BSEB Class 11 Political Science Constitution as a Living Document Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Political Science Constitution as a Living Document Book Answers |
Bihar Board Class 11th Political Science Constitution as a Living Document Textbooks Solutions PDF
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Board | BSEB |
Materials | Textbook Solutions/Guide |
Format | DOC/PDF |
Class | 11th |
Subject | Political Science Constitution as a Living Document |
Chapters | All |
Provider | Hsslive |
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प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही है –
- संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि
- परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है
- किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है
- हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए
- संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए
उत्तर:
किसी भी संविधान का समय-समय पर संशोधित किए जाने की आवश्यकता होती है और उसमें उचित परिवर्तन करना जरूरी हो जाता है।
प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ।
- राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
- संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
- न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परंतु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
- संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर:
- सत्य
- असत्य
- सत्य
- असत्य
प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के संशोधन करने में निम्नलिखित से कौन-कौन लिप्त हैं? वे किस प्रकार इसमें योगदान करते हैं?
- मतदाता
- भारत का राष्ट्रपति
- राज्य विधान सभाएँ
- संसद
- राज्यपाल
- न्यायपालिका
उत्तर:
1. मतदाता:
भारत के संविधान में मतदाता भाग नहीं लेते।
2. भारत का राष्ट्रपति:
भारत का राष्ट्रपति संविधान संशोधन में भाग लेता है। संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद संशोधन विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति उस पर अपने हस्तक्षर कर देता है। राष्ट्रपति को किसी भी संशोधन विधेयक को वापस भेजने का अधिकार नहीं है।
3. राज्य विधान सभाएँ:
संविधान की कुछ प्रमुख धाराओं (अनुच्छेदों) में परिवर्तन या संशोधन करने में जहाँ संसद के दो तिहाई (विशिष्ट) बहुमत की आवश्यकता है। उसके साथ-साथ कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों के विधान सभाएँ से भी अनुमति लेनी पड़ती है।
4. संसद:
भारतीय संविधान के संशोधन में संसद का सबसे अधिक लिप्त होना अनिवार्य है क्योंकि भारत के संविधान में कुछ धाराओं में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है। दूसरे प्रकार के संशोधनों में संसद के दोनों सदनों में उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से तथा कुल सदस्यों के आधे से अधिक के बहुमत से संशोधन किया जाता है। तीसरे प्रकार से संविधान की कुछ अहम धाराओं में संसद के विशिष्ट बहुमत से संशोधन विधेयक को पारित होने के बाद पचास प्रतिशत राज्यों से भी अनुमति ली जाती है। इस प्रकार के संशोधन में संसद के दोनों सदनों का हाथ अवश्य रहता है।
5. राज्यपाल:
संविधान के जिन-जिन अनुच्छेदों में संशोधन हेतु पचास प्रतिशत राज्यों के विधानमंडलों से अनुमति लेनी होती है केवल वहाँ राज्यपाल की लिप्तता पायी जाती है, क्योंकि राज्य विधानमंडल से पारित संशोधन विधेयक पर राज्यपाल को हस्तक्षर करने होते हैं।
6. न्यायपालिका:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं।
प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42 वाँ संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?
- यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
- यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
- इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
- संशोधन के कुछ उपबंध विवादस्पद थे।
उत्तर:
42 वाँ संविधान संशोधन विभिन्न विवादस्पद संशोधनों में से एक था। उपरलिखित कारणों में से इसके विवादस्पद होने के निम्नलिखित कारण थे –
1. यह संशोधन राष्ट्रीय आपात स्थिति के दौरान किया गया जबकि आपातस्थिति की घोषणा ही अपने आप में विवादस्पद थी।
2. इस संशोधन में कई प्रावधान विवादास्पद थे। यह संविधान संशोधन वास्तव में उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानन्द भारती विवाद में दिए गए निर्णयों को निष्क्रिय करने का प्रयास था। यहाँ तक कि लोकसभा की अवधि को भी पाँच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया था।
42 वें संशोधन में न्यायापालिका की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था। इस संशोधन के द्वारा प्रस्तावना, 7 वीं सूची तथा संविधान के 53 अनुच्छेदों में परिवर्तन कर दिए गए। बहुत से सांसदों को, जो विपक्षी दलों से संबंधित थे, जेल में डाल दिया गया।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौन-सा वाक्य विभिन्न संशोधनों के संबंध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता
- संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
- खंडन-मंडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
- कुछ नियमों और सिद्धांतों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्याख्या की गई है।
- नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
- न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिक के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर:
उपरोक्त पाँचों कथनों में से भाग ही विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव की उचित व्याख्या नहीं है। न्यायपालिका ही किसी निश्चित कानून की संवैधानिकता तय कर सकती है परंतु यह उसकी आवश्यकता के लिए राजनीतिक वाद-विवाद प्रतियोगिता निर्धारित नहीं कर सकती।
प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत के बारे में सही वाक्य को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।
- (i) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
- (ii) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिकी संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
- (iii) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढाँचे के अन्तर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
- (iv) यह सिद्धांत सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
- (v) इस सिद्धांत से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों में भी बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर:
1. “संविधान मूल संरचना को निर्धारित करता है।” यह बात सत्य नहीं है क्योंकि संविधान में कहीं भी मूल ढाँचे का वर्णन अलग से नहीं किया गया है। उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में तथा फिर 1980 में मिनर्वा मिल विवाद में निर्णय दिया कि संविधान के मूल ढाँचे से सम्बन्धित भागों में संशोधन नहीं किया जा सकता। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद के मूल संरचना के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। मूल संरचना के सिद्धांत ने संविधान के विकास में योगदान दिया। संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती।
2. विधायिका संविधान के मूल ढाँचे के अतिरिक्त अन्य सभी खण्डों में संशोधन कर सकती है। यह एक सही कथन है।
3. न्यायपालिका ने संविधान के मूल ढाँचे को परिभाषित किया है कि संविधान के कौन से खण्ड मूल ढाँचे के अन्तर्गत हैं और कौन से नहीं। मूल ढाँचे का सिद्धांत न्यायपालिका की ही खोज है। संविधान के शब्दों की अपेक्षा संविधान की भावना अधिक महत्त्वपूर्ण है।
4. यह सिद्धांत (मूल संरचना का सिद्धांत) सर्वप्रथम केशवानन्द भारती विवाद के समय अस्तित्व में आया और उसके बाद के विवादों में इसी के आधार पर निर्णय दिए गए। यह सही कथन है।
5. इस सिद्धांत के अस्तित्व में आने से न्यायपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई है और राजनीतिक दलों, राजनेताओं और सरकार ने इसको मान्यता दी है। केशवानन्द भारती विवाद के बाद से इस सिद्धांत ने संविधान की व्याख्या में महत्त्पपूर्ण योगदान दिया है। राजनीतिक नेताओं तथा सरकार और संसद ने मूल संरचना के सिद्धांत को स्वीकार किया है। यह कथन सत्य है।
प्रश्न 7.
सन् 2000 – 2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन-सा निष्कर्ष निकालेंगे।
- इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
- इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
- कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
- इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं रह गया था।
- ये संशोधन विवादस्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर:
प्रश्न में दिए गए निष्कर्षों में से सही निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं –
(iii) तथा (iv) अर्थात् एक तो जनता की ओर से इस प्रकार के संशोधन करने के लिए दबाव था और दूसरे ये संशोधनों अविवादास्पद प्रकृति के थे तथा राजनीतिक दलों में संशोधनों के विषय में आम सहमति थी। एक समझौता था।
प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर:
भारत के संविधान में तीन प्रकार से संशोधन होता है। एक साधारण बहुमत की प्रक्रिया के बाद आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन प्राप्त करके किया जाता है। यह विशिष्ट बहुमत दो प्रकार से गिना जाता है। पहले तो संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग संशोधन विधेयक पारित करने के लिए प्रत्येक सदन में उस सदन की कुल संख्या के आधे से अधिक का बहुमत हो तथा साथ ही उस सदन में उपस्थित सदस्यों की संख्या का दो-तिहाई बहुमत भी होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर लोकसभा की कुल सदस्य संख्या यदि 545 है और उस दिन लोकसभा में कुल 330 सदस्य उपस्थित हैं तो 330 का 2/3 अर्थात् 220 सदस्यों द्वारा पारित होने पर वह पारित नहीं समझा जाएगा क्योंकि 545 का 1/2 अर्थात् 273 की संख्या विधेयक के समर्थन में होना भी अनिवार्य है।
यह विशिष्ट बहुमत इसलिए आवश्यक है ताकि संविधान में संशोधन के लिए विपक्षी पार्टियों का भी उसमें कुछ समर्थन होना चाहिए ताकि संशोधन के पीछे अप्रत्यक्ष जन समर्थन की भावना छिपी हुई हो। केन्द्र और राज्य के बीच शक्ति विभाजन से सम्बन्धित धाराओं में परिवर्तन के लिए राज्यों का भी अनुमोदन उसमें होना चाहिए। इसलिए संसद के दो-तिहाई उपस्थित तथा कुल संख्या के आधे से अधिक संदस्यों द्वारा (विशिष्ट बहुमत से) पारित विधेयक को आधे राज्यों का समर्थन भी आवश्यक बनाया गया है।
राज्यों की शक्ति को केन्द्र की दया पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसी कारण संविधान में आधे राज्यों के विधानमण्डल द्वारा अनुमोदन कराया जाना आवश्यक बनाया गया है। संघीय ढाँचे से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन इसी प्रकार किया जाता है। मौलिक अधिकारों में भी इसी विधि से संशोधन किया जा सकता है। संविधान निर्माता इस विषय में बहुत सतर्क थे। केवल आधे राज्यों से उन्होंने अनुमोदन कराना आवश्यक माना तथा इस कठोर प्रणाली में भी थोड़ा लचीलापन लाने के लिए राज्यों के विधानमण्डलों से केवल साधारण बहुमत से पारित कराना पर्याप्त माना गया।
प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित. व्याख्या करें।
उत्तर:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच कई मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान में कई बार इन्हीं मतभेदों के कारण संशोधन कर दिए जाते हैं। संविधान का पहला संशोधन 1951 में किया गया। इस संविधान में कई परिवर्तन हुए। इसका कारण यह था कि संविधान की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जा रही थी और संविधान की प्रक्रिया को अपनी-अपनी सोच के अनुसार समझा जा रहा था। प्रथम संशोधन द्वारा अनुच्छेद 15, 19, 31, 85, 87, 144, 176, 372 तथा 376 संशोधन किया गया और संविधान में 9 वीं अनुसूची और बढ़ा दी गई।
न्यायपालिका और संसद में टकराव की स्थिति होने पर संसद संशोधन का सहारा लेती है। 1970 से 1975 तक ऐसी अनेक परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। केशवानन्द भारती विवाद में संसद की संशोधन शक्ति को नियंत्रित किया गया। उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया कि संसद को संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन या परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या से संसद जब संतुष्ट नहीं होती तो वह संविधान संशोधन कर देती है। 42 वाँ संविधान संशोधन सबसे अधिक विवादास्पद रहा।
इस संशोधन द्वारा न्यापालिका की न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह 42 वाँ संशोधन तथा 38वें, 39वें संशोधन भी आपातस्थिति के दौरान किए गए थे। 43 वाँ और 44 वाँ संशोधन 42 वें संविधान संशोधन द्वारा किए गए परिवर्तनों को निरस्त करने के लिए किए गए। न्यायपालिका ने भी कुछ संशोधन, जो संशोधन न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय हैं, परतु वे आगे के लिए उदाहरण बन गए और जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि आरक्षण की व्यवस्था 50 प्रतिशत से अधिक नहीं दी जा सकती।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मौलिक अधिकार व नीति निर्देशक सिद्धांतों को लेकर संसद और न्यायपालिका में टकराव के कारण तथा निजी सम्पत्ति के दायरे और संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमा को लेकर दोनों में विवाद उठते रहे हैं। 1970 से 1975 तक संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार-बार संशोधन किए थे। 38, 39 और 42 वें संशोधन आपातस्थिति की पृष्ठभूमि से निकले थे। 1973 में केशवानन्द भारती विवाद में उच्चतम न्यायालय का निर्णय, 1973 के पश्चात् न्यायालयों में कई मामलों में बुनियादी संरचना के सिद्धांत को निर्धारित करने का आधार बन गया।
प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायापालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर:
संशोधन प्रक्रिया बहुत विवादास्पद रही है। संविधान में संशोधन पर मतभेद रहे हैं। यह कहा जाता है कि जब संविधान निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में है तो न्यायपालिका को चाहिए कि उसमें हस्तक्षेप न करे। वह संशोधन की विश्वसनीयता निर्धारित करने की अधिकारी न रहे परंतु यह उचित नहीं है। वास्तव में 1970 से 1980 तक के काल में होने वाले संशोधन बहुत विवादास्पद रहे हैं। विपक्षी दलों ने सत्तापक्ष द्वारा किए गए संशोधनों का विरोध किया।
38, 9 और 42 वें संशोधन द्वारा संविधान की अनेक धाराओं को परिवर्तित कर दिया गया। यदि न्यायपालिका चुप रहती तो वे संशोधन ज्यों के त्यों बने रहते और व्यक्ति के अधिकारों पर ये कुठाराघात होता और निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी तानाशाही बनाए रखते। यद्यपि संसद में जनता के प्रतिनिधि होते हैं और जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है, परंतु निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की आकांक्षाओं के बदले अपने स्वार्थों की पूर्ति करने लगते हैं और इस समस्या से बचने के लिए संविधान का नियंत्रण सांसदों पर होता है अर्थात् सांसद यदि संविधान की सीमा का उल्लंघन करते हैं तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही चाहिए। अतः न्यायपालिका को संविधान संशोधन की विश्वसनीयता को परखने की शक्ति होनी ही चाहिए। इससे संसद और सरकार को निरंकुश बनने से रोका जा सकता है।
Bihar Board Class 11 Political Science संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज Additional Important Questions and Answers
अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
क्या संविधान अपरिवर्तनीय होते हैं?
उत्तर:
वास्तव में संविधान अपरिवर्तनीय नहीं होते। उनमें समय और परिस्थितिवश परिस्थितिगत बदलाव होते रहते हैं। परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और कई बार राजनीतिक उठापटक के चलते विभिन्न राष्ट्रों ने अपने संविधान को दुबारा तैयार किया है। सोवियत संघ में 74 वर्षों में संविधान को चार बार बदला गया। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस में 1993 में एक नया संविधान अंगीकार किया गया।
प्रश्न 2.
किसी देश के संविधान का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
किसी भी देश के लिए संविधान का होना बहुत आवश्यक है। संविधान के कारण ही सरकार अपने दायित्वों की पूर्ति उचित रूप से करती है। संविधान में ही बताया जाता है कि सरकार के विभिन्न अंगों की क्या-क्या शक्तियाँ और उनके क्या-क्या दायित्व होते हैं।
प्रश्न 3.
‘राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता’ पर एक संक्षिप्त नोट लिखिये जैसा कि भारतीय संविधान में दिया गया है।
उत्तर:
राष्ट्र की एकता और अखण्डता-संविधान निर्माता ब्रिटिश सरकार की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति से भली-भाँति परिचित थे। अत: उन्होंने संविधान का निर्माण करते समय यह जोर दिया कि राष्ट्र की एकता और अखण्डता को सुरक्षित रखा जाय। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया जाय तथा इकहरी नागरिकता को अपनाया गया। पूरे देश का एक ही संविधान बनाया गया। राष्ट्र की एकता के साथ 42 वें संविधान के द्वारा अखण्डता शब्द को भी जोड़ा गया।
प्रश्न 4.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘समानता’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर:
समानता:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता दी गई है। समानता शब्द का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के विकास के समान अवसर प्राप्त होते हैं। किसी भी व्यक्ति को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति के विकास के मार्ग में बाधा नहीं आने दी जाती।
प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है –
- प्रस्तावना संविधान की कुंजी है क्योंकि इसमें पूरे संविधान का निष्कर्ष होता है।
- प्रस्तावना संविधान के सभी उद्देश्यों और लक्ष्यों को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करती है। इसे संविधान का दर्पण कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।
- प्रस्तावना में सरकार के रूप, कार्यपालिका और न्यायपालिका से संबंध आदि सभी पक्षों का संक्षिप्त सारांश प्रस्तुत किया जाता है।
- संविधान की प्रस्तावना से आधारभूत दर्शन का ज्ञान होता है। वास्तव में प्रस्तावना संविधान की आधारशिला है।
प्रश्न 6.
संविधान सभा की क्या भूमिका थी? इसके अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर को डॉ. सच्चिदानन्द सिंहा के अध्यक्षता में हुई। 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। इस संविधान सभा ने संविधान निर्माण का कार्य शुरू किया। 2 वर्ष 11 मास 18 दिन के पश्चात् 26 नवम्बर, 1949 को भारत के नये संविधान का निर्माण हुआ। ऐतिहासिक महत्त्व के कारण यह संविधान 26 जनवरी, 1950 को ही लागू किया गया। संविधान सभा की महत्त्वपूर्ण भूमिका भारत के नए संविधान का निर्माण करना था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इस सभा के स्थायी अध्यक्ष थे।
प्रश्न 7.
बन्धुता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
बंधुता का अर्थ सभी लोगों के लिए भाई-चारे और नागरिकों की समानता से है। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांसीसी अधिकारों के घोषणा पत्र में और फिर संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकारों की घोषणा में किया गया। भारत के इतिहास में बन्धुता की भावना के विकास का विशेष महत्त्व है। संविधान की प्रस्तावना में जिस ‘बन्धुत्व’ की कल्पना की गई है उसे अनुच्छेद 17 व 18 में वर्णित छुआछूत को समाप्त करके, उपाधियाँ प्राप्त करने पर प्रतिबंध लगाकर और अनेक सामाजिक बुराईयों को दूर करके भारतीय समाज में स्थापित किया गया है।
प्रश्न 8.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में दिए ‘गणराज्य’ शब्द से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
भारत के संविधान की प्रस्तावना में “गणराज्य” शब्द का प्रयोग बहुत महत्त्व रखता है। गणराज्य से अभिप्राय है कि भारत का राज्याध्यक्ष जनता द्वारा निर्वाचित होगा।
प्रश्न 9.
प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
प्रस्तावना का शाब्दिक अर्थ होता है भूमिका अथवा प्रारंभिक परिचय। संविधान की प्रस्तावना का संबंध उसके उद्देश्यों, लक्ष्यों, आदर्शों तथा उसके आधारभूत सिद्धांतों से है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना का सीधा संबंध उस उद्देश्य प्रस्ताव से है जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को पारित किया था।
प्रश्न 10.
भारतीय संविधान के प्रस्तावना में दिए गए “लोकतांत्रिक” शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
भारत के संविधान की प्रस्तावना में “लोकतंत्रात्मक” शब्द प्रयुक्त हुआ है। उसका यह अर्थ है कि भारत में जनता का शासन होगा। जनता के प्रतिनिधि चुने जाएंगे और वे जनहित में शासन करेंगे। राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक प्रत्येक क्षेत्र में लोकतंत्र की स्थापना होगी। इस प्रकार एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना होगी।
प्रश्न 11.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को भी भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया। इसका तात्पर्य यह है कि भारत किसी धर्म या पंथ को राज्य-धर्म के रूप में स्वीकार नहीं करता है तथा न ही किसी धर्म का विरोध करता है। प्रस्तावना के अनुसार भारतवासियों को धार्मिक विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता होगी। धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला है। अतः राज्य उस विषय में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।
प्रश्न 12.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘समाजवादी’ शब्द की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
‘समाजवादी’ शब्द को भी 1976 में 42 वें संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। इस शब्द का तात्पर्य यह है कि भारत में किस प्रकार की शासन व्यवस्था हो जिसके अनुसार समाज के सभी वर्गों का विकास व उन्नति के लिए उचित अवसर प्राप्त हों तथा आर्थिक असमानता को कम किया जाए। इस नीति के अनुसार भारत सरकार यह प्रयास करेगी कि उत्पादन और वितरण के साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाय।
प्रश्न 13.
राजनीतिक और आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में राजनीतिक और आर्थिक न्याय का वर्णन निम्नलिखित सन्दर्भ में किया गया है –
- राजनैतिक न्याय: राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को धर्म, जाति, रंग आदि भेदभाव के बिना समाज राजनैतिक अधिकार प्राप्त हों। सभी नागरिकों को समान मौलिक अधिकार प्राप्त हों।
- आर्थिक न्याय: आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हो तथा उसके कार्य के लिए उचित वेतन प्राप्त हो।
प्रश्न 14.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार राज्य की प्रकृति क्या है?
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारतीय राज्य की प्रकृति निम्न प्रकार से है –
- भारत एक संप्रभु राज्य है
- भारत एक गणराज्य है
- भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है
- भारत एक समाजवादी राज्य है
- भारत एक लोकतंत्रात्मक राज्य है
प्रश्न 15.
प्रस्तावना में दिए गए भारतीय संविधान के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित हमारे संविधान के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
- न्याय-सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक।
- स्वतंत्रता-विचार, आभव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं पूजा की।
- समानता-प्रतिष्ठा और अवसर की।
- बंधुता-व्यक्त की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
भारत के संविधान में किन विषयों में साधारण विधि से संशोधन कर दिया जाता है?
उत्तर:
भारत का संविधान लचीला भी है, कठोर भी है और लचीले और कठोर का समन्वय भी है। कुछ प्रावधानों में संशोधन करने की प्रक्रिया साधारण पारित करने की प्रक्रिया के समान ही है। जैसे –
- नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)
- राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना। (अनुच्छेद 169)
- संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन। (अनुच्छेद 100 (3)
- संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों के सम्बन्ध में संशोधन।
- भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में। (अनुच्छेद 5)
- देश में आम चुनाव के सम्बन्ध में। (अनुच्छेद.327)
- केन्द्र-शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में। (अनुच्छेद 240)
- अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।
प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना लिखो।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का विवेचना निम्नलिखित शब्दों में किया गया है –
संविधान की प्रस्तावना:
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य बनाने तथा उसके सब नागरिकों को न्याय-सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक। स्वतंत्रता-विचार, अभिव्यक्ति, पूजा, विश्वास एवं धर्म की समानता-प्रतिष्ठा और अवसर की, और उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुत्व की भावना बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 को हम भारत के लोग अंगीकृत अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में संशोधन किस प्रकार किए जाते हैं? अथवा, भारतीय संविधान में संशोधन के विभिन्न तरीकों को बताइए। उनमें से किसी एक ही व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन विधि दी गयी है। भारतीय संविधान की विभिन्न धाराओं के संशोधन के लिए निम्नलिखित तीन प्रणालियाँ प्रयोग में लाई जाती है। इन प्रणालियों का उल्लेख भारतीय संविधान की धारा 368 में किया गया है।
1. साधारण विधि:
संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संसद साधारण बहुमत से संशोधन कर सकती है। संशोधन का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में रखा जा सकता है। जब दोनों सदन उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास कर देते हैं तब वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन प्रस्ताव पास हो जाता है। इस प्रणाली के द्वारा जिन अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है, उनमें से कुछ मुख्य अनुच्छेद निम्न प्रकार से हैं –
- नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमाओं को घटाना या बढ़ाना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)।
- राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद्) को बनाना या समाप्त करना (अनुच्छेद 169)।
- संसद के कोरम के संबंध में संशोधन (अनुच्छेद 100 (3))।
- संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों के संबंध में संशोधन।
- भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में (अनुच्छेद 5)
- देश में आम चुनाव के सम्बन्ध में (अनुच्छेद 327)।
- केन्द्र शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में (अनुच्छेद 240)।
- अनुसूचित जाति के क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।
भारतीय संविधान में संशोधन करने की उपरोक्त प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया तथा साधारण विधि-निर्माण में कोई अंतर नहीं किया गया है। इस प्रकार के आधार पर ही बहुत से विद्वान भारत के संविधान को लचीला संविधान मानते हैं।
2. विशेष विधि:
हमारे संविधान की कुछ अन्य धाराओं का संशोधन एक विशेष विधि से होता है। इसके अनुसार संशोधन संबंधी बिल संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है और यदि सदन की कुल संख्या के साधारण बहुमत द्वारा उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत द्वारा संशोधन बिल एक सदन से पास हो जाय तो दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।
दूसरे सदन के लिए भी यही ढंग अपनाया जाता है। उसके पश्चात् बिल राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए जाता है और उनके हस्ताक्षर करने के बाद संविधान संशोधन बिल पास समझा जाता है। हमारे संविधान के जिन विषयों का उल्लेख पहले और तीसरे वर्ग में किया गया है उनको छोड़कर संविधान की अन्य सभी धाराएँ इसी क्रिया से बदली जाती हैं। मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में इसी प्रणाली से संशोधन किया जा सकता है।
प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के किन्हीं दो स्रोतों की पहचान कीजिए। संक्षेप में उन प्रावधानों का वर्णन कीजिए जो इन स्रोतों से लिए गए हैं।
उत्तर:
भारत के संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया। यह संविधान सभा 1946 में चुनी गयी। सभा के सभी सदस्य भारतीय थे। ये सभी दलों का प्रतिनिधित्व करते थे परंतु कांग्रेस पार्टी के सबसे अधिक सदस्य थे। इस सभा की शक्तियों पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं था। संविधान का निर्माण बड़े वाद-विवाद और गहन विचार के बाद किया गया। संविधान बनाते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया कि भविष्य में इस दस्तावेज में संशोधन की आवश्यकता भी पड़ सकती है। संविधान में उन आदर्शों, आकांक्षाओं, मूल्यों, प्रेरणाओं और आवश्यकताओं को स्थान देने का प्रयास किया जो भारत की जनता के लिए अधिक से अधिक हितकर हों।
भारतीय संविधान के दो प्रमुख स्रोत –
1. 1935 का भारतीय शासन अधिनियम:
भारतीय संविधान का सबसे अधिक प्रभावशाली स्रोत, भारतीय शासन अधिनियम 1935 ही है। भारतीय संविधान के 395 अनुच्छेदों में से लगभग 250 अनुच्छेद ऐसे हैं जो 1935 के भारतीय शासन अधिनियम से या तो शब्दशः लिये गए हैं या फिर उनमें बहुत थोड़ा परिवर्तन किया गया है। भारतीय शासन अधिनियम 1935 से प्रमुखतया इन प्रावधानों को लिया गया है:
- शक्ति विभाजन की तीन सूचियों।
- केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल पद की व्यवस्था।
- वर्तमान संविधान 1935 के अधिनियम की भांति ही प्रशासनिक व्यवस्था के उल्लेख सहित एक विस्तृत वैधानिक प्रलेख है।
- नवीन संविधान और 1935 के शासन अधिनियम में केवल सैद्धान्तिक और सारपूर्ण समानताएँ ही नहीं वरन् भाषा और रचना सम्बन्धी समानताएँ भी हैं।
2. ब्रिटेन का संविधान:
ब्रिटेन के संविधान से संसदात्मक शासन, कानून निर्माण प्रक्रिया, विधायिका के अध्यक्ष का पद, इकहरी नागरिकता, इकहरी न्यायपालिका के ढाँचे का प्रावधान आदि भारतीय संविधान में लिए गए हैं।
3. अमेरिका का संविधान:
अमरीका के संविधान से संघीय व्यवस्था, संविधान की सर्वोच्चता, मौलिक अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था, न्यायिक पुनरावलोकन, निर्वाचित राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की व्यवस्था, संविधान के संशोधन में इकाइयों की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन आदि प्रावधान मुख्य हैं।
4. कनाडा का संविधान:
कनाडा के संविधान में केन्द्र को राज्यों से अधिक शक्तिशाली बनाया गया। अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र को सौंपी गयी।
5. आयरलैण्ड का संविधान:
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत आयरलैंड के संविधान से लिये गए हैं।
6. जर्मन संविधान:
आपातकालीन व्यवस्था जर्मनी के संविधान से लिया गया है।
प्रश्न 3.
आप किस प्रकार कह सकते हैं कि हमारा संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है।
उत्तर:
हमारे संविधान को एक जीवन्त दस्तावेज माना गया है। यह दस्तावेज एक जीवन्त प्राणी की तरह समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को पंजीकृत किया गया और 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया। 56 वर्षों के बाद भी यह संविधान कार्य कर रहा है परंतु समय-समय पर परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप उसमें अब तक 92 संशोधन किए जा चुके हैं। संविधान निर्माताओं को यह आभास था कि भविष्य में इस संविधान में परिवर्तन की आवश्यकता होती रहेगी, अतः उन्होंने इसके संशोधन की विधि को तीन श्रेणियों में विभाजित किया।
कुछ अनुच्छेदों में साधारण विधि प्रक्रिया की भाँति संशोधन किया जा सकता है। कुछ अनुच्छेदों में संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन हो सकता है तथा कुछ महत्त्वपूर्ण अनुच्छेदों में संसद के विशेष बहुमत के साथ आधे राज्यों से भी अनुमति लेनी पड़ती है। अतः समय के साथ-साथ इसमें संशोधन भी हो रहे हैं तथा इसका मूल ढाँचा आज तक अपरिवर्तनीय बना हुआ है। यह संविधान लचीले और कठोर का समन्वय है। हमारा संविधान गतिमान बना हुआ है। जीवन्त प्राणी की ही तरह यह अनुमान से सीखता है। समाज में इतने सारे परिवर्तन होने के बावजूद भी हमारा संविधान अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। यह प्रजातांत्रिक संविधान का असली मापदण्ड है।
प्रश्न 4.
आपके विचार से लोकतांत्रिक देशों में संविधान का महत्त्व अपेक्षाकृत क्यों अधिक होता है?
उत्तर:
हम निम्नलिखित कारणों की वजह से सोचते हैं कि संविधान भारत जैसे लोकतांत्रिक राज्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है –
1. एक लोकतांत्रिक देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देश के नागरिक सरकार के कार्यप्रणाली में भाग लेते हैं। सरकार ही वह संस्था है जिसमें सारे देश का शक्तियाँ निहित होती हैं इन शक्तियों का उल्लेख संविधान में दिया गया है।
2. हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। संविधान इन तीनों अंगों के कार्यक्षेत्र, कर्तव्यों और अधिकारों आदि का प्राप्य विवरण अपने में समाए होता है। लिखित रूप होने के कारण सरकार के तीनों अंग केवल अपने-अपने अधिकारों और कार्यक्षेत्रों तक सीमित रहते हैं। वे एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते।
3. संविधान लोकतांत्रिक सरकार में नागरिक को अधिकार और कर्तव्य देता है। सरकारें बदलती रहती हैं। कोई भी सरकार अपनी मनमानी करके नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं कर सकती। अगर गलती से वह करना भी चाहती है तो संविधान में न्यायपालिका की व्यवस्था और उस पर नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण का दायित्व दिया होता है।
4. संविधान एक जीवित पत्र होता है जिसमें समयानुसार, नागरिकों का इच्छानुसार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता अनुसार समय-समय पर संशोधन की गुजाइंश होती है उसके लिए निर्धारित प्रक्रिया होती है।
5. कई बार लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अपनाई जाती है। इसके अंतर्गत दो सरकारें-संघ सरकार और राज्य सरकार साथ-साथ कार्य करती है। विषय सूचियों के माध्यम से दोनों सरकारों के अधिकार और कार्यक्षेत्र दिए गए विषयों के माध्यम से निर्धारित होते हैं। कई बार ऐसा होता कि केन्द्र में किसी एक दल या कुछ दलों की संयुक्त सरकार होती है यद्यपि विभिन्न राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें होती हैं।
दोनों स्तरों की सरकारों में टकराव न हो या एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के लगाने के अवसर कम से कम या बिल्कुल भी उत्पन्न न हों ऐसी व्यवस्थाएँ केवल संविधान में ही संभव है। संक्षेप में, लोकतंत्रीय देश में अन्य देशों की अपेक्षा संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है।
प्रश्न 5.
“संविधान सभा के द्वारा अपना कार्य बड़े उत्साह से सम्पन्न किया गया” कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संविधान सभा की पहली बैंठक 9 दिसंबर, 1946 को दिल्ली में हुई। मुस्लिम लीग के सदस्यों ने इसमें भाग नहीं लिया। कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया जिनमें से प्रारूप समिति, केन्द्रीय संविधान समिति, मौलिक अधिकारों से संबंधित समिति इत्यादि प्रमुख थी। 13 दिसम्बर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्यों संबंधी प्रस्ताव रखा, जिसमें उन्होंने संविधान सभा की जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया।
नेहरू जी द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव के अनुसार सभा में भारत को एक स्वाधीन प्रभुता-संपन्न गणराज्य बनाने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की गई। इस गणतंत्र में ब्रिटिश भारत और भारतीय देशों राज्यों के अलावा उन सभी क्षेत्रों को मिलाना था जो स्वाधीन प्रभुता-संपन्न भारत में शामिल होने के इच्छा व्यक्त करें। संविधान सभा ने यह घोषणा भी की कि स्वाधीन प्रभुता-संपन्न भारत में सभी व्यक्तियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, पद और न्याय, अवसर की तथा विश्वास, मत, पूजा, व्यवस्था, संगठन और कार्य की स्वतंत्रता दी जायगी।
यही संविधान सभा स्वतंत्र भारत की संसद भी थी। 14 अगस्त, 1947 को उसे संबोधित करते हुए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ये स्मरणीय शब्द कहे थे-“बहुत वर्ष पहले हमने अपने भाग्य के विषय में निश्चय किया था और अब समय आ गया है कि पूर्णतया नहीं तो बहुत अंश में हम अपना वचन पूरा करें। आधी रात का घंटा बजने के साथ, जबकि पूरा विश्व सो रहा होगा, भारत जीवन और स्वाधीनता के लिए जागृत होगा।
इतिहास में बहुत कम ऐसे क्षण होते हैं जब पुराने से नए की ओर संक्रमण होता है, जब एक युग का अंत होता है और लंबे समय से किसी राष्ट्र की दबी हुई आत्मा मुखर हो उठती है-उचित यही होगा कि हम इस पवित्र क्षण में भारत और उसकी जनता की सेवा के लिए तथा मानवता, उससे भी व्यापकतर मानवता की सेवा के लक्ष्यों के प्रति समर्पित होने का संकल्प करें। संविधान सभा की ओर से उन्होंने भारत की जनता से अपील की कि “वह इस महान अभियान में हममें आस्था और विश्वास रखकर हमारा साथ दें-यह तुच्छ और विनाशकारी आलोचना का समय नहीं है, दुर्भावना पालने और दूसरों को दोष देने का समय नहीं है-हमें स्वतंत्र भारत का ऐसा श्रेष्ठ महल बनाना है, जहाँ उसके सारे बच्चे सुख से रह सकें।”
प्रश्न 6.
आपके विचार से लोकतांत्रिक देशों में संविधान का महत्त्व अपेक्षाकृत क्यों अधिक होता है?
उत्तर:
हम निम्नलिखित कारणों की वजह से सोचते हैं कि संविधान भारत जैसे लोकतांत्रिक राज्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है –
1. एक लोकतांत्रिक देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देश के नागरिक सरकार की कार्यप्रणाली में भाग लेते हैं। सरकार ही वह संस्था है जिसमें सारे देश की शक्तियाँ निहित होती है, इन शक्तियों का उल्लेख संविधान में दिया होता है।
2. हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग-विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। संविधान इन तीनों अंगों के कार्यक्षेत्रों और अधिकारों आदि का प्राप्य विवरण अपने में समाए होता है लिखित रूप में होने के कारण सरकार के तीनों अंग केवल अपने-अपने अधिकारों और कायक्षेत्रों तक सीमित रहते हैं। वे एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते।
3. संविधान लोकतांत्रिक सरकार में नागरिक को अधिकार और कर्त्तव्य देता है। सरकारें बदलती रहती हैं। कोई भी सरकार अपनी मनमानी करके नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं कर सकती। अगर गलती से वह करना भी चाहती है तो संविधान में न्यायपालिका की व्यवस्था और उस पर नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण का दायित्व दिया होता है।
4. संविधान एक जीवित पत्र होता है जिसमें समयानुसार नागरिकों की इच्छानुसार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता अनुसार समय-समय पर संशोधन की गुंजाइश होती है उसके लिए निर्धारित प्रक्रिया होती है।
5. कई बार लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अपनाई जाती है। इसके अन्तर्गत दो सरकारें-संघ सरकार और राज्य सरकार साथ-साथ कार्य करती है। विषय सूचियों के माध्यम से दोनों सरकारों के अधिकार और कार्यक्षेत्र दिए गए विषयों के माध्यम से निर्धारित होते हैं। कई बार ऐसा होता है कि केन्द्र में किसी एक दल या कुछ दलों की संयुक्त सरकार होती है यद्यपि विभिन्न राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें होती हैं। दोनों स्तरों की सरकारों में टकराव न हो या एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के लगने के अवसर कम से कम या बिल्कुल भी न उत्पन्न हों ऐसी व्यवस्थाएँ केवल संविधान में ही संभव है। संक्षेप में लोकतंत्रीय देश में अन्य देशों की अपेक्षा संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है।
प्रश्न 7.
संविधान सभा का गठन कैसे हुआ एवं इसके कार्य प्रणाली की समीक्षा करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान का निर्माण. एक संविधान सभा द्वारा हुआ। संविधान सभा के निर्माण का निर्णय कैबिनेट मिशन योजना में लिया गया। इस संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 5 चीफ कमिश्नर, क्षेत्रों के प्रतिनिधि और 93 देशी रियासत के प्रतिनिधि थे। योजना में कहा गया कि प्रांतों से भेजे जाने वाले प्रतिनिधि प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या पर एक हो। प्रत्येक प्रांत का स्थान तीन प्रमुख समुदायों सामान्य, सिख और मुसलमानों के बीच जनसंख्या के अनुपात में हो।
संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय एसेबम्ली द्वारा अनुपातिक प्रतिनिधित्व एवं एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा किया गया। देशी रियायतों के सदस्य का निर्वाचन उनके परामर्श से किया गया। 3 जून, 1997 में भारत विभाजन के बाद संविधान में सदस्यों की संख्या 296 रह गयी। संविधान सभा की कार्यवाही को संचालित करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया। इन समितियों के माध्यम से विभिन्न विषयों पर खुलकर विचार विमर्श हुए। यह समिति दो तरह के थे प्रथम, संविधान निर्माण प्रक्रिया में प्रश्नों को हल करने वाली समिति और दूसरा संविधान निर्माण की समिति। इन्हीं समितियों के प्रयासोंपरांत 2 वर्ष 11 महीना 18 दिन के बाद 26 नवंबर, 1949 को संविधान बनकर तैयार हुआ और 26 जनवरी, 1950 से लागू हुआ।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
भारत के मूल संविधान में कितने अनुच्छेद हैं?
(क) 400
(ख) 395
(ग) 390
(घ) 385
उत्तर:
(ख) 395
प्रश्न 2.
भारतीय संविधान –
(क) लचीला है
(ख) लचीला और कठोर का सामजस्य है
(ग) अचल है
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) लचीला और कठोर का सामजस्य है
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