धनुष उठाना, फुरती से चिल्ला चढ़ाना, धनुष तोड़ना आदि हर पालन , जोइ कबहुँ अबतावे। अनुभाव हैं। श्रम, धृति, चलता, हर्ष, आवेग, औत्सुक्य मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘विस्मय’ स्थायी भाव की ‘अद्भुत’ रस के रूप में अभिव्यक्ति हुई है।

शांत-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘शम’ (निर्वेद) स्थायी भाव से अभिव्यक्त होने वाले रस को शांत कहते हैं।” जैसे-

ओ क्षणभंगुर भव राम राम।
भाग रहा हूँ भार देख, तू मेरी ओर निहार देख !
मैं त्याग चला निस्सार देख, अटकेगा मेरा कोन काम !
ओ क्षणभंगुर भव राम राम ! – (मैथिलीशरण गुप्त, यशोधरा)

यहाँ नश्वर संसार आलंबन विभाव है और ‘राम-राम’ करने वाले सिद्धार्थ आश्रय विभाव हैं। संसार की परिवर्तनशीलता, क्षणभंगुरता, रोग-बुढ़ापा आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। सिद्धार्थ का उदासीन (विरक्त) होना अनुभाव है। निर्वेद, ग्लानि, चिंता, धृति, मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘शम’ स्थायी भाव को ‘शांत’ रस के रूप में अभिव्यक्ति हुई है।

वत्सल-“विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव से ‘वत्सल’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

जशोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दलाइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै॥
कबहुँ पलक हरि-मुंद लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै॥
सोवत जानि मौन है रहि करि-करि सैन बतावै।
इति अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ, सो नँद भामिनि पावै॥ – (सूरदास, सूरसागर)

यहाँ कृष्ण आलंबन विभाव और यशोदा आश्रय विभाव है। झूला, कृष्ण का पलकें मूंदना, होंठ फड़काना, इशारे करना आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। यशोदा का झूले को झुलाना, कृष्ण को दुलारना-पुचकारना, मधुर गीत गाना आदि अनुभाव हैं। मोह, चपलता, हर्ष, औत्सुक्य आदि संचारी .. भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘वात्सल्य’ भाव से ‘वत्सल’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

(अनेक पुस्तकों में इसको ‘वात्सल्य’ कहा गया जो ठीक नहीं। ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव है। रस का नाम ‘वत्सल’ है जैसा कि आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण’ में कहा है-‘वत्सलं च रसं विदुः।’

प्रश्न 4.
नीचे दिए गए विषयों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीजिए
(क) विभाव और अनुभाव में अंतर,
(ख) संचारी भाव और स्थायी भाव में अंतर
(ग) वीर रस और रौद्र रस में अंतर
उत्तर-
(क) विभाव और अनुभाव में अंतर-‘विभाव’ मूलतः भाव नहीं, भाव के कारण-मात्र हैं। ‘अनुभाव’ भी वास्तव में स्वयं भाव नहीं, भावों के परिचायक विकार (परिवर्तन या चेष्टाएँ) है। ‘विभाव का संबंध तीन पक्षों से है-आलंबन, उद्दीपन और आश्रय, परंतु ‘अनुभाव’ का संबंध केवल. ‘आश्रय’ से है। ‘विभाव’ कोई व्यक्ति, प्रसंग, पदार्थ या विषय हो सकता है, जबकि अनुभाव किसी एक व्यक्ति (आश्रय) के शरीर को अनायास (अपने-आप) होने वाली या जानबूझकर की जा सकने वाली चेष्टाएँ ही होती हैं।

(ख) संचारी भाव और स्थायी भाव में अंतर-‘संचारी भाव’ और ‘स्थायी भाव’ दोनों ही आंतरिक भाव हैं। दोनों की स्थिति ‘विभाव’ पर आधारित है। परंतु दोनों में पर्याप्त अंतर भी है-

  1. संचारी भाव अस्थिर होते हैं, जबकि स्थायी भाव स्थिर रहते हैं।
  2. संचारी भाव अनेक रसों में संचारित हो सकते हैं। एक ही रस में कई संचारी भाव तथा एक संचारी भाव अनेक रसों में संभव हैं परंतु कोई एक स्थायी भाव किसी एक ही रस से संबंधित होता है।
  3. संचारी भाव प्रकट होकर विलीन हो जाते हैं। वे आते-जाते, प्रकट-विलीन, होते रहते हैं स्थायी भाव अंत-पर्यंत स्थिर बने रहते हैं और वही रस के रूप में परिणत (उबुद्ध या अभिव्यक्त) होते हैं।
  4. संचारी भाव नदी की लहरों के समान चंचल, गतिशील या संचरणशील है जबकि स्थायी भाव नदी की मूल (अंतर्निहित) जलधारा के समान एकरूप बने रहते हैं।
  5. संचारी भाव अपने वर्ग के अन्य भावों में घुल-मिल सकते हैं या विरोधी भावों से दब सकते या क्षीण हो सकते हैं, परंतु स्थायी भाव न तो अपने वर्ग से और न ही विरोधी वर्ग के भावों से दबते. या क्षीण होते हैं।

(ग) वीर रस और रौद्र रस में अंतर-वीर और रौद्र रस में विभाव तथा संचारी भाव प्रायः एक-से होते हैं। दोनों में ‘शत्रु’ या ‘विरोधी पक्ष’ आलंबन विभाव होता है। दोनों में आश्रय को अनिष्ट की आशंका होती है। असूया, आमर्ष, आवेग, श्रम आदि संचार भाव भी प्रायः दोनों में होते हैं। फिर भी दोनों में पर्याप्त अंतर है। यह तो स्पष्ट ही है कि वीर में ‘उत्साह’ तथा रौद्र में ‘क्रोध’ स्थायी भाव होता है।

वीर रस में शस्त्र-संचालन, आगे बढ़ना, आक्रमण करना, अपना बचाव करना आदि अनुभाव होंगे, जबकि रौद्र रस में आवेशपूर्ण शब्द, ललकार, आँखें तरेरना, मुट्ठियाँ भींचना, दाँत पीसना आदि अनुभाव होंगे। साथ ही, वीर रस में आश्रय का विवेक बना रहता है, जबकि रौद्र रस में विवेक की मर्यादा नहीं रहती। वास्तव में रौद्र रस वीर रस की पृष्ठभूमि तैयार करता है। जहाँ रौद्र रस की सीमा समाप्त होती है वहीं से वीर रस की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।

छंद

1. छंद किसे कहते हैं? निम्नलिखित छंदों के लक्षण-उदाहरण दीजिए सोरठा, दोहा, रोला, चौपाई, बरवै, गीतिका, हरिगीतिका, कवित्त, सवैया।
उत्तर-
जिस रचना में मात्राओं और वर्णों की विशेष व्यवस्था और गणना होती है, साथ ही संगीत सम्बंधी लय और गति की योजना रहती है उसे छंद कहते हैं। दूसरे शब्दों में निश्चित वर्णों या मात्राओं की गति, यति, आति से बंधी हुई शब्द योजना को छंद कहते हैं।

सोरठा :
लक्षण-यह भी अर्द्धसममात्रिक छंद है। इसके प्रथम और तीसरे चरणों में ग्यारह-ग्यारह एवं दूसरे और चौथे चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। दोहा की चरण-व्यवस्था को बदल देने से सोरठा हो जाता है। दोहा से अन्तर यह है कि सोरठा के विषम चरणों में अंत्यानुप्रास पाया जाता है।

दोहा
लक्षण- यह अर्द्धसममात्रिक छंद है। इसके प्रथम और तीसरे चरणों में तेरह-तेरह तथा . द्वितीय और चतुर्थ चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। [विषम चरणों के अन्त में प्रायः (15) क्रम रहता है। चरणांत में ही यति होती है।

रोला:
लक्षण-यह सममात्रिक छंद है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में चौबीस-चौबीस मात्राएँ होती हैं। ग्यारह और तेरह मात्राओं पर यति का विधान था जो अब उठ रहा है।

चौपाई :
लक्षण-यह चार चरणोंवाला सममात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं। चरणांत में यति होती है। चरणांत में ये दो कम वर्जित हैं-15। और ऽ ऽ। (अर्थात् जगण और तगण)।

बरवै :
लक्षण-यह एक अर्द्धसममात्रिक छंद है। इस छंद में कुल चार चरण होते हैं। विषम (प्रथम तथा तृतीय) चरणों में प्रत्येक में बारह और सम (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरणों में प्रत्येक में सात मात्राएँ होती हैं। बारह और सात मात्राओं पर विराम और अंत में लघु मात्र होती है।

गीतिका:
लक्षण-यह एक सममात्रिक छंद है। इसमें कुल चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण की चौदहवीं और बारहवीं मात्रा के बाद विराम (यति) होता है। चरणांत (पादांत) में लघु-गुरु (5) क्रम से मात्राएँ रहती हैं।

हरिगीतिका:
लक्षण-यह एक सममात्रिक छंद है। इसमें कुल चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक सोलहवीं और बारहवीं मात्राओं के बाद विराम (यति) होता है। प्रत्येक चरण के अंत में गुरु (5) मात्रा होती है।

कवित्त :
लक्षण-यह वर्णिक छंद है। इसे ‘मनहरण’ या ‘घनाक्षरी’ भी कहते हैं। इसके प्रमुख भेद हैं-मनहरण, रूपघ्नाक्षरी, जनहरण, जलहरण और देवघनाक्षरी। मुख्यतः इस छंद के प्रत्येक चरण में 31 से 33 वर्ण तक पाए जाते हैं। (16)

सवैया :
लक्षण-यह वर्णिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 से लेकर 26 तक वर्ण होते हैं, मदिरा, मत्तगयंद (मालती), चकोर, दुर्मिल, सुंदरी सुख, उपजाति और किरीट नामक इसके प्रकार हैं।

उदाहरण-
सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाति निरंतर गावै।।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावै।
जाहि हियै लखि आनंद है जड़ मूढ़ हिये रसखानि कहावै।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाँछ पर नाच नचावै।

अलंकार

प्रश्न 1.
‘अलंकार’ का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए काव्य में उसके स्थान एवं महत्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
काव्य में ‘अलंकार’ से क्या अभिप्राय है? काव्य और अलंकार का अंतः संबंध बताते हुए उदाहरण सहित विवेचन कीजिए।
उत्तर-
‘अलंकार का तात्पर्य अथवा अभिप्राय-‘अलंकार’ शब्द ‘अलंकरण’ से बना है जिसका अभिप्राय है-सजावट। इस दृष्टि से ‘अलंकार’ का तात्पर्य हुआ-सजावट का माध्यम। संस्कृत का प्रसिद्ध उक्ति है-‘अलं करोति इति अलंकारः’ अर्थात् जो अलंकृत करे-सजाए, सुशोभित करे, शोभा बढ़ाए वह अलंकार है इस आधार पर, काव्य के संदर्भ में ‘अलंकार का तात्पर्य है जो भाषा का सौष्ठव बढ़ाए, उसमें चमत्कार पैदा करके उसे प्रभावशाली बना दे।’ अलंकार वाणी के भूषण हैं’-यह उक्ति बहुत प्राचीन है। हम जो भी कहते या लिखते हैं-दूसरों तक अपनी बात प्रभावशाली ढंग से पहुंचाने के लिए। कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए जिन अनेक उपकरणों, साधनों या माध्यमों का उपयोग किया जा सकता है उनमें ‘अलंकार’ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।

विशेष प्रतिभाशाली, कल्पनाशील और कला-निपुण वक्ता का रचनाकार अपने कथन को चमत्कारपूर ढंग से प्रस्तुत कर, श्रोताओं या पाठकों के हृदय को छूकर, उन्हें प्रभावित कर सकता है। यह क्षमता प्रदान करने वाला तत्त्व ही ‘अलंकार’ कहलाता है।

काव्य में ‘अलंकार’

जिस प्रकार कोई भूषण (गहना) किसी सामान्य व्यक्ति के आकर्षण, सौंदर्य और प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होता है वैसे ही अलंकार वाणी अर्थात् कविता या रचना को सुंदर, आकर्षक और प्रभावशाली बनाते हैं। संस्कृत के प्राचीन आचार्य दंडी ने कहा है-“काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्व को अलंकार कहते हैं।” प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय ग्रंथ ‘चंद्रलोक के रचयिता जयदेव न ‘काव्य में अलंकार का महत्त्व’ स्पष्ट करने के लिए बड़ा रोचक उदाहरण दिया है।

वे कहते हैं-‘जिस प्रकार ताप से रहित अग्नि की कल्पना असंभव है, उसी प्रकार अलंकार के बिना काव्य के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती।’ ताप अग्नि का गुण है, उसकी पहचान है। इसी प्रकार काव्य में साधारण कथन वाला प्रमुख तत्त्व अलंकार है। अलंकार काव्य में काव्यत्व लाने वाला उपकरण है, उसकी प्रमुख पहचान है।

रीतिकाल के प्रसिद्ध आचार्य केशवदास ने, काव्य में अलंकार का महत्त्व स्पष्ट करते हुए कहा है-

“आभूषणों के बिना नारी और अलंकारों के बिना कविता की शोभा संभव नहीं।’
भूषन बिनु न बिराजई बनिता मित्त। – (केशवदास, कविप्रिया)

(अर्थात् हे मित्र ! कविता और विनता (स्त्री) भूषण के बिना शोभा नहीं पातीं)।

इसमें कोई संदेह नहीं कि अलंकार के प्रयाग से सामान्य-सी उक्ति भी अत्यंत प्रभावी, चमत्कारिक और मर्मस्पर्शी बन जाती है। कविवर पंत ने ‘गंगा में चल रही नाव’ के एक साधारण दृश्य को ‘अनुप्रास’ और ‘रूपक’ अलंकार के प्रयोग से कैसे संजीव बिंब-सा मनोहारी, प्रभावी और आकर्षक बना दिया है-

मृदु मंद-मंद, मंथर, मंथर
लघु तरणी हंसिनी-सी सुंदर,
तिर रही खोल पालों के पर।
(सुमित्रानंदन पंत, नौका विहार)

यहाँ पहली पंक्ति में ‘अनुप्रास अलंकार’ (म और अनुस्वार की आवृति) के कारण संगीतात्मक लय-प्रवाह का संचार हो गया है। दूसरी पंक्ति में ‘उपमा’ (हंसिनी-सी), तीसरी पंक्ति में ‘रूपक (पालों के पर) के कारण, गंगा में तैरती का बिंब सजीव चलचित्र की भाँति साकार हो गया है।

स्पष्ट है कि काव्य के वास्तविक सौंदर्य का रहस्य अलंकारों पर निर्भर है। परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं कि काव्य में अलंकार ही सब कुछ है। अलंकार काव्य की शोभा के बाहरी साधन मात्र हैं साध्य नहीं है। काव्य तो स्वयं ही रमणी, चारु तथा सुंदर है। जो स्वभाव से ही मोहक, आकर्षक या सुंदर है, उसे शोभा या चमत्कार के साधनों की क्या आवश्यकता है? किसी अत्यंत दुर्बल, अरूण और रुग्ण व्यक्ति को चाहे कितने बढ़िया आभूषणों से लाद दिया जाए-वह सुंदर या मोहक नहीं बन सकता।

इसी प्रकार, जिस काव्य में भाव और अर्थ की चारुता या मोहकता नहीं उसे केवल वर्णों या शब्दों की आवृत्ति अथवा उपमानों-रूपकों की भरमार से प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। काव्य में अलंकार का महत्त्व उतना ही समझना चाहिए जितना स्वाभाविक रूप से एक स्वस्थ, सुंदर, सुरूप और सुडौल शरीर को सजाने में आकर्षक आभूषणों का। तात्पर्य यह है कि काव्य में अलंकारों का संतुलित, सुचारु तथा सुसंगत प्रयोग ही उपयुक्त है।

तात्पर्य यह है कि ‘अलंकार’ कोरे चमत्कार के लिए नहीं। उनकी महत्ता काव्य की स्वाभाविक चारुता और सुष्टुता में वृद्धि करने में है। अलंकार ‘काव्य के लिए है काव्य ‘अलंकार’ के लिए नहीं है।

प्रश्न 2.
अलंकार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके प्रमुख भेदों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
काव्य का स्वरूप-‘अलंकार’ शब्द सामान्य रूप से सजावट, शोभा और चमत्कार बढ़ाने वाले उपकरण के लिए प्रयुक्त होता है। भूषण, आभूषण, आवरण आदि इसी के अन्य पर्याय हैं। अलंकार शब्द के इसी अर्थ को ध्यान में रखकर आचार्य दंडी ने कहा है-‘काव्य के शोभा कारक तत्त्व अलंकार कहलाते हैं।” (काव्यादर्श) आचार्य वामन का मत इससे कुछ भिन्न है। उनके कथनानुसार, ‘काव्य के शोभाकारक’ तत्त्व तो गुण हैं, उन गुणों में अतिशयता (वृद्धि का उत्कर्ष) लाने वाले साधन अलंकार हैं। अपने इस मत को वामन ने केवल एक शब्द में समेटते हुए, निष्कर्ष के रूप में आगे यह भी कहा है कि काव्य के अंतर्गत ‘सौंदर्य मात्र अलंकार है-सौंदर्यमलंकारः।

प्रश्न यह है कि अलंकार स्वयं सौंदर्य है अथवा सौंदर्य का हेतु (कारण का साधन) है? अधिकतर विद्वान दूसरे पक्ष के समर्थक हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में ‘ध्वनि’ संप्रदाय के प्रवर्तक आनंदवर्धन ने स्पष्टं कहा है कि काव्य में चारुत्व (सुन्दरता, सरसता, रोचकता, चमत्कारता) लाने वाले उपकरण (कारण, साधन या माध्यम) अलंकार है। (ध्वन्यालोक) काव्य में अलंकारों को सर्वप्रथम महत्त्व प्रदान करने वाले आचार्यों में भामह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उनका कथन है कि ‘शब्द और अर्थ को एक विशेष प्रकार (वक्र रूप) से प्रस्तुत करने की युक्ति (शैली) अलंकार है।

(काव्यालांकार) भामह द्वारा प्रस्तुत किया गया अलंकार का यह लक्षण पर्याप्त सुसंगत है। इसो की व्याख्या करते हुए मध्ययुग के आचार्य मम्मट और विश्वनाथ ने कहा है-‘शरीर में हार, कंगन आदि के समान, काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तथा रस-भाव आदि के उपकारक (अर्थात् रस-भाव को उत्कर्ष प्रदान करने वाले) शब्दार्थ के अस्थिर धर्म (तत्त्व) अलंकार कहलाते हैं।”

उपर्युक्त लक्षण में अलंकारों को ‘शब्दार्थ के अस्थिर धर्म’ कहा गया है तो सर्वथा उचित है। अलंकार काव्य के स्थायी, अभिन्न या अनिवार्य तत्त्व नहीं है। इनका उपयोग आवश्यकता होने पर, या स्वाभाविक रूप से कहीं-कहीं यथोचित रूप से किया जाता या हो जाता है। इस दृष्टि से हिन्दी के विख्यात आलोचक और काव्य-मीमासंक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत बहुत महत्त्वपूर्ण है _ ‘भावों के उत्कर्ष और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति ही अलंकार है।’

संक्षेप में कहा जा सकता है कि साहित्य-रचना में किसी भी स्तर पर किसी भी प्रकार के सौंदर्य का उन्मेष होता है, तब वह अपनी समग्रता में अलंकार पर्याप्त हो जाता है।

अलंकारों के प्रमुख भेद

‘अलंकार’ वास्तव में कथन के विशेष प्रकार का नाम है। विशेष प्रकार के वाग्वैदग्ध्य को ही आचार्यों ने ‘अलंकार’ की संज्ञा दी है। यह वाग्वैदग्ध्य या कथन के प्रकार-विशेष के अनेक रूप संभव है। ‘अलंकार’ क्योंकि मुख्य रूप से काव्य में चारुत्व, चमत्कार और प्रभविष्णुता का संचार करते हैं और काव्य-संरचना ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ के सुसंगत संयोग पर निर्भर है (शब्दार्थों सहितौ काव्यम्) अतः अलंकार के दो प्रमुख भेद तो स्पष्ट ही हैं-

  • शब्दालंकार,
  • अर्थालंकार।

काव्यगत सौंदर्य अथवा चमत्कार का आधार जहाँ केवल शब्द हो वहाँ ‘शब्दालंकार’ होगा और जहाँ काव्यगत सौन्दर्य अथवा चमत्कार अर्थकेंद्रित होगा, वहाँ ‘अर्थालंकार’ माना जाएगा। कई आचार्य एक ही कथन में ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ दोनों का संयुक्त चमत्कार होने की स्थिति में अलंकारों का एक तीसरा भेद भी स्वीकार करते हैं जिसे ‘उभयालंकार’ की संज्ञा दी है। ‘उभय’ का अर्थ है दोनों-अर्थात् शब्द भी और अर्थ भी। इस भेद को ‘शब्दार्थालंकार’ भी कहा जाता है।

अलंकार के उपर्युक्त तीनों भेदों का स्पष्टीकरण नीचे दिए गए उदाहरणों से हो सकता है

शब्दालंकार
“तरिन-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।” यहाँ ‘त’ वर्ण की आवृत्ति के कारण चमत्कार उत्पन्न हुआ है। ‘तरनि’ की जगह ‘सूर्य’ ‘तनुजा’ की जगह ‘पुत्री’ अथवा ‘तरुवर’ की जगह ‘वृक्ष’ शब्द प्रयुक्त होने पर यह चमत्कार नहीं रहता। स्पष्ट है कि यह चमत्कार ‘शब्द’ पर आधारित है, अतः यहाँ शब्दालंकार’ है। इसका नाम ‘अनुप्रास’ है।’

अर्थालंकार
“महँगाई बढ़ रही निरंतर, द्रपुद-सुता के चीर सी,
बेकारी बढ़ रही चीरती, अंतर्मन को तीर-सी।”

यहाँ ‘महँगाई’ (उपमेय, प्रस्तुत) की समता ‘द्रोपदी के चीर’ (उपमान, अप्रस्तुत) से की गई है। ‘बेकारी’ की समता ‘तीर’ से की गई है। दोनों में ‘चीरना’ लक्षण एक-सा है। शब्द बदल देने पर भी चमत्कार कम नहीं होगा, क्योंकि उसका आधार ‘अर्थ’ है। अत: यह ‘अर्थालंकार’ है। इसे “उपमा’ कहते हैं।

शब्दार्थालंकार
“अंतद्वीप समुज्जवल रहता सदा स्नेह स्निग्ध होकर।”

यहाँ ‘स’ वर्ण की आवृत्ति से ‘अनप्रास’ (शब्दालंकार) है। ‘सदा’ की जगह ‘हमेशा’ या स्नेह की जगह ‘प्रेम’ कर देने से चमत्कार नहीं रहेगा। साथ ही यहाँ ‘स्नेह’ के दो अर्थ हैं-‘प्रेम’ और ‘दीप’। ‘अंतर’ (मन) प्रेम से उज्जवल रहता है, ‘दीप’ तेल से। यह भी शब्दालंकार (श्लेष) है। इसके अतिरिक्त ‘अंत:करण’ (उपमेय) को ‘दीप’ उपमान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शब्द बदलकर ‘हृदय’ रूपी ‘दीपक’ भी कह सकते हैं। अर्थ-चमत्कार बना रहेगा। इस प्रकार इस उदाहरण में शब्द के अर्थ-दोनों का चमत्कार होने के कारण ‘शब्दार्थालंकार’ या ‘उभयालंकार’ है।

प्रश्न 3.
प्रमुख शब्दालंकार कौन-से हैं? लक्षण उदाहरण सहित उसका विवेचन कीजिए।
उत्तर-
प्रमुख शब्दालंकार चार हैं-अनुप्रास, यमक, श्लेष, पुनरुक्ततदाभास। इन चारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन आगे किया जा रहा है :
(i) अनुप्रास- अनुप्रास’ शब्द का अर्थ है-साथ-साथ रखना (अनु+प्र+आस, क्रमबद्ध रूप से सँजाना)। जब वर्गों को एक विशेष क्रम से इस प्रकार साथ-साथ रखा जाता है (उनकी आवृत्ति की जाती है), तब संरचना में एक लयात्मक नाद के सौंदर्य का समावेश होता है। इस दृष्टि से ‘अनुप्रास’ का यह लक्षण ध्यान देने योग्य है

“जहाँ स्वरों की भिन्नता होने पर भी व्यंजनों से रस के अनुकूल समानता (व्यंजन वर्णों की आवृत्ति) हो वहाँ ‘अनुप्रास’ अलंकार माना जाता है।” जैसे-

मानते मनुष्य यदि अपने को आप हैं,
तो क्षमा कर वैरियों को वीरता दिखाइए।

यहाँ पहले ‘म’ वर्ण की आवृत्ति एक विशेष क्रम से है। फिर ‘व’ वर्ण की समानता द्वारा भी सौंदर्य की सृष्टि हुई है। अतः ‘अनुप्रास’ अलंकार है।
(ii) यमक-‘यमक’ का अभिप्राय है-‘युग्म’ अर्थात् जोड़ा। काव्य में शब्द-युग्म (एक ही शब्द के दो या अधिक बार) के प्रयोग से तब विशेष चमत्कार आ जाता है जब उनके अर्थ अलग-अलग हों। इस आधार पर हम कह सकते हैं

“जहाँ एक शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग हो परंतु हर बार उसका अर्थ भिन्न हो वही ‘यमक’ अलंकार होता है। जैसे-

माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर।
कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर। (कबीर)

यहाँ ‘मनका’ शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग हुआ है, किन्तु अर्थ अलग-अलग है। पहली पंक्ति में ‘मनका’ का अभिप्राय है-मन का, अर्थात् हृदय का। दूसरी पंक्ति में ‘मनका’ का . अभिप्राय है-माला का दाना। इसी पंक्ति के अंत में पुन:-‘मन का मनका’ फेर अर्थात् हृदय को बदलने (माया से हटकर सत्यकर्मों में लगाने) को कहा गया है। इस प्रकार यहाँ एक ही शब्द ‘मनका’ का अनेक बार प्रयोग होने पर भी, अर्थ भिन्न-भिन्न है, अत: यमक अलंकार है।।

(iii) श्लेष-‘श्लेष’ शब्द का अर्थ है-संयोग। कई शब्द में एक साथ कई अर्थों का संयोग होता है जिनके कारण कथन में विशेष चमत्कार आ जाता है। ‘श्लेष’ शब्द की रचना ‘श्लिष’ धातु से हुई है जिसका अभिप्राय है-‘चिपकना’। जैसे चपड़ा लाख की लकड़ी से ऐसी चिपकी रहती है कि अलग नहीं होती। एक ओर वह लाख प्रतीत होती है, दूसरी ओर से लकड़ी। इसी प्रकार किसी एक शब्द में एक से अधिक अर्थ चिपके होने पर भी कभी एक अर्थ प्रभावित करता है, कभी दूसरा।

‘श्लेष’ का लक्षण इस प्रकार है-
‘जहाँ एक शब्द से अनेक अर्थों का बोध अभिधा द्वारा हो वहाँ ‘श्लेष’ अलंकार होता है। जैसे-

मेरो भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा तन की झाई परै, स्याम हरित दुति होई॥ (बिहार)

यहाँ ‘स्याम’ और ‘हरित’ शब्द में श्लेष है। ‘स्याम’ का अर्थ ‘कृष्ण’ भी है और ‘साँवला’ अर्थात् ‘नील’ भी; हरित का अर्थ ‘मंद’ (हर ली गई) भी है तथा ‘हरि’ भी। राधा के तन की झलक पड़ते ही कृष्ण की दीप्ति भी मंद पड़ जाती है अथवा ‘कृष्ण का साँवला रंग’ (राधा के गोरे रंग की झलक से) हरा प्रतीत होने लगता है। ये दोनों अर्थ संभव हैं जो चमत्कार के आधार हैं। अतः यहाँ ‘श्लेष’ अलंकार है।

(iv) पुनरुक्ततदाभास-‘पुनरुक्ततदाभास’ में चार शब्दों का मेल है-पुनः + उक्त + वत् + आभास। इस आधार पर अर्थ हुआ-पुनः (दोबार) उक्त (कहा गया) वत् (वेसा) आभास (प्रतीत होना)।

जब ऐसा लगे कि एक ही पंक्ति में कोई बात (अनावश्यक रूप से) दोहरा दी गई है, पर वास्तव में ऐसा है कि नहीं-यही चमत्कार का आधार होता है।

“जहाँ अलग-अलग शब्द का जैसा अर्थ देते प्रतीत हो वहाँ ‘पुनरुक्तारापास’ अलंकार होता है।” जैसे-

समय जा रहा और काल है आ रहा।
सचमुच उलटा भाव भुवन में छा रहा। (मैथिलीशरण गुप्त)

यहाँ ‘समय’ और ‘काल’ दोनों का अर्थ ‘वक्त’ (टाइम) प्रतीत होता है। ‘समय’ का अर्थ ‘वक्त’ तो ठीक है परंतु ‘काल’ का अर्थ यहाँ ‘मृत्यु’ है। प्रथम बार समान अर्थ प्रतीत कराने वाले शब्दों के कारण यहाँ चमत्कार है। अतः यहाँ ‘पुनरुक्ततदाभास’ अलंकार है।

प्रश्न 4.
प्रमुख अर्थालंकार कौन-कौन हैं? उन्हें कितना वर्गों में बाँटा जा सकता है? उनका लक्षण उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।
उत्तर-
प्रमुख अर्थालंकारों के नाम इस प्रकार हैं-उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रांतिमान, अन्योक्ति, विरोधाभास, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय।

अर्थालंकारों के प्रमुख वर्ग
साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों में ‘अर्थालंकारों के वर्ग को ही अधिक महत्व दिया गया है। इनके अंतर्गत कवि-गण अनेक प्रकार से काव्य-सौंदर्य की सृष्टि करते हैं, अतः अर्थालंकारों के अपने उपवर्ग भी संभावित हैं। इनमें से प्रमुख ये हैं-

  1. सादृश्यमूलक अलंकार-जिन अलंकारों में उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) के साम्य (सादृश्य) द्वारा चमत्कार अथवा सौंदर्य की सृष्टि होती है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृश्यमूलक अलंकार हैं।
  2. विरोधमूलक अलंकार-जिन अर्थालंकारों का सौंदर्य या चमत्कार विरोध की स्थिति पर निर्भर करता है वे “विरोधमूलक’ अलंकार कहलाते हैं। जैसे-विरोध (विरोधाभास), विभावना, विशेषोक्ति आदि।
  3. श्रृंखलामूलक अलंकार-यहाँ चमत्कार उत्पन्न करने वाले कथन एवं श्रृंखला (कड़ी) के रूप में (विशेष क्रम से) परस्पर गूंथे हों, वहाँ ‘शृंखलामूलक’ अलंकार की स्थिति मानी जाती है। कारणमाला, सार, एकावली आदि ऐसे ही अलंकार हैं।
  4. न्यायमूलक अलंकार-जिन अर्थालंकारों के अंतर्गत लोकन्याय अथवा तर्क के आधार पर काव्य-सौंदर्य या चमत्कार की सृष्टि की जाती है वे ‘न्यायमूलक’ अलंकार कहलाते हैं।

उपर्युक्त वर्गों में से दो वर्ग विशेष रूप से चर्चित और प्रचलित हैं-

  • सादृश्यमूलक अलंकार
  • विरोधमूलक अलंकार।।

सादृश्यमूलक अलंकारों के चार घटक या अवयव प्रमुख होते हैं

  • उपमेय-जिस व्यक्ति, वस्तु या भाव की किसी अन्य से समानता की जाती है। इसे ‘प्रस्तुत’ भी कहते हैं।
  • उपमान-जिस व्यक्ति, वस्तु या भाव के साथ ‘उपमेय’ या ‘प्रस्तुत’ की समानता बतलाई . जाती है।
  • साधारण धर्म-‘उपमेय’ और ‘उपमान’ में जिस गुण, लक्षण या विशेषता आदि के कारण समानता होती है।
  • वाचक शब्द-जिस शब्द (सा, जैसा, सम, समान, सदृश आदि) के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है। एक उदाहरण से उपर्युक्त चारों अवयव स्पष्ट हो जाएंगे।

“लघु तरिण हंसिनी सी सुंदर” (नौका बिहार, पंत)

यहाँ ‘रिण’ (नौका) उपमेय है। ‘हसिनी’ उपमान है। ‘सौंदर्य साधारण धर्म हैं ‘सी’ दायक शब्द है। (यहाँ उपमा सादृश्यमूलक अलंकार) के चारों अंग विद्यमान हैं।)

प्रमुख अर्थालंकारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन आगे किया जा रहा है।।

उपमा-अर्थालंकारों में ‘उपमा’ सर्वप्रमुख है। आचार्य दंडी ने सभी अलंकारों को-‘उपमा’ का मुही प्रपंच (विस्तार) बताया है। आचार्य वामन उपमा को सभी अलंकारों का ‘मूल’ मानते हैं। राजशेखर ने उपमा को सर्वशिरोमणि तथा कवियों की माता कहा है, (अलंकार शेखर) तथा अप्पय दीक्षित का कथन है कि उपमा वह नटी है जो रूप बदल-बदल कर काव्य-रूपी रंगमंच पर कौतुक दिखाकर सब काव्यप्रेमियों के चित्त को मुग्ध करती रहती है।” (चित्रमीमांसा) संस्कृत के अमर कवि कालिदास के विश्व विख्यात होने का आधार यही ‘उपमा’ है-

‘उपमा कालिदासस्य’-‘उपमा’ शब्द का अभिप्राय है-निकट रखकर परखना-मापना अर्थात् दो वस्तुओं को निकट रखकर, उनकी समानता (साम्य, सादृश्य) के आधार पर उनकी विशेषता को परखना ‘उपमा’ की प्रमुख पहचान है। निकट ‘समीप’ रखी जाने वाली दोनों वस्तुओं (पदार्थों, व्यक्तियों, विषयों, भावों आदि) में एक ‘प्रस्तुत’ होती है जिसे ‘उपमेय’ कहते हैं-जिसकी (किसी अन्य वस्तु से) समता की जाती है।

(उपमा दी जाती है।) दूसरी वस्तु ‘अप्रस्तुत’ होती है जिसे ‘उपमान’ कहते हैं-जिससे किसी की समता की जाती है। इन दोनों (प्रस्तुत-अप्रस्तुत या उपमेय-उपमान) में जिस गुण, लक्षण, स्वभाव या विशेषता के आधार पर समानता बतलाई जाती है उसे समान धर्म’ कहा जाता है तथा दो भिन्न वस्तुओं (उपमेय-उपमान) में समानता का बोध कराने वाला (सूचक) शब्द (सा, सम, ‘तुल्य’ समान आदि) वाचक शब्द कहलाता है।

इस प्रकार ‘उपमा’ अलंकार के चार ‘अंग’ हैं-

  • उपमेय,
  • उपमान,
  • समान धर्म,
  • वाचक शब्द।

‘उपमा’ के लक्षण और उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी।

लक्षण-‘जहाँ एक ही वाक्य में, दो भिनन वस्तुओं की गुण-स्वभाव, रूप-रंग या किसी अन्य विशेषता संबंधी समानता उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) के रूप में बताई गई हो वहाँ ‘उपमा’ अलंकार होता है।”

उदाहरण-
महँगाई बढ़ रही निरंतर द्रुपद-सुता के चीर-सी।
बेकारी बढ़ रही चीरती अंतर्मन को तीर-सी। – (सोहनलाल द्विवेदी, मुक्तिगंधा)

यहाँ ‘महँगाई’ (उपमेय या प्रस्तुत) की समता द्रुपदसुता के चीर (उपमान या अप्रस्तुत) और बेकारी (उपमेय) की समानता तीर (उपमान) से की गई है, अतः ‘उपमा’ अलंकार है।

इस उदाहरण में ‘उपमा’ के चारों अंग हैं-

उपमेय-महँगाई, बेकारी
उपमान-चीर, तीर समान
धर्म-निरंतर बढ़ना,
चीरना वाचक शब्द-सी

रूपक-‘रूपक’ शब्द का अभिप्राय है-‘रूप धारण करने वाला’। उपमेय की महिला बताने के कई ढंग हैं जिनमें से एक यह भी है कि उसे उपमान का रूप दे दिया जाए अर्थात् उपमेय और उपमान एक साथ हो जाएँ। ‘उपमेय’ में ‘उपमान’ का इस प्रकार, ‘आरोप’ के कारण ही इस अलंकार का नाम ‘रूपक’ अलंकार है।

लक्षण-“जहाँ उपमेय में उपमान का अभेद आरोप किया गया हो अर्थात् उपमेय-उपमान एक रूप बताए जाएं वहाँ ‘रूपक’ अलंकार होता है।” जैसे-

स्नेह का सागर जहाँ लहरा रहा गंभीर।।
घृणा का पर्वत वहीं पर खड़ा लिए शरीर॥ – (सोहनलाल द्विवेदी, कुणाल)

यहाँ स्नेह (उपमेय) में सागर (उपमान) और घृणा (उपमेय) में पर्वत (उपमान) का आरोप हुआ है, अत: रूपक अलंकार है।

‘रूपक’ का एक प्रसिद्ध उदाहरण है-चरण कमल बंद हरिराई।

अर्थात्-मैं हरि के चरण कमलों (चरण रूपी कमलों) की वंदना करता हूँ।

यहाँ चरण (उपमेय) और कमल (उपमान) अभिन्न (एक रूप) बताए गए हैं। चरण में कमल का आरोप है, अर्थात् चरणों में कमलों का रूप दिया गया है, अत: ‘रूपक’ अलंकार है-

उत्प्रेक्षा-‘उत्प्रेक्षा’ शब्द का अभिप्राय है-‘संभावना’ या ‘कल्पना’। जिस वस्तु (पदार्थ, व्यक्ति, विषय, स्थिति, भाव, आदि) का वर्णन किया जाता है, वह होती तो वही (प्रस्तुत या उपमेय) है, पर उसमें किसी अन्य (श्रेष्ठ) (उपमान) की कल्पना या संभावना करके उसक विशेषता को उजागर करने की एक प्रभावशाली विधि ‘उत्प्रेक्षा’ मानी जाती है। जैसे, किसी बुद्धि वाले विद्यार्थी की स्मरण-शक्ति की गणना-कौशल देखकर हम कहते हैं-“इसका। मानों कम्प्यूटर है। ‘इस प्रकार, हम दिमाग (उपमेय) में, ‘कम्प्यूटर’ (उपमान) की संभावना का लेते हैं। ‘मानो’ शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि ‘हम मानते (संभावना) करते हैं।’

लक्षण-“जहाँ प्रस्तुत (उपमेय) में अप्रस्तुत (उपमान) की संभावना ‘मानो’, ‘जानो’, ‘मनु’, “जनु’, आदि शब्दों द्वारा की गई हो वहाँ ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार होता है।” जैसे-

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥ – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

यहाँ कांपते तन (उपमेय) में लहराते सागर (उपमान) की संभावना ‘मानो’ शब्द के माध्यम से की गई है। अत: ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार है।

संदेह-जब कोई दूर से किसी ऐसे पदार्थ को देख ले जो कभी तो उसे डरावना जंतु-सा लगे; कभी ढूँठ पेड़ के तने-सा, तो उसके मन में दुविधा होना स्वाभाविक है। यह दुविधा दोनों . संभावित वस्तुओं (उपमेय और उपमान) के सादृश्य के कारण हो सकती हैं। ऐसी मन:स्थिति. का वर्णन काव्य में अनायास चमत्कार ले आता है।

लक्षण-“जहाँ सादृश्य के कारण उममेय और उपमान निश्चित न हो सके कि यह है या वह है-वहाँ ‘संदेह’ अलंकार होता है।”

नयन है या बिजलियाँ ये,
केश है या काले. नाग!

यहाँ चमकते आँखों (उपमेय) और बिजलियाँ (उपमान) तथा केश (उपमेय) और काले नाम (उपमान) में अनिश्चय की स्थिति बतलाई गई है, अत: ‘संदेह’ अलंकार है।

भांतिमान-रस्सी को साँप समझकर, डर से चीखना कितना विचित्र होगा। यही स्थिति ‘प्रातिमान’ अलंकार में होती है। सादृश्य के कारण उपमेय को उपमान समझ लेना चमत्कार की सृष्टि करता है-उपमेय में उपमान का भ्रम हो जाता है, प्रांति हो जाती है इसलिए इसे भ्रम’ अलंकार या प्रतिमान अलंकार कहा गया है। जैसे-

दुग्ध समझकर रजत-पात्र को लगे चटने तभी बिडोल।

यहाँ बिडाल (विलाव) द्वारा चाँदी) (रजत) के पात्र (बरतन) को दूध समझकर चाटने का चमत्कारपूर्ण वर्णन है, अतः ‘भ्रांतिमान’ अलंकार है।।

अन्योक्ति (अप्रस्तुत प्रशंसा)-‘अन्योक्ति’ (अन्य का कथन) शब्द का अभिप्राय है किसी ‘अन्य’ के माध्यम से अभीष्ट (प्रस्तुत) बात कहना। यहाँ ‘अन्य’ का तात्पर्य ‘अप्रस्तुत’ अर्थात् ‘उपमान’ है। कई बार हमारा कोई प्रियजन जब बहुत दिनों बाद आता है तो हम कहते हैं-‘आज यह सूरज कहाँ से निकला !’ या ‘यह ईद का चाँद कहाँ से आ गया!’ हमारा अभीष्ट वस्तु ‘सूरज’ या ‘चाँद’ नहीं होता ! सूर्य या चाँद तो अप्रस्तुत (उपमान) है।

उनके माध्यम से हम ‘प्रस्तुत’ ‘उपमेय (मित्र) की बातें करते हैं। इस प्रकार के चमत्कार कर सौंदर्य को काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में अप्रस्तुत प्रशंसा’ अलंकार भी कहा गया है, क्योंकि इसमें ‘अप्रस्तुत’ के माध्यम से प्रस्तुत की प्रशंसा, अर्थात् ‘उपमान’ के कथन द्वारा वास्तव में ‘उपमेय’ का वर्णन होता है। आजकल यह अलंकार ‘अन्योक्ति’ के नाम से ही प्रचलित है। जिसका लक्षण इस प्रकार है-

लक्षण-“जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) के वर्णन से प्रस्तुत (उपमेय) का बोध हो वहाँ। ” “प्रस्तुत प्रशंसा’ या ‘अन्योक्ति अलंकार होता है।”

जैसे-
फूल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया। – (रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’)

यहाँ फूल, काँटे, सेज आदि ‘अप्रस्तुत (उपमान) हैं। इनके माध्यम से कवि ने जीवन (प्रस्तुत या टपमेय) का वर्णन किया है जो संघर्ष (काँटों) में विकास पाता है पर ऐश-आराम, आलस्य-मस्ती (सेज) में क्षीण हो जाता है।

इर प्रकार बिहारी के अनेक दोहे, ‘अनयोक्ति’ के उत्तम उदाहरण हैं। जैसे-

मरत पयास पिंजरा परयो, सुवा समै के फेर।
आद दै दै बोलियत, बायस बलि का बेर॥ (बिहार)

(श्राद्ध के दिनों में, समय के फेर से, तोते जैसा सुंदर, समझदार और मधुरभाषी पक्षी तो पिंजरे में पड़ा प्यासा तड़पता रहता है और हलवा-पूरी का भोजन करने के लिए कौओं को आदर-सहित बुलाया जाता है।)

यहाँ ‘तोता’ और ‘कौआ’ अप्रस्तुत है जिनके माध्यम से इस प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति कराई गई है-‘कैसा जमाना (बुरा समय) आ गया है ! सज्जन, विद्वान और सच्चे कलाकार तो भूखे मर रहे हैं और गला फाड़-फाड़ कर खुशामद करने वाले धूर्त राजकीय पद, सम्मान और पुरस्कार प्राप्त रहे हैं।

मानवीकरण-‘मानवीकरण’ का अर्थ है-प्रकृति, जड़ या अमूर्त भाव (जो मानव नहीं है) में मानवीय भावनाओं, चेष्टाओं, गुणों आदि की स्थिति बताना। .. “जहाँ प्रकृति आदि या जड़ पदार्थों का मनुष्य के गुण, कार्य, भाव, विचार आदि से युक्त वर्णन किया जाए वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।” जैसे-

“निशा को धो देता राकेश,
चांदनी में जब अलके खोल।”

यहाँ निशा (रात) और राकेश (चंद्रमा) का मनुष्य की भांति (बाल खोकर धोना आदि) वर्णन है। अतः ‘मानवीकरण’ अलंकार है।

विरोधाभास-‘विरोधाभास’ के शब्द का अभिप्राय है-‘विरोध का आभास अर्थात् प्रतीति (वास्तविकता नहीं)।’ कोई बात इस प्रकार कहना कि जिसमें विरोध प्रतीत हो, पर वास्तव में हो नहीं, चमत्कारपूर्ण होता ही है। यद्यपि ऐसे चमत्कारपूर्ण कथन का सूक्ष्म विवेचन करने से विरोध नहीं रहता, तथापि उससे उत्पन्न चमत्कार का प्रभाव बना ही रहता है।

लक्षण-“जहाँ दो वस्तुओं (कथनों, भावों, आदि) में वास्तविक विरोध न होने पर भी विरोध की प्रतीति कराई जाए वहाँ ‘विरोधाभास’ अलंकार होता है।” जैसे-

या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहिं कोय।
ज्यों-ज्यों बड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जल होय॥ (बिहारी सतसई)

यहाँ ‘स्याम (काले-नीले) रंग में डूबकर भी ‘उजला होना’ परस्पर विरोधी बातें प्रतीत होती हैं, किन्तु वास्तव में विरोध नहीं है क्योंकि स्याम का अर्थ ‘श्रीकृष्ण’ है-‘यह प्रेम-ठगा हृदय श्रीकृष्ण में जितना अधिक लीन रहता है उतना ही उजला (आनंदित) होता है। इस प्रकार यहाँ ‘विरोधाभास’ अलंकार है।


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