BSEB Class 11 Philosophy बौद्ध/बुद्धवादी आकारिकी तर्कशास्त्र Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Philosophy बौद्ध/बुद्धवादी आकारिकी तर्कशास्त्र Book Answers |
Bihar Board Class 11th Philosophy बौद्ध/बुद्धवादी आकारिकी तर्कशास्त्र Textbooks Solutions PDF
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Board | BSEB |
Materials | Textbook Solutions/Guide |
Format | DOC/PDF |
Class | 11th |
Subject | Philosophy बौद्ध/बुद्धवादी आकारिकी तर्कशास्त्र |
Chapters | All |
Provider | Hsslive |
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BSEB Class 11th Philosophy बौद्ध/बुद्धवादी आकारिकी तर्कशास्त्र Textbooks Solutions with Answer PDF Download
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वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
वैभाषिक तत्त्व विज्ञान के अनुसार तत्त्व के कितने प्रकार हैं –
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(घ) चार
प्रश्न 2.
आलंबन, समानान्तर, अधिपति एवं माध्यम ज्ञान के हैं –
(क) कारण
(ख) कार्य
(ग) कारण एवं कार्य दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) कारण
प्रश्न 3.
‘सर्वास्तिवाद’ एक प्रकार का –
(क) यथार्थवादी सिद्धान्त है
(ख) अयथार्थवादी सिद्धान्त है
(ग) (क) एवं (ख) दोनों है
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) यथार्थवादी सिद्धान्त है
प्रश्न 4.
वैभाषिक मत आण्विक सिद्धान्त को –
(क) स्वीकार करता है
(ख) अस्वीकार करता है
(ग) न तो स्वीकार करता है नहीं अस्वीकार
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) स्वीकार करता है
प्रश्न 5.
बुद्ध के मध्यम-मार्ग एवं शून्यवाद का मेल है –
(क) माध्यमिक-शून्यवाद
(ख) योगाचार-विज्ञानवाद
(ग) सौत्रांतिक-बाह्यानुमेयवाद
(घ) वैभाषिक-बाह्य प्रत्यक्षवाद
उत्तर:
(क) माध्यमिक-शून्यवाद
प्रश्न 6.
बौद्ध तर्कशास्त्र के प्रतिपादक थे?
(क) दिग्नाग
(ख) धर्मकीर्ति
(ग) दिग्नाग एवं धर्मकीर्ति दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(घ) इनमें से कोई नहीं
प्रश्न 7.
बौद्ध तर्कशास्त्र है –
(क) न्याय तर्कशास्त्र का विरोधी
(ख) न्याय तर्कशास्त्र का पूरक
(ग) तर्कशास्त्र की नई विधा
(घ) बौद्ध दर्शन का आधार
उत्तर:
(ख) न्याय तर्कशास्त्र का पूरक
प्रश्न 8.
माध्यमिक शून्यवाद के प्रवर्तक हैं –
(क) नागार्जुन
(ख) गौतमबुद्ध
(ग) धर्मकीर्ति
(घ) दिग्नाग
उत्तर:
(क) नागार्जुन
प्रश्न 9.
सौतांतिक के अनुसार –
(क) बाह्य एवं आभ्यंतर दोनों सत्य है
(ख) सभी बाह्य पदार्थ असत्य है
(ग) संसार शून्य है
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(क) बाह्य एवं आभ्यंतर दोनों सत्य है
प्रश्न 10.
‘चित्त एकमात्र सत्ता है।’ यह बौद्ध तर्कशास्त्र किस वाद का मंत्र है?
(क) विज्ञानवाद
(ख) शून्यवाद
(ग) बाह्यानुमेयवाद
(घ) बाह्य प्रत्यक्षवाद
उत्तर:
(क) विज्ञानवाद
प्रश्न 11.
शून्यवाद (Nihilism) एक तरह का है –
(क) सापेक्षवाद
(ख) निरपेक्षवाद
(ग) सापेक्षवाद एवं निरपेक्षवाद
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सापेक्षवाद
प्रश्न 12.
माध्यमिक शून्यवाद के अनुसार सत्य कितने प्रकार के होते हैं?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(ख) दो
प्रश्न 13.
माध्यमिक-शून्यवाद के अनुसार सत्य के प्रकार हैं –
(क) व्यावहारिक सत्य
(ख) पारमार्थिक सत्य
(ग) (क) एवं (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) (क) एवं (ख) दोनों
Bihar Board Class 11 Philosophy बौद्ध/बुद्धवादी आकारिकी तर्कशास्त्र Additional Important Questions and Answers
अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
ज्ञान के कितने कारण हैं?
उत्तर:
सौत्रांतिकों के अनुसार ज्ञान के चार कारण हैं। वे हैं-आलंबन, समानान्तर, अधिपति एवं माध्यम।
प्रश्न 2.
बाह्य प्रत्यक्षवाद क्या है?
उत्तर:
बौद्ध दर्शन में वैभाषिक मत को बाह्य प्रत्यक्षवाद के नाम से जानते हैं। इसमें चेतना एवं बाह्य पदार्थ के अस्तित्व को माना गया है। इस मत के अनुसार, पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष (Perception) को छोड़कर अन्य किसी माध्यम से नहीं हो सकता है।
प्रश्न 3.
वैभाषिक तत्त्व विज्ञान (Metaphysics) के अनुसार तत्त्व कितने हैं?
उत्तर:
वैभाषिक तत्त्व विज्ञान के अनुसार चार तत्त्व हैं। वे हैं – पृथ्वी, जल, आग और हवा। वैभाषिक मत ‘आकाश’ को एक तत्त्व के रूप में नहीं स्वीकार करता है।
प्रश्न 4.
वैभाषिक मत के अनुसार अनुभव (experience) क्या है?
उत्तर:
वैभाषिक मत के अनुसार अनुभव को ही पदार्थों के स्वरूप का निर्दोष साक्षी माना जाता है। अनुभव का अभिप्राय उस प्रत्यक्षज्ञान से है जो पदार्थ के साथ सीधा सम्पर्क से प्राप्त होता है। समूचा संसार ही प्रत्यक्ष ज्ञान का क्षेत्र है।
प्रश्न 5.
सौत्रांतिक-सम्प्रदाय के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
सौत्रांतिक-सम्प्रदाय हीनयान-सम्प्रदाय की दूसरी शाखा है। ये लोग चेतना के साथ-साथ बाह्य संसार के अस्तित्व को भी स्वीकार करते हैं। सौत्रांतिक ‘सुत्तपिटक’ को ही सर्वमान्य ग्रंथ मानते हैं, जिसमें भगवान बुद्ध के संवाद हैं।
प्रश्न 6.
शून्यवाद (Nihilism) क्या है? अथवा, शून्यवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
शून्य शब्द का अर्थ इतना गूढ़ और जटिल है कि उसका वर्णन शब्दों के द्वारा संभव नहीं है। परमतम सत्य का वर्णन शब्दों के द्वारा किसी भी दर्शन में नहीं हो सका है। अतः नागार्जुन भी शून्य के रूप में पारमार्थिक सत्ता को बताकर उसे अवर्णनीय की संज्ञा देते हैं। शून्यवाद एक तरह का सापेक्षवाद है।
प्रश्न 7.
माध्यमिक शून्यवाद के अनुसार सत्य कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
माध्यमिक-शून्यवाद के विद्वानों के अनुसार सत्य के दो रूप हैं। वे हैं – व्यावहारिक सत्य (Empirical truth) एवं परमार्थिक सत्य (Ultimate truth)।
प्रश्न 8.
विज्ञानवाद (Consciousness) क्या है? अथवा, चेतनावाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
चेतना के अस्तित्व पर विश्वास रखना ही विज्ञानवाद के सिद्धान्त की स्थापना करता है। योगाचारी विज्ञानवाद या चेतनावाद पर पूर्ण विश्वास करते हैं। उनके अनुसार चेतना का अपना अलग अस्तित्व है। इसका स्वरूप भावात्मक है।
प्रश्न 9.
बौद्ध दर्शन में दार्शनिक विचारों की भिन्नता के आधार पर कितने मुख्य सम्प्रदाय (Schools) हैं?
उत्तर:
बौद्ध दर्शन में दार्शनिक विचारों की भिन्नता के आधार पर चार सम्प्रदायों की चर्चा मुख्य रूप से की जाती है। वे हैं माध्यमिक-शून्यवाद, योगाचार-विज्ञानवाद, सौत्रांतिक-बाह्यानुमेयवाद तथा वैभाषिक-वाह्य प्रत्यक्षवाद।
प्रश्न 10.
माध्यमिक-शून्यवाद सिद्धान्त के प्रवर्तक कौन हैं?
उत्तर:
नागार्जुन माध्यमिक-शून्यवाद सिद्धान्त के प्रवर्तक (Propounder) माने जाते हैं।
प्रश्न 11.
माध्यमिक क्या है?
उत्तर:
माध्यमिक उस अवस्था का नाम है जिसमें अन्तिम रूप से भाव (affirmation) और अन्तिम रूप से निषेध (negation) करने की क्रियाओं के बीच ही एक मध्यममार्ग का निर्माण होता है। अन्तिम स्वरूप में कोई भी पदार्थ न तो सत्य है और न असत्य है।
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
ज्ञान के चार कारण कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
सौत्रांतिकगण बाह्य संसार की यथार्थता को स्वीकार करने के बाद ज्ञान की उत्पत्ति की प्रक्रिया का जिक्र करते हैं। चार अवस्थाओं के आधार पर ज्ञान की उत्पत्ति होती है। हम अपनी इच्छानुसार किसी पदार्थ को जहाँ-तहाँ नहीं देख सकते हैं। अतः ज्ञान केवल हमारे मन पर निर्भर नहीं करता है। अतः सौत्रांतिक विद्वान ज्ञान के चार प्रकार के कारणों की चर्चा करते हैं, जो निम्नलिखित हैं –
(क) आलम्बन:
बाह्य विषय (External Objects) ज्ञान का आलम्बन कारण है, जैसे-घड़ा, कलम आदि। ज्ञान का आकार (form) इसी आलम्बन कारण से उत्पन्न होता है।
(ख) समानान्तर:
ज्ञान के अव्यवहृत पूर्ववर्ती मानसिक अवस्था में ज्ञान में एक प्रकार की चेतना आती है। इसे समानान्तर अथवा झुकाव कहते हैं। समानान्तर का अर्थ है जिसका कोई अन्तर अथवा व्यवधान नहीं हो।
(ग) अधिपति यानि प्रमुख इन्द्रिय:
ज्ञान की प्राप्ति में इन्द्रिय का बहुत बड़ा महत्त्व है, पूर्ववर्ती ज्ञान और विधेय के रहने पर भी बिना इन्द्रिय से बाह्य ज्ञान नहीं हो सकता है। आँख, कान, नाक, जीभ एवं त्वचा पाँच बाह्य ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। अतः इन्द्रियों को ज्ञान का अधिपति कारण कहा जाता है।
(घ) सहकारी या माध्यम:
ज्ञान के लिए इन्द्रिय की आवश्यकता तो रहती ही है लेकिन उन इन्द्रियों से ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रकाश, आवश्यक दूरी, आकार इत्यादि अन्य सहायक कारणों का होना आवश्यक है। इसलिए इस तरह के कारण को सहकारी प्रत्यय अथवा माध्यम कहते हैं।
प्रश्न 2.
बाह्यनुमेयवाद क्या है?
उत्तर:
ज्ञान के चार कारण यथा आलम्बन, समानान्तर अधिपति एवं सहकारी यानि माध्यम से ही किसी पदार्थ का ज्ञान संभव होता है। अतः ज्ञान का आकार (form) ज्ञात पदार्थ के अनुसार ही निर्धारित होता है। प्रत्यक्ष पदार्थों के जो विभिन्न आकार दिखाई पड़ते हैं, वे वास्तव में ज्ञान ही के आकार हैं। उनका निवास मन में ही होता है। अतः बाह्य पदार्थों का ज्ञान पदार्थ-जनित मानसिक आकारों से अनुमान के द्वारा प्राप्त होता है। इस मत को ही बाह्यनुमेयवाद कहते हैं।
प्रश्न 3.
वैभाषिक तत्त्व विज्ञान के बारे में आप क्या जानते हैं? अथवा, वैभाषिक मत के आण्विक सिद्धान्त (Theory of Atoms) की व्याख्या करें।
उत्तर:
वैभाषिक तत्त्व विज्ञान के अनुसार चार तत्त्व हैं। वे हैं – पृथ्वी, जल, आग और हवा। स्वभाव से पृथ्वी कठोर है, जल शीतल है, आग गर्म है और हवा गतिमान है। ‘आकाश’ को पाँचवें तत्त्व के रूप में वैभाषिक मतं स्वीकार नहीं करता है। बाह्य पदार्थ परम अणुओं (atoms) की अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार एकत्रीकरण का फल है। इस प्रकार वैभाषिक मत आण्विक सिद्धान्त (Theory of atoms) को स्वीकार करते हैं। सभी पदार्थ अन्ततः अणुओं के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।
अणु को अकेले नहीं देखा जा सकता है। अणुओं को समूह में देखना संभव है। बसुबन्धु के अनुसार अणु एक अत्यन्त ही छोटा कण हैं इसे कहीं भी स्थापित कर लेना संभव नहीं है। इसे न तो हाथ से पकड़ा जा सकता है और न पैर से दबाया जा सकता है। यह न तो लम्बा है और न छोटा। न वर्गाकार है, न गोलाकार, न टेढ़ा और न सीधा न ऊँचा है, न नीचा। अणु वस्तुतः अविभाज्य और अदृश्य है।
प्रश्न 4.
‘शून्यवाद’ की. पूर्ण शाब्दिक व्याख्या कठिन है। इस कथन की विवेचना करें।
उत्तर:
‘शून्यवाद’ की पूर्ण शाब्दिक व्याख्या कठिन है क्योंकि शून्यता अवर्णनीय (inde scribable) है। शून्य शब्द का अर्थ इतना गूढ़ और जटिल है कि उसका वर्णन शब्दों के द्वारा संभव नहीं हैं। परमतम सत्य यानि पारमार्थिक सत्ता का वर्णन शब्दों के द्वारा किसी भी दर्शन में संभव नहीं है। नागार्जुन ‘शून्य’ को पारमार्थिक सत्ता की संज्ञा देकर इसे अवर्णनीय बनाते हैं। उसके सम्बन्ध में कोई नहीं बता सकता है कि वह मानसिक है कि अमानसिक (non-mental)।
सामान्य लोगों द्वारा उसे नहीं समझ पाना ही ‘शून्यता’ शब्द के निर्माण का कारण है। नागार्जुन के अनुसार किसी भी पदार्थ के सम्बन्ध में चार तरह की संभावनाएँ हो सकती हैं। वे हैं सत्य होना, असत्य होना, सत्य और असत्य दोनों होना तथा न तो सत्य होना और न असत्य होना। संसार के पदार्थ इन चारों श्रेणी से पृथक् हैं।
इसलिए शून्यवाद (Nihilism) सिद्धान्त की स्थापना होती है। संसार को अंतिम पारमार्थिक रूप में शून्य का ही प्रतीक (symbol) समझा जाता है। संसार के पदार्थों पर निर्भरता को देख कर प्रतीत्य समुत्पाद सिद्धान्त (Theory of Dependent Organization) को भी ‘शून्यता’ से ही पुकारते हैं। इस प्रकार, शून्यवाद एक प्रकार का सापेक्षवाद है।
प्रश्न 5.
विज्ञानवाद (Theory of consciousness) क्या है? अथवा, चेतनावाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
विज्ञान यानि चेतना के अस्तित्व पर विश्वास रखना ही विज्ञानवाद है। विज्ञानवादी माध्यमिक शून्यवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि विज्ञान बाहरी पदार्थों (External objects) का अस्तित्व नहीं है। दूसरी ओर, विज्ञानवादी यह स्वीकार करते हैं कि विज्ञान अथवा : चेतना का अपना अलग अस्तित्व है। इसका स्वरूप भावात्मक है।
बाह्य संसार के विषय में जो कुछ भी कहा जाता है, इसका निषेध आन्तरिक अनुभवों के आधार पर नहीं हो सकता है। अन्तिम सत्य (Ultimate reality) का कोई भी निषेध नहीं कर सकता है। ज्ञान की अपनी एक मुक्त स्थिति है। अतः ज्ञान का अस्तित्व एक पूर्ण सत्य है। चित्त या मन मनुष्य का विश्वसनीय अंग है। चेतना का प्रवाह वह अनुभव करता है। अतः विज्ञान यानि चेतना को मानना अत्यावश्यक है। विज्ञानवाद के अनुसार चेतना ही एकमात्र सत्ता है।
प्रश्न 6.
“बाह्य पदार्थ (External Objects) सत्य हैं तथा उनके अस्तित्व के लिए प्रमाण हैं।” इस कथन की विवेचना करें।
उत्तर:
सौत्रांतिकों के अनुसार पदार्थ के सामने रहने पर ही उसका प्रत्यक्ष होता है। एक दृष्टिकोण से पदार्थ और उसका ज्ञान समकालीन है। दोनों समकालीन होने के कारण पदार्थ और उसका ज्ञान आपस में अभिन्न है। उदाहरण के लिए हम ‘घड़े’ को एक पदार्थ के रूप में स्वीकारते हैं। जब घड़े का प्रत्यक्ष होता है तो घड़ा बाह्य पदार्थ के रूप में हमसे बिल्कुल बाहर हैं। उसे घड़े का जो ज्ञान (knowledge) हमें प्राप्त होता है वही हमारे अन्दर है।
उसका स्पष्ट अनुभव हमें प्राप्त होता है। अतः इससे निष्कर्ष निकलता है कि ‘पदार्थ’ हमेशा ही ‘ज्ञान’ से भिन्न है। यदि उस घड़े में और मुझमें कोई भेद नहीं होता तो मैं कहता कि मैं ही घड़ा हूँ। यदि बाह्य वस्तुओं का कोई अपना अस्तित्व नहीं है तो ‘घड़े का ज्ञान’ और ‘पट का ज्ञान’ दोनों में कोई अन्तर नहीं होता। ‘घट’ और ‘पट’ अगर केवल ज्ञान हैं तो दोनों में अन्तर नहीं होना चाहिए। अतः घट-ज्ञान तथा पट-ज्ञान दोनों दो तथ्य हैं। दोनों में पदार्थ सम्बन्धी अन्तर स्पष्ट हैं। अतः पदार्थ और ज्ञान दोनों का अलग-अलग अस्तित्व है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
शून्यवाद (Nihilism) के अर्थ को स्पष्ट करें। शून्यवाद में निहित मूल मान्यताओं को स्पष्ट करें। अथवा, नागार्जुन के शून्यवाद की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
‘शून्य’ शब्द के अनेक अर्थ लगाए जाते हैं। एक अर्थ में शून्य का स्वरूप अभावात्मक बताया जाता है। यह अर्थ आनुभाविक संसार के लिए सत्य माना जाता है। शून्य के इस अर्थ में भ्रान्ति के रूप में किसी का अस्तित्व नहीं रह पाता है। उदाहरण के लिए रस्सी को साँप समझना या साँप को रस्सी समझना ज्ञान का एक अभाव है। दूसरे अर्थ में, शून्य का अर्थ एक स्थिर अवर्णनीय (Indescribable) तत्त्व है जो सभी पदार्थों के भीतर छिपा रहता है। पूर्ण संशयवाद एक काल्पनिक तथ्य है। नागार्जुन खुद एक श्रेष्ठ यथार्थता (reality) के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। नागार्जुन यह भी स्वीकार करते हैं कि श्रेष्ठ यथार्थता अनुभव का विषय नहीं है। उस यथार्थता को आँख नहीं देख सकती और न ही मन उसका विचार कर सकता है।
नागार्जुन के अनुसार वह क्षेत्र जहाँ पर सभी पदार्थों एक झलक हमें दिखाई पड़ सकती है, बुद्ध के शब्दों में ‘परमार्थ’ है जो कि एक निरपेक्ष सत्य है। इसकी व्याख्या शब्दों के द्वारा नहीं हो सकती है। इसे न तो शून्य कह सकते हैं और न अशून्य ही, दोनों भी साथ नहीं कह सकते हैं और न दोनों में एक कह सकते हैं, लेकिन केवल उसके संकेत को ‘शून्य’ कहा जा सकता है। अतः शून्यवाद एक भावात्मक तत्त्व है। कुमारजीव के अनुसार, इस शून्यता के कारण ही प्रत्येक वस्तु संभव हो सकती है तथा बिना इसके संसार में कुछ भी संभव नहीं है।
शून्यवाद के सामान्य अर्थ के अनुसार यह सारा संसार शून्यमय है। अतः किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है। ज्ञाता (knower) ज्ञेय (object of knowledge) और ज्ञान तीनों ही एक-दूसरे पर आधारित हैं। अतः उसमें किसी एक के असत्य रहने पर शेष दो भी असत्य साबित हो जाते हैं। किसी रस्सी को साँप समझ बैठने में साँप का अस्तित्व बिल्कुल असत्य है।
अतः ज्ञात वस्तु के रूप में साँप अगर असत्य है तो ज्ञाता और ज्ञान दोनों ही असत्य हो जाते हैं। अतः बाहरी सत्ता बिल्कुल ही स्थापित नहीं होती है। अतः यह सम्पूर्ण संसार का बहुत बड़ा शून्य है। यह शून्यवाद का बहुत साधारण अर्थ है। गहराई में जाने पर जब पारमार्थिक सत्ता का अस्तित्व स्वीकारा जाता है तो शून्यवाद का भावात्मक तत्त्व के रूप में अर्थपूर्ण हो जाता है। शून्यवाद को सर्व विनाशवाद (Complete Destructionism) से अलग समझना चाहिए।
सर्व विनाशवाद के अनुसार संसार के सभी पदार्थों का पूर्ण विनाश हो जाता है। अतः किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है। दूसरी ओर, माध्यमिक शून्यवाद के अनुसार केवल इन्द्रियजन्य संसार (Phenomenal world) ही असत्य है। अतः परमार्थिक सत्ता सत्य है। परमार्थिक सत्ता न तो मानसिक है और न बाह्य है। वह अवर्णनीय है। अतः साधारण लोग उसे शून्य कहते हैं। जो सत्य है वह तो बिल्कूल निरपेक्ष है। अत: वह अपने अस्तित्व के लिए किसी दूसरे पर आधारित नहीं है। यह अनुभव संसार के लिए असत्य नहीं समझा जा सकता है। नागार्जुन माया या भ्रम में दिखनेवाले को इन्द्रजाल कहते हैं। सभी पदार्थ और मनुष्य धर्मों के संग्रहीत पुँज हैं।
उनके बीच का अन्तर धर्मों के स्वभावों के द्वारा जाना जाता है। नागार्जुन के अनुसार संसार का अस्तित्व देश और काल की स्थिति के सम्बन्ध में है। अस्तित्व स्थायी और हमेशा एक ही समान बना रहनेवाला नहीं है। वह बिल्कुल क्षणिक है। शून्यवाद की पूर्ण शाब्दिक व्याख्या कठिन है क्योंकि शून्यता अवर्णनीय (Indescrible) है।
शून्य शब्द का अर्थ इतना गूढ़ और जटिल है कि उसका वर्णन शब्दों के द्वारा संभव नहीं है। नागार्जुन भी पारमार्थिक सत्ता को शून्य के रूप में बताकर उसे अवर्णनीय कहते हैं। संसार को अन्तिम परमार्थिक रूप में शून्य का ही एक प्रतीक समझा जाता है। शून्यता की वर्णनातीतता को प्रमाणित करने के लिए प्रतीत्य-समुत्पाद के सिद्धान्त (Theory of Dependent organisation) की सहायता ली जाती है। संसार के पदार्थों पर निर्भरता को देखकर प्रतीत्य समुत्पाद को भी एक शून्यता से ही जानते हैं।
शून्यवाद एक प्रकार का सापेक्षवाद (Relativism) है। माध्यमिक शून्यवाद के विद्वानों ने शून्य शब्द का व्यवहार एक भाषात्मक तत्त्व के रूप में किया है। इसलिए नागार्जुन ने सत्य के अनेक प्रकारों को बताया हैं उनके अनुसार सत्य दो प्रकार हैं। व्यावहारिक सत्य एवं परमार्थिक सत्य। पहले प्रकार के सत्य से साधारण लोगों के ज्ञान को संतुष्टि मिलती है। दूसरे प्रकार के सत्य से सिद्ध तथा पहुँचे हुए महात्माओं के ज्ञान को प्रकाश मिलता है। संसार के एक पदार्थ का धर्म दूसरे पदार्थ पर निर्भर करता है। अतः एक का अस्तित्व दूसरे पर निर्भर करता है। इस प्रकार शून्यवाद सिद्धान्त का झुकाव सापेक्षवाद की ओर होता है।
प्रश्न 2.
नागार्जुन के माध्यमिक विचारों की संक्षेप में व्याख्या करें। अथवा, माध्यमिक से आपका क्या अभिप्राय है? माध्यमिक में अन्तर्निहित मूल तथ्यों को रेखांकित करें।
उत्तर:
दार्शनिक विचारधारा में बुद्ध के मध्यम-मार्ग (Middle path) एवं शून्यवाद (Nihil ism) का मेल माध्यमिक-शून्यवाद के नाम से पुकारा जाता है। इस दार्शनिक सिद्धान्त के मुख्य प्रवर्तक ‘नागार्जुन’ हैं। नामार्जुन की कृति ‘मूल माध्यमिक-कारिका’ में इस तथ्य पर प्रकाश डाले गए हैं।
माध्यमिक उप अवस्था का नाम है, जिसमें अन्तिम रूप से भाव (Affirmation) और अन्तिम रूप से निषेध (Negation) करने की क्रियाओं के बीच ही एक मध्यम-मार्ग का निर्माण हो जाता है। इस कथन का अभिप्राय है कि अन्तिम स्वरूप में कोई भी पदार्थ न तो सत्य है और ही असत्य। सत्य और असत्य की सीमा-रेखा खींचने से एकान्तिक मतों (one-sided views) का निर्माण होता है। अतः दोनों के अन्तिम छोर पर पहुँचने से पहले ही वस्तुओं के ‘पर-निर्भर अस्तित्व (Conditional Existence)’ पर विश्वास कर लिया जाता है। अतः प्रतीत्य-समुत्पाद सिद्धान्त (Theory of Dependent Organisation) को भी बुद्ध ने मध्यम-मार्ग के रूप में स्वीकारा।
माध्यमिक सम्प्रदाय धर्म के निषेधात्मक स्वरूप को स्वीकार करने का सुझाव देते हैं। धर्म के रूप में प्रत्येक विचार, संवेदना (sensation) और इच्छा (Desire) के अस्तित्वों को स्वीकारा जाता है। अतः प्रत्येक मनुष्य अपने व्यक्तिगत रूप में धर्मों का एक संग्रह है। इसी तरह ‘धर्म’ कोई एक सूखा भाववाचक पद नहीं होकर जीवन की समस्त भावनाओं का प्रतीक बन जाता है। इसलिए मनुष्य में भौतिक और मानसिक धर्मों का मिला-जुला रूप ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है। इस दृष्टि से धर्म का अस्तित्व है और उसका विनाश भी संभव है। अतः प्रवाह रूपी श्रृंखला (chain) में धर्म बिल्कुल ही क्षणिक है। नागार्जुन के अनुसार यह संसार केवल प्रतीति मात्र (Apparent) है।
संसार में अज्ञेय सम्बन्धों का जाल बिछा हुआ है। प्रकृति और आत्मा देश और काल, कारण और कार्य, गति और स्थिरता-ये सभी निराधार एवं खोखला है। यथार्थता को तो स्थिर एवं संगतपूर्ण होनी चाहिए। लेकिन वह बुद्धिगम्य नहीं है। वे पदार्थ जो परस्पर संगत नहीं हो सकते, वे वास्तविक दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अन्तिम रूप में यथार्थ नहीं हैं।
यह विचार पश्चिमी दार्शनिक ब्रेडले (Bradley) के निकट प्रतीत होता है। माध्यमिक सूत्रों के पाँचवें अध्याय में कारण-कार्य सम्बन्धों (Causal relations) का खंडन किया गया है। नागार्जुन के अनुसार कारण से अलग कार्य अथवा कार्य से अलग कारण अभावात्मक है। अतः पारमार्थिक दृष्टिकोण से न तो कोई कारण (cause) है और न कोई कार्य (Effect) न तो उत्पत्ति (Origin) है और न विनाश (Destruction)। इससे यह भी स्पष्ट है कि परिवर्तन का विचार बुद्धि की पहुँच के बाहर है। अतः कारण-कार्य भाव परिवर्तन का समाधान नहीं है क्योंकि यह स्वयं असंभव (impossible) है।
ज्ञान (knowledge) की विवेचना असंभव है। विचारों का जन्म संवेदनाओं से होता है। संवेदनाओं से ही विचारों का भी निर्माण होता है। यह तथ्य वैसा ही है जैसा कि पौधों से बीज उत्पन्न होते हैं तथा बीजों से पौधे उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार पुत्र अपने माता-पिता पर निर्भर करता है ठीक उसी प्रकार दृष्टि शक्ति की संवेदना आँखों एवं रंगों पर निर्भर करती है।
यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि हम जो कुछ भी देखते हैं, वह सम्पूर्ण रूप से हमारा अपना ही है। एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न मनुष्यों को भिन्न-भिन्न प्रकार का दिखाई पड़ता है। माध्यमिक मत के अनुसार विश्व से अलग कोई ईश्वर नहीं है। दोनों एक समान प्रतीति (appearance) मात्र है। इस तरह, ईश्वर के विचार की उपेक्षा के पीछे नागार्जुन का उद्देश्य देववादी आस्तिक विचारों का पूर्ण निराकरण (elimination) है। ईश्वर महायान बौद्ध-धर्म में ‘धर्म-काय’ के रूप में बताया गया है।
प्रश्न 3.
बौद्ध दर्शन में ‘योगाचार’ विज्ञानवाद के बारे में क्या जानते हैं? अथवा, योगाचारी विद्वान के अनुसार विज्ञानवाद अथवा चेतनावाद (Theory of Consiousness) की मूल मान्यताओं को स्पष्ट करें।
उत्तर:
योगाचार-विज्ञानवाद सिद्धान्त की स्थापना के सम्बन्ध में आर्यसंग तथा उनके छोटे भाई बसुबन्धु का नाम लिया जाता है। अश्वघोष भी योगाचार शाखा के अनुयायी माने जाते हैं। योगाचार शब्द के दो अर्थ हैं। पहले अर्थ में आनुभविक यानि बाह्य जगत की काल्पनिकता को समझने के लिए ‘योग’ का अभ्यास किया जाता है। दूसरे अर्थ में योगाचार की दो विशेषताओं को स्वीकार किया जाता है योग और अभ्यास। योग का मतलब जिज्ञासा (Curiosity) तथा आचार का मतलब सदाचार से लगाया जाता है। इस प्रकार दर्शनशास्त्र के क्रियात्मक पक्ष पर योगाचारों द्वारा अधिक बल दिया जाता है। योगाचारी विद्वान विज्ञानवाद पर अपने दार्शनिक विचारों को आधारित, रखते हैं।
विज्ञानवाद (Theory of consciousness)
विज्ञान यानि चेतना (consciousness) के अस्तित्व पर विश्वास रखना ही विज्ञानवाद सिद्धान्त की स्थापना करता है। विज्ञानवादी माध्यमिक शून्यवाद के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि विज्ञान बाहरी पदार्थों (External objects) का अस्तित्व नहीं है फिर भी वे यह स्वीकार करते हैं कि विज्ञान यानि चेतना का अपना अलग अस्तित्व है। इसका स्वरूप भावात्मक है। परम सत्ता यानि अन्तिम सत्य का कोई भी निषेध नहीं कर सकता है। ज्ञान (knowledge) की अपनी एक मुक्त स्थिति है। अतः ज्ञान का अस्तित्व एक पूर्ण सत्य है। चित्त या मन मनुष्य का विश्वसनीय अंग है। चेतना का प्रवाह वह अनुभव करता है। अतः विज्ञान यानि चेतना को मानना आवश्यक है।
योगाचार-विज्ञानवाद के अनुसार भौतिकवाद (materalism) को सभी विचारों का कारण मानना हमारे अधिकारों के बाहर है। प्रकृति (Nature) स्वयं ही एक विचार है। संसार में दिखाई पड़ने वाले सभी पदार्थ संवेदनाओं (sensation) के समूह हैं। ज्ञान के विषय के रूप में वे विचार आते हैं जिनकी छाप इन्द्रिय पर पड़ती है। अतः चेतना या विज्ञान से अलग किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं है। चेतना के प्रवाह से संसार के बाह्य अस्तित्व का एक आभास मिलता है। पानी के बुलबुलों का अन्तिम स्वरूप पानी हैं। उसी तरह चेतना के प्रवाह से उत्पन्न सभी पदार्थ अन्त में उसी प्रवाह में विलीन हो जाते हैं। अन्ततः चेतना का ही अस्तित्व सिद्ध होता है।
ज्ञान महत्त्वपूर्ण है। बिना ज्ञान के किसी भी पदार्थ को जानना संभव नहीं है। अतः ज्ञान के बाहर किसी भी सांसारिक पदार्थ का अपना स्वतंत्र अस्तित्द कभी भी स्थापित नहीं किया जा सकता है। चेतना यानि विज्ञान ही एकमात्र सत्यता है। प्राचीन बौद्ध-दर्शन इस बात का पूर्ण समर्थन करता है। इस दर्शन के अनुसार, हम जो कुछ भी हैं, अपने विचारों के परिणामस्वरूप हैं। विचारों से ही सबकुछ बना है। योगाचारी विद्वान बाहरी पदार्थों पर चेतना के निर्माण को’ स्वीकार नहीं करते हैं।
इसे ‘निरालम्बनवाद’ से भी जाना जाता है। योगाचार विद्वान के अनुसार बाहरी पदार्थों के अस्तित्व को स्वीकारने से विचार में अनेक दोष आ जाते हैं। अगर कोई पदार्थ अपना अस्तित्व अलग रखने का दावा करता है, तो उसमें दो संभावनाएँ हैं, प्रथम वह पदार्थ परमाणुमात्र (atom) है या दूसरा, वह अनेक परमाणुओं के मेल से बना है। पहली संभावना के अनुसार पदार्थ परमाणु मात्र नहीं है क्योंकि परमाणु इतना सूक्ष्म (minute) होता है कि उसका प्रत्यक्षण संभव नहीं है।
दूसरी संभावना में भी सभी परमाणुओं का एक साथ प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। अतः मन से बाहर किसी पदार्थ के अस्तित्व जानने से भी उसका पूर्णज्ञान संभव नहीं है। अतः पदार्थों का अस्तित्व बिल्कुल मानसिक है। इस विचार को पाश्चात्य दर्शन में आत्मगत प्रत्ययवाद (Subjective Idealism) के नाम से जाना जाता है। पाश्चात्य दार्शनिक बर्कले का नाम इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है। योगाचारी विज्ञानवाद स्पष्टतः आदर्शवादी है। विज्ञान या चेतना एक अमूर्त भाव रूप नहीं होकर एक मूर्त रूप ठोस यथार्थ सत्ता है।
सत्य घटनाओं की पूरी पद्धति मनुष्य की व्यक्तिगत चेतना के भीतर ही पायी जाती है। विषय (Subject) और विषयी (Object) सम्बन्धी अपने आन्तरिक द्वैत (Dualism) के साथ स्वयं जीवन में एक छोटे संसार का निर्माण होता है, जिसे ‘आलय’ कहते हैं। आलय चेतना का लगातार बदलता हुआ प्रवाह है। ‘आलय’ मात्र सामान्य आत्म नहीं है।
यह चेतना का विशाल समुद्र है। आत्मनिरीक्षण और ध्यानमग्न समाधि में यह पता चल सकता है कि हमारी व्यक्तिगत चेतना किस प्रकार से सम्पूर्ण चेतना या आलय का केवल एक अंग मात्र है। हमारी वैयक्तिक चेतना को पूर्ण व्यापी चेतना (Universal Conscious ness) के छोटे अंश का ही सीमित ज्ञान प्राप्त होता है। पूर्ण ज्ञान पूर्ण समाधि में ही संभव है। वही निर्वाण है।
विज्ञानवाद के विरोध में यह कहा जाता है कि किसी पदार्थ का अस्तित्व ज्ञाता (knower) पर ही निर्भर करता है। वह ज्ञाता अपने इच्छानुसार किसी पदार्थ को क्यों नहीं उत्पन्न कर लेता है। आपत्ति के उत्तर में विज्ञानवादी का कहना है कि हमारा ‘मन (mind) एक प्रवाह है। प्रवाह में भी जीवन के अनुभवों का संस्कार छिपा होता है। हमारी स्मरण शक्ति (Power of rememberance) इस बात को स्पष्ट कर देती है। विशेष समय में विशेष संस्कार की स्मृति हो सकती है। इसलिए ज्ञान की संभावना हमेशा बनी रहती है। इस प्रकार, चेतना यानि विज्ञान का अस्तित्व स्वप्रमाणित सत्य है।
प्रश्न 4.
वैभाशिक बाह्य प्रत्यक्षवाद के बारे में आप क्या जानते हैं? बाह्य प्रत्यक्षवाद में निहित विचारों की आलोचनात्मक व्याख्या करें। अथवा, ‘सर्वास्तिवाद’ एक प्रकार का यथार्थवादी सिद्धान्त है। विवेचना करें।
उत्तर:
बौद्ध दर्शन में वैभाषिक मत को बाह्य प्रत्यक्षवाद से जानते हैं। सौत्रांतिकों की तरह ही इस मत को माननेवाले चेतना एवं बाह्य पदार्थ दोनों के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं। अभिधर्म पर महाविभाषा या विभाषा नाम की बहुत बड़ी महत्त्वपूर्ण टीका इस मत का आधार माना जाता है। इसलिए इसे वैभाषिक नाम से जानते हैं। इस मत के लोग सर्वास्तिवाद या यथार्थवाद को मानते हैं। सर्वास्तिवाद एक प्रकार यथार्थवादी सिद्धान्त है। इसे हेतुवादी. यानि कारण कार्यवाही भी कहा जाता है। सर्वास्तिवाद के अनुसार ‘सात ग्रंथ महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं’ जिसमें ‘ज्ञान प्रस्थान’ सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसकी रचना काव्यायनी पुत्र ने बुद्ध की मृत्यु के तीन सौ वर्ष बाद की। इस ग्रंथ के ऊपर टीका का नाम ही ‘महाविभाषा’ है। बाह्य प्रत्यक्षवाद में निहित मुख्य विचार निम्नलिखित हैं –
1. वैभाषिक मत आधुनिक युग के नव्य-वस्तुवादियों (neo-realists) से मिलते हैं। वैभाषिकों के अनुसार पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष (perception) को छोड़कर अन्य किसी माध्यम से नहीं होता है। धुआँ देखकर आग के अनुमान की बात करने से अनुमान (Inference) की व्याख्या होती है। यह अनुमान इसलिए संभव होता है कि अतीत (past) के अनुभव में हमने आग और धुआँ दोनों को एक साथ प्रत्यक्षण (perception) कर लिया है। अगर बाह्य पदार्थों का प्रत्यक्षण कभी भी नहीं हुआ हो, तो केवल मानसिक प्रतिरूपों के आधार पर उनका अस्तित्व साबित नहीं किया जा सकता है।
2. वैभाषिक मत में अनुभव (Experience) का अधिक महत्त्व है। अनुभव को पदार्थों के स्वरूप का निर्दोष साक्षी माना जाता है। अनुभव का मतलब उस प्रत्यक्ष ज्ञान से है जो पदार्थ के साथ सीधा सम्पर्क (contact) होने पर प्राप्त होता है। अतः समस्त संसार प्रत्यक्ष ज्ञान का एक क्षेत्र है। अनुमान के निमित्त पदार्थों का वर्गीकरण दो प्रकार का है-एक जो प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय हैं और दूसरे वे जो अनुमान द्वारा जाने जाते हैं।
इन्हें क्रमशः इन्द्रियगम्य एवं तर्कनीय कहा जाता है। विचारों के आन्तरिक जगत और पदार्थों के बाह्य जगत के बीच अन्तर संभव बताया जाता है। इस प्रकार वैभाषिक मत स्वभाव से द्वैतवादी (Dualist) है। द्वैतवाद प्रकृति को बाह्य पदार्थ का प्रतीक मानते हैं। मन को चेतना या विज्ञान माना जाता है। यहाँ चेतना एवं बाह्य पदार्थ दोनों के अस्तित्व को माना जाता है। प्रमाणशास्त्र के दृष्टिकोण (Theory of knowledge) के अनुसार वैभाषिक मत को सरल और अकृत्रिम यथार्थवाद कहा जा सकता है।
3. पदार्थों में नित्य क्षणिक प्रतीति नहीं है:
पदार्थ वे अवयव हैं जो प्रतीति (appear ance) के विषय यथा पदार्थों की पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं। कुछ सर्वास्तिवादी कारण-कार्य सम्बन्ध (casual relation) की परेशानी से बचने के लिए ऐसा मानते हैं कि कारण और कार्य दोनों ही पदार्थ (object) के दो पक्ष हैं। जैसे-जल, बर्फ और नदी की धारा दोनों में जल एक समान पदार्थ है। रूप क्षणिक है लेकिन अधिष्ठान स्थायी है। आर्य देव के अनुसार कारण कभी भी नष्ट नहीं होता है। लेकिन अवस्था बदलने पर जब वह कार्य (Effect) बन जाता है तो केवल अपना नाम बदल लेता है। जैसे-मिट्टी अपनी अवस्था परिवर्तित करके घड़ा बन जाती है। इस अवस्था में कारण मूल मिट्टी का नाम बदलकर घड़ा हो जाता है।
4. पदार्थों का नाश संभव है:
जिन पदार्थों को हम देखते हैं, वे उस अवस्था में नष्ट हो जाते हैं। उनकी सत्ता (reality) का अवधिकाल बहुत कम है। जैसे-बिजली की चमक अणु (atoms) जल्द ही अलग-अलग हो जाते हैं। उनका एकीकरण कुछ ही समय के लिए होता है। पदार्थों का अस्तित्व चार क्षणों (moments) तक ही रहता है। वे हैं-उत्पत्ति, स्थिति, क्षय एवं विनाश यानि मृत्यु। पदार्थों की स्थिति हमारी प्रत्यक्ष-क्रिया से बिल्कुल स्वतंत्र रह सकती है।
5. वैभाषिक मत आण्विक सिद्धान्त (Theory of atoms) को स्वीकार करता है। वैभाषिक तत्व विज्ञान के अनुसार तत्त्व चार हैं। वे हैं-पृथ्वी, जल, आग और हवा। स्वभाव के अनुसार, पृथ्वी कठोर है, जल ठंढा है, आग गर्म है और हवा गतिमान है। पाँचवें तत्त्व ‘आकाश’। को वैभाषिक मत स्वीकार नहीं करता है।
वस्तुतः बाह्य पदार्थ परम अणुओं (atom) की अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार एकत्रीकरण का एक फल है। सभी पदार्थ अन्त में जाकर अणुओं (atoms) के रूप में बदल जाते हैं। अणु को अकेले देखना संभव नहीं है। अणुओं के समूह को देखना सम्भव है। बसुबन्धु के अनुसार अणु एक अत्यन्त ही छोटा कण है। इसे कहीं भी स्थापित करना कठिन है। इसे न तो हाथ से पकड़ा जा सकता है और न पैर से दबाया जा सकता है। यह आकार विहीन है। यह अविभाज्य (indivisible) और अदृश्य (invisible) है।
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