BSEB Class 11 Political Science Judiciary Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Political Science Judiciary Book Answers |
Bihar Board Class 11th Political Science Judiciary Textbooks Solutions PDF
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Board | BSEB |
Materials | Textbook Solutions/Guide |
Format | DOC/PDF |
Class | 11th |
Subject | Political Science Judiciary |
Chapters | All |
Provider | Hsslive |
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BSEB Class 11th Political Science Judiciary Textbooks Solutions with Answer PDF Download
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प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें।
- सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
- न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
- उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के निम्नलिखित तरीके हैं –
- सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सलाह ली जाती है।
- न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है। न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश-प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता। उन्हें कार्यकाल की सुरक्षा प्राप्त है।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति में व्यवस्थापिका को सम्मिलित नहीं किया गया है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का दखल नहीं है इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलित राजनीति की कोई भूमिका न रहे।
- न्यायपालिका व्यवस्थापिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती अन्यथा न्यायालय की अवमानना का दोषी पाये जाने पर न्यायपालिका को उसे दंडित करने का अधिकार है।
प्रश्न के अंदर दिए गए बिन्दुओं में जो बेमेल है वह है:
एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका की किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं परंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि न्यायपालिका की किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है। वास्तव में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्व का अभाव नहीं। न्यायपालिका भी देश की लोकतांत्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ उसे निरंकुश बनाना नहीं, वरन उसे बिना किसी भय तथा दलगत राजनीति के दुष्प्रभावों से दूर रखने का प्रयास करना है। न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है जब वह उसके विरुद्ध महाभियोग पर विचार कर रही है हो। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से निर्णय करती है।
प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक शर्ते –
1. न्यायाधीशों की नियुक्ति:
न्यायाधीश ऐसे व्यक्तियों को नियुक्ति किया जाना चाहिए जिनमें कुछ कानूनी ज्ञान तथा संविधान के प्रति निष्ठा और ईमानदारी की भावना विद्यमान हो। उन व्यक्तियों के बारे में यह सिद्ध हो चुका हो कि वे निष्पक्षता से काम लेने वाले देश के योग्यतम व्यक्तियों में से हैं।
2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका:
विश्व में न्यायाधीशों की नियुक्ति के तीन तरीके प्रचलित हैं –
- जनता द्वारा चुनाव
- व्यवस्थिापिका द्वारा चुनाव
- कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति
कुछ देशों में न्यायाधीशों का चुनाव जनता द्वार किया जाता है परंतु इस प्रणाली से योग्य व्यक्ति न्यायाधीश नहीं बन पाते और न्यायाधीश राजनैतिक दलबंदी के शिकार हो जाते हैं। स्विट्जरलैंड तथा कुछ अन्य देशों में न्यायाधीशों का चुनाव व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है और वे व्यवस्थापिका के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं। अतः विश्व के अधिकतर देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा की जाती है। यह पद्धति भी पूर्णतया दोष रहित तो नहीं है लेकिन दूसरी पद्धतियों की तुलना में श्रेष्ठ है। इसके लिए प्रस्तावित किया जाता है कि कार्यपालिका से न्यायाधीश की नियुक्ति निर्धारित योग्यता के अनुसार करे।
3. न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति लम्बे समय के लिए की जाय। अल्प अवधि होने पर एक तो वे दोबारा पद प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे तथा दूसरे वे अपने भविष्य की चिन्ता में किसी प्रलोभन में पड़ सकते हैं। परिणामस्वरूप वे निष्पक्षता और स्वतंत्रतपूर्वक कार्य नहीं कर सकते। अतः यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल लम्बा होगा तो वे अधिक निष्पक्ष होकर स्वतंत्रतापूर्वक अपने कर्तव्यों को निभा सकेंगे।
4. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्कीकरण:
आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह भी आवश्यक समझा जाता है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् रखा जाय। इसके अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के क्षेत्र पृथक्-पृथक होने चाहिए और दोनों प्रकार के पद अलग-अलग व्यक्तियों के हाथों में होना चाहिए।
प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें –
- मामला किस बारे में है।
- इस मामले में लाभार्थी कौन है?
- इस मामले में फरियादी कौन है?
- सोचकर बताएँ कि कंपनी की तरफ से कौन-कौन से तर्क दिए जाएँगे?
- किसानों की तरफ से कौन-से तर्क दिए जाएंगे?
- सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों का 300 करोड़ रुपये देने को कहा।
मुम्बई:
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से मुम्बई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप-ऊर्जा संयत्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया है। दहानु मुंबई से 150 किमी दूर है। एक दशक पहले तक इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली-पालन तथा जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयंत्र चालू हुआ और इसी के साथ शुरू हुई इस इलाके की बर्बादी।
अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गई। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है। मछली पालन बंद हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी-तंत्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को प्रदूषण नियंत्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सके।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के आदेश के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियंत्रणं का संयंत्र स्थापित नहीं हुआ। सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायंस से 300 करोड़ रुपये की बैंक-गारंटी देने को कहा।
उत्तर:
- यह रिलायंस ताप-ऊर्जा संयंत्र द्वारा प्रदूषण के विषय का विवाद है।
- किसान इस मामले में लाभार्थी हैं।
- इस मामले में किसान तथा पर्यावरणविद प्रार्थी/फरियादी हैं।
- कंपनी द्वारा उस क्षेत्र के लोगों के लिए ताप-ऊर्जा संयंत्र के द्वारा लेने वाले लाभों का तर्क दिया जायगा। क्षेत्र में ऊर्जा की कमी नहीं रहेगी ऐसा आश्वासन भी दिया जाएगा।
- किसानों की तरफ से यह तर्क दिए जाएँगे कि ताप-ऊर्जा-संयंत्र के कारण न केवल उनकी चीकू की फसलें बरबाद हुई हैं वरन् उनका मछली-पालन का कारोबार भी ठप पड़ गया है। क्षेत्र के लोग बेरोजगार हो गए हैं।
प्रश्न 5.
नीचे की समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और चिह्नित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर पर सरकार सक्रिय दिखाई देती है।
- सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
- कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौन-सी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
- इस प्रकरण से संबद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से संबंधित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।
सीएनजी-मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ:
स्टाफ रिपोर्टर, द हिंदू, सितंबर 23, 2011 राजधानी के सभी गैर-सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों सरकारों में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरे ईंधन-प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।
राजधानी के निजी वाहन धारकों ने सीएन जी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जाएगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो-दो मानक को पूरा करते हैं उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालाँकि केन्द्र और दिल्ली सरकार अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे लेकिन इनमें समान बिंदुओं को उठाया जायगा। केन्द्र सरकार सीएन जी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी।
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केन्द्र पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्री राम नाईक के बीच हुई बैठक में ये फैसले लिए गए। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ आर ए मशेलकर की अगुआई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सी.एन.जी. में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योंकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सी.एन.जी. में बदल पाना असंभव है। डॉ. मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश के ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है कि यह समिति छः माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।
मुख्यमंत्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मसले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया-सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सी.एन.जी. की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लंबी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सी.एन.जी. ईंधन जुटाने तथा अदालत के निर्देशों को अमल में लाने के तरीके और साधनों पर एक साथ ध्यान दिया जायगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने ….. सी.एन.जी. के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इंकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सी.एन.जी. इस्तेमाल किया जाय, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला। श्री राम नाईक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकि पूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर करना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सी.एन.जी. की आपूर्ति पाईप लाइन के जरिए होती है और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जायगी।
उत्तर:
1. इस समाचार रिपोर्ट में दो सरकारों के संयुक्त रूप से एक समस्या को सुलझाने के प्रयास का वर्णन है।
- भारत सरकार
- दिल्ली सरकार
केन्द्र सरकार तथा दिल्ली सरकार सर्वोच्च न्यायालय को सी.एन.जी. विवाद पर संयुक्त रूप से प्रस्तुत करने को सहमत हुए।
2. सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका:
प्रदूषण से बचने के लिए यह तय किया गया कि राजधानी में सरकारी तथा निजी प्रकार की बसों में सी.एन.जी. का प्रयोग हो। उच्चतम न्यायालय ने सिटी बसों को सी.एन.जी. के प्रयोग से छूट देने को मना किया परंतु कहा कि उसने टैक्सी और आटोरिक्सा के लिए कभी सी.एन.जी. के लिए दबाव नहीं डाला।
3. इस रिपोर्ट में न्यायालय की भूमिका:
शहर में (राजधानी में) प्रदूषण हटाना और इस हेतु उच्चतम न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि केवल सी.एन.जी. वाली बसें ही महानगर में चलायी जाएँ। यह भी तय किया गया कि वाहनों के मालिकों को सी.एन.जी. के प्रयोग के लिए उत्साहित किया जाए। केन्द्र सरकार तथा दिल्ली सरकार दोनों के पृथक्-पृथक् शपथ पत्र दाखिल करने को कहा गया।
4. इस रिपोर्ट में नीतिगत मुद्दा प्रदूषण हटाना है। सभी व्यावसायिक वाहनों जो यूरो-2 मानक को पूरा करते हैं उन्हें शहर में चलाने की अनुमति दी जाए। सरकार यह भी चाहती थी कि समय सीमा बढ़ायी जाए क्योंकि 10000 बसों के बेड़े को सी.एन.जी. में परिवर्तित करना निश्चित समय में सम्भव नहीं है।
प्रश्न 6.
देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं? (एक काल्पनिक स्थिति का ब्योरा दें और छात्रों से उसे उदाहरण के रूप में लागू करने को कहें)।
उत्तर:
भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। वर्षों से एक परम्परा बनी हुई थी कि मुख्य न्यायाधीश वरिष्ठता क्रम से नियुक्ति किया जाए, परंतु 1973 में अजीत नाथ रे प्रकरण में तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों (जस्टिस शैलट, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर) की उपेक्षा करके चौथे नम्बर के न्यायाधीश श्री अजीत नाथ रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। फिर से 1975 में भी एच. आर, खन्ना की उपेक्षा करके एम. एच. बेग को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
दूसरे न्यायाधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करके राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। लेकिन अन्ततः यह सरकार का ही अधिकार है। उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीश 65 वर्ष तक की आयु तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। यद्यपि सरकार के दूसरे अंग कार्यपालिका एवं विधायिका न्यायपालिका के कार्यों में दखल नहीं देते परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि न्यायपालिका निरंकुश हो जाए।
न्यायपालिका भी संविधान के प्रति उत्तरदायी है। न्यायापालिका भी वास्तव में देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक ढाँचे का ही एक भाग है। यदि सरकार के अंग विधायिका या मंत्रिपरिषद् न्यायपालिका की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हैं तो उच्चतम न्यायालय उसे रोकने में सक्रिय होता है। इस प्रकार राष्ट्रपति की शक्तियाँ तथा राज्यपाल आदि को भी न्यायिक पुनर्व्याख्या के अन्तर्गत लाया गया है।
प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं?
उत्तर:
सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिलती। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस रीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिए हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश) में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है उसे अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
इस उदाहरण तथा भारत की न्याय-व्यवस्था में कोई समानता नहीं है। भारत में भ्यायिक निर्णय आधुनिक काल में कानून के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। प्रसिद्ध न्यायाधीशों के निर्णय दूसरे न्यायालयों में उदाहरण बन जाते हैं और पूर्व के निर्णय के आधार पर निर्णय दिए जाने लगते हैं और इन पूर्व के निर्णयों को उसी प्रकार की मान्यता होती है जैसे कि संसद द्वारा बनाये गए कानूनों की।
न्यायाधीश अपने विवेक से निर्णय देते हैं और उनके द्वारा की गयी व्याख्याएँ विवादों का निर्णय करती हैं। अतः वे कानून में विस्तार करते हैं, कानूनों में संशोधन करते हैं तथा उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के निर्णय प्रायः वकीलों द्वारा प्रभावी तरीके से उद्धत किए जाते हैं। उपरोक्त उदाहरण में इक्वाडोर के न्यायालय में इस प्रकार से कार्य नहीं किया जाता। वहाँ पर न्यायालयों के पूर्व निर्णयों को आधार बनाकर निर्णय नहीं दिए जाते। वहाँ न्यायाधीश एक दिन एक तरीके से और दूसरे दिन दूसरे तरीक से निर्णय देते हैं और वह बिना कारण बताए ऐसा करते रहते हैं।
प्रश्न 8.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाए जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन-मूल, अपीली और परामर्शकारी-से इनका मिलान कीजिए।
- सरकार जानना चाहती थी कि क्या वह पाकिस्तान-अधिग्रहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के संबंध में कानून पारित कर सकती है।
- कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
- बांध स्थल से हटाए जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।
उत्तर:
- प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का आशय उन विवादों से है जो उच्चतम न्यायालय में सीधे तौर पर लिए जाते हैं। ये विवाद किसी अन्य निचले न्यायालय में नहीं लिए जा सकते।
- अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय है कि वे विवाद जो किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में लाए जा सकते हैं।
- परामर्शदायी क्षेत्राधिकार वह क्षेत्राधिकार है जिसमें राष्ट्रपति किसी विवाद के बारे में उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगता है। उच्चतम न्यायालय चाहे तो परामर्श दे सकता है और चाहे तो मना भी कर सकता है। राष्ट्रपति भी उच्चतम न्यायालय के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
प्रश्न में दिए गए कथनों को विभिन्न क्षेत्राधिकारों से निम्न प्रकार से मिलान किया जा सकता है –
- सरकार यह जानना ……….. परामर्शदायी क्षेत्राधिकार
- तमिलनाडु सरकार ………. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
- न्यायालय लोगों से ……….. अपीलीय क्षेत्राधिकार
प्रश्न 9.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार छिनते हैं या जब वह किसी विवाद में फँसता है तो वह न्यायालय की शरण लेता है। परंतु 1979 में एक ऐसी न्यायिक प्रक्रिया भी चालू की गई जिससे पीड़ित व्यक्ति की ओर से वह स्वयं नहीं वरन् उसे गरीबों के हित में दूसरा व्यक्ति डालता है। इस वाद में किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं वरन् जनहित में सुनवाई की जाती है। गरीब आदमियों के हित में बहुत से स्वयंसेवी संगठन न्यायालय में याचिका दायर करते हैं।
गरीबों का जीवन सुधारने के लिए, गरीब व्यक्तियों के अधिकार की पूर्ति करने के लिए, वातावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए, बंधुआं मजदूरों की मुक्ति के लिए, लड़कियों से देहव्यापार कराने को रोकने के लिए, अवैध रूप में बिना लाइसेंस के ही गरीब रिक्सा चलाने वाले मजदूरों से रिक्सा चलवाने पर रोक लगाकर रिक्सा चालक को रिक्सा का कब्जा दिलवाने के लिए और इसी प्रकार की गरीब व्यक्तियों को उत्पीड़न की समस्याओं से छुटकारा दिलवाने के लिए स्वयंसेवी संगठन या दूसरे एन.जी.ओ. की तरफ से न्यायालय में जनहित याचिकाएँ भेजकर न्यायालय से हस्तक्षेप करने की माँग की जाती है। न्यायालय इन शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू करता है और न्यायिक सक्रियता के द्वारा पीड़ित व्यक्तियों को छुटकारा मिल जाता है।
कभी-कभी न्यायालय ने समाचार पत्रों में छपी खबरों के आधार पर भी जनहित में सुनवाई की। 1980 के बाद जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते। 1980 में तिहाड़ जेल के एक कैदी के द्वारा भेजे गए पत्र के द्वारा कैदियों की यातनाओं की सुनवाई की। परंतु अब पत्र भेजने के द्वारा याचिका स्वीकार करना बंद कर दिया गया है।
बिहार की जेलों में कैदियों को काफी लम्बी अवधि तक रखा गया और केस की सुनवाई नहीं की गई। एक वकील के द्वारा एक याचिका दायर की गई और सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकदमा चला। इस वाद को ‘हुसैनारा खतुन बनाम बिहार सरकार” के नाम से जाना जाता है। इन जनहित याचिकाओं के प्रचलन से यद्यपि न्यायालयों पर कार्यों का बोझ बढ़ा है परंतु गरीब आदमी को लाभ हुआ। इसने न्याय व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाया। इससे कार्यपालिका जवाबदेह बनने पर बाध्य हुई वायु और ध्वनि प्रदूषण दूर करना, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच, चुनाव सुधार आदि अनेक सुधार होने का लाभ गरीब आदमी को मिलता है। अनेक बंधुआ मजदूरों को शोषण से बचाया गया है।
प्रश्न 10.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
भारतीय न्यायपालिका को न्याय पुनः निरिक्षण की शक्ति प्राप्त है जिसके आधार पर न्यायपालिका विधानपालिका के द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका के द्वारा जारी आदेशों की संवैधानिक वैधता की जाँच कर सकता है, अगर ये संविधान के विपरीत पाये जाते हैं तो न्यायपालिका उनको अवैध घोषित कर सकती है। परंतु न्यायपालिका को यह शक्ति सीमित है अर्थात न्यायपालिका नीतिगत विषय पर टिप्पणी नहीं कर सकता व ना ही कानूनों या आदेशों के इरादों में जा सकती है। परंतु पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने अपनी इस सीमा को तोड़ा है कार्यपालिका के कार्यों में लगातार हस्तक्षेप व बाधा करती रही है जिसको राजनीतिक क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता कहा जाता है। जिसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका व न्यायपालिका में टकराव पैदा हो गया है।
Bihar Board Class 11 Political Science न्यायपालिका Additional Important Questions and Answers
अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन और किस की सलाह से करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है। इस कार्य में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श करता है।
प्रश्न 2.
भारत के उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
- शक्ति विभाजन से संबंधित केन्द्र तथा राज्य के बीच अथवा राज्यों के परस्पर झगड़े निपटाना।
- मौलिक अधिकारों की रक्षा करना।
प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सिद्ध कदाचार या असमर्थता के कारण पद से कैसे हटाए जा सकते हैं?
उत्तर:
यदि संसद के दोनों सदन अलग-अलग अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से इसको अयोग्य या आपत्तिजनक आचरण करने वाला घोषित कर दे तो राष्ट्रपति के आदेश से उस न्यायाधीश को उसके पद से हटाया जा सकता है।
प्रश्न 4.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य तथा अन्य न्यायाधीश को कुल कितना वेतन मिलता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को मासिक वेतन 33,000 रुपये तथा कई तरह के भत्ते भी मिलते हैं। अन्य न्यायाधीशों को 30,000 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता है। स्टाफ, कार तथा पेट्रोल की सुविधा भी मिलती है। किरायामुक्त आवास भी मिलता है।
प्रश्न 5.
न्यायपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
न्यायपालिका का अर्थ-न्यायपालिका सरकार का तीसरा अंग है। यह लोगों के आपसी झगड़ों का वर्तमान कानूनों के अनुसार निबटारा करती है। जो लोग कानून का उल्लंघन करते हैं कार्यपालिका उनको न्यायपालिका के सामने प्रस्तुत करती है और न्यायपालिका उनका निर्णय करती है तथा अपराधियों को कानून के अनुसार दंड देती है। गिलक्राइस्ट का कहना है कि “न्यायपालिका से अभिप्राय शासन के उन अधिकारियों से है जो वर्तमान कानूनों को व्यक्ति-विवादों में लागू करते हैं।”
प्रश्न 6.
आधुनिक युग में न्यायपालिका का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
न्यायपालिका का नागरिकों के लिए बड़ा महत्त्व है। यह वह संस्था है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करती है, उन्हें कार्यपालिका की मनमानी से छुटकारा दिलाती है, गरीब को अमीर के दुर्बल को शक्तिशाली के अत्याचारों से मुक्ति दिलाती है। यह कार्यपालिका और विधायिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाती है और राज्यों के हितों की केन्द्र के हस्तक्षेप से रक्षा करती है। जब भी किसी को गैर-कानूनी तरीके से तंग किया जाता है या उसके अधिकारों में हस्तक्षेप होता है तो वह न्यायपालिका की ही शरण लेता है। न्यायपालिका भी अपने उत्तरदायित्व को उसी समय निभा सकती है जबकि वह ईमानदार, निष्पक्ष और स्वतंत्र हो और किसी अन्य अंग के दबाव या प्रभाव में न हो।
प्रश्न 7.
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कोई तीन कार्य बताओ।
उत्तर:
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका में तीन कार्य –
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका एक स्वतंत्र अंग के रूप में कार्य करती है और इसके कई कार्य होते हैं। इनमें से तीन प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –
- न्यायपालिका उन सभी मुदकमों का निर्णय करती है जो किसी कानून का उल्लंघन करने के आधार पर कार्यपालिका द्वारा इसके सामने प्रस्तुत किए जाते हैं या किसी वादी ने निजी तौर पर दायर किए हों।
- न्यायपालिका संविधान तथा संविधान के कानूनों की व्याख्या करती है और जब भी इनके अर्थों के बारे में कोई मतभेद हो, वह उसका निबटारा करती है।
- न्यायपालिका नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा भी करती है।
प्रश्न 8.
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ बताओ।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ-न्यायिक पुनरावलोकन की अमेरिका तथा भारत दोनों देशों में व्यवस्था है। इसके कुछ लाभ हैं। इनमें से दो लाभ निम्नलिखित हैं –
- संघीय व्यवस्था में न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था का होना आवश्यक है क्योंकि इसके द्वारा ही संघीय व्यवस्था, संविधान तथा केन्द्र की इकाइयों के अधिकारों की रक्षा हो सकती है।
- एक लिखित संविधान की रक्षा जिसमें सरकार के विभिन्न अंगों में शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है, न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवथा ही कर सकती है। इससे सरकार का कोई अंग अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकता।
प्रश्न 9.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ गया है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलतापूर्वक एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतंत्र हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि न्यायधीश स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा निडर हो। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधायिका तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होना चाहिए और विधायिका तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।
प्रश्न 10.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के महत्त्व का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतंत्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं की रक्षा कर सकती है। लोकतंत्र की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र होना आवश्यक है। संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में विभाजन होता है। कई बार शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में झगड़ा हो जाता है। इन झगड़ों को निपटाने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।
प्रश्न 11.
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से स्वतंत्र क्यों रखा जाता है?
उत्तर:
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से स्वतंत्र इसलिए रखा गया है ताकि राज्य के नागरिक स्वतंत्रतापूर्वक अपने कार्य कर सकें और उनके व्यक्तित्व का विकास हो सके। आधुनिक युग में न्यायपालिका का महत्त्व व क्षेत्र बहुत व्यापक हो चुका है। न्यायपालिका अपने कर्तव्यों को तब तक पूरा नहीं कर सकती, जब तक योग्य तथा निष्पक्ष व्यक्ति न्यायाधीश न हों तथा उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त न हो। गार्नर ने कहा है “यदि न्यायधीशों में प्रतिभा, सत्यता और निर्णय देने की स्वतंत्रता न हो तो न्यायपालिका का सारा ढाँचा खोखला प्रतीत होगा और उस उद्देश्य की सिद्धि नहीं होगी जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।”
प्रश्न 12.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए कौन-कौन सी योग्यताएँ आवश्यक हैं?
उत्तर:
राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है, जिसमें निम्नलिखित योग्यताएँ हो –
- वह भारत का नागरिक हो।
- वह कम से कम 5 वर्ष तक एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश के पद पर रह चुका हो। अथवा, वह कम से कम 10 वर्षों तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रह चुका हो। अथवा, वह राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रसिद्ध कानून-विशेषज्ञ हो।
प्रश्न 13.
उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार क्या हैं?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार –
- केन्द्र-राज्य अथवा एक राज्य का किसी दूसरे से विवाद अथवा विभिन्न राज्यों में विवाद उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं।
- यदि कुछ राज्यों के बीच किसी संवैधानिक विषय पर कोई विवाद उत्पन्न हो जाए तो वह विवाद भी उच्चतम न्यायालय द्वारा ही निपटाया जाता है।
- मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित कोई विवाद सीधा उच्चतम न्यायालय के सामने ले जाया जा सकता है।
- यदि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव के बारे में कोई विवाद हो तो उसका निर्णय उच्चतम न्यायालय ही करता है।
प्रश्न 14.
उच्चतम न्यायालय का गठन कैसे होता है? अथवा, भारत में उच्चतम न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा कुछ न्यायाधीश होते हैं। आजकल उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 25 अन्य न्यायाधीश हैं। न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायाधीशों के ऐसे न्यायाधीशों की सलाह लेता है, जिन्हें वह उचित समझता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश की सलाह अवश्य लेता है।
प्रश्न 15.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन तथा अन्य सुविधाओं का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। वेतन के अतिरिक्त उन्हें कुछ भत्ते भी मिलते हैं। उन्हें रहने के लिए बिना किराए का निवास स्थान भी मिलता है। उसके वेतन, भत्ते तथा दूसरी सुविधाओं में उनके कार्यकाल में किसी प्रकार की कमी नहीं की जा सकती तथापि आर्थिक संकटकाल की उद्घोषणा के दौरान न्यायाधीशों के वेतन आदि घटाए जा सकते हैं। सेवानिवृत्ति होने पर उन्हें पेंशन मिलती है।
प्रश्न 16.
“उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक है।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संविधान भारत का सर्वोच्च प्रलेख है और किसी भी व्यक्ति, सरकारी कर्मचारी, अधिकारी अथवा सरकार का कोई अंग इसके विरुद्ध आचरण नहीं कर सकता। इसकी रक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय का कर्त्तव्य है इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को विधानमंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए आदेशों पर न्यायिक निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय इस बात की जाँच-पड़ताल तथा निर्णय कर सकता है कि कोई कानून या आदेश संविधान की धाराओं के अनुसार है या नहीं।
यदि सर्वोच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि किसी कानून से संविधान का उल्लंघन हुआ है तो वह उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस अधिकार द्वारा उच्चतम न्यायालय सरकार के अन्य दोनों अंगों पर नियंत्रण रखता है और उन्हें अपने अधिकारों का दुरुपयोग या सीमा का उल्लंघन नहीं करने देता। संघ और राज्यों को भी वह अपने सीमा क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ने देता।
प्रश्न 17.
उच्चतम न्यायालय को सबसे बड़ा न्यायालय क्यों माना जाता है?
उत्तर:
- यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है।
- इसका फैसला अंतिम होता है जो सबको मानना पड़ता है।
- यह संविधान के विरुद्ध पास किए गए कानूनों को रद्द कर सकता है।
- यह केन्द्र और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के आपसी झगड़ों का फैसला करता है। संविधान की व्याख्या करता है और मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।
- इसके फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती।
प्रश्न 18.
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति का संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार प्राप्त है। न्यायिक समीक्षा का अर्थ है कि संसद तथा विभिन्न राज्यों के विधानमंडल द्वारा पारित कानूनों और कार्यकारिणी द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों की न्यायालयों द्वारा समीक्षा करना। भारत में न्यायिक पर्यवेक्षण का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी इस शक्ति द्वारा यह देखता है कि विधानपालिका द्वारा पास किए गए कानून तथा कार्यकारिणी द्वारा जारी किए गए अध्यादेश संविधान की धारा के अनुकूल है या नहीं। यदि न्यायालय इन कानूनों को संविधान के प्रतिकूल पाता है तो उन्हें अवैध घोषित कर सकता है।
प्रश्न 19.
भारत के महान्यायवादी पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
महान्यायवादी:
भारत महान्यायवादी सरकार तथा राष्ट्रपति का कानूनी सलाहकार होता है। भारत का राष्ट्रपति किसी भी ऐसे व्यक्ति को महान्यायवादी के पद पर नियुक्त कर देता है जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर योग्यताएँ रखता हो। महान्यायवादी किसी भी कानूनी समस्या जिस पर उससे सलाह माँगी जाय, राष्ट्रपति को व भारत सरकार को अपना परार्मश देता है। महान्यायवादी को भारत की संसद के किसी भी सदन में बोलने और कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार है वह किसी संसदीय समिति का सदस्य भी बन सकता है, पर उसे उस समिति में मतदान का अधिकार नहीं है।
प्रश्न 20.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाए जाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को उसके दुर्व्यवहार अथवा असमर्थता के लिए पद से हटाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में संसद के दोनों सदन पृथक-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद से अलग होने का आदेश देता है।
प्रश्न 21.
अभिलेख न्यायालय (कोर्ट ऑफ रिकार्ड) के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय भी है। इसका अभिप्राय यह है कि इसके निर्णयों को सुरक्षित रखा जाता है और किसी प्रकार के अन्य मुकदमों में उनका हवाला दिया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किए गए निर्णय सभी न्यायालय मानने के लिए बाध्य हैं। यह न्यायालय अपनी कार्यवाही तथा निर्णयों का अभिलेख रखने के लिए उन्हें सुरक्षित रखता है।
प्रश्न 22.
जिला स्तर के अधीनस्थ न्यायालयों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालयों का संगठन देश भर में लगभग समान रूप से है। प्रत्येक जिले में तीन प्रकार के न्यायालय होते हैं –
- दिवानी
- फौजदारी
- भूराजस्व न्यायालय। ये न्यायालय राज्य के उच्च न्यायालय के नियंत्रण में काम करते हैं। जिला न्यायालय में उप-न्यायाधीशों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं। ये न्यायालय सम्पत्ति, विवाह, तलाक सम्बन्धी विवादों की सुनवाई भी करते हैं।
प्रश्न 23.
“लोक अदालत” पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत में गरीब, दलित, जरूरतमंद लोगों को तेजी से, आसानी से व सस्ता न्याय दिलाने के लिए हमारे देश में न्यायालयों की एक नई व्यवस्था शुरू की गई है जिसे लोक अदालत के नाम से जाना जाता है। लोक अदालतों की योजना के पीछे बुनियादी विचार यह है कि न्याय दिलाने में होने वाली देरी खत्म हो और जितनी जल्दी हो सके, वर्षों से अनिर्णित मामलों को निपटाया जाय। लोक अदालतें ऐसे मामलों को तय करती हैं जो अभी अदालत तक नहीं पहुँचे हों या अदालतों में अनिर्णीत पड़े हों। जनवरी 1989 में दिल्ली में लगी लोक अदालत ने सिर्फ एक ही दिन में 531 मामलों पर निर्णय दे दिए।
प्रश्न 24.
जनहित सम्बन्धी न्याय व्यवस्था पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत के उच्चतम न्यायालय ने जनहितार्थ न्याय के संबंध में नया कदम उठाया है। इसके द्वारा एक साधारण आवेदन पत्र या पोस्टकार्ड पर लिखकर कोई भी व्यक्ति कहीं से अन्याय की शिकायत के बारे में आवेदन करे तो शिकायत पंजीकृत की जाती है और आवश्यक आदेश जारी किए जा सकते हैं। इस योजना के अंतर्गत कमजोर वर्गों के लोगों, बंधुआ मजदूरों तथा बेगार लेने पर रोक लगाई जा सकती है। जनहित के मुकदमों से अभिप्राय यह है कि गरीब, अनपढ़ और अनजान लोगों की एवज में दूसरे व्यक्ति या संगठन भी न्याय माँगने का अधिकार रखते हैं।
प्रश्न 25.
भारत का सबसे बड़ा न्यायालय कौन-सा है? इसके न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश होते हैं।
प्रश्न 26.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश किस आयु पर अवकाश ग्रहण करते हैं?
उत्तर:
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रह सकते हैं। इससे पूर्व स्वयं त्यागपत्र दे सकते हैं या संसद द्वारा सिद्ध कदाचार अथवा असमर्थता के कारण हटाए जा सकते हैं।
प्रश्न 27.
संविधान के दो प्रमुख उपबंध बताइए, जो उच्चतम न्यायालय को स्वतंत्र तथा निष्पक्ष बनाते हैं।
उत्तर:
- राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र करने का परामर्श देते हैं।
- सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति निर्धारित न्यायिक अथवा कानूनी योग्यताओं के आधार पर की जाती है।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
निर्वाचित न्यायपालिका और मनोनीत न्यायपालिका में भेद लिखिए।
उत्तर:
न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। यह लोगों के आपसी झगड़ों का वर्तमान कानूनों के अनुसार निर्णय करती है और जो लोग कानून का उल्लंघन करते हैं, न्यायपालिका उन अपराधियों को दण्ड देती है। विश्व के विभिन्न देशों में न्यायपालिका के रूप में न्यायधीशों की नियुक्ति मुख्यत: दो तरीकों से होती है-पहला, निर्वाचन के द्वारा तथा दूसरा सरकार द्वारा।
अमेरिका के कुछ राज्यों तथा कुछ अन्य देशों में न्यायपालिका के सदस्यों अर्थात् न्यायाधीशों का चुनाव जनता के द्वारा किया जाता है। स्विट्जरलैंड जैसे कुछ देशों में न्यायाधीशों का चुनाव विधानमंडल द्वारा होता है। दूसरी ओर विश्व के अधिकतर देशों में न्यायपालिका के सदस्यों को मुख्य कार्यपालिका अर्थात् राष्ट्रपति तथा राजा द्वारा मनोनीत किया जाता है। वे न्यायधीशों की निर्धारित योग्यताओं के आधार पर काम करते हैं। भारत तथा इंग्लैंड में यही प्रथा प्रचलित है।
प्रश्न 2.
भारत में शीघ्र और सस्ते न्याय के लिए दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:
शीघ्र और सस्ता न्याय एक अच्छी और सुदृढ़ न्याय व्यवस्था की कुंजियाँ हैं। परंतु हमारे देश में न्यायपालिका में ये दोनों विशेषताएँ नहीं पायी जाती। हमारे देश में न्याय पाने में बहुत देर लगती है तथा यह महँगा भी है। भारत के नागरिकों को शीघ्र और सस्ता न्याय दिलवाने के लिए हमारी केन्द्रीय सरकार ने लोक अदालतों का कार्यक्रम शुरू किया है।
भारत में शीघ्र और सस्ता न्याय दिलवाने के लिए दो मुख्य सुझाव इस प्रकार हैं –
- भारत के प्रत्येक राज्य में राज्य स्तर व जिला स्तर पर लोक अदालतों की व्यवस्था की जानी चाहिए और इन्हें लोकप्रिय बनाने जाने के लिए प्रचार किया जाना चाहिए।
- न्याय को शीघ्र पाने के लिए पिछले बचे हुए मुकदमों का तेजी से निपटारा किया जाना चाहिए और आवश्यतानुसार नए न्यायालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए। न्याय को सस्ता करने के लिए न्यायालयों के खर्चों तथा वकीलों की फीसों को सरकार द्वारा कम किया जाना चाहिए।
प्रश्न 3.
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार कौन-कौन से हैं? अथवा, उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को कब परामर्श देता है क्या राष्ट्रपति उसकी सलाह मानने को बाध्य है?
उत्तर:
भारत में उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार निम्नलिखित हैं –
1. प्रारंभिक क्षेत्राधिकार:
सर्वोच्च न्यायालय को कुछ मुकदमों में प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं अर्थात् कुछ मुकदमे ऐसे हैं जो सर्वोच्च न्यायालय में सीधे ले जा सकते हैं।
2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
कुछ मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय के पास उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील के रूप में आते हैं। ये अपीलें संवैधानिक, दीवानी तथा फौजदारी तीनों प्रकार के मुकदमों में सुनी जा सकती हैं।
3. सलाहकारी क्षेत्राधिकार:
राष्ट्रपति किसी सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर सर्वोच्च न्यायालय से कानूनी सलाह ले सकता है, परंतु राष्ट्रपति के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श के अनुसार कार्य करे।
प्रश्न 4.
भारत में दीवानी न्यायालयों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
दीवानी न्यायालय रुपये-पैसे और जमीन-जायदाद आदि के झगड़ों के मुकदमों का फैसला करते हैं। भारत में पंचायतें सबसे छोटी दीवानी अदालतें हैं और ये 200 रुपये तक के झगड़ों का फैसले कर सकती हैं। पंचायतों के बाद कोलकाता, मुम्बई व चेन्नई आदि बड़े-बड़े नगरों में लघुवाद न्यायालय 500 रुपये से 2000 रुपये तक के झगड़ों का फैसला करते हैं। इसके बाद सब-जज के न्यायालय होते हैं जिन्हें बड़ी-बड़ी रकमों के मुकदमे सुनने का फैसला करने का अधिकार है। दीवानी मुकदमे सुनने के लिए जिले में सबसे बड़ा न्यायालय जिला जज का होता है। राज्यपाल जिला जज एवं न्यायाधीशों व मजिस्ट्रेटों की नियुक्ति संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है। जिला न्यायालय में अधीन न्यायालयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं।
प्रश्न 5.
अनुच्छेद 32 के अधीन विभिन्न ‘लेखों (रिट)’ को बताएँ।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए निम्नलिखित लेख (रिट) जारी कर सकता है –
(क) बंदी प्रत्यक्षीकरण
(ख) परमादेश
(ग) प्रतिषेध
(घ) अधिकारपृच्छा
(ङ) उत्पेषण
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के गठन के बारे में लिखिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का गठन
1. रचना –
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है, शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके द्वारा किया गया निर्णय सर्वमान्य होता है। संविधान द्वारा इस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 8 निश्चित की गई थी जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश थे, परंतु आवश्यकता के अनुसार इनकी संख्या बढ़ा दी गई। आजकल सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश काम कर रहे हैं।
2. योग्यताएँ –
- वह भारत का नागरिक हो।
- कम से कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।
- कम से कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों का एडवोकेट रह चुका हो।
- राष्ट्रपति के विचार से वह कानून-शास्त्र का प्रख्यात विद्वान हो।
3. कार्यकाल:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वे त्यागपत्र दे सकते हैं।
4. पद से हटना:
किसी भी न्यायाधीश को उसके दुर्व्यवहार अथवा असमर्थता के लिए पद से हटाया जा सकता है। इस संबंध में संसद के दोनों सदन पृथक्-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 के बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद छोड़ने का आदेश देता है।
5. वेतन तथा भत्ते:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये और प्रत्येक अन्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उन्हें मुफ्त सरकारी आवास, स्टाफ, कार तथा अन्य सुविधाएँ मिलती हैं। पद मुक्त हो जाने पर उन्हें पेंशन भी मिलता है।
प्रश्न 2.
मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत के नागरिकों को भारतीय संविधान द्वारा छः मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। इन मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भारत की न्यायपालिका को दिया गया है। इस कार्य में मुख्य भूमिका भारत के सर्वोच्च न्यायालय व राज्यों के उच्च न्यायालयों द्वारा निभायी जाती है।
यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचलती है या अन्य नागरिक दूसरे नागरिकों को उसके मौलिक अधिकारों का प्रयोग स्वतंत्रापूर्वक नहीं करने देते तो उन नागरिकों के पास यह मौलिक अधिकार है कि वे अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय या अपने राज्य के उच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय “संवैधानिक उपचारों के अधिकार” के अन्तर्गत संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हैं। मौलिक अधिकारों की रक्षा करते समय ये न्यायालय निम्नलिखित लेख या आदेश जारी कर सकते हैं –
1. बंदी प्रत्यक्षीकरण का आदेश-इसका अर्थ है:
शरीर को हमारे समक्ष प्रस्तुत करो। यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि किसी व्यक्ति को अनुचित ढंग से बंदी बनाया गया है तो उसकी रिहाई के आदेश दे सकता है।
2. परमादेश:
इसका अर्थ है हम आदेश देते हैं। जब कोई व्यक्ति, संस्था, निगम या अधीनस्थ न्यायालय अपने कर्तव्य का पालन न कर रहा हो, तब यह आदेश पत्र जारी किया जा सकता है। इसके द्वारा उसे कर्त्तव्य पालन का
आदेश दिया जाता है।
3. प्रतिषेध:
जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जा रहा हो या कानून की प्रक्रिया के विरुद्ध जा रहा हो तो उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय उस अधीनस्थ न्यायालय को ऐसा करने से प्रतिषेध कर सकता है।
4. अधिकार पृच्छा:
इसका अर्थ है किस अधिकार से ? यदि कोई व्यक्ति किसी पद या अधिकार को कानून के विरुद्ध प्राप्त करके बैठा हो तो उसे ऐसा करने से रोका जा सकता है।
5. उत्प्रेषण लेख:
इसका अर्थ है और अधिक सूचित कीजिए। इसके द्वारा न्यायालय किसी अधीन न्यायालय या किसी मुकदमे को अपने पास या किसी ऊँचे न्यायालय में भेजने के लिए कह सकता है।
प्रश्न 3.
उच्चतम न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकारों एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के संरचना का वर्णन कीजिए। इसके अपील संबंधी क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना, शक्तियों एवं भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का संगठन –
1. संरचना:
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है, शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके द्वारा किया गया निर्णय सर्वमान्य होता है। संविधान द्वारा इस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 8 निश्चित की गई थी जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश थे, परंतु आवश्यकता के अनुसार इसकी संख्या बढ़ा दी गई। आजकल सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश काम कर रहे हैं।
2. योग्यताएँ:
- वह भारत का नागरिक हो।
- कम से कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।
- कम से कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों का एडवोकेट रह चुका हो।
3. राष्ट्रपति के विचार से वह कानून:
शास्त्र का प्रख्यात विद्वान हो।
4. कार्यकाल:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वे त्यागपत्र दे सकते हैं।
5. वेतन तथा भत्ते:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये और प्रत्येक अन्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उन्हें वाहन भत्ता और रहने के लिए मुफ्त सरकारी मकान भी प्राप्त होता है। केवल वित्तीय संकट के काल को छोड़कर और किसी भी स्थिति में किसी न्यायाधीश के वेतन व भत्ते आदि में कमी या कटौती नहीं की जा सकती।
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार एवं शक्तियाँ:
सर्वोच्च न्यायालय को बहुत ही विस्तृत क्षेत्राधिकार प्राप्त है। इस विषय में कृष्ण स्वामी अय्यन ने कहा है – “भारत के सर्वोच्च न्यायालय की दुनिया के किसी भी सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त हैं।”
(I) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार –
- यदि दो या दो से अधिक सरकारों के मध्य आपस में कोई विवाद या झगड़ा उत्पन्न हो जाए तो वह मुकदमा सीधा सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जाता है।
- यदि किसी विषय पर केन्द्रीय सरकार तथा एक अथवा एक से अधिक राज्यों के बीच कोई मतभेद उत्पन्न हो जाये तो वह मुकदमा सीधा सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जा सकता है।
- मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मुकदमों को भी सीधे सुन सकता है जिनमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सरकार या किसी व्यक्ति द्वारा छीना गया हो।
(II) अपील संबंधी क्षेत्राधिकार –
सर्वोच्च न्यायालय एक अतिम अपीलीय न्यायालय है। यह उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुन सकता है।
1. संवैधानिक विषय:
यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि उसके विचारानुसार किसी मुकदमे में संविधान की किसी धारा की.ठीक व्याख्या के संबंध में विवाद है तो ऐसे मुकदमों की अपील सर्वोच्च न्यायालय सुन सकता है।
2. दीवानी मुकदमे:
दीवानी मुकदमे सम्पत्ति से संबंधित होते हैं। उच्च न्यायालयों द्वारा दीवानी मुकदमों में दिए गए निर्णयों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। लेकिन अपील केवल उन्हीं निर्णयों के विरुद्ध की जा सकती है जिनमें सार्वजनिक महत्त्व का कोई कानून निहित हो और जिसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जानी आवश्यक है। आरम्भ में केवल उन्हीं मुकदमों की अपील करने की व्यवस्था की गई थी, जिसमें 20,000 या उससे अधिक रुपयों की सम्पत्ति का दावा निहित हो। 1972 ई. के 30 वें संशोधन में यह सीमा समाप्त कर दी गई।
3. फौजदारी मुकदमे:
सर्वोच्च न्यायालय विभिन्न प्रकार के फौजदारी मुकदमों की अपीलें सुन सकता है। जैसे –
(अ) उच्च न्यायालय ने निम्न न्यायालय से मुकदमा अपने पास मंगाकर अपराधी को मृत्यु-दण्ड दिया हो।
(ब) जब उच्च न्यायालय ने किसी ऐसे अपराधी को मृत्यु-दण्ड दिया हो जिसे निम्न न्यायालय ने बरी कर दिया हो।
(स) जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि किसी मामले के संबंध में कोई अपील सर्वोच्च न्यायालय के सुने जाने के योग्य है।
4. परामर्श देने का अधिकार:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श संबंधी अधिकार दिया गया है। यदि राष्ट्रपति किसी विषय पर सर्वोच्च न्यायालय की बात जानना चाहता है। तो यह न्यायालय को अपना परामर्श दे सकता है।
5. संविधान के व्याख्याता के रूप में संविधान की किसी भी धारा के संबंध में व्याख्या करने का अंतिम अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है कि संविधान की किस धारा का सही अर्थ क्या है?
6. अभिलेख न्यायालय:
सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा अभिलेख न्यायालय बनाया गया है। अभिलेख न्यायालय का अर्थ ऐसे न्यायालय से है जिसके निर्णय दलील के तौर पर सभी न्यायालयों को मानने पड़ते हैं। इस न्यायालय को अपने अपमान के लिए किसी को भी दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।
7. न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अधिकार-इसका अर्थ यह है कि सर्वोच्च न्यायालय व्यवस्थापिका के उन कानूनों को और कार्यपालिका के उन आदेशों को अवैध घोषित कर सकता है जो कि संविधान के विरुद्ध हो । यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय के पास बहुत ही महत्त्वपूर्ण शक्ति है। इस शक्ति के द्वारा ही वह संविधान की रक्षा करता है तथा मौलिक अधिकारों का संरक्षक है।
प्रश्न 4.
न्यायिक समीक्षा की क्या-क्या सीमाएँ हैं?
उत्तर:
भारत में न्यायिक समीक्षा का क्षेत्र संयुक्त राज्य अमरीका की अपेक्षा कम विस्तृत है। उच्चतम न्यायालय की शक्तियों की निम्नलिखित सीमाएँ हैं –
1. कानून के विवेक व उसकी नीति को चुनौती नहीं दी जा सकती:
न्यायालय को यह अधिकार नहीं है कि विधायिका की ‘बुद्धि’ या ‘विवेक’ की समीक्षा करे। उसका कार्य तो केवल यह देखना है कि क्या विधानमंडल अथवा कार्यपालिका को अमुक कानून बनाने का अधिकार है? कानून अच्छा है या बुरा यह निर्णय करने की शक्ति उसे प्रदान नहीं की गयी है। जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में “न्यायालय को विधायिका का तीसरा सदन नहीं बनाया जा सकता।”
2. संविधान की नौवीं अनुसूची:
प्रथम संशोधन द्वारा संविधान में एक अनुसूची (9वीं अनुसूची) जोड़ दी गई और यह व्यवस्था की गयी कि जिन कानूनों को इस अनुसूची में डाल दिया जायगा उनकी वैधता को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। अनेक भूमि सुधार कानूनों तथा राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी कानूनों को न्यायालय की परिधि से बाहर रखने के लिए इस अनुसूची में डाल दिया जाता है।
3. अन्तर्राष्ट्रीय नदियों के जल का बँटवारा:
अन्तर्राष्ट्रीय नदियों के जल के बँटवारे के विवाद का निर्णय उच्चतम न्यायालय न करे, संसद यह व्यवस्था कर सकती है।
प्रश्न 5.
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पर्यवेक्षण की शक्ति का विवेचन कीजिए। अथवा, भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायिक समीक्षा का अधिकार क्या है? न्यायिक समीक्षा के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक समीक्षा से अभिप्राय-संविधान की व्याख्या करने की शक्ति को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के नाम से पुकारा जाता है। इसी को ‘न्यायिक पुनर्निरीक्षण’ अथवा ‘पुनरावलोकन’ भी कहते हैं। पुनर्निरीक्षण का अर्थ है-‘फिर से देखना’ अर्थात् “विधायिका द्वारा पारित कानून और कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए आदेश का जाँच करना और यह देखना कि वे संविधान के अनुकूल हैं अथवा नहीं। “यदि न्यायालय यह समझे कि अमुक कानून (चाहे वह ‘संसद द्वारा निर्मित हो या राज्य विधानमण्डल द्वारा) अथवा आदेश संविधान की धाराओं के विरुद्ध है तो उसे अवैध असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
इसी प्रकार केन्द्र अथवा राज्य सरकारों के किसी कृत्य को संवैधानिक अथवा गैर-संवैधानिक घोषित करने की शक्ति को ही न्यायिक समीक्षा के नाम से पुकारा जाता है। क्योंकि उच्चतम न्यायालय एक सर्वोच्च अदालत है इसलिए किसी भी मामले में उसका निर्णय अंतिम निर्णय माना जाएगा। इस अधिकार के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय निम्नलिखित शक्तियों का उपयोग करता है –
1. यदि केन्द्र और राज्यों के बीच कोई संवैधानिक विवाद हो तो उच्चतम न्यायालय उसका निर्णय कर सकता है।
2. यदि संसद या राज्यों के विधान मंडल कोई ऐसा कानून बनाये अथवा कार्यपालिका कोई ऐसा आदेश जारी करे जो संविधान की धाराओं के अनुकूल न हो तो उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि उसे अवैध यानि ‘शून्य या निष्क्रिय’ घोषित कर दे। दूसरे शब्दों में, “संसद व राज्यों के विधानमण्डलों को अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर रहते हुए सब कार्य करने चाहिए।”
3. उच्चतम न्यायालय मूलभूत अधिकारों का भी रक्षक है। अधिकारों की रक्षा के लिए उसे कई प्रकार के आदेश व लेख जारी करने का अधिकार है, जैसे बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख तथा परमादेश आदि।
4. संविधान में यदि कोई अस्पष्टता है अथवा किसी शब्द या अनुच्छेद के विषय में कोई संशय या मतभेद है तो उच्चतम न्यायालय को अधिकार है कि वह संविधान के अर्थों का स्पष्टीकरण करे।
न्यायिक समीक्षा का महत्त्व:
1. लिखित संविधान के लिए न्यायिक समीक्षा अनिवार्य है-लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। इसलिए संविधान की व्याख्या का प्रश्न जब-तब जरूर उठेगा।
2. संविधान में केन्द्र और राज्यों को सीमित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं:
संघीय शासन में राजशक्ति को केन्द्र और इकाइयों के बीच बाँट दिया जाता है। अपने-अपने क्षेत्र में ये सरकारें एक-दूसरे के नियंत्रण से प्रायः मुक्त होती हैं। यदि केन्द्र अथवा राज्य सरकारें अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य-संचालन मुश्किल हो जाएगा। केन्द्र और राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों का ठीक से निबटारा एक उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है।
3. संविधान की व्याख्या का कार्य न्यायालय ही अच्छी तरह कर सकता है:
जस्टिस के.के. मैथ्यू के अनुसार “संसद की सदस्य संख्या बहुत बड़ी होती है।” सदस्य जब तब बदलते रहते हैं और उनमें दलबंदी की भावना होती है। इसके अतिरिक्त उनके ऊपर का ज्यादा असर होता है। इन कारणों से संविधान की व्याख्या के लिए जितनी निष्पक्षता की जरूरत होती है उतनी निष्पक्षता उनमें नहीं होती।” दूसरी ओर, न्यायालय की रचना इस प्रकार की होती है कि उसके ऊपर क्षणिक आवेश या राजनीतिक प्रभावों का असर नहीं पड़ता। संविधान की व्याख्या करते समय वह निष्पक्षतापूर्वक सभी मुकदमों पर विचार कर सकता है।
प्रश्न 6.
भारत के उच्चतम न्यायालय को स्वतंत्र व निष्पक्ष रखने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए हैं? अथवा, “भारत के उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता” पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई है जिससे भारत का उच्चतम न्यायालय अपने कार्यों में निष्पक्ष रह सके और स्वतंत्रता से कार्य कर सके। सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए जो व्यवस्थाएँ की गई हैं, उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं –
1. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्तियाँ:
भारत में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग बहुत अच्छा है। इसकी नियुक्ति संविधान में निश्चित की गई योग्यताओं के आधार पर राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है, लेकिन राष्ट्रपति के पास इनको इनके पद से हटाने की शक्ति नहीं है। इस प्रकार न्यायाधीश अपने पद से हटाए जाने के भय से दूर रहकर स्वतंत्रापूर्वक अपना कार्य कर सकते हैं।
2. अपदस्थ करने की कठिन विधि:
चरित्रहीनता अथवा कार्य में अयोग्यता के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पदों से अपदस्थ किया जा सकता है, लेकिन यह शक्ति केवल संसद के पास है। किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने के लिए संसद के दोनों सदनों (लोकसभा एवं राज्यसभा) के 2/3 सदस्य उसके विरुद्ध प्रस्ताव पास करके उसको हटाने की सिफारिश राष्ट्रपति से कर सकते हैं। अतः उन्हें हटाने की विधि इतनी कठिन है कि कोई राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या राजनीतिक दल उन पर दबाव डालकर उनके स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने में रुकावट नहीं डाल सकते।
3. न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते:
न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते आदि देश की संचित निधि में से दिए जाते हैं। लोकसभा में इस प्रकार के व्यय पर वाद-विवाद तो हो सकता है परंतु मत नहीं लिए जा सकते। उनके वेतन तथा भत्तों में भी कमी नहीं की जा सकती। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश मंत्रिमंडल के प्रभाव क्षेत्र से बाहर रहकर निष्पक्ष रूप से निर्णय कर सकते हैं।
4. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों एवं कार्यों पर वाद:
विवाद नहीं हो सकता-सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय अंतिम होते हैं। उसके निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती। यदि कोई ऐसा करता है तो सर्वोच्च न्यायालय उसे दण्ड देने की शक्ति रखता है। इसके अतिरिक्त संसद न्यायाधीशों के ऐसे कार्यों पर वाद-विवाद नहीं कर सकती जो उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए किए हैं।
5. न्यायिक पर्यवेक्षण की शक्ति:
सर्वोच्च न्यायालय को संसद द्वारा बनाए हुए कानूनों का निरीक्षण करने का पूरा अधिकार है। इस शक्ति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय संसद द्वारा पास किसी कानून को अवैध घोषित कर सकता है, यदि वह संविधान की किसी धारा के प्रतिकूल हो। इस अधिकार से उसका गौरव बहुत बढ़ गया है और उसे अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
6. प्रशासकीय अधिकार:
सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्य-विधि के सम्बन्ध में नियम बनाने का पूर्ण अधिकार है। इसके अतिरिक्त न्याय-विभाग के कर्मचारियों की नियुक्तियाँ आदि करने व अन्य प्रशासकीय व्यवस्थाएँ करने में वह पूर्ण स्वतंत्र है।
प्रश्न 7.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिक में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
न्यायिक सक्रियता के कारण कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच तनाव बढ़ सकता है। वास्तव में न्यायिक सक्रियता राजनीतिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालती है। यह कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने को बाध्य करती है। न्यायिक सक्रियता के द्वारा चुनाव प्रणाली को और आसान बनाया गया है। न्यायालय उम्मीदवारों की आय, सम्पत्ति, शिक्षा और उनके आचरण सम्बन्धी शपथ पत्र भरवाने को कहता है। इस कारण उम्मीदवार न्यायपालिका से संतुष्ट नहीं रहते। परिणामस्वरूप कार्यपालिका और न्यायपालिका में टकराव होता है।
जनहित याचिका और न्यायिक सक्रियता का यह नकारात्मक पहलू भी है। इससे न्यायालयों में जहाँ कार्य का बोझ बढ़ा है वहीं कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के कार्यों के बीच का अंतर धुंधला हो या है। जो कार्य कार्यपालिका को करने चाहिए थे उन्हें भी न्यायपालिका को करना पड़ रहा है। राजधानी दिल्ली में सी.एन.जी. बसों का चलन कार्यपालिका को करना चाहिए था परंतु यह कार्य कराने को लेकर न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा। न्यायालय उन समस्याओं में उलझ गया जिसे कार्यपालिका को करना चाहिए।
उदाहरणार्थ वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करना या चुनाव सुधार करना वास्तव में न्यायपालिका के नहीं कार्यपालिका के कर्त्तव्य हैं। ये सभी कार्य विधायिका की देखरेख में प्रशासन को करना चाहिए। अत: कुछ लोगों का विचार है कि न्यायिक सक्रियता से सरकार के तीनों अंगों के बीच पारस्परिक संतुलन रखना कठिन हो गया है जबकि लोकतंत्रीय शासन का आधार सरकार के अंगों में परस्पर सहयोग और संतुलन होता है। प्रत्येक अंग दूसरे अंग का सम्मान करे। न्यायिक सक्रियता से मूलभूत लोकतांत्रिक सिद्धांत को भी धक्का लग सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि न्यायिक सक्रियता से कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच तनाव बढ़ सकता है।
प्रश्न 8.
न्यायिक समीक्षा से क्या अभिप्राय है? इसके महत्त्व का संक्षिप्त विवेचन कीजिए। किस आधार पर इसकी आलोचना की जा सकती है?
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि संसद तथा विभिन्न राज्यों के विधानमंडलों द्वारा पारित कानूनों व कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों की न्यायालय द्वारा समीक्षा करना। भारत में न्यायिक पर्यवेक्षण का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी इस शक्ति द्वारा यह देखता है कि विधानपालिका द्वारा पास किए गए कानून तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए अध्यादेश संविधान की धाराओं के अनुकूल हैं या नहीं। यदि न्यायालय इन कानूनों को संविधान के प्रतिकूल पाता है तो वह इन्हें अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का इस विषय में निर्णय अंतिम तथा सर्वमान्य होता है। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ‘प्रिवी पर्स’ तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण को न्यायिक समीक्षा के आधार पर अवैध घोषित कर दिया था।
संविधान के 42 वें संविधान के एक नए अनुच्छेद (144-ए) को जोड़कर यह आवश्यक बना दिया गया था कि कानूनों की संवैधानिक वैधता का निर्णय करने वाली सर्वोच्च न्यायालय की बैच में कम-से-कम 7 न्यायाधीश हों और वह 2/3 बहुमत से निर्णय करें कि किसी कानून को अवैध घोषित किया जा सकेगा अन्यथा नहीं। परंतु 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम ने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया और अब संवैधानिक वैधता के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता नहीं है।
न्यायिक पुनर्निरीक्षण का महत्व –
1. लिखित संविधान के लिए न्यायिक समीक्षा अनिवार्य है:
लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। इसलिए संविधान की व्याख्या का प्रश्न जब-तब जरूर उठेगा।
2. संविधान में केन्द्र और राज्यों को सीमित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं:
संघीय शासन में राजशक्ति को केन्द्र और इकाइयों के बीच बाँट दिया जाता है। अपने-अपने क्षेत्र में ये सरकारें एक-दूसरे के नियंत्रण से प्रायः मुक्त होती हैं। यदि केन्द्र अथवा राज्य सरकारें अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य-संचालन मुश्किल हो जाएगा। केन्द्र और राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों का ठीक से निबटारा एक उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है।
3. संविधान की व्याख्या का कार्य न्यायालय ही अच्छी तरह कर सकता है:
जस्टिस के.के. मैथ्यू के अनुसार “संसद की सदस्य संख्या बहुत बड़ी होती है।” सदस्य जब तब बदलते रहते हैं और उनमें दलबंदी की भावना होती है। इसके अतिरिक्त उनके ऊपर का ज्यादा असर होता है। इन कारणों से संविधान की व्याख्या के लिए जितनी निष्पक्षता की जरूरत होती है उतनी निष्पक्षता उनमें नहीं होती। दूसरी ओर, न्यायालय की रचना इस प्रकार की होती है कि उसके ऊपर क्षणिक आवेशों या राजनीतिक प्रभावों का असर नहीं पड़ता। संविधान की व्याख्या करते समय वह निष्पक्षतापूर्वक सभी मुकदमों पर विचार कर सकता है।
न्यायिक पुनर्निरीक्षण की आलोचना-न्यायिक पुनर्निरीक्षण के सिद्धांत की अब कटु आलोचना की जाती है। आलोचकों का आरोप है कि यह न्यायपालिका के स्थान को ऊँचा उठाकर, उसे महाविधायिका बना देता है। आश्चर्य की बात है कभी-कभी संयुक्त राज्य अमरीका का सर्वोच्च न्यायालय पाँच-चार के सामान्य बहुमत से पारित कर चुके होते हैं। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय के पुनर्निरीक्षण के अधिकार के इस्तेमाल से संयुक्त राज्य अमरीका में प्रगतिशील सामाजिक विधि-निर्माण का कार्य बाधित हुआ है।
प्रश्न 9.
उच्च न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकार तथा अधिकारों का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत में किसी राज्य के उच्च न्यायालय के संगठन तथा शक्तियों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार राज्य में एक उच्च न्यायालय की स्थापना की जानी चाहिए। किसी-किसी स्थान पर दो राज्यों का भी एक उच्च न्यायालय है। जैसे कि आजकल पंजाब, हरियाणा तथा केन्द्र-शासित प्रदेश चण्डीगढ़ का एक ही उच्च न्यायालय चण्डीगढ़ में स्थित है।
उच्च न्यायालय का संगठन –
1. रचना तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति:
राज्य के उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा कुछ अन्य न्यायाधीश होते हैं जिनकी संख्या आवश्यकतानुसार घटती-बढ़ती रहती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति वह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं उस राज्य के राज्यपाल की सलाह लेता है।
2. योग्यताएँ:
- वह भारत का नागरिक हो।
- वह कम से कम 10 वर्ष तक वकालत कर चुका हो।
- वह किसी उच्च न्यायालय में 10 वर्ष तक वकालत कर चुका हो।
3. कार्यकाल:
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष तक अपने पद पर कार्य कर सकते हैं। ये स्वयं इस अवधि से पूर्व भी त्यागपत्र दे सकते हैं तथा जब यह प्रमाणित हो जाए कि कोई न्यायाधीश अपने पद पर कार्य ठीक नहीं कर रहा तो संसद बहुमत द्वारा प्रस्तावित करके उसे हटा भी सकती है।
4. वेतन तथा भत्ते:
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है तथा अन्य भत्ते भी मिलते हैं:
उच्च न्यायालय की शक्तियाँ –
1. प्रारंभिक क्षेत्राधिकार-जो विवाद सीधे ही उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हों, उन्हें प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के नाम से जाना जाता है। उच्च न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार में आने वाले प्रमुख विषय हैं:
- नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित विवाद अथवा मुकदमे सीधे उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हैं क्योंकि उनकी सुनवाई का अधिकार अन्य किसी छोटे न्यायालय को प्राप्त नहीं है।
- मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु उच्च न्यायालय के द्वारा विभिन्न प्रकार के लेख जारी किए जा सकते हैं।
- संविधान की व्याख्या से संबंधित झगड़े सीधे उच्च न्यायालय में ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
- 1977 ई. से चुनाव विवादों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई भी उच्च न्यायालयों द्वारा ही की जा रही है।
- नौकाधिकरण, वसीयत, विवाह, संबंधी तथा न्यायालय के मानहानि संबंधी मुकदमे भी सीधे उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
- कोलकाता, चेन्नई और मुम्बई के उच्च न्यायालयों को संबंधित क्षेत्रों के दीवानी मामलों में प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं किन्तु वही मुकदमे लाए सकते हैं जिनकी कीमत दो हजार या उससे अधिक हो।
2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
उच्च न्यायालय दीवानी तथा फौजदारी मुकदमों की अपील सुनते हैं।
- दीवानी मुकदमों के मामलों में जिला न्यायाधीश के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
- उच्च न्यायालय में फौजदारी के मुकदमे में सेशन जज के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकी है।
- उपरोक्त मुकदमों के अलावा उच्च न्यायालय को आयकर, बिकीकर, पटेन्ट और डिजाइन, उत्तराधिकार, दिवालियापन और संरक्षक से संबंधित मुकदमों की अपील सुनने का अधिकार प्रदान किया गया है।
3. लेख जारी करने का अधिकार:
मूल संविधान के अनुच्छेद 226 के द्वारा उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों को लागू करने तथा अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लेख, आदेश तथा निर्देश जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
जहाँ पर किसी कानूनी प्रावधान का उल्लंघन हुआ हो और इस उल्लंघन से वादी को सारभूत आघात पहुँचा है। जहाँ पर ऐसी अवैधानिकता हो कि उससे न्याय को सारभूत असफलता मिली हो। प्रत्येक मामले में वादी के द्वारा न्यायालय को यह संतोष दिलाना होगा कि उसे अन्य कोई उपचार प्राप्त नहीं है।
4. न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति:
42 वें संवैधानिक संशोधन द्वारा उच्च न्यायालयों में न्यायिक पुनर्निरिक्षण की शक्ति को भी सीमित कर दिया गया है। अब उच्च न्यायालय को किसी केन्द्रीय कानून की वैधता पर विचार करने का अधिकार नहीं होगा, लेकिन अनुच्छेद 131ए’ प्रावधानों को दृष्टि में रखते हुए उच्च न्यायालय राज्य के कानून की संवैधानिक वैधता का निर: – कर सकेगा। एक राज्य का कानून उच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित प्रकार से ही अवैध घोधित किया जा सकेगा यदि बैंच में 5. अधिक न्यायाधीश हैं तो संबंधित बैंच के द्वारा कम से कम दो तिहाई बहु. से कानून को असंवैधानिक घोषित किया जाय। यदि 5 से कम न्यायाधीश हैं तो सभी न्याया। द्वारा उसे असंवैधानिक घोषित किया जाना चाहिए।
5. उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है:
सर्वोच्च न्यायालय की भाँति न्यायालय भी एक अभिलेख न्यायालय है अर्थात् इसके निर्णयों को प्रमाण के रूप में अन्य न्यायालयों में पेश किया जा सकता है तथा उन्हें किसी न्यायालय में पेश किए जाने पर वैधानिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। उच्च न्यायालय के द्वारा अपनी अवमानना है किसी भी व्यक्ति को दण्डित किया जा सकता है।
6. उच्च न्यायाल की प्रशासनिक शक्तियाँ:
उच्च न्यायालय को निम्नलिखित प्रशासनिक शक्तियाँ प्राप्त हैं –
- अनुच्छेद 227 के अनुसार उच्च न्यायालय अपने अधीन न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर निरीक्षण का अधिकार रखता है। अपने इन अधिकारों के अन्तर्गत वह अपने अधीन न्यायालयों में से किसी भी मुकदमे से संबंधित कागजात मँगाकर देख सकता है।
- उच्च न्यायालय किंसी विवाद को एक अधीन न्यायालय से दूसरे अधीन न्यायालय में भेज सकता है।
- अधीन न्यायालयों की कार्यपद्धति, रिकार्ड, और रजिस्टर तथा हिसाब इत्यादि रखने के संबंध में भी एक उच्च न्यायालय अपने अधीन न्यायालयों के लिए नियम बना सकता है।
- यह अधीन न्यायालय के शेरिफ, क्लर्क, अन्य कर्मचारियों तथा वकील आदि के वेतन, सेवा शर्ते और फीस निश्चित कर सकता है।
- यह जिला न्यायालय तथा छोटे-छोटे न्यायालयों के अधिकारियों की नियुक्ति, अवनति, उन्नति और अवकाश इत्यादि के संबंध में नियम बना सकता है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कितने वर्ष तक अपने पद पर बने रहते हैं?
(क) 62 वर्ष तक
(ख) 65 वर्ष तक
(ग) 60 वर्ष तक
(घ) आजीवन
उत्तर:
(ख) 65 वर्ष तक
प्रश्न 2.
न्यायपालिका का कार्य है –
(क) कानूनों का निर्माण
(ख) कानूनों की व्याख्या
(ग) कानूनों का क्रियान्वयन
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) कानूनों का क्रियान्वयन
प्रश्न 3.
पटना उच्च न्यायालय की स्थापना कब हुई?
(क) 1950 में
(ख) 1935 में
(ग) 1916 में
(घ) 1917 में
उत्तर:
(ग) 1916 में
प्रश्न 4.
संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष थे –
(क) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
(ख) डॉ. भीमराव अम्बेदकर
(ग) डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा
(घ) पं. जवाहर लाल नेहरू
उत्तर:
(ग) डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा
प्रश्न 5.
संविधान का संरक्षक किसे बनाया गया है?
(क) सर्वोच्च न्यायालय को
(ख) लोक सभा को
(ग) राज्य सभा को
(घ) उपराष्ट्रपति को
उत्तर:
(क) सर्वोच्च न्यायालय को
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