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Saturday, June 18, 2022

BSEB Class 12 History Kings Farmers and Towns Early States and Economies Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 12th History Kings Farmers and Towns Early States and Economies Book Answers

BSEB Class 12 History Kings Farmers and Towns Early States and Economies Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 12th History Kings Farmers and Towns Early States and Economies Book Answers
BSEB Class 12 History Kings Farmers and Towns Early States and Economies Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 12th History Kings Farmers and Towns Early States and Economies Book Answers


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Bihar Board Class 12th History Kings Farmers and Towns Early States and Economies Textbooks Solutions PDF

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Bihar Board Class 12th History Kings Farmers and Towns Early States and Economies Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
Format DOC/PDF
Class 12th
Subject History Kings Farmers and Towns Early States and Economies
Chapters All
Provider Hsslive


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Bihar Board Class 12 History राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Textbook Questions and Answers

उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं?
उत्तर:
आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाण तथा हड़प्पा के नगरों से भिन्नता: आरम्भिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाण स्वरूप अभिलेख, ग्रंथ, सिक्के तथा चित्र मिलते हैं। ये प्रमाण विभिन्न ऐतिहासिक पक्षों के बारे में पूर्ण जानकारी देने में असमर्थ हैं। 1830 सा०यु० में भारतीय अभिलेखों के अध्ययन की कुछ नई महत्त्वपूर्ण विधियाँ अस्तित्त्व में आईं।

ईस्ट इण्डिया कंपनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप.ने प्राचीन शिलालेखों तथा सिक्कों में प्रयोग की गई ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों को पहली बार पढ़ा। इन अभिलेखों में पियदस्सी अर्थात् अशोक के विषय में वर्णन किया गया था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक भारत के महान् शासकों में से एक था।

यूरोपीय तथा भारतीय इतिहासकार अब विभिन्न भाषाओं में लिखे गए अभिलेखों तथा ग्रंथों की सहायता से उन महत्त्वपूर्ण वंशों के तिथिक्रम में इतिहास का वर्णन करने लगे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में शासन किया।

इस प्रकार विद्वानों को प्राचीन भारतीय राजनीतिक इतिहास की खोज करने की नई दिशा मिली। इसी के परिणामस्वरूप 20वीं शताब्दी के आरम्भ तक प्राचीन भारत के राजनीतिक इतिहास की रूपरेखा सामने आई। इसके बाद विद्वानों ने राजनीतिक परिवर्तनों और आर्थिक तथा सामाजिक विकासों के बीच संबंध का पता लगाने की दिशा में कार्य किया। ज्ञात हुआ कि ऐसे संबंध परोक्षतः बने थे।

ये हड़प्पा नगरों के प्रमाणों से आरंभिक ऐतिहासिक नगरों के प्रमाण भिन्न थे। ऐसा इसलिए कि इन पर अंकित लिपि को पढ़ लिया गया है, इसलिए कुछ बातें स्पष्ट हो गयी हैं। हड़प्पा नगरों के प्रमाणों की लिपि पढ़ी नहीं जा सकी है। इसलिए स्पष्ट नहीं है। हड़प्पा से साक्ष्य भी कम ही प्राप्त हुए हैं।

प्रश्न 2.
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणे का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षण:
1. बौद्ध धर्म और जैन धर्म के ग्रंथों में महाजनपदों या 16 राज्यों के नाम मिलते हैं। इन ग्रंथों में महाजनपदों के नाम आपस में नहीं मिलते फिर भी अवन्ति, वत्स, कोशल, मगध, कुरु तथा पंचाल जैसे महाजनपदों के नामों का कई बार उल्लेख हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये महाजनपद अन्य जनपदों से अधिक शक्तिशाली थे। यह सभी जनपद गंगा-यमुना की घाटियों में स्थित थे।

2. इन महाजनपदों के इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती, तथापि इनसे छठी शताब्दी सा०यु०पू० में भारत की राजनीतिक स्थिति के बारे में कुछ अनुमान लगा सकते हैं। उस समय राजनीतिक एकता का अभाव था। इन 16 राज्यों के शासक आपस में लड़ते रहते थे। इन महाजनपदों की राजनीतिक उपलब्धियों के बारे में बहुत कम परंतु उनके शासन प्रबंध के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

3. अधिकांश महाजनपदों के मुखिया राजा कहे गए हैं। इन जनपदों में से कई जनपदों को गण तो कई को संघ कहा जाता था। वस्तुत: इन राज्यों में सत्ता अल्प प्रभावशाली तथा शक्तिशाली लोगों के हाथों में केन्द्रित थी। इसको समूह शासन नाम दिया गया है। महावीर तथा बुद्ध दोनों ऐसे गणराज्यों के राजकुमार या युवराज थे। वज्जि संघ-जैसे कुछ राज्यों में, राजा ही संयुक्त रूप में भूमि आदि संसाधनों पर नियंत्रण रखते थे।

4. प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी और उसके आस-पास दुर्ग बने होते थे। नगरों के विकास, सैन्य प्रबंध तथा उच्च अधिकारियों के वेतन भुगतान हेतु संसाधनों की आवश्यकता होती थी।

5. लगभग छठी शताब्दी सा०यु०पू० के पश्चात् ब्राह्मणों ने संस्कृत भाषा के धर्मशास्त्रों की रचना का कार्य आरम्भ कर दिया था। इन धर्मशास्त्रों में शासकों तथा अन्य सामाजिक वर्गों के लिए नियम लिखे होते थे।

6. ये धर्मशास्त्र कृषकों, व्यापारियों तथा कारीगरों से कर तथा उपहार एकत्रित करने का अधिकार महाजनपद के शासक को देते थे। धन संग्रह करने के लिए पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करने की मनाही नहीं थी। धीरे-धीरे कुछ शक्तिशाली राज्यों ने स्थायी सेनाएँ तथा अधिकारियों की भर्ती कर ली। अन्य शासक अपनी आवश्यकतानुसार किसानों में से ही सैनिकों की भर्ती कर लेते थे।

प्रश्न 3.
सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं?
उत्तर:
इतिहासकारों द्वारा सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण:
इतिहासकार सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करने के लिए विभिन्न प्रकार के ऐतिहासिक स्रोतों-साहित्य और पुरावस्तुओं का सहारा लेते हैं। पुरातत्त्व की खोज से पूर्व साहित्यिक ग्रन्थों के आधार पर इतिहास लिखा गया था। उदाहरण के लिए-आर्यों के जीवन का इतिहास वैदिक ग्रंथों के आधार पर पुनर्निर्मित किया गया है।

बौद्धकाल और जैनकाल का अनेक विवरण इस काल के ग्रंथों में वर्णित बातों के आधार पर दिया गया है। मौर्यकालीन जनजीवन की बहुत कुछ जानकारी बौद्ध और जैन ग्रंथों से होती है। भारत में समय-समय पर विदेशी यात्रियों का आगमन होता रहा है। उन्होंने अपने यात्रा विवरण में भारत के कई क्षेत्रों का वर्णन किया है।

उदाहरण के लिए-यूनानी यात्री मेगस्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में 302 सा०यु०पू० से 298 सा०यु०पू० तक रहा। उसने अपनी पुस्तक इंडिका में भारत के आम लोगों के जीवन का रोचक वर्णन किया है। कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र मौर्यकालीन जनजीवन का इतिहास प्रस्तुत करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इतिहासकार साहित्य के आधार पर सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करते हैं।

पुरातात्विक साधन यथा-अभिलेख, सिक्के, मूर्तियाँ, स्मारक, भवनावशेष और मनके भी लोगों के जीवन का वर्णन करने में इतिहासकारों की मदद करते हैं। उदाहरण के लिए-कुषाण काल में सोने के सिक्के अधिक मिलने से ऐसा प्रतीत होता है कि सामान्य लोगों की आर्थिक दशा अच्छी थी। हड़प्पा के स्थलों से बैलगाड़ी के खिलौने मिलना इतिहासकारों के इस उल्लेख का आधार बनता है कि लोग परिवहन के साधन के रूप में बैलगाड़ी का प्रयोग करते थे।

प्रश्न 4.
पाण्ड्य सरदार (स्रोत 3) को दी जानेवाली वस्तुओं की तुलना दंगुन गाँव (स्रोत 8) की वस्तुओं से कीजिए। आपको क्या समानताएँ और असमानताएँ दिखाई देती हैं?
उत्तर:
समानताएँ:
दोनों जगह दी गई सामग्रियों में फूल शामिल हैं। दोनों ही जगह दान में फूल दिए गए हैं।

असमानताएँ:
पाण्ड्य सरदारों को दी जाने वाली वस्तुएँ दंगुन गाँव की वस्तुओं से अधिक हैं। इसमें दैनिक जीवन के उपयोग की अधिक वस्तुएँ शामिल हैं। दंगुन गाँव में वस्तुओं की संख्या कम है। यहाँ प्रभावती गुप्त ने सम्पूर्ण गाँव की सम्पत्ति और करारोपण की व्यवस्था को भी दान में दे दिया है।

प्रश्न 5.
अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।
उत्तर:
अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याएँ –

  1. कई अभिलेखों के अक्षरों को हल्के ढंग से उत्कीर्ण किया गया है। इसीलिए समय के साथ वे अक्षर घिस भी गये हैं। उन्हें पढ़ने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
  2. अनेक अभिलेखों के अक्षर लुप्त हो गये हैं। ऐसे अनेक प्रसंगों से माध्यम से जोड़कर पढ़ा जाता है।
  3. अभिलेखों में वर्णित बातों का अर्थ निकालना एक दुष्कर कार्य है, क्योंकि कुछ अर्थ किसी विशेष स्थान या समय से संबंधित होते हैं।
  4. अभिलेख हजारों की संख्या में प्राप्त हुए हैं परंतु उनमें से कुछ के अर्थ ही निकाले जा सके हैं और अधिकतर अभिलेख सुरक्षित भी नहीं हैं।
  5. प्रायः अभिलेखों में उन्हें तैयार करने वाले लोगों का ही उल्लेख होता है। इसलिए अन्य विवरण के लिए प्रत्यक्ष उपायों का सहारा लेना पड़ता है।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए। (लगभग 500 शब्दों में)

प्रश्न 6.
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इनमें से कौन-कौन से तत्त्वों के प्रमाण मिलते हैं?
उत्तर:
मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षण एवं अशोक के अभिलेखों के तत्त्व:
1. केन्द्रीय प्रशासन:
केन्द्रीय प्रशासन के मुख्य अंग राजा, मंत्रिपरिषद् तथा उच्च सरकारी अधिकारी आदि थे। राजा सर्वेसर्वा होता था। सारा नागरिक एवं सैनिक प्रशासन उसी की इच्छानुसार चलता था। वह एक शानदार महल में बड़े ठाट-बाट से रहता था परंतु प्रजा की भलाई को भी कभी नहीं भूलता था। राजा को परामर्श देने के लिए एक मंत्री-परिषद् होती थी।

प्रत्येक मंत्री के पास कोई-न-कोई विभाग होता था। राजा तथा मंत्रियों की सहायता के लिए अध्यक्ष, अमात्य, राजुक और प्रादेशिक जैसे अनेक अधिकारी होते थे। नियुक्ति के बाद भी धम्म-महामात्त नाम के अधिकारी उनके कार्यों पर नजर रखते थे। ये सब अधिकारी बड़े चरित्रवान और ईमानदार होते थे।

2. प्रान्तीय प्रशासन:
इतने बड़े राज्य के कार्य को भली प्रकार चलाने के लिए देश को निम्नलिखित चार प्रान्तों में विभक्त किया गया था -(क) मध्य प्रान्त: इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस प्रान्त का कार्य राजा स्वयं चलाता था। (ख) उत्तर-पश्चिमी प्रान्त: इसकी राजधानी तक्षशिला थी। (ग) पश्चिमी प्रान्त: इसकी राजधानी उज्जैन थी। (घ) दक्षिणी प्रान्त: इसकी राजधानी स्वर्णगिरि थी।

ये प्रान्त गवर्नरों के अधीन होते थे जो प्रायः राजवंश से सम्बन्ध रखते थे। इन प्रांतीय गवर्नरों तथा अधिकारियों पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी। इस कार्य के लिए विशेष गुप्तचर छोड़ रखे थे जो राज्य में होने वाली प्रत्येक घटना की सूचना देते रहते थे। प्रान्त आगे जिलों में विभक्त थे जिनके अधिकारी को ‘स्थानिक’ कहते थे। इसके पश्चात् आजकल की तहसीलों की भांति मए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू चार गाँव से लेकर दस गाँवों के ऊपर ‘गोप’ नामक अधिकारी नियुक्त किए थे। प्रत्येक गाँव का अधिकारी ‘ग्रामिक’ कहलाता था।

3. नगर प्रबंध:
मेगस्थनीज के वृत्तान्त से पता चलता है कि पाटलिपुत्र जैस बड़े नगरों के लिए विशेष नागरिक-प्रबंध की व्यवस्था की गई थी। इस नगर के लिए तीस सदस्यों की एक समिति थी, जो छ: बोड़ों में विभक्त की गई थी। प्रत्येक प्रबंध-बोर्ड में पाँच सदस्य होते थे। ये बोर्ड निम्न ढंग से अपना कार्य करते थे – (क) पहले बोर्ड का कार्य कला-कौशल की देखभाल करना, कारीगरों के वेतन नियत करना तथा दु:ख में उनकी सहायता करना आदि था।

(ख) दूसरे बोर्ड का कार्य विदेशियों की देखभाल करना, उनके लिए सुख सामग्री उपलब्ध कराना तथा उनकी निगरानी रखना आदि था। (ग) तीसरे बोर्ड का कार्य जन्म-मरण का हिसाब रखना था ताकि कर आदि लगाने तथा अन्य प्रबंध करने में सुविधा रहे। (घ) चौथे बोर्ड का कार्य व्यापार का प्रबंध करना, तौल में बाटों तथा माल के पैमाने की जांच-पड़ताल करना और कानून के विरुद्ध चलने वालों को दण्ड देना आदि था। (ड़) छठे बोर्ड का कार्य वस्तुओं की बिक्री पर लगे हुए विक्रय-कर को एकत्र करने का था।

4. आय एवं व्यय:
सरकार की आय का सबसे बड़ा साधन भूमि-कर था। जो प्रायः भूमि की उर्वरता के हिसाब से 1/4 से 1/6 भाग तक लिया जाता था। आय के अन्य साधन-खानों से कर, वनों से आय, सीमा से बाहर जाने वाली वस्तुओं पर कर, जलयानों पर कर और जुर्माना इत्यादि थे। इस प्रकार जो धन इकट्ठा होता था उसे राजा और दरबार, सेना के अधिकारियों के वेतन, अस्पतालों व सड़कों के बनाने, दान देने, सिंचाई के साधनों को सुधारने आदि पर व्यय किया जाता था। इस प्रकार आय और व्यय का ढंग बड़ा सुव्यवस्थित था।

5. न्याय प्रबंध:
मौर्य राजा न्याय की ओर विशेष ध्यान देते थे और स्वयं भी बड़ी लगन से न्याय करते थे। गाँव में पंचायतें न्याय का कार्य करती थीं और नगर में नगर-कचहरियाँ थीं। इनमें नागरिकों तथा अधिकारियों दोनों के मामलों की सुनवाई और न्याय होता था। इन स्थानीय न्यायालयों (Local Courts) की अपील प्रान्तीय न्यायालयों में की जाती थी।

इन प्रान्तीय न्यायालयों के ऊपर एक केन्द्रीय न्यायालय था जो पाटलिपुत्र में स्थित था। प्रान्तों की अपील राजा स्वयं सुना करता था। दण्ड बड़े कठोर थे। जुर्माना करना तथा कोड़े लगाने से लेकर हाथ-पांव आदि काट देना और जघन्य अपराध के लिए प्राण दण्ड देना प्रचलित था। अशोक के समय में दण्ड-व्यवस्था कुछ हल्की कर दी गई थी। न्याय प्रबंध इतना अच्छा था कि चोरी और अन्य अपराध बहुत कम हुआ करते। इस विषय में मेगस्थनीज भी लिखता है कि पारलिपुत्रं, जिसकी जनसंख्या कोई 6,00,000 थी, वहाँ 8 पौंड (लगभग 120 रुपये) से अधिक किसी भी दिन चोरी नहीं होती थी।

6. प्रजा हितकारी कार्य:
मौर्य सम्राटों ने प्रजा के हित को ध्यान में रखकर ही सभी कार्य संपन्न किए। देश को छोटे-छोटे भागों में बांटना, एक सुव्यवस्थित न्याय-प्रणाली चलाना, अधिकारियों को कटोर दण्ड देना, घूसखोर अधिकारियों पर जासूस छोड़ना और लोगों के नैतिक स्तर को ऊँचा करने के लिए धम्म-महामात्त नाम के अधिकारियों की नियुक्ति करना आदि इस बात को स्पष्ट करते हैं कि मौर्य शासकों ने जनहित को सर्वोपरि महत्व दिया। केवल यही नहीं, देश में सिंचाई के लिए तालाब और नहरें बनाई गईं, व्यापार की उन्नति के लिए सड़कें बनाई गई तथा उनके दोनों और छायादार वृक्ष लगाए गए ताकि प्रजा सुख से रह सके।

7. सैनिक प्रबंध:
चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक विशाल सेना थी। इसमें कोई 6,00,000 पैदल; 30,000 घुड़सवार; 9,000 हाथी और 8,000 रथ थे। प्रत्येक हाथी पर प्रायः चार व्यक्ति और रथ पर तीन व्यक्ति हुआ करते थे। इस प्रकार उसकी सेना 7,00,000 के लगभग थी। इस समस्त सेना को नगद वेतन दिया जाता था। केवल उन्हीं व्यक्तियों को सिपाही चुना जाता था जो बड़े वीर व धैर्यवान होते थे। सेना का नेतृत्व राजा स्वयं करता था। इतनी बड़ी सेना के प्रबंध के लिए तीस सदस्यों का एक पृथक् सेना-विभाग था। इस विभाग की छ: समितियाँ थीं जिनके अधिकार में –

  1. सामुद्रिक बेड़े
  2. यातायात
  3. पैदल सेना
  4. घुड़सवार सेना
  5. रथ तथा
  6. हाथियों आदि का प्रबंध होता था।
  7. सारी मौर्य सेना अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी।

प्रश्न 7.
यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री डी.सी. सरकार का वक्तव्य है: भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिंब अभिलेखों में नहीं है: चर्चा कीजिए।
उत्तर:
अभिलेख इतिहास के लिखित साधन हैं और इतिहास की रचना में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। अशोक ने अभिलेखों का पर्याप्त विस्तार किया। यह अशोक के जीवन, उसके अशोक के महान् कार्यों और धर्म तथा उपाधियों के बारे में बताते हैं। यह सब स्रोत “देवनाप्रिय” तथा “पियदस्सी” के नाम से अंकित हैं।

इन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसका शासन-प्रबंध सहानुभूतिपूर्ण था। अपने चौथे अभिलेख में उसने कहा है कि “जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने बच्चों के लिए एक सुयोग्य परिचारिका का प्रबंध करता है, उसी प्रकार मैं चाहता हूँ कि मेरे अधिकारी भी प्रजा के साथ सद्व्यवहार करें और सुयोग्य हों।” इन्हीं अभिलेखों से अशोक के राज्य विस्तार का पता चलता है। धार और अजमेर में तो चट्टानों पर संस्कृत नाटक तक खुदे मिले हैं। इलाहाबाद का अभिलेख हरिषेण ने लिखा था।

इसमें 33 पंक्तियाँ हैं। यह अभिलेख हमें समुद्रगुप्त की नियुक्ति, उसकी विजयों तथा उसके महान कार्यों के बारे में बताता है। महरौली के लौह स्तंभ में न केवल हमें चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के महान कार्यों का वर्णन मिलता है बल्कि यह भी ज्ञात होता है कि उस समय तक धातु कला काफी विकसित हो चुकी थी।

इस प्रकार इतिहास के निर्माण में अभिलेख अत्यन्त सहायक हैं। अभिलेखों के महत्त्व के बारे में स्मिथ (Smith) महोदय का कहना है, “प्रारम्भिक हिन्दू इतिहास में घटनाओं की तिथि का जो ठीक-ठीक ज्ञान अभी तक प्राप्त हो सका है वह प्रधानतः अभिलेखों के साक्ष्य पर आधारित है।”

प्रश्न 8.
उत्तर-मौर्यकाल के विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उत्तर-मौर्यकाल में विकसित राजत्व के विचार:
भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में चोल, चेर, और पाण्ड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ। सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता था। ये स्थायी और समृद्ध होते थे। इन राज्यों के विषय में तमिल संगम ग्रंथों से जानकारी मिलती है। व्यापार आदि से सरदारों को पर्याप्त आमदनी होती थी। इनमें मध्य एवं पश्चिम भारत के शासक सातवाहन और उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर और पश्चिम में शासन करने वाले मध्य मूल के शक शासक शामिल थे।

प्राचीन भारतीय राजाओं ने अपनी महत्त बढ़ाने के लिए अपना नाम देवी-देवताओं से जोड़ा। इसके अच्छे उदाहरण कुषाण शासक हैं। उन्होंने अपने सिक्कों एवं मूर्तियों के माध्यम से राजधर्म उत्कीर्ण कराए। मथुरा स्थित माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासकों की एक विशाल मूर्ति स्थापित की गई है। ऐसी मूर्तियाँ अन्य कोई स्थानों पर भी दिखाई देती हैं। ऐसा अपनी महत्त बढ़ाने के लिए किया गया। प्रसिद्ध कुषाण शासक कनिष्क ने अपने नाम के आगे ‘देवपुत्र’ जोड़ा था। इस प्रकार राजत्व के विचार का निरंतर विकास हो रहा था।

चौथी शताब्दी के गुप्त सम्राटों के काल में राजत्व की नई विचारधारा पनपी। ये अपने को सम्राट कहते थे और इनके अधीन सामन्त होते थे। ये सम्राट सेना स्थानीय संसाधन के लिए सामंतों पर निर्भर थे। कभी-कभी सामन्त शासक पर भारी पड़ता था और शासक को हटाकर स्वयं सम्राट बन जाता था। गुप्त सम्राटों ने अपने नाम के सिक्के चलवाये, मुद्रायें बनवायी और प्रशस्तियाँ लिखवायीं। उन्होंने महाराजाधिराज जैसी बड़ी-बड़ी उपाधियाँ धारण की। प्रत्यागप्रशस्ति से समुद्रगुप्त के लिए लिखा गया है – “वे देवताओं में कुबेर, वरूण, इन्द्र और यम के तुल्य हैं।”

प्रश्न 9.
वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुए?
उत्तर:
कृषि के तौर-तरीकों में परिवर्तन:
उत्तर वैदिक काल में लोहे की खोज हो चुकी थी और सर्वप्रथम इसका प्रयोग हल के फाल और तीरों के फलक बनाने में किया गया। इससे कृषि के तौर तरीकों में भारी परिवर्तन हुए। छठी शताब्दी सा.यु.पू. से गंगा और कावेरी की घाटियों के उर्वर कछारी क्षेत्र में हल का प्रयोग बढ़ गया था। जिन क्षेत्रों में भारी वर्षा होती थी वहाँ उर्वर भूमि की जुताई लोहे के फाल वाले हलों से की जाने लगी। इसके अलावा गंगा घाटी में धान की रोपाई की वजह से उपज में भारी वृद्धि होने लगी। इससे पहले किसानों को पर्याप्त मेहनत करनी पड़ती थी।

यद्यपि लोहे के फाल वाले हल की वजह से फसलों की उपज बढ़ने लगी लेकिन ऐसे हलों का उपयोग उपमहाद्वीप के कुछ गिने-चुने भागों तक सीमित था। पंजाब और राजस्थान जैसी अर्धशुष्क जमीन वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हल का प्रयोग 20 वीं शताब्दी में शुरू हुआ। पूर्वोत्तर और मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले किसानों ने कुदाल का उपयोग किया क्योंकि ऐसे इलाकों के लिए कुदालों से खुदाई करनी अधिक उपयोगी थी।

इस युग में उपज बढ़ाने के लिए सिंचाई के विभिन्न साधनों का उपयोग किया गया। कृषकों ने कुँओं, तालाबों और कहीं-कहीं नहरों के माध्यम से भी खेती की सिंचाई की। व्यष्टि स्तर पर प्रत्येक किसान और कृषक समुदायों ने मिलकर सिंचाई के साधन विकसित किए। व्यक्तिगत रूप से तालाबों, कुँओं और नहरों जैसे सिंचाई साधन प्रायः राजा या प्रभावशाली लोगों ने विकसित किए। उनके इन कामों का उल्लेख आर्यलेखों में है। सुदर्शन झील का उल्लेख कई अभिलेखों में मिलता है।

प्रश्न 10.
मानचित्र 1 और 2 की तुलना कीजिए और उन महाजनपदों की सूची बनाइए जो मौर्य साम्राज्य में शामिल रहे होंगे। क्या इस क्षेत्र में अशोक के कोई अभिलेख मिले हैं?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य में शामिल महाजनपद

  1. गांधार
  2. मगध
  3. काशी
  4. वत्स
  5. अवन्ति।

अशोक के अभिलेख: गांधार के तक्षशिला, काशी में सारनाथ, वत्स में कौशाम्बी आदि से अशोक के अभिलेख मिले हैं।

परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
एक महीने के अखबार एकत्रित कीजिए। सरकारी अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यों के बारे में दिये गये वक्तव्यों को काटकर एकत्रित कीजिए। समीक्षा कीजिए कि इन परियोजनाओं के लिए आवश्यक संसाधनों के बारे में खबरों में क्या लिखा है? संसाधनों को किस प्रकार से एकत्र किया जाता है और परियोजनाओं का उद्देश्य क्या है? इन वक्तव्यों को कौन जारी रखता है और उन्हें क्यों और कैसे प्रसारित किया जाता है? इस अध्याय के चर्चित अभिलेखों के साक्ष्यों से इनकी तुलना कीजिए। आप इनमें क्या समानताएँ और असमानताएँ गते हैं?
उत्तर:
छात्र स्वयं करें।

प्रश्न 12.
आज प्रचलित पाँच विभिन्न नोटों और सिक्कों को इकट्ठा कीजिए। इनके दोनों ओर आप जो देखते हैं उनका वर्णन कीजिए। इन पर बने चित्रों, लिपियों और भाषाओं, माप, आकार या अन्य समानताओं और असमानताओं के बारे में एक रिपोर्ट तैयार कीजिए। इस अध्याय में दर्शित सिक्कों में प्रयुक्त सामग्रियों, तकनीकों, प्रतीकों, उनके महत्त्व और सिक्कों के संभावित कार्य की चर्चा करते हुए इनकी तुलना कीजिए।
उत्तर:
छात्र स्वयं करें।

Bihar Board Class 12 History राजा, किसान और नगर : आरंभिक राज्य और अर्थव्यवस्थाएँ Additional Important Questions and Answers

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
1830 ई. में प्रिंसेप द्वारा लिपियों के अर्थ निकालने के क्या लाभ हुए?
उत्तर:

  1. इस खोज से आरम्भिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को एक नई दिशा मिली।
  2. भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की वंशावलियों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में लिखे अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया।

प्रश्न 2.
गण और संघ राज्यों में शासन कैसे चलता था?
उत्तर:

  1. गण और संघ राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था।
  2. इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध इन्हीं गुणों से संबंधित थे।

प्रश्न 3.
सा.यु.पु. छठी शताब्दी को परिवर्तनकारी काल क्यों माना जाता है?
उत्तर:

  1. इस काल में आरम्भिक राज्यों एवं नगरों का उदय हुआ। यह लोहे के प्रयोग और सिक्कों के विकास से सम्भव हुआ।
  2. इसी काल में बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ।

प्रश्न 4.
मगध नये-नये धार्मिक आन्दोलनों का केन्द्र क्यों बना?
उत्तर:

  1. उन दिनों मगध राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र था। यहाँ के शासकों द्वारा बौद्ध या जैन धर्म स्वीकार किए जाने की दशा में इन धर्मों के प्रचार-प्रसार की सम्भावना काफी अधिक थी।
  2. सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का मुख्य केन्द्र भी मगध ही था। वहाँ से धर्म प्रचार करके आगे बढ़ना सुगम था। इस कारण मगध धार्मिक आन्दोलनों का केन्द्र बना।

प्रश्न 5.
धर्मशास्त्र कब लिखे गये? इनका क्या महत्त्व है?
उत्तर:

  1. लगभग छठी शताब्दी सा.यु.पू. में धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचना शुरू की गई।
  2. इनमें शासक सहित अन्य के लिए नियमों का निर्धारण किया गया और यह अपेक्षा की जाती थी कि शासक क्षत्रिय वर्ण से ही बनाए जाएँ।

प्रश्न 6.
“पंचमार्कड या आहत मुद्रायें’ नामक पद का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर:
इन मुद्राओं पर कोई-न-कोई चिह्न अंकित होता था। कई बार इन पर शासक की आकृति, उनके वंश चिह्न और कई बार तिथि भी अंकित रहती थी। ऐसी पंचमाड या आहत मुद्रायें इतिहास को जानने में बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।

प्रश्न 7.
विवेचन करें कि छठी सदी सा.यु. से चौथी सदी तक नगर विकास के कौन-कौन से कारण थे?
उत्तर:

  1. बौद्ध काल में बड़े-बड़े राज्य अस्तित्व में आ चुके थे। उनकी राजधानियों का बड़े-बड़े नगरों के रूप में विकसित होना स्वाभाविक था।
  2. सिक्कों के आविष्कार ने व्यापार को प्रोत्साहन दिया और इस कारण भी अनेक व्यापारिक केन्द्र बड़े-बड़े नगरों में परिणित हो गए। ये नगर प्रायः नदियों के किनारे बसे हुए थे और जल-मार्ग द्वारा दूसरे नगरों से जुड़े हुए थे। इस व्यापार ने भी उन्हें वैभवशाली बनाने में बड़ी सहायता की।
  3. कुछ स्थान औद्योगिक इकाइयों के रूप में भी उभरे और शीघ्र ही बड़े नगरों में तब्दील हो गए थे।

प्रश्न 8.
‘उत्तरी काला पालिशदार अवस्था’ नामक पद स्पष्ट करें।
उत्तर:
एन.बी.पी. फेज या ‘उत्तरी काला पालिशदार अवस्था’ मिट्टी के बर्तन बनाने की उस अवस्था को कहते हैं जब चमकीले पालिशदार बर्तन धनी व्यक्तियों की खाने की मेजों को सजाते थे। ऐसी अवस्था भारत में छठी शताब्दी सा.यु.पू. में थी।

प्रश्न 9.
‘धम्म’ शब्द का आशय 20-30 शब्दों में स्पष्ट करें।
उत्तर:
‘धम्म’ सामाजिक व्यवहार के उन नियमों को कहा जाता है जो नैतिकता पर आधारित होते हैं। इन्हें लोकाचार के नियम भी कहा जा सकता है। बड़ों का आदर करना, छोटों से प्यार करना आदि सभी आचार, विचार और व्यवहार के नियम इस कोटि में आते हैं। कलिंग की विजय के पश्चात् अशोक ने ऐसे ही ‘धम्म का प्रचार किया।

प्रश्न 10.
महावीर स्वामी अथवा जैन धर्म की शिक्षाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
महावीर स्वामी ने लोगों को जीवन जीने का सरल मार्ग दिखाया। उनके अनुसार मनुष्य को त्रिरत्न अर्थात् शुद्ध चरित्र, शुद्ध दर्शन और शुद्ध आचरण का पालन करना चाहिए। उन्होंने मोक्ष-प्राप्ति के लिए लोगों को प्रेरित किया। उनका कहना था कि इसके लिए घोर तपस्या का मार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग है। उनके अनुसार पशु, वायु, अग्नि तथा वृक्ष सभी वस्तुओं में आत्मा है और इन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए।

उन्हें वेद-निहित, अनुष्ठान एवं कर्मकाण्ड, जाति-पाति या यज्ञ तथा बलि में विश्वास नहीं था। उनका विचार था कि अपने अच्छे या बुरे कर्मों के कारण मनुष्य जन्म लेता है और आत्मा को पवित्र रखकर ही वह मोक्ष प्राप्त कर सकता है। उन्होंने अपने अनुयायियों को बताया कि वे क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, चोरी, निन्दा आदि अनैतिक कामों से दूर रहें और सदाचारी बनें।

प्रश्न 11.
लिपि शब्द का अर्थ क्या है?
उत्तर:
वास्तव में ‘लिपि’ और ‘दिपी’ शब्दों का एक ही अर्थ है। अपने शिलालेखों में अशोक ने लिपि का प्रयोग किया जो सम्भवतः ईरानी शब्द ‘दिपि’ से ही लिया गया था। प्राचीन ईरानियों के लिए ‘दिपी’ का जो महत्त्व था वही भारतीयों के लिए ‘लिपि’ का था।

प्रश्न 12.
कलिंग युद्ध का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
अशोक ने कलिंग (या आधुनिक उड़ीसा) के साथ 261 सा.यु.पू. में एक युद्ध लड़ा। इस युद्ध के बड़े दूरगामी प्रभाव पड़े –

  1. इस युद्ध के विनाश को देखकर अशोक इतना विचलित हुआ कि उसने युद्ध का मार्ग सदा के लिए त्याग दिया और धर्म-विजय का गर्ग अपना लिया।
  2. अशोक अब बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया और इस धर्म का इतने बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार किया कि यह एक विश्व धर्म बन गया।

प्रश्न 13.
मौर्य वंश के पतन के दो मुख्य कारण लिखें।
उत्तर:

  1. अशोक ने कलिंग के युद्ध के पश्चात् जब बौद्ध धर्म को अपना लिया तो उसकी सारी गतिविधियाँ बंद-सी हो गईं। इस कारण मौर्य साम्राज्य की सीमाएँ अरक्षित हो गई।
  2. विदेशी आक्रमणकारियों ने विशेषकर हिन्द-यूनानियों और हिन्द-पार्थियनों ने, इस कमजोरी का लाभ उठाकर देश पर आक्रमण करने शुरू कर दिये। उनके भयंकर आक्रमण के सामने, सैनिक शक्ति में शिथिल, मौर्य साम्राज्य न टिक पाया।

प्रश्न 14.
सिकंदर भारत पर आक्रमण क्यों करना चाहता था?
उत्तर:

  1. इसका पहला कारण यह दिया जाता है कि सिकंदर एक महान् विजेता था जो भारत को जीत कर अपने नाम को चार चांद लगाना चाहता था।
  2. दूसरा कारण यह बताया जाता है कि वह भारतीय संस्कृति की महानता के विषय में बहुत कुछ सुन चुका था इसलिए वह स्वयं इस तथ्य की सत्यता को भारत आकर परखना चाहता था ।

प्रश्न 15.
मनुस्मृति में सीमाओं का क्या महत्त्व बताया गया है?
उत्तर:

  1. मनुस्मृति आरम्भिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधिग्रंथ है।
  2. इसके अनुसार राज्य की सीमाओं की अनभिज्ञता से विश्व में विवाद होते हैं। सीमाओं की पहचान के लिए शासक के लिए शासक ने गुप्त निशान जमीन में गाड़कर रखने चाहिए।

प्रश्न 16.
राजगाह का क्या महत्त्व है?
उत्तर:

  1. राजगाह मगध की राजधानी थी। इस शब्द का शब्दिक अर्थ-‘राजाओं का घर’ है। यह आधुनिक बिहार के राजगीर का प्राकृत नाम है।
  2. पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबंद शहर था। बाद में चौथी शताब्दी सा.यु.पू. में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया।

प्रश्न 17.
दक्षिण के सरदारों के क्या कार्य थे?
उत्तर:

  1. सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता था। उसका कार्य विशेष अनुष्ठान का संचालन करना, युद्ध के समय नेतृत्व करना और विवादों को सुलझाने में मध्यस्थ की भूमिका निभाना आदि था।
  2. वह अपने अधीन एक लोगों से भेंट लेता था और अपने समर्थकों में प्राप्त भेंट का वितरण करता था। सामान्य रूप से एक सरदार के अधीन-कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते थे।

प्रश्न 18.
यूनानी यात्री मेगस्थनीज द्वारा वर्णित सैन्य-प्रबंध के लिए जिम्मेदार छः उपसमितियों के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. नौसेना का संचालन करना।
  2. यातायात और खानपान व्यवस्था संभालना।
  3. पैदल सैनिकों का प्रशिक्षण, मार्गदर्शन और युद्ध में संचालन करना।
  4. अश्वारोहियों का संचालन।
  5. स्थारोहियों का संचालन।
  6. हाथियों की सेना (गज-सेना) का संचालन।

प्रश्न 19.
समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है। क्यों?
उत्तर:
भारत का नेपोलियन समुद्रगुप्त-समुद्रगुप्त ने मगध राज्य को शक्तिशाली बनाया तथा छोटे-छोटे राज्यों को जीतकर देश में राजनैतिक एकता की स्थापना की।

समुद्रगुप्त को महान् सैनिक सफलताओं के कारण डॉ. वी.ए. स्मिथ ने उसे ‘भारत का नेपोलियन’ कहा है। नेपोलियन ने लगभग सारे यूरोप को जीता था और समुद्रगुप्त ने भी सारे भारत को जीता था। भारत में कोई भी शासक उसकी सत्ता को चुनौती देने वाला न था।

प्रश्न 20.
मेगस्थनीज कौन था?
उत्तर:

  1. मेगस्थनीज यूनानी राजदूत था और चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था।
  2. उसने अपनी यात्रा का विवरण अपने ग्रंथ ‘इण्डिका’ में किया। इस ग्रंथ से चन्द्रगुप्त मौर्य और उसकी समकालीन शासन-व्यवस्था के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

प्रश्न 21.
श्रेणी के क्या कार्य थे?
उत्तर:
प्रत्येक श्रेणी (गिल्ड) एक व्यवसायिक संगठन थी। यह जन-साधारण से धन लेती और ऋण देती थी। मंदिर, बाग, विश्राम गृह आदि भी यही श्रेणी लोगों के लिए बनवाती थी। वह सदस्यों की सुरक्षा भी करती थी।

प्रश्न 22.
गुप्त वंश की जानकारी के मुख्य स्रोत क्या हैं?
उत्तर:
इलाहाबाद और सांची के अभिलेख, भूमि अनुदान संबंधी दस्तावेज, सिक्के और फाह्यान एवं कालीदास की साहित्यिक कृतियाँ।

प्रश्न 23.
इलाहाबाद या प्रयाग-स्तम्भ अभिलेख का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
इलाहाबाद या प्रयाग का स्तम्भ अभिलेख गुप्तकाल का एक महान् ऐतिहासिक स्रोत है। इस अकेले स्रोत पर बहुत कुछ समुद्रगुप्त की महानता निर्भर करती है। इस अभिलेख की 33 लाइनें हैं जो संस्कृत भाषा में हैं। इस लेख के रचयिता समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण थे जिसने अपने आश्रयदाता की विजयों और सैनिक पराक्रमों का वर्णन किया है।

प्रश्न 24.
दिल्ली के लौह-स्तम्भ अभिलेख का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
दिल्ली में कुतुबमीनार के पास लौह-स्तम्भ पर किसी चन्द्र नामक राजा का अभिलेख खुदा हुआ मिला है। यह अभिलेख अब चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से जोड़ा जाता है। इस अभिलेख से पता चलता है कि चन्द्र ने पश्चिमोत्तर दिशा और बंगाल में निरंतर विजयें प्राप्त की और अपने वंश की कीर्ति को चार-चाँद लगा दिये।

प्रश्न 25.
समूह शासन या ओलीगार्की का क्या अर्थ है?
उत्तर:

  1. जहाँ सत्ता, पुरुषों के एक समूह के साथ में रहती है समूह शासन कहलाता है। गणराज्यों में इसी प्रकार की शासन व्यवस्था थी।
  2. यह प्राचीन भारत का प्रजातांत्रिक शासन था और शासन के सभी कार्य सर्वसहमति से कराए जाते थे।

प्रश्न 26.
सरदारी प्रथा क्या है?
उत्तर:

  1. सरदारी प्रथा चोल, चेर और पाण्ड्य राज्यों में प्रचलित थी। सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता था जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता था और नहीं भी।
  2. सरदार के कार्यों में विशेष अनुष्ठान संपन्न करना/करवाना, युद्ध के समय नेतृत्व करना और विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभानी आदि शामिल हैं।

प्रश्न 27.
‘धम्म’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:

  1. अनेक विद्वानों ने ‘धम्म’ का अर्थ अशोक के धर्म से लगाया है। अशोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से ‘धम्म का प्रचार किया।
  2. धम्म’ में बड़ों के प्रति आदर, सन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे के धर्मों और परम्पराओं का आदर करना शामिल है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
महाजनपदों का महत्त्व बताइए।
उत्तर:
महाजनपदों का महत्त्व-प्राचीन भारतीय इतिहास में उपर्युक्त महाजनपदों का उत्थान अपना विशेष महत्त्व रखता है। सर्वप्रथम, इन महाजनपदों में राजतंत्रों के साथ-साथ गणतंत्रों का भी उत्थान हुआ। यहाँ का प्रमुख प्रबंधक प्रजातंत्रीय सिद्धांतों के अनुसार लोगों द्वारा चुना जाता था। राजतंत्र वाले महाजनपदों की शासन प्रणाली को देखने पर यह ज्ञात होता है कि वहाँ पर तानाशाह नहीं थे।

शासक प्रजा-सेवक होते थे और प्रजा की भलाई के कार्यों में लीन रहते थे। तीसरा महत्त्व यह था कि विभिन्न राजतंत्र और गणतंत्र धीरे-धीरे आपस में मिलते जा रहे थे और भारत एक अखंड राजनीतिक इकाई का रूप धारण करता जा रहा था। मगध शासकों ने विभिन्न राजनीतिक इकाइयों को जीतकर एक शक्तिशाली साम्राज्य की नींव रखी। इस तरह उन्होंने भारत को एक अखंड राजनीतिक इकाई का स्वरूप दिया।

प्रश्न 2.
मगध साम्राज्य के शक्तिशाली होने के क्या कारण थे?
उत्तर:
मगध साम्राज्य के शक्तिशाली होने के निम्न कारण थे –
1. महत्त्वाकांक्षी शासक:
साम्राज्य विस्तार की अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने के लिए तत्कालीन शासकों ने विभिन्न ढंग अपनाये। बिम्बिसार ने पड़ोसी प्रदेशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके अपनी सीमाओं को सुरक्षित कर लिया।

अजातशत्रु ने वैशाली और कोशल को अपनी शक्ति के बल पर हथिया लिया। महापद्मनन्द ने कोशल और कलिंग को हड़प लिया। साम, दाम, दण्ड, भेद सभी तरह की नीतियों का सहारा लेकर मगध का उत्थान किया गया।

2. प्राकृतिक सम्पदा:
मगध राज्य के प्राकृतिक साधन बड़े विशाल थे। मगध में लोहे. की खान प्रचुर मात्रा में रहने के कारण हथियार, उद्योग-धंधे, कृषि सम्बन्धी राज्य का विकास करना आसान हो गया।

3. अनुकूल स्थान पर राजधानी:
मगध की, एक ओर तो पहाड़ियों से घिरी राजधानी राजगृह थी, तो दूसरी ओर गंगा, गंडक और सोन के संगम पर स्थित राजधानी पाटलिपुत्र थी। इन तक आक्रमणकारी आसानी से नहीं पहुंच पाता था। प्राकृतिक सुरक्षा से परिपूर्ण ये राजधानियाँ भी मगध साम्राज्य के उत्थान का एक बड़ा कारण सिद्ध हुईं।

4. सैनिक शक्ति:
मगध की सेना में हाथी, घोड़े एवं रथ थे। हाथियों द्वारा शत्रु सेना के घोड़े रौंद दिए जाते थे जिसके कारण उनमें भगदड़ मच जाती थी। किलों के विशाल दरवाजों को तोड़ने में भी हाथियों की सहायता ली जाती थी। रथों और घोड़ों का उचित प्रयोग काफी लाभकारी सिद्ध होता था।

5. उपजाऊ भूमि:
गंगा के आसपास स्थित होने के कारण मगध राज्य में उपजाऊ भूमि की कमी नहीं थी। अत; देश की अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने में कृषि का बड़ा सहयोग था। इससे राज्य में समृद्धि की लहर दौड़ गई।

प्रश्न 3.
सा.यु.पू. छठी शताब्दी में वत्स राज्य के उत्थान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वत्स राज्य-इस राज्य में आधुनिक इलाहाबाद के आसपास के प्रदेश शामिल थे। यह राज्य बड़ा वैभवशाली और सम्पन्न था। इसकी राजधानी कौशाम्बी में थी। यह नगर यमुना नदी के तट पर एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। बुद्ध के समय इस राज्य पर उदयन नामक शासक शासन करता था। उसे मगध के शासक अजातशत्रु और अवन्ति के राजा प्रद्योत से युद्ध करने पड़े।

उदयन ने मगध के राजा से विवाह-सम्बन्ध कायम किए। अवन्ति के शासक प्रद्योत ने इस पर आक्रमण किया किन्तु वह असफल रहा और उसे अपनी लड़की का विवाह उदयन ई करना पड़ा। शुरू में उदयन बौद्ध धर्म का विरोधी था परंतु बाद में उसने इस धर्म को अपना कर राज्य-धर्म घोषित किया। उदयन के उत्तराधिकारी दुर्बल शासक होने के कारण यह राज्य उसकी मृत्यु के पश्चात् अवन्ति राज्य में विलीन हो गया।

प्रश्न 4.
बौद्ध युग में आर्थिक उन्नति के क्या कारण थे?
उत्तर:
बौद्ध युग में आर्थिक उन्नति के कारण –

  1. बौद्ध युग में वाराणसी, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, कपिलवस्तु, अयोध्या, तक्षशिला तथा वैशाली जैसे नगरों का विकास होने के कारण न्यापार की उन्नति हुई।
  2. उस काल में धातु के सिक्के चलाये गये।
  3. उस काल में स्थल तथा जल दोनों मार्गों से व्यापार होता था। लंका, वर्मा, जावा, सुमात्रा और मलाया आदि देशों के साथ जलमार्ग से व्यापार होता था।
  4. विभिन्न व्यवसाय वाले शिल्पकारों ने अपने आपको विभिन्न संधों में संगठित कर लिया था।
  5. कृषि-योग्य भूमि की कुल आय का 1/6 भाग कर के रूप में लिया जाता था।
  6. धान के अलावा जौ, दालें, ज्वार, गन्ना, बाजरा तथा कपास की फसलें भी उगायी जाती थीं।

प्रश्न 5.
बुद्ध के समय मुख्य गणराज्यों की दशा का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
मुख्य गणराज्यों की दशा:
बुद्ध कालीन मुख्य गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य, पावा और कुशीनगर के मल्ल, वैशाली के लिच्छवि आदि विशेषकर प्रसिद्ध थे। इन राज्यों के राजनीतिक इतिहास के विषय में काफी कम जानकारी मिली है। शाक्य लोगों का राज्य हिमालय की तराई में नेपाल और भारत की सीमा के आस-पास स्थित था।

महात्मा बुद्ध भी इसी वंश के थे। ये लोग काफी समय से प्रजातंत्र के सिद्धांतों के अनुसार राज्य करते रहे। अन्त में कोशल के शासक विरुद्ध के समय इस राज्य को कोशल साम्राज्य में मिला लिया गया। मल्ल लोगों की दो शाखाएँ थीं-एक पावा के स्थान से (जहाँ महावीर स्वामी की मृत्यु हुई थी) और दूसरी कुशीनगर के स्थान से (जहाँ महात्मा बुद्ध का देहांत हुआ था) राज्य करती थी। अन्त में मल्ल लोगों का साम्राज्य अजातशत्रु के समय मगध राज्य में मिला लिया गया।

प्रश्न 6.
जैन धर्म और बौद्ध धर्म में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जैन धर्म और बौद्ध धर्म में अंतर:
1. प्रचार संगठन में अन्तर:
बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जो संगठन बनाया गया, वह जैन धर्म के संगठन से कहीं अधिक अच्छा था। मठों में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं का काम सुव्यवस्थित होता था। वे प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान को घूमा करते थे।

प्रचार की व्यवस्था ठीक न होने के कारण जैन धर्म बहुत फैल न सका जबकि बौद्ध धर्म आज भी संसार के बड़े धर्मों में गिना जाता है। जैन धर्म के भिक्षु अपने कार्य में इतने चतुर नहीं थे और न उनका धर्म बौद्ध धर्म की भाँति एक प्रचारक धर्म था।

2. वेष-भूषा में अंतर:
जैनमत वालों के दो बड़े अंग हैं-श्वेताम्बर (Svetambaras) जो श्वेत रंग के कपड़े पहनते हैं और दिगम्बर (Digambaras) जो बिल्कुल नग्न रहते हैं। इनका नग्न रहना अध्यात्मिक उन्नति में एक बड़ी बाधा रही। बौद्ध मत के भिक्षु नग्न नहीं रहते।

3. विभिन्न धार्मिक ग्रन्थ:
बौद्धों के अपने अलग धर्म ग्रन्थ हैं, जिन्हें वे त्रिपिटक अथवा तीन टोकरियाँ (Triptakas or Three Baskets) कहते हैं, जबकि जैनियों का धर्म ग्रंथ अंग (Angas) कहलाता है।

4. भिन्न पूज्य व्यक्ति:
बौद्धों के पूज्य व्यक्ति बोधिसत्व (Bodhisattvas) हैं परंतु जैनियों के उपास्य व्यक्ति 24 तीर्थंकर (Trithankaras) हैं।

5. मोक्ष के विभिन्न साधन:
जीवन में मानसिक शांति पाने के लिए बौद्धमत वाले बुद्ध के बताए हुए अष्टमार्ग पर चलते हैं जबकि जैनमत वाले अपने त्रिरत्नों का अनुपालन करते हैं।

प्रश्न 7.
अशोक के धर्म (धम्म) के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
अशोक ने अपनी जनता के नैतिक उत्थान के लिए लोगों के सामने कुछ नैतिक नियम रखे। इन्हीं नियमों के समूह को धम्म कहा जाता है। अशोक द्वारा प्रतिपादित धम्म के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित थे –

  1. अशोक का मुख्य सिद्धांत था-बड़ों का आदर। उसके अनुसार शिष्यों को अपने गुरुजनों का मान करना चाहिए। सभी को ऋषियों, ब्राह्मणों तथा वृद्ध पुरुषों का आदर करना चाहिए।
  2. इस धम्म के अनुसार बड़जें को परिवार के सदस्यों, सम्बन्धियों, सेवकों, निर्धनों तथा दासों के साथ अच्छा और नम्र व्यवहार करना चाहिए।
  3. प्रत्येक मनुष्य को अपने बुरे कर्मों को फल अपने अगले जन्म में भुगतान पड़ता है। मनुष्य ने हमेशा अच्छे कर्म करने चाहिए।
  4. अहिंसा अशोक धम्म का मूल मंत्र है। इसके अनुसार किसी भी जीव को मन, वचन तथा कर्म से कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए।
  5. सभी मनुष्यों को समय-समय पर अपने कृत कार्यों का विश्लेषण करना चाहिए।
  6. ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार और झूठ पाप है। मनुष्य को इन पापों से दूर रहना चाहिए।

प्रश्न 8.
अजातशत्रु की विजयों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अजातशत्रु (Ajatsatru,495 to 462 B.C.E.):
अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् अजातशत्रु मगध के सिंहासन पर 395 सा०यु०पू० के लगभग बैठा। उसने बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार लगभग 32 वर्ष अर्थात् 462 सा०यु०पू० तक राज्य किया। अजातशत्रु एक बड़ा सफल तथा महत्त्वाकांक्षी राजा था जिसने राज्य का विस्तार करने में कोई कसर न छोड़ी।

1. अजातशत्रु की विजयें:
सबसे पहले अजातशत्रु को कोशल के राजा प्रसेनजित (Prasenjit) के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करनी पड़ी। प्रसेनजित ने काशी प्रदेश पहले मगध के शासक बिम्बिसार (अजातशत्रु के पिता) को दिया था लेकिन बिम्बिसार की मृत्यु के पश्चात् उसको पुनः अपने राज्य में मिला लिया था। युद्ध का मुख्य कारण यही बना।

इस युद्ध में कोशल के शासक प्रसेनजित की पराजय हुई, परंतु अजातशत्रु ने इस शत्रुता को एक सफल कूटनीतिज्ञ की भाँति मित्रता में बदल लिया। प्रसेनजित ने अपनी पुत्री का विवाह अजातशत्रु से कर दिया और अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त काशी का प्रदेश भी उसे दहेज में दे दिया। इस प्रकार अपने पिता की भाँति अजातशत्रु ने भी विवाह सम्बन्धों से अपनी शक्ति को बहुत बढ़ाया।

2. अजातशत्रु की सबसे बड़ी विजय लिच्छवियों (Lichchhavis) के लगभग 36 राज्यों के संघ को जीतने की थी। इस कार्य को पूरा करने में लगभग 16 वर्ष (484 से 468 सा०यु०पू० तक) लग गए। इस संघ को पराजित करना कोई सरल कार्य नहीं था, क्योंकि एक तो वे लड़ाके और दृढ़ स्वभाव के थे और दूसरा उनमें बड़ी एकता थी।

अजातशत्रु इन सब कठिनाइयों को अच्छी प्रकार जानता था। उसने बड़ी सावधानी से युद्ध की तैयारी की। सबसे पहले उसने विश्वसनीय मंत्री वस्सकरा (Vassakara) को लिच्छिवि लोगों में फूट डालने के लिए भेज दिया जो अपने कार्य में तीन वर्ष पश्चात् सफल हुआ और इस प्रकार उन लोगों की एकता जाती रही। दूसरे, अजातशत्रु ने लिच्छिवि प्रदेश के पास गंगा नदी के तट पर पाटलिपुत्र के नए नगर की नींव रखी ताकि उन लोगों पर सुगमता से आक्रमण किया जा सके।

तीसरे, मगध-शासक ने इस युद्ध में कई नये ढंग के अच्छे अस्त्रों का प्रयोग किया। इस प्रकार अजातशत्रु अपने उद्देश्य में सफल हुआ। लिच्छिवि लोगों के सारे-के-सारे प्रदेश को मगध राज्य में मिला लिया गया। अजातशत्रु का यश इस विजय से चारों और फैल गया। अवन्ति का सुप्रसिद्ध शासक प्रद्योत अजातशत्रु की बढ़ती हुई शक्ति को देखकर ईर्ष्या करने लगा, परंतु वह अजातशत्रु के विरुद्ध कुछ भी करने में असमर्थ था, क्योंकि अजातशत्रु अब बहुत शक्तिशाली हो चुका था। इस प्रकार अपनी विजयों से अजातशत्रु ने ममध राज्य की सीमाओं का बहुत विस्तार किया।

प्रश्न 9.
शिलाओं पर उत्कीर्ण अशोक के राज्यादेशों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शिलाओं पर उत्कीर्ण राज्यादेश:
शिलाओं पर उत्कीर्ण राज्यादेश चार प्रकार के मिले हैं –

(क) इनमें सबसे प्रसिद्ध शिला-राज्यादेश हैं जो शाहवाजगढ़ी (पेशावर जिला), मनसेरा (जिला हजारा), गिरनार (काठियावाड़), मासकी (मैसूर), दौली तथा जुगादा (कलिंग प्रदेश), कालसी (जिला देहरादून) आदि स्थानों पर मिले हैं। इनमें अशोक की धर्म-यात्राओं, अहिंसा नीति, धर्म के नियमों, धर्म-महामान्यों की नियुक्ति जैसे विषयों पर लिखा गया है।

(ख) दूसरे प्रकार के शिलालेख दो लघु राज्यादेशें (The Two Minor Rock Edicts) के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये संसराम (पूर्वी बंगाल), रूपनाथ (मध्य प्रदेश), बैरात (राजस्थान) इत्यादि अनेक स्थानों पर पाए गए हैं। इनमें अशोक ने बौद्ध धर्म पर अपनी निष्ठा (विश्वास) प्रकट की है।

(ग) तीसरे प्रकार के दो शिला लेख कलिंग राज्यादेश (Two Kalinga Edicts) कहलाते हैं। क्योंकि ये दोनों कलिंग प्रदेश (दौली और जोगादा आदि) में पाए गए हैं। इनमें अशोक के प्रान्तीय राज्य-प्रबंध का वर्णन है।

(घ) चौथे प्रकार का लेख भाबरू राज्यादेश (The Bhabru Edicts) के नाम से प्रसिद्ध है। यह राजस्थान में स्थित एक शिला पर अंकित है। इस लेख में अशोक ने भिक्षुओं के नियमों की विवेचना की है।

प्रश्न 10.
मौर्य काल में भाषा और लिपि के क्षेत्र में क्या प्रगति हुई है?
उत्तर:
मौर्य काल में शिक्षित वर्ग की भाषा संस्कृत और आम-बोलचाल की भाषा पाली थी। अशोक ने पाली भाषा को राजभाषा बना दिया और अपने शिलालेखों में भी इसका प्रयोग किया। इन कारणों से इस भाषा का भी इस काल में बड़ा विकास हुआ। इस काल में दो लिपियों का प्रयोग होता था-ब्राह्मी लिपि और खरोष्टी लिपि। खरोष्टी लिपि का प्रयोग अशोक ने उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के शिलालेखों में किया । यह लिपि दायें से बायें लिखी जाती थी।

इस काल में अनेक उत्तम ग्रन्थों की रचना हुई। चन्द्रगुप्त के प्रधानमंत्री चाणक्य ने संस्कृत भाषा में राजनीति के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ की रचना की। इसमें उसने राजनीति एवं शासन-सम्बन्धी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। इसकी तुलना मैक्यावली (Micheavelli) के ग्रन्थ ‘प्रिन्स’ (Prince) के साथ की जाती है।

वात्सायन ने ‘कामसूत्र’ की रचना की इसी युग में की थी। इसी युग में गृहसूत्र, धर्मसूत्र और वेदांगों की रचना हुई-ऐसा विद्वानों का मत है। इस काल में संस्कृत व्याकरण पर पाणिनी ने ‘अष्टाध्यायी’ नामक ग्रंथ लिखा। अन्य दो और पतञ्जलि उत्तर-मौर्य युग में हुए।

मौर्यकाल में बौद्ध और जैन साहित्य का भी काफी विकास हुआ। अशोक ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में तीसरा बौद्ध सम्मेलन आयोजित कराया। इसी काल में बौद्ध धर्म के त्रिपिटिक ग्रंथों का संकलन किया गया। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् तिस्स ने ‘कथावथु’ नामक ग्रंथ की रचना भी इसी काल में की। जैन साहित्य का भी काफी विकास हुआ। प्रसिद्ध जैन विद्वान-भद्रबाहु तथा प्रभव ने ग्रंथों की रचना की।

प्रश्न 11.
मौर्य साम्राज्य के महत्त्व का आकलन कीजिए।
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य का महत्त्व –

  1. भारतीय इतिहास ही नहीं, विश्व इतिहास में मौर्य साम्राज्य का बहुत अधिक महत्त्व है। ब्रिटिश काल में भारत एक औपनिवेशिक देश था। ऐसे में मौर्य साम्राज्य इतिहासकारों के लिए उत्साहवर्धक था। भारत में महाजनपद रूप से गणतंत्र पद्धति का यह पहला साम्राज्य था।
  2. मौर्यकालीन पुरातत्त्व और मूर्तियों ने सिद्ध कर दिया है कि चौथी-तीसरी सदी सा०यु०पू० में भारत में एक साम्राज्य मौजूद था।
  3. अशोक के अभिलेख अन्य देशों से भिन्न थे। इनमें संदेश लिखे थे।
  4. अशोक एक चक्रवर्ती सम्राट था। इससे राष्ट्रवादी नेताओं को बहुत प्रेरणा मिली।
  5. मौर्य साम्राज्य में कुछ कमियाँ रहने के कारण यह साम्राज्य मात्र 150 वर्ष तक ही चल पाया और इसका विस्तार भी सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में नहीं था।

प्रश्न 12.
पाण्ड्य चेर और चोल राज्य के अन्तर्गत वाणिज्य केन्द्रों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तीनों ओर समुद्र से घिरा होने के कारण पाण्ड्य, चेर और चोल जैसे सुदूर, दक्षिणी राज्यों के शासकों का शुरू से ही सामुद्रिक गतिविधियों के प्रति बड़ा अनुराग रहा। उनकी आय का एक बड़ा साधन व्यापार से होने वाली आय थी।

यह व्यापार उत्तर के मगध साम्राज्य और रोमन साम्राज्य के बीच होता था। चेर, चोल और पाण्ड्य राजाओं के काल में कई स्थान वाणिज्य केन्द्रों के रूप में उभर कर सामने आये। विशेषकर चोल राज्य में स्थित उरैयुर (Uraiyur), पुहार या कावेरीपट्टनम (Puhar or Kaveripattanam), पाण्ड्य राज्य में स्थित मदुरै (Madurai), तथा चेर राज्य में स्थित मुजिरी (Muzairis) (ट्रांगनोर) महत्त्वपूर्ण वाणिज्य-केन्द्र था।

ऐसे वाणिज्य-केन्द्र गर्म मसालों, विशेषकर काली मिर्च तथा सूती कपड़े, मलमल और रेशम के ऊपर तरह-तरह की नक्काशीदार बुनाई के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। ये प्रसिद्ध वाणिज्य-केन्द्र दोनों उत्तर और रोमन साम्राज्य से अपने व्यापारिक सम्बन्धों के कारण बड़े समृद्ध बन गये। रोमन साम्राज्य का बहुत सा सोना, अनेक भारतीय वस्तुओं के बदले भारत आने लगा। इसके परिणामस्वरूप दक्षिणी राज्य उत्तरोत्तर धनी बनते चले गये।

प्रश्न 13.
भारत पर सिकंदर के आक्रमण का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
1. भारत में थोड़ा समय ठहरना:
सिकंदर भारत में केवल 19 महीने रहा और यह सारा समय उसने लगभग लड़ने में व्यतीत किया। लड़ाई के वातावरण में भारतवासी यूनानियों को और यूनानी भारतवासियों को अच्छी प्रकार न समझ सके। ऐसी अवस्था में भारत पर यूनानी सभ्यता का प्रभाव पड़ना लगभग असंभव था।

2. केवल सीमावर्ती आक्रमण:
सिकंदर भारत के आन्तरिक भागों तक नहीं जा सका। उसका आक्रमण सीमा पर की गई डकैती जैसा था। इस प्रकार सिकंदर के आक्रमण का कोई विशेष प्रभाव पड़ने की सम्भावना बहुत कम थी।

3. मौर्य वंश के उदय में सहायक:
सिकंदर के आक्रमण से पंजाब की रियासतें एवं लड़ाकू जातियाँ अब इतनी दुर्बल हो गई कि चन्द्रगुप्त मौर्य उन्हें आसानी से पराजित कर पाया। यदि ऐसा न होता तो चन्द्रगुप्त को उन्नति करने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता क्योंकि अनेक राजाओं से लड़ना पड़ता।

4. भारतीय एकता के कार्य में सहायता:
रियासतों तथा लड़ाकू जातियों को सिकंदर द्वारा कुचले जाने का एक अन्य प्रभाव यह भी हुआ कि भारतीय एकता की स्थापना करने तथा एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने में काफी आसानी रही।

5. यूरोपीय देशों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध:
सिकंदर के आक्रमण ने पूर्व और पश्चिम राज्यों के मध्य सम्पर्क बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। अब लोगों को चार मार्गों का पता चल गया जिनसे भारतीय व्यापारी, कारीगर तथा धर्म प्रचारक अन्य देशों को गए और अन्य देशों के लोग भारत आए। इस प्रकार भारत और यूरोप के व्यापारिक सम्बन्ध भी पहले से अब काफी अच्छे हो गए।

प्रश्न 14.
गुप्तकालीन कला, साहित्य और विज्ञान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गुप्तकालीन कला, साहित्य और विज्ञान:
गुप्त सम्राट कला, साहित्य और विज्ञान के पोषक थे। कला के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी प्रशंसनीय उपलब्धियाँ रही हैं। वास्तुकला के क्षेत्र में उन्होंने अनेक मंदिरों एवं भवनों का निर्माण करवाया। मथुरा का शिव मंदिर और देवगढ़ इसी काल में बनाया गया।

गुप्तकाल में निर्मित अजन्ता की गुफायें विश्व प्रसिद्ध हैं। गुप्तकालीन मठ तथा स्तूप भी भवन निर्माण कला के उत्तम उदाहरण हैं। इसी के साथ मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला और मुद्राकला आदि की भी खूब उन्नति हुई। प्रस्तर मूर्तियों में बुद्ध, बोधिसत्व, विष्णु, शिव और सूर्य आदि की मूर्तियाँ कलात्मकता की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं।

गुप्तकाल में साहित्य की भी खूब उन्नति हुई। गुप्तकालीन कालिदास के ग्रन्थ-अभिज्ञान शाकुन्तलम् मेघदूत और कुमारसम्भव, विशाखादत्त का देवीचन्द्रगुप्तम्। भास का स्वप्नवासवदत्ता आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। गुप्तकाल में लिखे गये सभी नाटक सुखान्त हैं।

विज्ञान और गणित के क्षेत्र में गुप्तकाल की उपलब्धियाँ महान् हैं। दशमलव पद्धति का जन्म इसी काल में हुआ। आर्यभट्ट उस काल का एक ज्योतिषी एवं गणितज्ञ था। उसने पता लगाया कि पृथ्वी गोल है तथा अपनी धूरी पर सूर्य के चारों ओर घुमती है।

प्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर ने (वृहद्संहिता) और योगमाया जैसे अनेक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे। आयुर्वेद के क्षेत्र में नागार्जुन ने रसायनशास्त्र की रचना की। गुप्तकाल में धातु कर्म काफी विकसित था। नालन्दा से प्राप्त बुद्ध की तांबे की मूर्तियाँ अत्यन्त आकर्षक हैं। दिल्ली में महरौली स्थित लोहे का स्तम्भ भी धातुकला एवं इंजीनियरिंग का एक आकर्षक नमूना है। इस प्रकार गुप्तकाल में कला, साहित्य एवं विज्ञान की अभूतपूर्व उन्नति हुई।

प्रश्न 15.
गुप्तकालीन सामाजिक एवं आर्थिक जीवन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गुप्तकालीन भारतीय समाज की मुख्य विशेषताएँ:
गुप्तकाल में ब्राह्मणों का महत्त्व बढ़ गया था। उन्हें राजाओं से पर्याप्त भूमि अनुदान प्राप्त हुआ। वर्ण-संकर के कारण अनेक जातियों और उपजातियों का जन्म हुआ।

विदेशियों को क्षत्रिय वर्ण में रखा गया। भूमि अनुदान द्वारा पिछड़े लोग उच्च वर्ण और कबायली निम्नवर्ग में शामिल हो गये। शूद्रों में ‘चाण्डाल’ नामक नई अछूत जाति बनी। उन्हें नगर से बाहर रहना पड़ता। गुप्तकाल में स्त्रियों की दशा पतनोन्मुखी थी। वे उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकती थीं। बाल-विवाह का प्रचलन था और स्त्रियों का अधिकार केवल स्त्री-धन (वस्त्र और आभूषण) तक सीमित जाति बनी थी। उच्च वर्ण के लोग सभी प्रकार से सुखी थे।

आर्थिक जीवन:
गुप्तकाल का आर्थिक जीवन सुखी और सम्पन्न था। गुप्त शासकों ने सर्वाधिक स्वर्ण-मुद्रायें जारी की। इस काल में तांबे की बहुत कम मुद्रायें मिलती हैं। भारत का रेशम व्यापार बंद हो गया था। इस काल में कृषि की उन्नति हुई परंतु किसानों से बड़े पैमाने पर पेगार लिया जाता था। अनेक क्षेत्रों में परती भूमि का उपयोग किया गया। आंतरिक व्यापार विकसित था।

प्रश्न 16.
‘पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी’ का लेखक कौन है? उसने व्यापार के विषय में क्या लिखा है?
उत्तर:
पेरिप्लस ऑफ एरीशियन सी:

  1. पेरिप्लस ऑफ एरीथियन सी का लेखक एक यूनानी समुद्री यात्री था।
  2. उसने समुद्र द्वारा होने वाले विदेशी व्यापार दर्शाने के लिए विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की सूची तैयार की थी।
  3. वह यह दिखाना चाहता था कि भारत से काली मिर्च तथा दाल-चीनी जैसे गर्म मसाले निर्यात किये जाते थे।
  4. इनके बदले में पुखराज, मूंगे तथा हीरे जैसी बहुमूल्य वस्तुओं का आयात किया जाता था।

प्रश्न 17.
भारत के राजनैतिक इतिहास के निर्माण में जेम्स प्रिसेंप का क्या योगदान है?
उत्तर:
जेम्स प्रिसेंप का योगदान –

  1. जेम्स प्रिसेंप ईस्ट इण्डिया कंपनी के एक अधिकारी थे। उन्होंने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का प्रयोग प्रारम्भिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है।
  2. उन्होंने यह जानकारी प्राप्त की कि अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी अर्थात् सुन्दर मुख – आकृति वाले राजा का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों में राजा का नाम अशोक भी लिखा था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक सर्वाधिक लोकप्रिय शासकों में से एक था।
  3. प्रिसेंप की इस खोज से आरम्भिक भारत के राजनीतिक इतिहास के अध्ययन को नई दिशा मिली, क्योंकि भारतीय और यूरोपीय विद्वानों ने उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की पुनर्रचना के लिए विभिन्न भाषाओं में उत्कीर्ण अभिलेखों और ग्रंथों का उपयोग किया।
  4. इस प्रकार 20वीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों तक उपमहाद्वीप के राजनैतिक इतिहास का ढाँचा तैयार हो गया।

प्रश्न 18.
छठी शताब्दी सा.यु.पू. के गणराज्यों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर:
छठी शताब्दी सा.यु.पू. के गणराज्य:
1. छठी शताब्दी सायु०पू० में निम्नलिखित गणराज्य थे:

  • (क) कुशीनारा के मल्ल
  • (ख) पावा के मल्ल
  • (ग) कपिलवस्तु के शाक्य
  • (घ) रामग्राम के कोलिय
  • (झ) वैशाली के लिच्छवि।

2. इन राज्यों की शासन पद्धति राजतंत्रीय राज्यों (महाजनपदों) से भिन्न थी। इनमें कोई राजा नहीं होता था। शासन सत्ता लोगों द्वारा चुने गये किसी मुखिया के हाथ में होती रहती। इनका पद पैतृक नहीं था।

3. सरकार का सारा कार्य चुने गए सदस्य आपसी परामर्श से करते थे।

4. छठी शताब्दी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गणराज्य वज्जियों का था। यह राज्य आठ गणों का एक संघ था जिनमें से लिच्छवी गण बहुत ही महत्त्वपूर्ण था।

प्रश्न 19.
अशोक को ‘महान्’ क्यों कहा जाता है? अथवा, अशोक का इतिहास में क्या स्थान है?
उत्तर:
इतिहास में अशोक का स्थान –

  1. अशोक न केवल भारत का अपितु विश्व का भी एक महान् सम्राट माना जाता है। उसमें मनुष्यता कूट-कूट कर भरी थी और उसने प्रजा तथा मानव सेवा के लिए हर उपाय किये। बह लोगों को धार्मिक तथा नैतिक उपदेश देने में जुट गया। संसार में शायद ही किसी सम्राट ने ऐसा किया हो।
  2. अशोक एक विशाल साम्राज्य का राजा था। उसका साम्राज्य पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक विस्तृत था।
  3. अशोक ने बौद्ध धर्म को विश्व के लगभग सभी देशों में फैला दिया। एक छोटे से धर्म को विश्व धर्म बना देने वाले व्यक्ति को महान् कहना उचित ही है।
  4. अशोक एक सहनशील सम्राट था और सभी धर्मों का आदर करता था।
  5. अशोक अपनी प्रजा को अपनी संतान के समान समझता था। राज्य की ओर से अनाथों तथा विधवाओं को विशेष सुविधा दी जाती थी। उसने पशुओं की रक्षा के लिए भी अस्पताल खुलवाये।

प्रश्न 20.
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबंध की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबंध –

  1. केन्द्रीय शासन का मुखिया स्वयं सम्राट होता था। उसकी शक्तियाँ असीम थी। उसकी सहायता के लिए कई मंत्री होते थे।
  2. सम्पूर्ण मौर्य साम्राज्य चार प्रान्तों में विभाजित था प्रांत के मुखिया को कुमार कहते थे। वह प्रायः राज घराने का ही कोई व्यक्ति होता था।
  3. नगरों का शासन नगराध्यक्ष के हाथ में होता था। बड़े-बड़े नगरों के प्रबंध के लिए 30-30 सदस्यों की परिषदें थीं।
  4. प्रत्येक परिषद् पाँच-पाँच सदस्यों के छः बोर्डों में विभाजित थी। गाँवों का शासन पंचायतों के हाथ में था।
  5. न्याय के लिए दीवानी और फौजदारी अदालतें थीं। प्रजा के हित की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था।
  6. चन्द्रगुप्त मौर्य का सैनिक संगठन भी उच्च कोटि का था। सेना में 6 लाख पैदल, 36 हजार घुड़सवार 9 हजार हाथी और 8 हजार रथ शामिल थे।

प्रश्न 21.
अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कौन-कौन से कार्य किये?
उत्तर:
अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए किये ये कार्य:

  1. कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने बौद्ध धर्म को अपना लिया और प्रचार के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया।
  2. उसने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करने के साथ ही उनका भी पालन किया। ये सिद्धांत जनता के कल्याण से सम्बन्धित थे।
  3. उसने बौद्ध धर्म के नियमों को स्तभों, शिलाओं तथा गुफाओं पर खुदवाया । ये नियम आम बोलचाल की भाषा में खुदवाये थे, ताकि साधारण लोग भी इन्हें पढ़ सकें।
  4. बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अनेक स्तूप और बिहार बनवाये जो बौद्ध धर्म के प्रचार केन्द्र बन गये। स्तूप महात्मा बुद्ध की याद दिलाते थे जबकि बिहार में बौद्ध अनुयायी निवास करते थे तथा बौद्ध शिक्षा ग्रहण करते थे।
  5. वह विहारों और बौद्ध भिक्षुओं की सहायता भी करता था।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
बौद्धयुगीन व्यापार एवं वाणिज्य का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बौद्धयुगीन व्यापार एवं वाणिज्य:

व्यावसायिक संघ और श्रेणियाँ:
इस काल की एक मुख्य विशेषता यह भी थी कि भिन्न-भिन्न व्यवसाय करने वालों या शिल्पकारों ने अपने-आपको विभिन्न संघ में संगठित कर रखा था। एक ही धंधा करने वालों का प्रायः अपना अलग शिल्प-संघ या श्रेणी होती थी। बौद्ध साहित्य में इस प्रकार की अनेक श्रेणियों के उल्लेख मिलते हैं।

प्रत्येक श्रेणी का अपना अलग अध्यक्ष होता था जो ‘प्रमुख’, ‘ज्येष्ठक’ या ‘श्रेष्ठिन’ के नाम से पुकारा जाता था। इस अध्यक्ष का समाज में बड़ा सम्मान था। विभिन्न व्यावसायिक संघ या श्रेणियाँ अपने सदस्यों के पारस्परिक झगड़ों को निपटाती थी और उनके माल के निर्माण और क्रय-विक्रय में सहायता देती थी।

व्यापार और वाणिज्य:
उस समय व्यापार जल और थल दोनों मार्गों से होता था। अपने सामान की बिक्री के लिए व्यापारियों ने बड़े-बड़े बाजार बना रखे थे। कुछ व्यापारी अपना सामान बैलगाड़ी, ऊँटों अथवा घोड़ों की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी ले जाते थे। ऐसे व्यापारी चोर-डाकुओं से बचने के लिए प्रायः कारवाँ (Caravan) के रूप में चलते थे। कई बार कुछ राज्य कारवाँ के साथ सशस्त्र सैनिक भी भेज देते थे।

बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि उन दिनों भारत के व्यापारिक संबंध लंका, वर्मा, जावा, सुमात्र, मलाया, अरब और कई पाश्चात्य देशों से भी थे। भारत से जिन वस्तुओं का निर्यात होता था उनमें-सूती, ऊनी तथा रेशमी वस्त्र, कंबल, कालीन, औषधियाँ, इत्र, तेल, हाथी-दाँत का सामान, मोती, रत्न आदि वस्तुएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। उस समय के प्रसिद्ध बन्दगाह-भृगुकच्छ (आधुनिक भडोंच), सुपारक (आधुनिक सुपारा) और ताम्रलिप्ति (पश्चिम बंगाल में स्थित तामलुक) आदि थे।

शिल्पकारों की भांति व्यापारियों ने भी अपने-आपको व्यापारिक संघों में संगठित कर रखा था। प्रायः सबसे धनी व्यापारी अध्यक्ष पद को ग्रहण करता था और उसे ‘श्रेष्ठिन’ या ‘सेठी’ कहा जाता था।

सिक्कों का आरम्भ:
वैदिक युग में लेन-देन में प्रायः चीजों का आदान-प्रदान ही होता था परंतु बौद्धकाल में मौद्रिक विनिमय ने स्थान ले लिया था। उस समय की कुछ प्रमुख मुद्राओं के नाम बौद्ध साहित्य में इस प्रकार दिये गये हैं-काकणिक, माषक, अर्द्धमाषक, पद, अर्द्धपद, कहापण (कर्षापण) तथा अर्द्धकर्षाण आदि।

ये सिक्के ताँबे और चाँदी आदि के होते थे। सोने के सिक्के भी थे जिन्हें निक्ख (या निष्क) और सुवण्ण (या सुवर्ण) कहा जाता था। इस समय ब्याज पर धन देने की प्रथा भी चल पड़ी थी और हुण्डियों तथा ऋण-पत्रों का प्रयोग भी होने लगा था।

प्रश्न 2.
अशोक के राज्यादेशों और शिलालेखों का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
अशोक के राज्यादेशों और शिलालेखों का महत्त्व:
अशोक के शिलालेख और राज्यादेश इतिहासकारों के लिए अमूल्य वस्तु हैं क्योंकि उनसे उसके विषय में बहुत सी बातों का पता चलता है। संभव है कि इन लेखों के बिना हमें अशोक के बारे में बहुत कम मालूम होता।

इनके विषय में ठीक ही कहा गया है, ये अभिलेखों के अनोखे संग्रह ही हैं जो अशोक की आन्तरिक भावनाओं और आदर्शों को हमारे सामने ला देते हैं और सदियों के बारे में भी सम्राट के लगभग वही शब्द हमारे कानों में गूंजने लगते है।” इन राज्यादेशों से हमें निम्नलिखित आवश्यक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं:

1. अशोक का राज्य विस्तार:
अशोक के बहुत-से लेख सीमांत प्रदेशों से मिले हैं। इनसे उसके साम्राज्य में सम्मिलित प्रदेशों और उनकी सीमाओं की जानकारी मिलती है।

2. अशोक का व्यक्तिगत धर्म:
इन्हीं लेखों से हमें यह भी पता चलता है कि अशोक का धर्म क्या था? अशोक का पशुओं का वध रोकना, महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित सभी स्थानों की यात्रा करना, अन्य देशों में धर्म प्रचारक भेजना और एक धर्म रक्षक की भाँति भिक्षुओं के लिए नियम बनाना आदि सब बातों का हमें इन्हीं राज्यादेशों से पता चलता है।

3. अशोक का विश्व धर्म:
इसके अतिरिक्त इन्हीं लेखों से उस धर्म का पता चलता है, जिसे अशोक संसार के सामने रखना चाहता था। बड़ों का आदर करना चाहिए, छोटों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, दान देना चाहिए आदि गुणों का हमें इन राज्योदेशों से पता चलता है जो अशोक के प्रचारित धम्म के मुख्य सिद्धांत थे।

4. अशोक के राजत्व के आदर्श:
अशोक के शिलालेखों या राज्यादेशों से उसके राजत्व के आदर्श का भी पता चलता है। अशोक का आदर्श लोगों पर शासन करना नहीं वरन् उनकी सेवा करना तथा उनमें नैतिकता का संचार करना था।

अशोक ने किस प्रकार एक पिता की भाति अपनी प्रजा पर राज्य किया, किस प्रकार उनके लिए कुएँ बनवाए, सरायं बनवाईं, छायादार वृक्ष लगवायें, अस्पताल बनवाये, अधिकारियों को लोक सेवा का पाठ पढ़ाया, आदि सब बातों का ज्ञान हमें इन्हीं राज्यादेशों से ही होता है।

5. अशोक का चरित्र:
अशोक के चरित्र पर भी इन शिलालेखों से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इन लेखों से हमें पता चलता है कि किस प्रकार वह हर समय लोगों की सेवा के लिए तत्पर रहता था और उनके लिए केवल इस लोक में ही नहीं वरन् परलोक में भी सुख-समृद्धि की कामना करता था।

6. मौर्य कला:
ये राज्यादेश बड़ी-बड़ी शिलाओं, स्तम्भों तथा गुफाओं पर खुदे हुए थे। इतने बड़े और भारी स्तम्भों को इतनी दूर किस प्रकार ले जाया गया होगा-यह आज भी आश्चर्य में डाल देने वाली बात है। पत्थरों को काटकर बनाए गए भिन्न-भिन्न पशु-पक्षी आज भी अपनी चमक बरकरार रखे हुए हैं।

7. शिक्षा प्रचार:
सारे देश में पाए गए ये राज्यादेश सर्व साधारण के पढ़ने के लिए थे। इन्हें देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अशोक के समय लोग काफी पढ़े-लिखे होंगे और शिक्षा का प्रचार भी काफी हुआ होगा।

8. प्रचलित भाषा:
ये लेख संस्कृत भाषा में न होकर प्राकृत (लोगों की बोल-चाल की भाषा) में हैं। इनसे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उन दिनों प्राकृत भाषा ही जन-साधारण की भाषा रही होगी।

9. अशोक का अन्य देशों से सम्बन्ध:
अशोक का अन्य देशों के साथ बड़ा मैत्रीपूर्ण व्यवहार था, इसका ज्ञान भी हमें राज्यादेशों से ही मिलता है।

प्रश्न 3.
मेगस्थनीज ने भारत के विषय में क्या लिखा है?
उत्तर:
मेगस्थनीज का विवरण:
मेगस्थनीज एक यूनानी इतिहासकार था जो यूनानी शासक सेल्यूकस की ओर से चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा गया था। वह कोई पाँच वर्ष (302 साव्यु०पू० से 298 सान्यु०पू० तक) भारत में रहा।

उसने भारत का वृत्तान्त अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘इण्डिका’ (Indica) में लिखा है। इस पुस्तक का विशेष ऐतिहासिक महत्त्व है। इससे तीसरी शताब्दी सा०यु०पू० की राजनीतिक एवं सामाजिक अवस्थाओं के सम्बन्ध में बड़ी जानकारी प्राप्त होती है।

1 राजा के विषय में:
मेगस्थनीज ने राजा के विषय में बहुत-कुछ लिखा है। वह लिखता है कि राजा बड़ी शान से रहता था और उसका राजमहल अपने ढंग का एक अद्वितीय सुन्दर महल था। राजा महल के एक कमरे में दो रातें इकट्ठी नहीं बिताता था। वह बहुत कम लोगों से मिलता-जुलता था और केवल निम्नलिखित चार कार्यों के लिए महल छोड़ता था:

  • (क) युद्ध में जाने के लिए
  • (ख) न्याय करने के लिए
  • (ग) यज्ञ या हवन के लिए तथा
  • (घ) शिकार अथवा भ्रमण के लिए।

राजा की देख-रेख के लिए गुप्तचर नियुक्त थे। इन गुप्तचरों में स्त्रियाँ अधिक थी। राजा अपने प्रधानमंत्री चाणक्य (कौटिल्य) का बहुत आदर करता था, जो महल के पास ही एक झोपड़ी में रहता था।

2. सैनिक संगठन के विषय में:
चन्द्रगुप्त की एक बड़ी विशाल सेना थी जिसकी संख्या लगभग सात लाख थी। जिसमें 6,00,000 पैदल; 30,000 घुड़सवार; 9,000 हाथी और लगभग 8,000 रथ थे। हर एक रथ में 3 व्यक्ति होते थे। मेगस्थनीज लिखता है कि समस्त सेना की व्यवस्था तीस सदस्यों की एक प्रथक् समिति करती थी। सेना-विभाग के छ: उप-विभाग थे। इनके अधिकार में –

  • पैदल सेना
  • घुड़सवार सेना
  • जल-सेना
  • रथ
  • हाथी और
  • सामग्री पहुँचाने का प्रबंध था।

3. सिविल प्रशासन के विषय में:
सिविल प्रबंध के विषय में भी मेगस्थनीज ने बहुत-कुछ लिखा है। वह लिखता है कि राजा निरंकुश था और उसके अधिकार असीमित थे। राजा ने सब प्रकार की सूचनायें प्राप्त करने के लिए अपने गुप्तचर छोड़ रखे थे। प्रजा पर कई प्रकार के कर लगाए गए थे। आय का सबसे बड़ा साधन भूमि-कर था जो कुल उपज का पाँचवा भाग होता था।

बिक्री की चीजों के आवोगमन और सरकारी नौकाओं पर बैठकर नदी पार करने पर भी कर लगाए गए थे। प्रजा की भलाई की और भी विशेष ध्यान दिया जाता था । जल-सिंचाई के लिए नहरें और यात्रा के लिए सड़कें बनी हुई थीं। सड़कों पर यात्रियों की सुविधा के लिये मील के पत्थर लगे हुए थे। इन सड़कों पर जाने वाले यात्रियों की रक्षा का पूरा-पूरा प्रबंध था और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सरायें बनी हुई थीं। सड़कों पर दोनों ओर छायादार वृक्ष भी लगे हुए थे। इन सब कारणों से व्यापार का अभूतपूर्व विस्तार हुआ।

मेगस्थनीज ने लिखा है कि कानून बड़े कठोर थे और छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी हाथ-पाँव काट दिए जाते थे। देश में न्यायालय भी थे। राजा न्याय करने के लिए उत्सुक रहता था। सारा देश प्रान्तों में बंटा हुआ था और उन प्रान्तों पर योग्य अधिकारी नियुक्त थे। ये देश में शान्ति व्यवस्था बनाए रखते थे। मेगस्थनीज लिखता है कि प्रान्त, जिलों में बंटे हुए थे और प्रत्येक जिले में कई गाँव होते थे। गाँव के मुखिया को गोप (Gope) कहते थे।

4. पाटलिपुत्र के नगर-प्रशासन के विषय में:
मेगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी के विषय में बहुत-कुछ लिखा है। उसके अनुसार यह नगर गंगा और सोन नदियों के संगम पर बसा हुआ था और बड़ा शोभनीय था। इस नगर के चारों ओर लकड़ी की एक चौड़ी दीवार थी, जो कि एक गहरी खाई से घिरी हुई थी। इसमें सदा पानी भरा रहता था।

राजमहल सुन्दरता और सजधज में अद्वितीय था। इसमें सुन्दर बाग और फल-फूलों वाले वृक्ष थे तथा सब प्रकार के मनोरंजन के साधन थे। इस नगर के प्रबंध के लिए तीस सदस्यों की एक समिति थी। समिति छ: उप-समितियों में बँटी हुई थी जिनके अधिकार में कला-कोशल, विदेशियों की देख-भाल, जनसंख्या की गिनती, व्यापार, बिकने वाली वस्तुएँ और कर वसूली का प्रबंध इत्यादि था।

5. भारतीय समाज के विषय में:
मेगस्थनीज लिखता है कि समाज सात वर्गों में विभक्त था –

  • (क) दार्शनिकों का राज्य में बड़ा नाम था।
  • (ख) परिषद्-सदस्य राजा को सलाह देते थे और राज्य के कार्य में उसकी सहायता करते थे।
  • (ग) तीसरी श्रेणी सैनिकों की थी। वे लड़ाई के समय युद्धरत रहते थे, अन्यथा आराम करते थे।
  • (घ) चौथी श्रेणी अन्य छोटे-छोटे अधिकारियों की थी, जो राज्य-प्रबंध में राजा और गवर्नरों की सहायता करते थे।
  • (ड) पाँचवीं श्रेणी कृषकों की थी जिनका कार्य देश के लिए अनाज पैदा करना था।
  • (च) छठी श्रेणी व्यापारियों तथा शिल्पकारों की थी। ये देश के व्यापार की ओर ध्यान देते थे।
  • (छ) सातवीं श्रेणी गड़रियों आदि की थी। ये भेड़-बकरी इत्यादि चराकर तथा शिकार करके अपना जीवन-निर्वाह करते थे।

मेगस्थनीज ने लिखा है कि लोग सत्यावादी थे। चोरी आदि की घटनायें बहुत कम होती थीं। लोग एक-दूसरे पर विश्वास रखते थे और मुकदमेबाजी बहुत कम थी। ब्राह्मणों का समाज में विशेष स्थान था और सब उनका आदर करते थे। प्रजा बड़ी प्रसन्न थी और देश बड़ा उपजाऊ तथा समृद्ध था। लोग सादा जीवन व्यतीत करते थे और घरों में ताला आदि नहीं लगाते थे। दास-प्रथा को लोग नहीं जानते थे। वह यह भी लिखता है कि यहाँ के लोगों के खाने का कोई समय नहीं था और वे हर वक्त खाते रहते थे।

प्रश्न 4.
मौर्यकालीन कला-कौशल का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
मौर्यकालीन कला:
1. भवन-निर्माण-कला (Architecture): मौर्य शासकों ने जो भवन बनवाए उन्हें देखकर विदेशी यात्री भी चकित रह गए। ये भवन अधिकतर लकड़ी के थे, इसलिए मौर्यकालीन शिल्प-कला की सुन्दरता के कोई विशेष नमूने हम नहीं देख पाए हैं। यूनानी लेखकों से पता चलता है कि मौर्य शासकों द्वारा बनाए गये राजमहल अपनी सुन्दरता के लिए सारे संसार में प्रसिद्ध थे।

केवल यही नहीं, चीनी यात्री फाह्यान (Fahien) का भी यही कहना है कि, “अशोक का राजमहल इतना सुन्दर तथा शानदार था कि उसे मनुष्यों ने नहीं बल्कि देवताओं ने बनवाया होगा।” इन राजमहलों के अतिरिक्त मौर्य शासकों ने अपने साम्राज्य को कई हजार स्तूपों (Stupas) से सजाया। ये स्तूप ईंटों अथवा पत्थरों द्वारा बनाए हुए गुम्बद के आकार के थे। इनकी गोलाई नीचे से ऊपर की ओर कम होती जाती थी। इन सब स्तूपों में साँची स्तूप (Sanchi Stupa) और भरहुत स्तूप (Bharhut Stupa) विशेष उल्लेखनीय हैं।

2. वास्तुकला (Sculpture):
मौर्य काल में पत्थर को तराश कर सुन्दर-सुन्दर स्तम्भ, पशु-पक्षी, मूर्तियाँ, गुफाएँ आदि बनाने की कला से जितनी उन्नति की, भारतीय इतिहास के शायद ही किसी काल में इतनी हुई हो। मौर्यकालीन कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने अशोक के स्तम्भ हैं। ये स्तम्भ 50 से 60 फुट ऊँचे हैं और इनका वजन 50 टन है। आश्चर्य की बात है कि इतने लम्बे-चौड़े और भारी स्तम्भ एक ही टुकड़े से काटकर कैसे बनाए गए होंगे। यद्यपि ये स्तम्भ इतने भारी हैं फिर भी इन्हें सुनार के आभूषणें सी सफाई तथा सुन्दरता से बनाया गया है। प्रत्येक स्तम्भ के सिरे पर एक अलग शीर्ष (Capital) बनाया गया है।

इन शीर्षों पर बने हुए पशु-पक्षियों के चिह्न अपनी सुन्दरता में बेजोड़ हैं। सारनाथ (Sarnath) के स्तम्भ का तीन शेरों वाला शीर्ष मौर्य काल की उन्नति का जीता-जागता नमूना है। इसको आधुनिक भारतीय मुद्रा में भी अपनाया गया है। मौर्यकालीन वास्तुकला का एक अन्य नमूना ठोस चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाएँ हैं। पत्थरों को काटकर गुफाएँ बनाना कितना कठिन कार्य है परंतु मौर्य काल में इसका बड़ी कुशलता के साथ किया गया।

3. पालिश करने की कला (Art of Polishing):
मौर्य काल में कठोर पत्थर को साफ करके पालिश करने की कला इतनी उन्नत थी कि आज के युग में ऐसा कर पाना संभव नहीं है। गया के पास गुफाओं की दीवारों पर इस प्रकार की पालिश की गई है कि वे शीशे के समान चमकती हैं। दिल्ली के फिरोजशाह कोटला स्थित अशोक की लाट पर इतनी चमकदार पालिश है कि अंग्रेज पादरी हेबर (Bishop Haber) जैसे बहुत-से लोगों को अनेक बार यह भ्रम हुआ कि यह स्तम्भ पत्थर का है अथवा धातु से ढालकर बनाया गया है।

4. स्थापत्य कला (Art of Engineering):
अशोक के काल में पहाड़ों के बड़े-बड़े – टुकड़े काटे गये, संभाले गये और तराश कर ऐसे स्तम्भों के रूप में लाये गए, जिनमें प्रत्येक का वजन लगभग 50 टन और ऊँचाई 50 फुट थी। पत्थरों के ये बड़े-बड़े टुकड़े सम्भवतः चुनार (Chunar) की पहाड़ियों से काटे गये थे। आज भी वहाँ ऐसे अच्छे पत्थर मिलते हैं। ये स्तम्भ हमें दूर-दूर के स्थानों में मिलते हैं। इन्हें इतनी दूर तक किस प्रकार ले जाया गया होगा यह एक आश्चर्य में डाल देने वाली बात है।

इस कठिनाई का ज्ञान हमें एक उदाहरण से आसानी से लग म ए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू (उच्च माध्यमिक) सकता है। 1356 में सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने अम्बाला जिले में स्थित तोपरा नामक स्थान से एक स्तम्भ दिल्ली लाना चाहा। कहते हैं कि इसको लाने में 8,400 मनुष्य लगे और 42 पहिए वाले छकड़े का प्रयोग किया गया। इस प्रकार एक पहिये को खींचने के लिए लगभग 200 व्यक्ति लगाए गए थे। इससे ज्ञात होता है कि अशोक के समय में स्थापत्य कला ने कितनी उन्नति की।

प्रश्न 5.
अशोक के धम्म का क्या अर्थ है? उसकी प्रमुख विशेषतायें बताइए। इसका अशोक की साम्राज्य नीति पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
‘धम्म’ का अर्ध:
अशोक ने अपने ‘धम्म’ के कारण विश्वभर में ख्याति प्राप्त कर ली थी। वस्तुतः कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने अपने जीवन का उद्देश्य मनुष्य सहित जीव मात्र का कल्याण करना बना लिया था। उसका विश्वास था कि उच्च कोटि के नैतिक जीवन के बिना कोई व्यक्ति सुखी नहीं रह सकता। उसने लोगों के जीवन की नैतिकता सुनिश्चित करने के लिए ही ‘धम्म’ का महान् बीड़ा उठाया। कुछ इतिहासकारों का विश्वास है कि अशोक का धर्म बौद्ध धर्म पर आधारित था, क्योंकि वह अहिंसा में विश्वास रखता था।

डा. आर. जी. भण्डारकर के अनुसार, “अशोक का धर्म, धर्म-निरपेक्ष बौद्ध धर्म के अतिरिक्त कुछ नहीं था।” डॉ. एन. के. शास्त्री ने भी ऐसा ही कुछ कहा है, “अशोक ने बौद्ध धर्म को एक शुष्क बौद्ध ज्ञान की खोज के स्थान पर एक आकर्षक, भावात्मक एवं लोकप्रिय धर्म में परिवर्तित कर दिया।

“यह अलग बात है कि ऐसी धारणाएँ सही प्रतीत नहीं होती। बौद्ध धर्म में चार आर्य सत्यों एवं अष्टमार्ग का उल्लेख है परंतु अशोक के धम्म में इसका कोई जिक्र नहीं है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार अशोक का धर्म वैदिक धर्म पर आधारित था, क्योंकि अशोक स्वर्ग में विश्वास रखता था परंतु इस विचार को नहीं माना जा सकता, क्योंकि अशोक का विश्वास रीति-रिवाजों तथा बलि आदि प्रथा में नहीं था।

अशोक के धम्म का उल्लेख उसके अभिलेखों में बार-बार आता है। इनका अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि धम्म वस्तुतः नैतिक जीवन व्यतीत करने के नियमों का संग्रह था । यह प्रत्येक धर्म में मिलता है और प्रत्येक धर्म इस पर आधारित है। यह कोई नया धर्म नहीं था । डा. राधा कुमुद मुकर्जी (R.K. Mookerjee) ने लिखा है

“His origniality lay not in idea of Dhamma but in the practical measures for its adoption by the people.”

अशोक के धम्म की विशेषतायें:
अशोक के धम्म के उपर्युक्त सिद्धांत का अध्ययन करने पर वह निष्कर्ष निकलता है कि इसकी कुछ खास विशेषतायें थीं जिसके कारण यह इतनी शीघ्रता से देश-विदेश में फैल गया और जनता में इस सीमा तक लोकप्रिय हो गया । इस धम्म की मुख्य विशेषतायें निम्नलिखित थीं

1. नैतिकता:
अशोक के धम्म की सबसे बड़ी विशेषता इसका नैतिकता पर आधारित होना है। इसीलिए इस धर्म को नैतिकता का नियम अथवा पवित्रता का नियम (Law of Piety) कहा जाता है। वस्तुतः अशोक का धम्म कोई विशेष धर्म न होकर नैतिकता के सिद्धांतों का एक संग्रह था। अर्थात् उसका धर्म मानवता का धर्म था जिसे कोई भी मनुष्य प्रत्येक देश तथा प्रत्येक काल में अपने जीवन को कल्याणमय बनाने के लिए अपना सकता था। इस प्रकार सभी नैतिक गुणों का समावेश होने के कारण ही उसका धर्म इतनी शीघ्रता से सारे संसार में लोकप्रिय हो गया।

2. सहनशीलता:
अशोक के धम्म की दूसरी महान् विशेषता इसकी सहिष्णुता थी। स्वयं बौद्ध धर्म का अटल भक्त होते हुए भी अशोक ने कभी भी अपने धम्म को दूसरों पर लादने को कोशिश नहीं की और न कभी दूसरे धर्मों को हेय दृष्टि से देखा। अपने धर्म के साथ-साथ वह दूसरे धर्मों को भी सम्मान देता था। उसके इस गुण ने लोगों पर अत्यन्त गहरा प्रभाव डाला और लोगों ने बड़ी तत्परता से उसके पवित्रता के नियमों को अपना लिया।

3. सार्वभौमिकता:
अशोक के धम्म की दूसरी बड़ी विशेषता इसके सार्वभौमिक होने की थी। यह धम्म एक संकीर्ण सम्प्रदाय न होकर मानवता का धर्म था जिसे प्रत्येक व्यक्ति नि:संकोच अपना सकता था।

डॉ. आर. के. मुकर्जी के अनुसार, ‘अशोक ने अपने धर्म में उन सिद्धांतों का समावेश किया जो सर्वमान्य हैं और जिन्हें सारी मानव जाति पर लागू किया जा सकता है। उसका धर्म न केवल बौद्ध धर्म था बल्कि सभी धर्मों का सार अथवा निचोड़ था जिसे कोई देश अथवा जाति किसी भी समय अपना सकती थी।

इस प्रकार नैतिकता, सहिष्णुता और सार्वभौमिकता के कारण ही अशोक का धर्म न केवल भारत अपितु नेपाल, सीरिया और लंका आदि देशों में भी लोकप्रिय हो पाया।

अशोक के धम्म का उसकी साम्राज्य नीति पर प्रभाव:

  • (क) अशोक ने किसी नवीन धर्म का प्रतिपादन नहीं किया। उसका धम्म उच्च नैतिक आदर्शों का संग्रह मात्र था। वह धार्मिक मतभेदों का अन्त करके सभी धर्मों में समन्वय तथा एकता लाना चाहता था।
  • (ख) अशोक के उच्च धार्मिक आदर्शों एवं सिद्धांतों ने उसे जन-कल्याण के कार्यों की ओर प्रेरित किया।
  • (ग) अशोक ने दिग्विजय के स्थान पर धर्म-विजय को अपनी साम्राज्य नीति का आधार बनाया।
  • (घ) अशोक की प्रबल धार्मिक भावना तथा धर्म-प्रचार के कारण उसके साम्राज्य में अपराधों की संख्या कम हो गयी।
  • (ड) अशोक ने अपनी साम्राज्य नीति में अहिंसा, सहनशीलता और आपसी मेल-जोल को स्थान दिया।
  • (च) इससे प्रजा में राजभक्ति को बढ़ावा मिला।

प्रश्न 6.
मौर्य साम्राज्य के पतन के कौन-कौन से कारण थे? इसमें अशोक कहाँ तक उत्तरदायी था?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण:
अशोक मौर्य वंश का सबसे महान् शासक था किन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् कोई पचास वर्ष (322-185 सा०यु०पू०) में ही इतना बड़ा साम्राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो गया। इसे जानने के लिए हम सब बड़े उत्सुक हो जाते हैं कि इस साम्राज्य का इतना शीघ्र पतन होने के क्या कारण थे ? इन कारणों का उल्लेख निम्नवत किया जा सकता है –

1. कमजोर उत्तराधिकारी:
चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक जैसे शासकों में इतनी सामर्थ्य तथा बुद्धि नहीं थी कि एक विशाल साम्राज्य को सम्भाल सकें। अशोक के उत्तराधिकारी दशरथ, सम्प्रति और बृहद्रथ बहुत कमजोर थे। वे शासन की बागडोर संभाल न सके और ऐसे में मौर्य साम्राज्य का पतन होना स्वाभाविक ही था।

2. उत्तराधिकार व्यवस्था का अभाव:
मौर्य साम्राज्य में उत्तराधिकारी को नियुक्त करने का कोई विशेष नियम न था। कहा जाता है कि अशोक के उत्तराधिकारी कुणाल को उसकी सौतेली माता द्वारा अन्धा करवा दिया गया। इस प्रकार राजकुमारों के आपसी झगड़ों और उनमें बहु-विवाह की प्रथा ने राजमहल को षड्यंत्रों का अड्डा बना दिया। ऐसे वातावरण में मौर्य साम्राज्य का पतन अवश्यम्भावी ही था।

3. आन्तरिक विद्रोह:
आन्तरिक विद्रोहों ने भी मौर्यों के पतन में बड़ा भारी भाग लिया । अशोक की मृत्यु के पश्चात् कमजोर उत्तराधिकारी राज्य करने लगे जिसका दूर-दूर के राज्यों के गवर्नरों ने भी पूरा लाभ उठाया। कंधार प्रान्त में वीरसेन और कश्मीर में जुलक स्वतंत्र हो गए। डॉ. त्रिपाठी (Dr. Tripathi) के अनुसार, “इन विद्रोहों ने शासकों की शक्ति क्षीण कर दी और जब तूफान फट पड़ा तो वे उसके साथ ही बह गए।”

4. विदेशों में राजदूतों का न होना:
प्राचीन शासन-व्यवस्था में विदेशी विभाग प्रायः नहीं होता था और विदेशों में दूत आदि भी नहीं भेजे जाते थे। इसके कारण पड़ोसी देशों की आंतरिक स्थिति और योजना का कोई संकेत नहीं मिल पाता था। किसी बात का पता उस समय चलता था जब शत्रु सिर पर आ जाता था। यह कमी भी मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण बनी।

5. विदेशी आक्रमण:
मौर्य साम्राज्य को पतन की ओर जाते देख कर बाहर के आक्रमणकारियों ने भी भारत की ओर अपने कदम बढ़ाए। उन्होंने बार-बार भारत पर आक्रमण करने आरम्भ कर दिए और देश को बहुत हानि पहुँचाई। हिन्द-यूनानियों तथा हिन्द-पार्धियनों के आक्रमणों ने मौर्य साम्राज्य को बड़ा धक्का पहुँचाया।

6. धन की कमी:
अशोक के उत्तराधिकारी कुछ काल तक अपने-आप को आन्तरिक विद्रोहों तथा विदेशी आक्रमणों से बचाते रहे परंतु धीरे-धीरे उनकी आर्थिक दशा खराब होती गई। धन की कमी और उसके अनुचित प्रयोग के कारण मौर्य वंश के अंतिम राजा साम्राज्य के लगातार बढ़ते दायित्वों को न सँभाल पाए।

अशोक का उत्तरदायित्व:
अनेक राजवंशों की भाँति अन्त में मौर्य वंश का भी अनेक कारणों से पतन होना आवश्यक था। इस पतन में अशोक का बड़ा उत्तरदायित्व था जो निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित है:

1. सैनिक शक्ति की कमी:
मौर्य साम्राज्य के पतन का सबसे बड़ा कारण सैनिक शक्ति का क्षीण होना था। कलिंग विजय के पश्चात् अशोक ने अन्य देशों को जीतना छोड़ दिया। इससे सैन्य-शक्ति को बड़ा धक्का लगा। जब सिपाहियों के लिए लड़ने का कोई काम न रहा, तो वे युद्ध कला को भूलने लगे और अशोक के राज्यकाल के चालीस वर्षों में वे बिल्कुल नकारा तथा आलसी हो गए। अशोक के पश्चात् दूरस्थ प्रदेशों में विद्रोह होने लगे तो ऐसे सैनिक उनको दबाने में असमर्थ रहे।

2. ब्राह्मणों की तीव्र प्रतिक्रिया:
श्री पी.एच. शास्त्री का कहना है कि मौर्य वंश के पतन का मुख्य कारण अशोक की ब्राह्मण-विरोधी नीति थी। बौद्ध धर्म को अपना लेने तथा राजकोष से केवल बौद्ध भिक्षुओं की सहायता करने से ब्राह्मणों की दशा खराब हो गई और समाज में उनका सम्मान घटने लगा।

अशोक से पहले प्रतिष्ठा प्राप्त इस वर्ग के लोग मौर्य शासकों तथा उनकी नीति के घोर विरोधी हो गए और अन्त में एक ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र (Pushyamitra) ने ही मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ का वध करके इस वंश को समाप्त कर दिया।

3. मौर्य साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार:
उन दिनों आवागमन के साधन बहुत सीमित थे। हिमालय से लेकर सुदूर दक्षिण तक और बंगाल से हिन्दूकुश पर्वत तक फैले हुए इस विशाल साम्राज्य को परिवहन साधनों के अभाव में बनाए रखना कठिन हो गया था। चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक जैसे शक्तिशाली सम्राटों के लिए ऐसा करना किसी सीमा तक संभव था परंतु बृहद्रथ जैसे कमजोर भला इतने बड़े साम्राज्य को कब तक अपने अधीन रख सकते थे।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अभिलेखों की निम्नलिखित में कौन सीमा नहीं है?
(अ) अभिलेख देश के कुछ ही भागों में मिलते हैं।
(ब) कुछ अभिलेखों के अक्षर हल्के हैं।
(स) कुछ अभिलेखों के अक्षर लुप्त हो गये हैं।
(द) अभिलेख के तथ्य का अर्थ निकालना कठिन है।
उत्तर:
(अ) अभिलेख देश के कुछ ही भागों में मिलते हैं।

प्रश्न 2.
भारत में सबसे अधिक अभिलेख किसके मिले हैं?
(अ) अशोक
(ब) समुद्रगुप्त
(स) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
(द) कनिष्क
उत्तर:
(अ) अशोक

प्रश्न 3.
जेम्स प्रिंसेप ने अशोककालीन ब्राह्मी लिपि का अर्थ कब निकाला?
(अ) 1738 ई०
(ब) 1838 ई०
(स) 1938 ई०
(द) 1947 ई०
उत्तर:
(ब) 1838 ई०

प्रश्न 4.
आह्त सिक्कों को किसने जारी किया?
(अ) राजा ने
(ब) व्यापारियों ने
(स) नागरिकों ने
(द) उपर्युक्त सभी ने
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी ने

प्रश्न 5.
उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र के साथ क्या नहीं मिला है?
(अ) मोबाइल
(ब) सोने की वस्तुएँ
(स) चाँदी की वस्तुएँ
(द) उपकरण
उत्तर:
(अ) मोबाइल

प्रश्न 6.
प्रभावती गुप्त कौन थी?
(अ) समुद्रगुप्त की पुत्री
(ब) चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री
(स) कुमारगुप्त की पुत्री
(द) स्कन्दगुप्त की पुत्री
उत्तर:
(ब) चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री

प्रश्न 7.
राजा के आतंक से तंग आकार लोग क्या करते थे?
(अ) घर में अपने को बंद करते थे।
(ब) राजा को मार देते थे।
(स) घर को छोड़कर जंगल में भाग जाते थे।
(द) आत्महत्या कर लेते थे।
उत्तर:
(स) घर को छोड़कर जंगल में भाग जाते थे।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित में कौन सामन्तों से संबंधित नहीं था?
(अ) राजा से वेतन लेते थे।
(ब) अपना निर्वाह स्थानीय संसाधनों से करते थे।
(स) भूमि पर नियंत्रण रखते थे।
(द) शासकों का आदर करते थे।
उत्तर:
(अ) राजा से वेतन लेते थे।

प्रश्न 9.
अशोक ने साम्राज्य को अखंड करने के लिए क्या किया?
(अ) शक्तिशाली सेना का निर्माण किया।
(ब) उसने धम्म का प्रचार किया।
(स) सीमा रक्षकों की नियुक्ति की।
(द) सीमा पर तार लगवायें।
उत्तर:
(ब) उसने धम्म का प्रचार किया।

प्रश्न 10.
प्राचीन भारत के एक ऐसे क्षेत्र का नाम बताइए जहाँ राज्य और नगर सघन रूप से बसे थे –
(अ) दक्षिण भारत
(ब) उत्तर-पश्चिमोत्तर प्रान्त
(स) पूर्वी भारत
(द) पश्चिम भारत
उत्तर:
(स) पूर्वी भारत

प्रश्न 11.
प्राचीनतम् अभिलेख किस भाषा में लिखे गये?
(अ) प्राकृत
(ब) संस्कृत
(स) यूनानी
(द) हिन्दी
उत्तर:
(अ) प्राकृत

प्रश्न 12.
संघ या गणराज्यों में किसका शासन था?
(अ) राजा
(ब) लोगों के समूह का
(स) मंत्रियों का
(द) किसी का नहीं
उत्तर:
(ब) लोगों के समूह का

प्रश्न 13.
सबसे पहले पाटलिपुत्र (पटना) राजधानी कब बनी?
(अ) छठी शताब्दी सा०यु०पू० में
(ब) पाँचवी शताब्दी सा०यु०पू० में
(स) चौथी शताब्दी सा०यु०पू० में
(द) दूसरी शताब्दी साव्यु०पू० में
उत्तर:
(स) चौथी शताब्दी सा०यु०पू० में

प्रश्न 14.
वह प्रथम सम्राट कौन था जिसने पत्थरों और स्तम्भों पर प्रजा और अधिकारियों के लिए सन्देश खुदवाये?
(अ) अशोक
(ब) कनिष्क
(स) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
(द) हर्षवर्धन
उत्तर:
(अ) अशोक


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