BSEB Class 12 Political Science The Cold War Era Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 12th Political Science The Cold War Era Book Answers |
Bihar Board Class 12th Political Science The Cold War Era Textbooks Solutions PDF
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Board | BSEB |
Materials | Textbook Solutions/Guide |
Format | DOC/PDF |
Class | 12th |
Subject | Political Science The Cold War Era |
Chapters | All |
Provider | Hsslive |
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BSEB Class 12th Political Science The Cold War Era Textbooks Solutions with Answer PDF Download
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प्रश्न 1.
शीतयुद्ध के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा गलत सत्य है?
(क) यह संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और उनके साथी देशों के बीच की एक प्रतिस्पर्धा थी।
(ख) यह महाशक्तियों के बीच विचारधाराओं को लेकर एक युद्ध था।
(ग) शीतयुद्ध ने हथियारों की होड़ शुरू की।
(घ) अमेरीका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
उत्तर:
(घ) अमेरीका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
प्रश्न 2.
निम्न में से कौन-सा कथन गुट-निरपेक्ष आंदोलन के उद्देश्यों पर प्रकाश नहीं डालता?
(क) उपनिवेशवाद से मुक्त हुए देशों को स्वतंत्र नीति अपनाने में समर्थ बनाना।
(ख) किसी भी सैन्य संगठन में शामिल होने से इंकार करना।
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
(घ) वैश्विक आर्थिक असमानता की समाप्ति पर ध्यान केन्द्रित करना।
उत्तर:
(ग) वैश्विक मामलों में तटस्थता की नीति अपनाना।
प्रश्न 3.
नीचे महाशक्तियों द्वारा बनाए सैन्य संगठनों की विशेषता बताने वाले कुछ कथन दिए गए हैं। प्रत्येक कथन के सामने सही या गलत का चिह्न लगाएँ।
(क) गठबंधन के सदस्य देशों को अपने भू-क्षेत्र में महाशक्तियों के सैन्य अड्डे के लिए स्थान देना जरूरी था।
(ख) सदस्य देशों को विचारधारा और रणनीति दोनों स्तरों पर महाशक्ति का समर्थन करना था।
(ग) जब कोई राष्ट्र किसी एक सदस्य-देश पर आक्रमण करता था तो इसे सभी सदस्य देशों पर आक्रमण समझा जाता था।
(घ) महाशक्तियाँ सभी सदस्य देशों को अपने परमाणु हथियार विकसित करने में मदद करती थीं।
उत्तर:
(क) सही
(ख) सही
(ग) सही
(घ) गलत
प्रश्न 4.
नीचे कुछ देशों की एक सूची दी गई है। प्रत्येक के सामने लिखें कि वह शीतयुद्ध के दौरान किस गुट से जुड़ा था?
(क) पोलैंड
(ख) फ्रांस
(ग) जापान
(घ) नाइजीरिया
(ङ) उत्तरी कोरिया
(च) श्रीलंका
उत्तर:
(क) पूर्वी गुट (सोवियत संघ गुट)
(ख) पश्चिमी गुट (अमेरिका का गुट)
(ग) जापान (पूँजीवाद गुट)
(घ) नाइजीरिया (साम्यवादी गुट)
(ङ) श्रीलंका (साम्यवादी गुट)
प्रश्न 5.
शीतयुद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियंत्रण-ये दोनों ही प्रक्रियाएँ पैदा हुईं। इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण थे?
उत्तर:
यही सही है कि शीतयुद्ध से हथियारों की होड़ और हथियारों पर नियंत्रण दोनों ही प्रक्रियाएँ हुई। जहाँ तक हथियारों की होड़ के कारणों का सवाल है –
संदेह और प्रतिद्वन्द्विता के कारण हुआ। 1945 में अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराए जाने के बाद जापान के आत्म-समर्पण के पश्चात् द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया। परंतु विभिन्न राष्ट्रों में एक-दूसरे के प्रति शंका और भय बना रहा। उन्हें अपने ऊपर आक्रमण की आशंका बनी रही। इससे अपने को सुरक्षित रखने के लिए विभिन्न राष्ट्रों ने हथियार बनाना शुरू कर दिया। हथियार बनाने की उसकी महत्वाकांक्षाएँ बढ़ती गई और वे हथियारों का जखीरा तैयार करने लगे। सभी राष्ट्र एक-दूसरे से अधिक हथियार बनाने लगे। अब हथियारों की होड़ शुरू हो गई जर्मनी 4 पनडुब्बी बनाता तो इंग्लैंड 8 पनडुब्बी बनाता। इस प्रकार विभिन्न देशों में हथियारों की होड़ की प्रक्रिया शुरू हो गई। परमाणु हथियार भी बड़े पैमाने पर बनने लगे। दोनों महाशक्तियाँ परमाणु हथियारों की दृष्टि से प्रतिद्वन्द्विता करने लगीं।
परमाणु हथियारों की होड़ से खतरा बढ़ गया। अतः हथियारों पर नियंत्रण आवश्यक हो गया। शीतयुद्ध शुरू होने के पीछे यह समझ भी काम कर रही थी कि परमाणु बम से होने वाले विध्वंस की मार झेलना किसी भी राष्ट्र के बूते की बात नहीं थी। यह एक सीधा-सादा लेकिन असरदार कारण था। परमाणु युद्ध की सूरत में दोनों गुटों को इतना नुकसान उठाना पड़ता कि उनमें से विजेता कौन है-निश्चित करना मुश्किल हो जाता। इसी कारण समय रहते अमेरिका और सोवियत संघ ने कुछ परमाण्विक और अन्य हथियारों को सीमित या समाप्त करने के लिए आपस में सहयोग करने का निर्णय किया।
प्रश्न 6.
महाशक्तियाँ छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन क्यों रखती थी? तीन कारण बताइए?
उत्तर:
महाशक्तियों द्वारा छोटे देशों के साथ सैन्य गठबंधन रखने के निम्नलिखित तीन कारण थे –
- छोटे देश से महाशक्तियाँ अपने हथियार और सेना का संचालन करना चाहती थी।
- महाशक्तियाँ छोटे देशों में सैनिक ठिकाने स्थापित करना चाहती थीं जिसमें वे एक-दूसरे की जासूसी कर सके।
- छोटे-छोटे देश सैन्य खर्च वहन करने में मददगार हो सकते थे।
प्रश्न 7.
कभी-कभी कहा जाता है कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के समर्थन में एक उदाहरण दें।
उत्तर:
कभी-कभी हम सहमत हो सकते हैं कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। दोनों गुट एक-दूसरे के प्रति अपने को अधिक शक्तिशाली दिखाना चाहते थे। इसलिए हथियारों की होड़ शुरू हो गई थी। एक गुट या एक देश दो मिसाइलें बनाता तो उसका विरोधी गुट चार मिसाइलें बना देता। फिर पहला गुट चार से अधिक बना लेता तो दूसरा गुट फिर उससे अधिक बनाता। दोनों गुट अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक देशों को अपने गुट में शामिल करने का प्रयास करते थे।
ऐसा करने के लिए वे बल का भी प्रयोग करते थे। 1962 ई. में खुश्चेव (सोवियत संघ का नेता) ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए क्यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात की। इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमेरिका निकट निशाने की सीमा में आ गया। अमेरिका ने इसको रोकने का प्रयास किया। क्यूबा भी साम्यवादी देश था। साम्यवादी सोवियत संघ ने विचार-धारा पर ध्यान न देकर क्यूबा के लिए संकट उत्पन्न कर दिया।
शीतयुद्ध का विचारधारा से संबंध न होने का उदाहरण जापान भी है। जापान एक पूँजीवादी देश था, परंतु पूँजीवादी अमरीका ने अपनी शक्ति बढ़ाने और प्रभुत्व जमाने के लिए उसके दो शहरों-हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए। फलस्वरूप जापान को घुटने टेकने पड़े और उसका भारी नुकसान हुआ। इसलिए कहा जा सकता है कि शीतयुद्ध सीधे तौर पर शक्ति के लिए संघर्ष था और इसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं था।
प्रश्न 8.
शीतयुद्ध के दौरान भारत की अमेरिका और सोवियत संघ के प्रति विदेश नीति क्या थी? क्या आप मानते हैं कि इन नीति ने भारत के हितों को आगे बढ़ाया?
उत्तर:
शीतयुद्ध के दौरान की विदेशी नीति गुट-निरपेक्षता की नीति नहीं है। वह गुट-निरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था उसने दोनों महाशक्तियों-अमरिका और सोवियत संघ की खेमेबंदी से अपने को अलग रखा। उसने नव स्वतंत्र देशों को इन दोनों के गुटों में जाने का जोरदार विरोध किया। परंतु भारत ने विश्व राजनीति में अपने-आप को सक्रिय बनाए रखा।
उसने शीतकालीन प्रतिद्वन्द्विता की जकड़ कमजोर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने के पक्ष में था भारत ने दोनों गुटों के बीच विद्यमान मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया और इस प्रकार उसने इन मतभेदों को पूर्णव्यापी युद्ध का रूप लेने से रोका। भारत ने उन क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को सक्रिय बनाए रखने की कोशिश की और अमेरिका अथवा सोवियत संघ के खेमे से नहीं जुड़े थे। कुछ विद्वानों का मानना है कि गुट-निरपेक्षता अंतर्राष्ट्रीयता का एक उदार आदर्श है। लेकिन यह आदर्श भारत के वास्तविक हितों से मेल नहीं खाता। गुट-रिपेक्षता की नीति से प्रत्यक्ष रूप से निम्नलिखित लाभ हुए –
- गुट-निरेक्षता के कारण भारत ऐसे अंतर्राष्ट्रीय निर्णय और पक्ष ले सका जिससे उसका हित होता हो। वह महाशक्तियों और खेमे के देशों के हितों के लिए अपने को बलि का बकरा नहीं बनाया।
- भारत ने सदैव अपने को ऐसी स्थिति में बनाए रखा कि यदि एक महाशक्ति उसके विरुद्ध हो जाए तो दूसरी महाशक्ति के निकट आने का प्रयास करे।
- यदि भारत को कभी यह महसूस हुआ कि महाशक्तियों में से कोई उसकी उपेक्षा कर रहा है या अनुचित दबाव डाल रहा है तो दूसरी महाशक्ति की तरफ मुड़ जाता था।
- भारत ने अपनी ओर से किसी भी महाशक्ति को निश्चित नहीं होने दिया और न ऐसी स्थिति आने दी कि वह उस पर धौंस जमा सके। इस प्रकार भारत सदैव सुरक्षित रहा।
प्रश्न 9.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन को तीसरी दुनिया के देशों ने तीसरे विकल्प के रूप में समझा। जब शीतयुद्ध अपने शिखर पर था तब इस विकल्प ने तीसरी दुनिया के देशों के विकास में कैसे मदद पहुँचाई?
उत्तर:
तीसरी दुनिया के देशों में वे देश शामिल थे जो हाल में ही विदेशी शिकंजों से मुक्त हुए हैं और वे गुट-निरपेक्ष आंदोलन के सदस्य हैं। वे अल्प-विकसित राष्ट्र हैं। गुट-निरपेक्ष आंदोलन ने तीसरे विकल्प के रूप में तीसरी दुनिया के देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से अधिक विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी।
इसी विचार से नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ। 1972 में संयुक्त राष्ट्रसंघ के व्यापार और विकास से संबंधित सम्मेलन में अल्प-विकसित देशों के आर्थिक सुधार की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की। गुट-निरपेक्ष आंदोलन में धीरे-धीरे परिवर्तन हुआ और इसमें आर्थिक मुद्दों को अधिक महत्व दिया जाने लगा बेलग्रेड सम्मेलन (1961) के बाद से आर्थिक मुद्दों को प्रमुखता दी जाने लगी और गुट-निरपेक्ष आंदोलन आर्थिक दबाव समूह बन गया।
प्रश्न 10.
‘गुट-निरपेक्ष आंदोलन अब प्रासंगिक हो गया है। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
दिसम्बर 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया और इसके सभी स्वायत्त गणराज्यों ने अपने को संपूर्ण प्रभुसत्तापूर्ण स्वतंत्र राज्य घोषित कर लिया तथा सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ का स्थान रूसी गणराज्यों के रूप में प्राप्त हुआ। इसके साथ रूसी राज्यों ने अमेरिका के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित कर लिए हैं और ऐसा लगता है कि अब विश्व में गुटबंदी समाप्त हो गई है। इस संदर्भ में मित्र ने सुझाव दिया है कि गुटबंदी समाप्त होने के कारण गुट-निरपेक्ष आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य पूरा हो गया है और अब केवल प्रगति, विकास और देशों में आर्थिक समता स्थापित करने का काम शेष रह गया है। इसलिए अब मिस्र कहता है कि अब गुट-निरपेक्ष आंदोलन को 77 के समूह (Group of77) में शामिल हो जाना चाहिए, क्योंकि इसका भी यही उद्देश्य है। फिर भी इस आंदोलन की प्रासंगिकता निम्नलिखित कारणों से है –
- यह आंदोलन मौजूदा असामानताओं से निपटने के लिए एक वैकल्पिक विश्व व्यवस्था बनाने और अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को लोकतंत्रधर्मी बनाने में सहायक हो सकता है।
- गुट-निरपेक्ष आंदोलन विश्व में अमेरिका के अलावा दूसरे शक्ति केन्द्र के निर्माण का मार्ग अवरुद्ध कर सकता है।
- गुट-निरपेक्ष आंदोलन के साथ होकर सशक्त ताकत बन सकते हैं और विकसित देशों की उन नीतियों का विरोध कर सकते हैं।
- अमेरिका सर्वाधिक शक्तिशाली पूँजीवादी देश है। सभी गुट-निरपेक्ष देश मिलकर उसके शोषण का विरोध कर सकते हैं।
Bihar Board Class 12 Political Science शीत युद्ध का दौर Additional Important Questions and Answers
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
शीतयुद्ध क्या है?
उत्तर:
शीतयुद्ध वह स्थिति होती हैं जिसमें वातावरण तनावपूर्ण होता है परन्तु युद्ध नहीं होता। दूसरे विश्व की समाप्ति से ही शीतयुद्ध की शुरूआत हुई। इस अवधि में पूँजीवादी देशों और साम्यवादी देशों में आपसी शत्रुता और तनाव चलता रहा और वे एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते रहे। इन दोनों गुटों के बीच कोई पूर्णव्यापी रक्तरंजित युद्ध नहीं छिड़ा। विभिन्न क्षेत्रों में युद्ध हुए दोनों महाशक्तियाँ और उनके साथी देश इन युद्धों में संलग्न रहे, ये क्षेत्र विशेष के अपने साथी देश के मददगार बने, परन्तु विश्व तृतीय विश्वयुद्ध से बच गया।
प्रश्न 2.
क्यूबा का मिसाइल संकट क्या है?
उत्तर:
क्यूबा अमेरिका का तट से लगा हुआ एक छोटा-सा द्वीपीय देश है। क्यूबा का गठजोड़ सोवियत संघ से था। 1862 में सोवियत संघ के नेता खुश्चेव ने क्यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात कर दी। इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमेरिका नजदीकी निशाने की सीमा में आ गया। इस प्रकार के कार्य से सोवियत संघ पहले की तुलना में अब अमेरिका के मुख्य क्षेत्र के लगभग दोगुने ठिकानों या शहरों पर आक्रमण कर सकता था। अमेरिका ने इसके विरुद्ध कार्रवाई शुरू कर दी। कैनेडी ने आदेश दिया कि अमरीकी जगी बेड़ों को आगे करके क्यूबा की तरफ जाने वाले सोवियत जहाजों को रोका जाए। ऐसी स्थिति से आभास हो रहा था कि युद्ध होकर रहेगा। इसी को क्यूबा मिसाइल संकट कहा गया। ‘क्यूबा मिसाइल संकट’ शीतयुद्ध का चरमबिंदू था।
प्रश्न 3.
क्या शीतयुद्ध विचारधारा का संघर्ष था?
उत्तर:
शीतयुद्ध सिर्फ शक्ति प्रदर्शन, सैनिक गठबंधन अथवा शक्ति-संतुलन का मामला भर नहीं था। बल्कि इसके साथ-साथ विचारधारा के स्तर पर भी एक वास्तविक संघर्ष जारी था। विश्व विचारधारा की दृष्टि से दो गुटों में विभाजित हो गया। पश्चिमी गठबंधन का अगुआ अमेरिका था और यह गुट उदारवादी लोकतंत्र तथा पूँजीवाद का समर्थक था। पूर्वी गठबंधन का अगुवा सोवियत संघ था और यह गुट समाज और साम्यवाद का समर्थक था। ये ही विचारधाराएँ एक-दूसरे की विरोधी थीं और दोनों ही गुट अपनी-अपनी विचारधारा को श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते थे। वे इसे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन को सूत्रबद्ध करने का सबसे अच्छा तरीका मानते थे।
प्रश्न 4.
परमाणु युद्ध के एक बड़े युद्ध का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
परमाणु युद्ध का एक बड़ा उदाहरण अमेरिका द्वारा जापान के दो शहरों पर बम, गिराना था। अगस्त 1945 में ये बम हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराये गए। इसके कारण जन-धन की बहुत अधिक हानि हुई। सैकड़ों लोग मारे गए। घायल हुए और अपाहिज हो गए। आज भी उसका प्रभाव देखा जा सकता है। इस घटना के पश्चात् जापान ने घुटने टेक दिए और दूसरे विश्व युद्ध का अंत हो गया।
प्रश्न 5.
शीतयुद्ध के प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर:
- द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विश्व दो शक्तिशाली गुटों में विभाजित हो गया। एक ओर अमेरिका और उसके साथी राष्ट्र थे और दूसरी ओर सोवियत रूस और उसके मित्र थे।
- पूर्वी यूरोप में साम्यवादी दलों के उदय से अमेरिका और ब्रिटेन को खतरा उत्पन्न हो गया। वे इससे भयभीत हो गए।
- द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् नाटो, सीटो आदि सैनिक गुटों का निर्माण हुआ और इन गुटों में विनाशकारी हथियारों की होड़ लग गयी। फलस्वरूप गुटबंदी करने वाले देशों के बीच तनावपूर्ण वातावरण उत्पन्न हो गया।
प्रश्न 6.
महाशक्तियों का उदय किस प्रकार शीतयुद्ध का कारण बना?
उत्तर:
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति का कारण जो भी हो इसका परिणाम यह हुआ कि वैश्विक राजनीति के मंच पर दो महाशक्तियों का उदय हो गया । जर्मनी और जापान हार चुके थे और यूरोप तथा शेष संसार विनाश की मार झेल रहे थे। अब अमेरिका और सोवियत संघ विश्व की सबसे बड़ी शक्ति थे। इनके पास इतना सामर्थ्य था कि विश्व की किसी भी घटना को प्रभावित कर सकें। अमेरिका और सोवियत संघ का महाशक्ति बनने की होड़ में एक-दूसरे के आमने-सामने होना शीतयुद्ध का कारण बना।
प्रश्न 7.
अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध दुष्प्रचार ने शीतयुद्ध को जन्म दिया। कैसे?
उत्तर:
द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के शीघ्र पश्चात् ही सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक-दूसरे के विरुद्ध घिनौने प्रचार करने, जासूसी करने तथा अधिक से अधिक क्षेत्रों को अपने प्रभावाधीन लाने के आरोप-प्रत्यारोप लगाए। अमरीकी समाचार पत्रों ने सोवियत संघ के विरुद्ध भड़काने वाले कुछ शीर्षक प्रकाशित किए, जैस – “साम्यवादी प्रसार से ईसाई सभ्यता के डूबने का खतरा”, “गुंडों का नीच गिरोह” आदि ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने अपने भाषण में कहा था – “हमें एक प्रकार की तानाशाही के स्थान पर दूसरे प्रकार की तानाशाही की स्थापना को रोकना चाहिए।” दूसरे प्रकार की तानाशाही से उसका अभिप्राय साम्यवाद से था।
प्रश्न 8.
‘अपरोध’ क्या है?
उत्तर:
परमाणु युद्ध होने पर विश्व को बड़े विनाश का सामना करना पड़ता। यह निश्चित करना मुश्किल हो जाता कि विजेता कौन है –
अगर कोई अपने शत्रु पर आक्रमण करके उसके परमाणु हथियारों को नाकाम करने की कोशिश करता है तब भी दूसरे के पास बर्बाद करने लायक हथियार बच जाएंगे। इसे ‘अपरोध’ (रोक और संतुलन) का तर्क कहा गया। दोनों ही पक्षों के पास एक-दूसरे के मुकाबले और परस्पर नुकसान पहुंचाने की इतनी क्षमता होती है कि कोई भी पक्ष युद्ध का खतरा उठाना नहीं चाहता। इस प्रकार महाशक्तियों के बीच गहन प्रतिद्वन्द्विता होने के बावजूद शीतयुद्ध रक्तरंजित युद्ध का रूप नहीं ले सका।
प्रश्न 9.
शीतयुद्ध के दौरान प्रत्येक प्रतिस्पर्धी गुट के तीन सदस्य देशों के नाम बताइए।
उत्तर:
- पूँजीवादी गुट-फ्रांस, इंग्लैंड, अमेरिका
- साम्यवादी गुट-सोवियत संघ, पोलैंड, रोमानिया
प्रश्न 10.
नाटो क्या है?
उत्तर:
नाटो एक सैनिक संगठन था । सोवियत रूस के प्रसार विरुद्ध अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, कनाडा, आइसलैंड, नार्वे, नीदरलैड, बेल्जियम और पुर्तगाल आदि 12 देशों में आपसी संधि 1979 ई. दुई। इसकी मुख्य शर्त यह थी कि यदि कोई अन्य देश इनमें से किसी पर भी आक्रमण करेगा तो सभी मिलकर उसका मुकाबला करेंगे।
प्रश्न 11.
‘वारसा पैक्ट’ में कौन-कौन से देश शामिल थे?
उत्तर:
वारसा पैक्ट एक सैनिक संधि है जिसमें रूस, अल्बानिया, बुल्गारिया, रूमानिया, पूर्वी जर्मनी, चैकोस्लोवाकिया, हंगरी और पोलैंड आदि देश शामिल थे। ये संगठन नाटो संगठन के विरुद्ध था।
प्रश्न 12.
संक्षेप में उन परिस्थितियों की चर्चा कीजिए जिनमें गुट-निरपेक्ष आंदोलन का उदय हुआ था।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आंदोलन का उदय विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। आरंभ में गुट-निरपेक्षता भारत की विदेशी नीति का एक महत्वपूर्ण अंग थी। आगे चलकर विश्व दो विरोधी गुटों (अमेरिकी गुट तथा सोवियत संघ गुट) में विभाजित हो गया । ऐसे में गुट-निरपेक्षता में आंदालेन का रूप धारण कर लिया। धीरे-धीरे कई देशों ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपना ली। शीतयुद्ध की स्थिति में संसार को गुट-निरपेक्षता की आवश्यकता थी। हथियारों की होड़ से बचने के लिए भी गुट-निरपेक्ष आंदोलन की जरूरत थी।
प्रश्न 13.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन का प्रथम सम्मेलन कब हुआ था ? अब तक इसके कितने देश सदस्य हो चुके हैं?
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आंदोलन का प्रथम शिखर सम्मेलन नेहरू, नासिर और टीटो की पहल पर सितंबर 1961 ई. में युगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में बुलाया गया। उसमें 25 सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अब तक इस आंदोलन के 116 देश सदस्य बन चुके हैं।
प्रश्न 14.
उन तीन देशों के नाम बताइए जिन्होंने गुट-निरपेक्ष आंदोलन का आरंभ किया था। उनके नेताओं के नाम क्या थे?
उत्तर:
भारत मिस्र तथा युगोस्लाविया। पं. जवाहरलाल नेहरू, कर्नल नासिर एवं मार्शल टीटो।
प्रश्न 15.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन का क्या महत्त्व है? अथवा, गुट-निरपेक्ष आंदोलन में भारत की क्या भूमिका है?
उत्तर:
भारत ने अन्य देशों की सहायता से गुट-निरपेक्ष आंदोलन को अस्तित्व प्रदान किया। 1961 में शुरू हुए इस आंदोलन के 25 सदस्य थे अब यह संख्या 116 हो गई। भारत आरंभ से ही इस आंदोलन का समर्थक रहा है। इस आंदोलन का महत्व निम्नलिखित दृष्टियों से है –
- उपनिवेशवाद को समाप्त करने में
- बड़े-बड़े देशों में समझौता कराना
- विश्व को विकास की ओर अग्रसर करना
- निःशस्त्रीकरण लागू करना एवं शांति स्थापित करना
- अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान करना।
प्रश्न 16.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन को एक आकार और दिशा प्रदान करने में भारत के प्रारम्भिक योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आंदोलन के उदय और विस्तार में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसकी स्थापना 1961 ई. में हुई। थी। तब इसके सदस्य राष्ट्रों की संख्या मात्र 25 थी परंतु अब इसकी सदस्यता चौगुनी से अधिक हो गई है। यह विश्व की 40% से भी अधिक जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। यह आंदोलन अपने-आपको तीसरे विश्व के हितों का संरक्षक तथा सैनिक गुटों में विभाजित दो समूहों के मुकाबले में एक वैकल्पिक राष्ट्र समूह मानता है।
प्रश्न 17.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन में भारत में क्या उद्देश्य थे?
उत्तर:
- भारत ने अपने को गुट संघर्ष में सम्मिलित करने की अपेक्षा देश की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रगति की ओर ध्यान देने में अधिक लाभ समझा क्योंकि हमारे समाने अपनी प्रगति अधिक आवश्यक थी।
- सरकार द्वारा किसी भी गुट के साथ मिलने से यहाँ की जनता में भी विभाजनकारी वृत्ति उत्पन्न होने का भय था और उससे राष्ट्रीय एकता को धक्का लगता।
- किसी भी गुट के साथ मिलने और उसका पिछलग्गू बनने से राष्ट्र की स्वतंत्रता कुछ अंश तक अवश्य प्रभावित होती।
- भारत स्वयं एक महान देश है और इसे अपने क्षेत्र में अपनी स्थिति को महत्वपूर्ण बनाने के लिए किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं थी।
प्रश्न 18.
उपनिवेशीकरण की समाप्ति और गुट-निरपेक्ष आंदोलन के विस्तार पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
विउपनिवेशीकरण तथा गुट-निरपेक्ष आंदोलन का विस्तार-गुट-निरपेक्ष आंदोलन का विस्तार तथा उपनिवेशीकरण की समाप्ति एक-दूसरे से संबंधित रहे हैं। जैसे-जैसे विउपनिवेशीकरण के कारण उपनिवेशों को स्वतंत्रता प्राप्त होती गई, वैसे-वैसे गुट-निरपेक्ष आंदोलन का विस्तार होता गया। 1960-70 में 25 उपनिवेशों को स्वतंत्रता मिली। इस कारण 1970 के गुट-निरपेक्ष सम्मेलन में 53 देशों ने भाग लिया। 1971-83 में 28 उपनिवेशों को स्वतंत्रता मिली और हवाना सम्मेलन (1979) में 92 देशों ने भाग लिया था। 1983 के सातवें (भारत) गुट-निरपेक्ष आंदोलन में 101 देशों ने तथा 2006 में हवाना (क्यूबा) में हुए 14 वें सम्मेलन में 116 सदस्य-देश व 15 पर्यवेक्षक देशों ने भाग लिया।
प्रश्न 19.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन के विषमांग स्वरूप पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आंदोलन का विषमांग स्वरूप-गुट-निरपेक्ष आंदोलन के विस्तार से स्पष्ट होता है कि इसका स्वरूप विषमांग रहा है। आकार की दृष्टि से इसमें जितने सदस्य विकासशील देशों से है, उतने विकसित देशों से नहीं है। जनसंख्या की दृष्टि से भी गुट-निरपेक्ष आंदोलन आर्थिक रूप से पिछड़े हुए देशों का आंदोलन है। इन गुट-निरपेक्ष देशों में वैचारिक एकता नहीं है। इनमें समाजवादी, सुधारवादी, उदारवादी सभी प्रकार के देश हैं। इसमें सजातीयता व क्षेत्रीयता की भिन्नताएँ भी देखी जा सकती हैं।
प्रश्न 20.
तटस्थता और गुट-निरपेक्षता में क्या संबंध है?
उत्तर:
तटस्थता और गुट-निरपेक्षता-तटस्थता तथा गुट-निरपेक्षता एक विचार वाले शब्द नहीं हैं। एक तटस्थ देश गुट-निरपेक्ष देश नहीं होता। तटस्थता अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता का विचार है जबकि गुट-निरपेक्षता स्वयं अपनाने वाला विचार है। तटस्थ देश को कुछ अधिकार प्राप्त होते हैं तथा उसे कुछ कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। गुट-निरपेक्ष आंदोलन को ऐसे अधिकार प्राप्त नहीं होते। तटस्थ देश राजनीतिक तथा सैनिक मामलों में गृहस्थ होता है जबकि गुट-निरपेक्ष देश अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बढ़-चढ़कर भाग लेता है।
प्रश्न 21.
‘अफ्रीकी सहायता कोष’ और ‘पृथ्वी संरक्षण कोष’ की स्थापना कब, कहाँ और किस देश की पहल पर हुई थी?
उत्तर:
सन् 1986 में जिम्बाब्वे की राजधानी हरारे में आयोजित 8वें गुट – निरपेक्ष शिखर सम्मेलन में भारत की पहल पर ‘अफ्रीकी सहायता कोष’ कायम किया गया था। गुट – निरपेक्ष राष्ट्रों से संबंधित 102 देशों का 9वाँ शिखर सम्मेलन 1989 में उस समय के यूगोस्लाविया की राजधानी बेल्ग्रेड में हुआ और उसी में भारत की पहल पर ‘पृथ्वी संरक्षण कोष’ कायम किया गया।
प्रश्न 22.
एल.टी.बी.टी. (सीमित परमाणु परीक्षण संधि) का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
इस संधि पर अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ ने 5 अगस्त, 1963 को हस्ताक्षर किए। इसमें वायुमंडल, बाहरी अंतरिक्ष तथा पानी के अंदर परमाणु हथियारों के परीक्षण पर प्रतिबंध लगाने की संधि की गई। यह संधि 10 अक्टूबर, 1963 से प्रभावी हो गई।
प्रश्न 23.
सामरिक अस्त्र न्यूनीकरण संधि – II (Strategic Arms Reduction Treaty-Start-II का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यह सामरिक रूप से खतरनाक हथियारों से सीमित करने और उनकी संख्या में कमी करने से संबंधित है। इस संधि पर रूसी राष्ट्रपति वोरिस येल्तसिन और अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश (सीनियर) ने मास्को में 3 जनवरी, 1993 को हस्ताक्षर किए।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
क्यूबा के मिसाइल संकट की उत्पत्ति किस प्रकार हुई?
उत्तर:
क्यूबा का गठजोड़ सोवियत संघ से था। 1961 की अप्रैल में सोवियत संघ के नेताओं को यह चिंता सता रही थी कि अमेरिका क्यूबा पर आक्रमण न कर दे। 1962 ई. में सोवियत संघ के नेता खुश्चेव ने क्यूबा में परमाणु मिसाइलें तैनात कर दी। इन हथियारों की तैनाती से पहली बार अमेरिका नजदीकी निशाने पर आ गया। हथियारों की इस तैनाती के बाद सोवियत संघ पहले की तुलना में अब अमेरिका के मुख्य भूभाग के लगभग दोगुने ठिकानों या शहरों पर आक्रमण कर सकता था।
सोवियत संघ के इस कार्य से अमेरिका की चिंता बढ़ गई और परमाणु युद्ध के भय से इसमें वह हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था। अन्ततः अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी ने आदेश दिया कि अमरीकी जंगी बेड़ों को आगे करके क्यूबा की तरफ जाने वाले सोवियत जहाजों को रोका जाए। इस प्रकार अमेरिका सोवियत संघ को मामले के प्रति अपनी गंभीरता की चेतावनी देना चाहता था। ऐसी स्थिति में यह लगा कि युद्ध होकर रहेगा। इसी को क्यूबा मिसाइल संकट के रूप में जाना गया।
प्रश्न 2.
शीतयुद्ध की उत्पत्ति के मूल कारण कौन-कौन से थे?
उत्तर:
शीतयुद्ध की उत्पत्ति के कारण-शीतयुद्ध वह अवस्था है जब वातावरण अत्यधिक उत्तेजित हो परंतु वास्तविक रूप में कोई युद्ध न हो रहा हो। यह अवस्था निम्नलिखित कारणों से उत्पन्न हुई –
- रूस में साम्यवादी सरकार की स्थापना से अमेरिका, ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोप के देश भयभीत हो गए। साम्यवाद का यह भय उन्हें दिनों-रात खाए जा रहा था।
- रूस के अलावा पूर्वी यूरोप के अनेक देशों – पोलैंड, हंगरी, रूमानिया, बुल्गारिया आदि में साम्यवादी सरकारें स्थापित हुई। इससे अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों की बेचैनी और बढ़ गई।
- द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देश विश्व राजनीति में अनुचित हस्तक्षेप करने लगे। वे विभिन्न देशों में चलने वाले स्वतंत्रता आंदोलनों को कुचलने लगे। ऐसे में इन देशों में महाशक्तियों के प्रति शंका उत्पन्न हो गई।
- संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों साम्यवादियों एवं पूँजीवादियों के मन से एक-दूसरे के प्रति शक और भय के विचारों को दूर करने में असफल सिद्ध हुआ। इसलिए विश्व में पर्याप्त समय तक युद्ध का सा वातावरण बना रहा।
प्रश्न 3.
1945 में अमेरिका द्वारा जापान पर बम गिराया जाना क्या उचित था?
उत्तर:
1945 में अमेरिका ने जापान के दो शहरों – हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए और जापार को हार स्वीकार करनी पड़ी। अमेरिका के इस फैसले की विश्व में कटु आलोचना हुई। आलोचकों का कहना है कि अमेरिका इस बात को जानता था कि जापान आत्म समर्पण करने वाला है ऐसे में बम गिराया जाना गैर जरूरी था। वस्तुतः अमेरिका की इस कारवाई का लक्ष्य सोवियत संघ को एशिया तथा अन्य जगहों पर सैन्य और राजनीतिक लाभ उठाने से रोकना था। यह सोवियत संघ के सामने ये भी जाहिर करना चाहता था कि अमेरिका ही सबसे बड़ी ताकत है। अमेरिका के समर्थकों का कहना था कि युद्ध को शीघ्रता से समाप्त करने तथा अमेरिका तथा साथ ही राष्ट्रों की आगे की जनहानि को रोकने के लिए परमाणु बम गिराना जरूरी था।
प्रश्न 4.
शीतयुद्ध के दौरान कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ, क्यों?
उत्तर:
- शीतयुद्ध के दौरान दोनों गुट एक-दूसरे के प्रति आशंकि और भयभीत थे। एक-दूसरे के विरुद्ध दुष्प्रचार और षड्यंत्र के बावजूद कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ।
- शीतयुद्ध के पीछे यह समझ भी काम कर रही थी कि परमाणु बम से होने वाले विनाश की मार झेलना किसी भी राष्ट्र के बूते की बात नहीं थी। यह आसान परंतु असरदार तर्क था।
- दोनों महाशक्तियों के पास इतनी क्षमता के परमाणु हथियार हो कि वे एक-दूसरे को असहनीय क्षति पहँचा सके तो ऐसे में दोनों के बीच रक्तरंजित युद्ध होने की संभावना कम रह जाती है।
- उकसाने के बावजूद कोई भी पक्ष युद्ध का जोखिम मोल लेना नहीं चाहेगा, क्योंकि युद्ध से चाहे किसी को राजनीतिक लाभ हो, लेकिन इन देशों के विनाश को औचित्यपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता।
- परमाणु युद्ध की हालत में दोनों पक्षों को इतनी हानि उठानी पड़ेगी कि उनमें से विजेता कौन है – दावा करना असंभव होगा। यदि कोई अपने शत्रु पर आक्रमण करके उसके परमाणु हथियारों को नाकाम करने की कोशिश करता है तब भी दूसरे के पास उसे बर्बाद करने लायक हथियार बच जाएंगे। इसे ‘अपरोध’ का तर्क कहा जाता है।
प्रश्न 5.
शीतयुद्ध की प्रमुख सैनिक विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
शीतयुद्ध की प्रमुख सैनिक विशेषताएँ –
- शीतयुद्ध के कारण सभी देशों ने अपनी सुरक्षा के लिए बड़े पैमाने पर खतरनाक हथियारों का निर्माण किया। एक-दूसरे की देखा-देखी विरोधी की अपेक्षा अधिक शस्त्र बनाने लगे और देशों के पास हथियारों का जखीरा एकत्र हो गया।
- शीतयुद्ध में दो महाशक्तियों और उनके अपने-अपने गुट थे। इन परस्पर प्रतिद्वन्द्वी गुटों में शामिल देशों से अपेक्षा थी कि वे तर्कसंगत और उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार करेंगे।
- परस्पर विरोधी गुटों में शामिल देशों को समझना था कि आपसी युद्ध में जोखिम है क्योंकि संभव है कि इसकी वजह से दो महाशक्तियों के बीच युद्ध ठन जाए।
- दोनों विरोधी गुटों के बीच शत्रुता का संबंध था। ऐसे में दोनों का युद्ध लड़ना विनाशकारी सिद्ध होता।
- दोनों गुटों को संयम से काम लेना जरूरी था और तृतीय युद्ध के जोखिम से बचना था।
प्रश्न 6.
नाटो (NATO) संगठन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नाटो (NATO) संगठन-इसका पूरा नाम उत्तर अंधमहासागर संधि संगठन (North Atlantic Treaty Organisation) है। इसमें अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, कनाडा, आइसलैंड, नार्वे, नीदरलैंड, बेल्जियम, पुर्तगाल, इटली आदि 12 देश थे परंतु बाद में इसमें यूनान, तुर्की तथा पश्चिमी जर्मनी भी शामिल हो गए। इस सन्धि संगठन की मुख्य शर्ते निम्नलिखित हैं –
- शान्ति के समय विभिन्न देश एक-दूसरे को आर्थिक सहयोग देंगे।
- आपसी विवादों को आपसी बातचीत द्वारा हल करेंगे।
- यदि कोई अन्य देश इनमें से किसी पर आक्रमण करेगा तो सब मिलकर उसका मुकाबला करेंगे।
- प्रत्येक देश अपनी सैनिक शक्ति को संगठित करेगा तथा इस कार्य में अमेरिका उसकी सहायता करेगा।
प्रश्न 7.
सीटो (SEATO) क्या है?
उत्तर:
सीटो (SETO):
इस संधि का पूरा नाम दक्षिण-पूर्व एशिया संधि संगठन (South East Asia Treaty Organisation) है। 1954 में इस संधि का मुख्य उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशिया में बढ़ते हुए चीनी वेग को रोकना है और इस उद्देश्य के लिए यथोचित तैयारी करना है। इसमें फिलिपाइन, थाइलैंड, इंग्लैंड, फ्रांस, पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा अमेरिका आदि शामिल है।
प्रश्न 8.
सेन्टो (CENTO) का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
सेन्टो (CENTO) इसका पूरा नाम केन्द्रीय संधि संगठन (Central Treaty Organisation) है। पहले इसका नाम बगदाद पैक्ट (Baghdad Pact) था, जब इसमें तुर्की और ईरान थे। बाद में 1955 में इस गठबंधन में संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, ईरान और पाकिस्तान भी शामिल हो गए। परंतु बाद में ईराक इससे निकल गया। इस संधि संगठन का मुख्य उद्देश्य रूस की शक्ति को दक्षिण की ओर बढ़ने से रोकना है।
प्रश्न 9.
वारसा पैक्ट (Warsaw Pact) का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वारसा पैक्ट (Warsaw Pact):
इस संधि संगठन में रूस, अल्बानिया, बुल्गारिया, रूमानिया, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी तथा पोलैंड आदि थे। इन साम्यवादी देशों ने अपने संगठन नाटो, सीटो और सेन्टो आदि के विरोध किए। इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि यदि कोई देश इस संगठन में शामिल किसी देश पर भी आक्रमण करेगा तो सब मिलकर उसका मुकाबला करेंगे। इसके अलावा कोई भी सदस्य देश अपनी सेनाएँ किसी अन्य देश की सरकार की अनुमति से वहाँ रख सकता है।
प्रश्न 10.
महाशक्तियों के गुट में शामिल छोटे देश किस प्रकार महाशक्तियों के लिए उपयोगी थे?
उत्तर:
निम्नलिखित कारणों से छोटे देश महाशक्तियों के लिए उपयोगी थे –
- छोटे देशों के महत्त्वपूर्ण संसाधन जैसे तेल और खनिज थे जो महाशक्तियों के काम आ सकते थे।
- छोटे देशों के भूक्षेत्र का महाशक्तियाँ अपने हथियार और सेना के संचालन के लिए प्रयोग कर सकती थी।
- वे छोटे देशों के अपने सैनिक ठिकाने स्थापित कर सकती थीं और जहाँ से वे एक-दूसरे पर जासूसी कर सकते थे।
- छोटे देशों से गाहे-बगाहे सैन्य खर्च आदि आर्थिक मदद मिल सकती थी।
- महाशक्तियाँ अपनी विचारधारा छोटे देशों पर थोपना चाहती थीं जिससे उनके गुट में एकता स्थापित हो सके। संयुक्त राज्य अमेरिका अपने गुट के देशों को उदारवादी लोकतंत्र और पूँजीवादी विचारधारा में शामिल करना चाहता था जबकि सोवियत रूस समाजवाद और साम्यवाद के विचार मनवाना चाहता था।
प्रश्न 11.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन में भारत की क्या भूमिका है?
उत्तर:
भारत के सर्वप्रथम गुट-निरपेक्षता की नीति को अपनाया और इसे एक आंदोलन का स्वरूप प्रदान किया। वस्तुतः गुट-निरपेक्षता का विचार विश्व को भारत ने ही दिया था। आरंभ में तो कुछ देशों ने इस नीति को तटस्थता कहा और कुछ ने इसे अवसरवाद कहा। सर्वप्रथम बाण्डुग सम्मेलन में गुट-निरपेक्षता के सिद्धांत में भारत के अलावा अन्य देशों ने भी समर्थन किया। इसमें 29 देशों ने भाग लिया था और पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि यह बड़े शर्म और अपमान की बात है कि कोई एशियाई – अफ्रीकी देश किसी गुट का दुमछल्ला बनकर जिए और अपनी स्वतंत्र पहचान खो दे। इसके बाद भारत के प्रयत्नों से गुट-निरपेक्ष देशों का पहला सम्मेलन 1961 में बेलग्रेड में बुलाया गया जिसमें 25 देशों ने भाग लिया। भारत ने इस आंदोलन को शक्तिशाली बनाने में बड़ा योग दिया। इस आंदोलन का 7 वाँ सम्मेलन 1983 में भारत में हुआ था जिसमें 101 राज्यों ने भाग लिया था। वास्तव में भारत इस आंदोलन का नेता है।
प्रश्न 12.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन के सार तत्त्व की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आंदोलन के सार तत्व में निम्न उल्लेख किया जा सकता है –
- साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद का विरोध करना। यदि संसार में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का अंत हुआ है तो उसका श्रेय गुट-निरपेक्ष आंदोलन को जाता है। इस आंदोलन से नव-उपनिवेशवाद को क्षति पहुँची है।
- गुट-निरपेक्ष आंदोलन के कारण जाति-भेद, रंग-भेद, नस्ल-भेद और जायोनिज्म आदि को भी हानि हुई है। गुट-निरपेक्ष देशों में इन अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के विरुद्ध समय-समय पर आवाज उठाई गई है।
- युद्धों को टालने तथा विश्व में शांति-सुरक्षा स्थापित करने में भी गुट-निरपेक्षता की सराहनीय भूमिका रही है। गुट-निरपेक्षता के कारण आक्रमणकारी नीतियों को क्षति पहुँची है।
- गुट-निरपेक्ष आंदोलनों ने अपने भिन्न-भिन्न मंचों पर विदेशी आक्रमण, कब्जे, आधिपत्य के साथ-साथ बड़ी-बड़ी शक्तियों के हस्तक्षेप व उनमें गुटबंदी की भी निंदा की है।
प्रश्न 13.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन के भविष्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। अथवा, शीत-युद्ध के बाद गुट-निरपेक्ष आंदोलन की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आंदोलन का भविष्य-दिसम्बर 1991 में सोवियत संघ समाप्त हो गया और इसके सभी स्वायत्त गणराज्यों ने अपने को सम्पूर्ण प्रभुसत्तापूर्ण स्वतंत्र राज्य घोषित कर लिया तथा सुरक्षा परिषद् में सोवियत संघ का स्थान रूसी गणराज्य को दिया गया। इसके साथ रूसी राष्ट्र ने अमेरिका के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित कर लिए हैं और ऐसा लगता है कि अब संसार में गुटबंदी समाप्त हो गई है। इस संदर्भ में मिस्र ने सुझाव दिया है कि गुटबंदी समाप्त होने के कारण गुट-निरपेक्ष आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य पूरा हो गया है और अब केवल प्रगति, विकासशील देशों में आर्थिक समता स्थापित करने का काम बाकी रह गया है।
इसलिए अब मिस्त्र का कहना है कि गुट-निरपेक्ष आंदोलन को 77 के समूह (Group of 77) में सम्मिलित हो जाना चाहिए क्योंकि इसका भी यही उद्देश्य है। फरवरी 1992 के पहले समाप्त में गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के विदेश मंत्रियों का एक सम्मेलन निकोसिया में हुआ जिसमें बदली हुई परिस्थितियों में इस आंदोलन की भावी भूमिका पर विचार हुआ। इसका दसवाँ अधिवेशन सितंबर 1992 में इण्डोनेशिया में हुआ।
प्रश्न 14.
सैनिक गठबंधन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सैनिक गठबंधन (Military Pacts) दूसरे महायुद्ध के बाद (1945) सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका दो महान शक्तियों के रूप में उभरकर आयीं। दोनों देशों ने अपने मित्र-देशों की संख्या बढ़ाने के लिए अन्य राज्यों को सैनिक, आर्थिक, तकनीकी सहायता देनी आरंभ कर दी। फलस्वरूप अमेरिका ने सैनिक गठबंधन बनाने आरंभ कर दिए। जैसे-नाटो, सीटो, सेन्टो (बगदाद पैक्ट), एनजस आदि। दूसरी ओर, सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट के अन्तर्गत कुछेक समाजवादी राज्यों का सैनिक गठबन्धन बनाया। भारत ऐसे सैनिक गठबंधनों का विरोध करता है।
प्रश्न 15.
उपनिवेशवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
उपनिवेशवादिता (Colonialism):
उपनिवेशवादिता का अर्थ है किसी विकसित अथवा बड़े देश का किसी अन्य देश (जोकि छोटा अथवा अविकसित हो) को अपना उपनिवेश अथवा अपने प्रभाव-क्षेत्र में लेना। आधुनिक विकसित देश अविकसित तथा निर्धन देशों को सैनिक व आर्थिक सहायता की आड़ में उपनिवेशवादिता को प्रोत्साहित करने का प्रयास करते हैं। उपनिवेशवादिता साम्राज्यवाद का एक नया रूप है। इस दृष्टि से विश्व-शांति के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है। भारत ने सदैव उपनिवेशवादिता के विरुद्ध आवाज उठाई है।
प्रश्न 16.
अल्प-विकसित देशों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वैश्विक व्यापार प्रणाली में सुधार के क्या प्रस्ताव दिए।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यापार और विकास से संबंधित सम्मेलन (United Nations Conference on Trade and Development – Unctad Towards a New Trade Policy For Development’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। इस रिपोर्ट में वैश्विक व्यापार प्रणाली में सुधार का प्रस्ताव किया गया था। ये प्रस्ताव निम्नलिखित थे –
- अल्प-विकसित देशों का अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त होना जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं।
- अल्प-विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजार तक होगी, वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस प्रकार गरीब देशों के लिए यह व्यापार लाभप्रद होगा।
- पश्चिमी देशों से मंगायी जा रही प्रौद्योगिकी की लागत कम होगी।
- अल्प-विकसित देशों की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों में भूमिका बढ़ेगी।
प्रश्न 17.
भारत की गुट-निरपेक्षता के पाँच सिद्धांत कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
भारत के गुट-निरपेक्षता के सिद्धांत –
- प्रत्येक राज्य को अपनी एक स्वतंत्र विदेश नीति अपनानी चाहिए। अपनी विदेशी नीति को बनाते हुए राज्य का मुख्य उद्देश्य अपने देश्या के राष्ट्रीय हितों के बारे में सोचना चाहिए।
- राज्य को किसी भी सैनिक गुट का सदस्य नहीं बनना चाहिए। चाहे वह गुट संयुक्त राज्य अमेरिका का ही क्यों न हो।
- किसी भी राज्य अथवा देश को विश्व की किसी भी सर्वोच्च शक्ति के साथ सैनिक समझौता नहीं करना चाहिए।
- किसी भी राज्य को अपने देश अथवा भूभाग पर किसी सर्वोच्च शक्ति को अपने अड्डे बनाने के लिए सहमत नहीं होना चाहिए।
- प्रत्येक राज्य को उपनिवेशवाद तथा रंगभेद की नीति का विरोध करना चाहिए और जो देश ऐसी नीति को अपना रहा हो उसकी आलोचना करनी चाहिए।
प्रश्न 18.
गुट-निरपेक्षता नीति से भारत को किस प्रकार लाभ हुआ?
उत्तर:
गुट-निरपेक्षता नीति से भारत को निम्नलिखित प्रकार से लाभ हुआ –
- गुट-निरपेक्षता के कारण भारत ऐसे अंतर्राष्ट्रीय फैसले और पक्ष ले सका जिससे उसका हित पूरा होता है।
- भारत हमेशा इस स्थिति में रहा कि एक महाशक्ति उसके खिलाफ हो जाए तो वह दूसरी महाशक्ति के करीब आने की कोशिश करें। यदि भारत को महसूस हुआ कि महाशक्तियों में से कोई उसकी अनदेखी कर रहा है या अनुचित दबाव डाल रहा है तो वह दूसरी महाशक्ति की तरफ अपना रुख कर सकता था।
- दोनों गुटों में से कोई भी भारत को लेकर न तो बेफिक्र हो सकता था और न ही धौस जमा सकता था।
- गुट-निरपेक्ष आंदोलन के द्वारा शांति और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा मिला है।
- इस आंदोलन के द्वारा आर्थिक सहयोग को बढ़ावा मिला है।
- इस आंदोलन ने अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लोकतंत्रीकरण को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रश्न 19.
किस बात को लेकर भारत के गुट-निरपेक्षता की आलोचना की जाती है? अथवा, गुट-निरपेक्ष आंदोलन की असफलताएँ बताइए।
उत्तर:
- गुट-निरपेक्ष आंदोलन ईरान व ईराक के युद्ध को शुरू होने से रोकने और शुरू होने के बाद उसे शीघ्र समाप्त करने में सफल नहीं हो सका।
- यह आंदोलन इराक कुवैत पर किए गए आक्रमण और अत्याचारों को रोक नहीं हो सका।
- गुट-निरपेक्ष आंदोलन भारत-पाकिस्तान के विवाद को हल नहीं कर सका है।
- कई लोग मानते हैं कि भारत की गुट-निरपेक्षता ‘सिद्धांतविहिन’ है। कहा जाता है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों को साधने के नाम पर प्राय: महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर कोई निश्चित निर्णय लेने से बचता रहा है।
- भारत का व्यापार स्थिर नहीं है। उसकी स्थिति विरोधाभासी रही।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
1945 ई. के पश्चात् शीतयुद्ध का विकास क्यों हुआ? अथवा, शीतयुद्ध के कौन-कौन से कारण थे?
उत्तर:
शीतयुद्ध के कारण –
1. विभिन्न राष्ट्रों के मध्य गुटबाजी-युद्धोत्तर यूरोप में शीतयुद्ध के विकास का सबसे प्रमुख कारण विभिन्न राष्ट्रों के मध्य गुटबाजी थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका एक बड़ी शक्ति के रूप में विश्व के मानचित्र में उभरा था। विश्व के राजनैतिक और आर्थिक रंगमंच पर अमेरिका ने जितना प्रभाव जमाया पिछले 200 वर्षों में किसी भी पूँजीवादी देश ने नहीं डाला है। इस ओर उसके सहयोगी राष्ट्रों की शक्ति में जितनी कमी हुई उतनी अमेरिका की शक्ति में वृद्धि हुई है। अमेरिका ही ऐसा देश था जहाँ शत्रुसेना न तो स्वयं पहुंच सकी और न ही हवाई जहाज। अतः युद्धों में उसके प्रदेशों, कारखानों व खेत-खलिहानों को कोई हानि न पहुंची।
फलस्वरूप अमेरिका के उद्योग-धंधों व पैदावार में जबरदस्त वृद्धि हुई। उसके उद्योगपतियों ने बहुत मुनाफा कमाया। इस मुनाफे का उपयोग अमेरिका ने अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने में किया और शीघ्र ही वह संसार का शक्तिशाली राष्ट्र बन गया। अमेरिका में पूँजीवादी और लोकतंत्रीय व्यवस्था है जबकि दूसरी ओर सोवियत संघ में समाजवादी अर्थव्यवस्था थी। इसलिए यह देश भी अमेरिका की तरह शक्तिशाली बन गया। ये दोनों देश अपनी-अपनी व्यवस्थाओं को श्रेष्ठ बताते हैं और संसार के अन्य देशों को अपने प्रभाव क्षेत्र में लाना चाहते हैं। इसके फलस्वरूप समस्त विश्व दो गुटों में बँट गया – एक अमेरिकन गुट तो दूसरा सोवियत गुट। इन गुटों के निर्माण से विभिन्न देशों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। यह तनाव शीतयुद्ध के विकास का एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
2. विध्वंसकारी हथियारों की होड़-द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने जापान के खिलाफ अणुबम का प्रयोग किया। जापान पर परमाणु बम गिराने के साथ ही संसार के विभिन्न देशों में नए से नए हथियारों को बनाने की होड़ मच गई। इसके बाद रूस, इंग्लैंड व फ्रांस ने भी परमाणु बमों का निर्माण कर लिया और कुछ समय बाद चीन भी इस समूह में सम्मिलित हो गया। आज तो रूस और अमेरिका ने ऐसे परमाणु बमों का निर्माण कर लिया जो हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बमों से कहीं अधिक शक्तिशाली हैं। अब तो वैज्ञानिकों ने हाईड्रोजन बमों का निर्माण कर लिया है जो परमाणु बम से कई गुणा विनाशकारी हैं। इस प्रकार इन दोनों देशों में हथियारों की अप्रत्यक्ष होड़ लगी हुई है। रूस और अमेरिका के पास हथियारों का इतना बड़ा जखीरा है कि दुनिया को कई बार नष्ट किया जा सके।
3. सैनिक गुटों का निर्माण- सैनिक गुटों के निर्माण से भी संसार में तनाव बढ़ा है। सन् 1949 में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) की स्थापना की गई। इस गठबंधन में संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, हॉलैंड, ब्रिटेन, लक्जमबर्ग, तुर्की, यूनान, डेनमार्क, आइसलैंड, नार्वे, फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी और पुर्तगाल आदि देश शामिल हुए। इन देशों ने एक मिली-जुली नाटो सेना बनाई जिसने यूरोप के अनेक देशों में अपने सैनिक अड्डे स्थापित किए। इसी प्रकार सन् 1954 को दक्षिण-पूर्व एशिया संधि संगठन (SEATO) की स्थापना की गई जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, फ्रांस, न्यूजीलैंड, थाईलैंड और फिलिपीन्स आदि देश शामिल हुए। इस प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका ने लगभग सारे विश्व में अपने सैनिक अड्डे बनाए।
इन दोनों संगठनों का प्रयोग अमेरिका ने साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए किया। जो देश इन गठबंधनों में शामिल नहीं थे, वे इन सैनिक गुटों के निर्माण को अपने लिए एक खतरा समझने लगे। इन गठबंधनों में शामिल नव स्वतंत्र देशों की जनता भी इनके बारे में अच्छी राय नहीं रखती थी, क्योंकि इन गठबंधनों में उन्हीं साम्राज्यवादी देशों का प्रभुत्व था जो पहले इन नव स्वतंत्र देशों पर शासन कर चुके थे।
इस प्रकार इन सैनिक गुटों के निर्माण से विश्व की तनावपूर्ण स्थिति बिगड़ गई और अमेरिका द्वारा स्थापित इन गठबंधनों के जवाब में रूस ने भी साम्यवादी देशों का एक गठबंधन बनाया जो ‘वारसा पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। इस ‘वारसा पैक्ट’ में सोवियत संघ, हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, पौलेंड, चेकोस्लोवाकिया आदि साम्यवादी देश सम्मिलित हैं। यद्यपि इस संगठन का संसार के अन्य भागों में कोई सैनिक अड्डा स्थापित नहीं है फिर भी इस संगठन में शामिल देशों में परमाणु प्रक्षेपास्त्रों का ऐसा बड़ा जखीरा है जिनका मुंह अमेरिका की ओर है। इसके अलावा सोवियत संघ ने चीन और जर्मनी जनतांत्रिक गणतंत्र के साथ मैत्री संधियों की हुई हैं। इस प्रकार इन गठबंधनां के निर्माण से शीतयुद्ध का और विकास हुआ है।
4. साम्यवाद की सफलता में पूँजीवादियों का भयभीत होना-रूस में साम्यवादी क्रांति होने के पश्चात् वहाँ बड़ी तेजी से आर्थिक विकास हुआ और वहाँ की सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से रूस को एक प्रमुख औद्योगिक शक्ति बना दिया। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् पूर्वी यूरोप और एशिया में चीन आदि देशों में साम्यवादी सरकारों की स्थापना हुई जिससे पूँजीवादी देश चिंतित हो उठे और वे रूस के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने लगे। परन्तु साम्यवादियों ने भी दुनियाभर में फैली आर्थिक विषमताओं के लिए पूंजीवाद समर्थक देशों, जैसे ब्रिटेन और अमेरिका को दोषी ठहराया। उन्होंने उपनिवेशों की जनता को साम्राज्यवादी देशों के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी और कई देशों में साम्यवादी क्रांति कराने का प्रयत्न करने लगे। इस प्रकार साम्यवादियों की जवाबी कार्यवाही से पूँजीवादी देश अत्यंत भयभीत हो गए और संसार का वातावरण अत्यंत विषाक्त हो गया।
5. संयुक्त राष्ट्र संघ की दुर्बलता-संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना संसार के विभिन्न देशों में युद्ध न होने देने के लिए की गई। परन्तु यह संस्था मानव जाति में एकता ओर भाईचारा स्थापित करने में असफल रही। इस संस्था को पूँजीवादी और साम्यवादी गुटों के बीच विद्यमान शक को दूर करने में सफलता प्राप्त नहीं हुई। ये संस्था इन देशों के मध्य हथियारों की होड़ को कम या समाप्त नहीं कर पाई। ये दोनों गुट एक-दूसरे की प्रत्येक क्रिया को शक की नजर से देखते हैं। यहाँ तक कि तटस्थ या गुट-निरपेक्ष देश भी उनके शक के दायरे से बाहर नहीं आ पाए। ये दोनों गुट इन तटस्थ देशों पर कड़ी नजर रखते हैं। परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ अभी तक इन दोनों गुटों में शांति और सौहार्द स्थापित नहीं करा पाया और शीतयुद्ध दिनों-दिन भयंकर होता जा रहा है।
6. अमेरिकी विदेश नीति-द्वितीय विश्व युद्ध में यद्यपि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ फासिस्ट शक्तियों जापान, जर्मनी और इटली के विरुद्ध मिलकर लड़े थे, परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद इन देशों के बीच मतभेद उभरने लगे। ये मतभेद इतने ज्यादा हो गए कि अमेरिका ने यह स्पष्ट घोषित कर दिया कि उसकी विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य साम्यवाद का प्रचार-प्रसार रोकना है। अमेरिका की इस घोषणा के बाद साम्यवादियों ने जवाबी कार्यवाही के तौर पर साम्यवाद का प्रचार-प्रसार और पूँजीवाद को कमजोर करने में अपनी जान लड़ा दी। इन कार्यवाहियों से शीतयुद्ध को बढ़ावा मिला।
प्रश्न 2.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
गुट-निरपेक्ष आंदोलन:
दूसरे महायुद्ध के पश्चात् एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। इन नए स्वतंत्र देशों ने पश्चिमी देशों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात् अपने-अपने देशों में अपनी ही प्रकार की सरकार बनाने की चेष्टा की। अपनी विदेशी नीति के निर्धारण में एशिया तथा अफ्रीका के इन देशों ने विश्व में पनप रहे अमेरिकी तथा सोवियत सैनिक गुटों से अलग-अलग रहने का निर्णय लिया। अपने-आपको किसी भी सैनिक गुट में सम्मिलित न करते हुए इन एशियाई व अफ्रीकी देशों ने गुट-निरपेक्ष नीति का अनुसरण किया।
गुट-निरपेक्ष आंदोलन का आरंभ (Beginning of the Movement):
गुट-निरपेक्षता आरंभ में मात्र भारत की विदेशी नीति का सार थी। शीघ्र ही अनेक अन्य देश भी इस नीति को अपनाने के लिए तैयार हो गए। देखते-ही-देखते, गुट-निरपेक्ष नीति ने एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। नेहरू, नासिर तथा टीटो के प्रयासों से गुट-निरपेक्ष आंदोलन का शुभ आरंभ उस समय हुआ जब 1961 में 25 देशों का पहला गुट-निरपेक्ष शिखर सम्मेलन बेलग्रेड में हुआ। 1986 में हरारे (जिम्बाब्वे) में 8 वाँ गुट-निरपेक्ष सम्मेलन हुआ जिसमें संसार के लगभग दो-तिहाई देशों ने भाग लिया।
गुट-निरपेक्ष सम्मेलन के केन्द्र:
प्रथम बेलग्रेड (1961), द्वितीय काहिरा (1964), तृतीय लुसाका (1970), चौथा अल्जीरिया (1973),पाँचवाँ कोलम्बो (1976), छठा हवाना (1979), सातवाँ नई दिल्ली (1983), आठवाँ हरारे (1986), नवाँ बेलग्रेड (1989), दसवाँ जकाती (1992), ग्यारहवाँ कार्टजेन (1995), चौदहवाँ हवाना (2006).
गुट-निरपेक्ष आंदोलन:सफलताएँ तथा लक्ष्य (NAM: Achievements and Aims) गुट:
निरपेक्ष आंदोलन, गुट-निरपेक्ष नीति का एक विस्तार है। आरंभ में इसका उद्देश्य सैनिक गुटों से अलग रहना था। परंतु आज यह एक ऐसा आंदोलन बन चुका है जो एक न्यायपूर्ण, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना करना चाहता है। यही कारण है कि गुट-निरपेक्ष आंदोलन सैनिक गुटों के विरुद्ध है। (शस्त्रीकरण के विरुद्ध है तथा युद्ध में परमाणु शक्ति का विरोध करता है। गुट-निरपेक्ष आंदोलन का तथ्य से चिंतित है कि प्रतिवर्ष दस हजार करोड़ डॉलर शस्त्रों पर खर्च किया जाता है। अतः स्पष्ट है कि गुट-निरपेक्ष आंदोलन संसार का विनाश नहीं चाहता। अपितु मानव जाति की सुरक्षा चाहता है।
गुट-निरपेक्ष आंदोलन की सफलताएँ तथा उसके उद्देश्यों को निम्न रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है –
1. आरंभ से ही गुट – निरपेक्ष आंदोलन जातीय भेदभाव का विरोध करता आया है। यह आंदोलन साउथ अफ्रीका के विरुद्ध आर्थिक व राजनीतिक कार्यवाही करने का पक्ष ले रहा है। इस आंदोलन ने भिन्न अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर रंग-भेद की नीति का विरोध किया।
2. गुट – निरपेक्ष आंदोलन विश्व शांति व सुरक्षा की कामना करता है। यही कारण है कि इस आंदोलन ने सदा संयुक्त राष्ट्र संघ को मजबूत करने का पक्ष लिया है। यह आंदोलन भिन्न राष्ट्रों में सहयोग पर बल देता है।
3. गुट – निरपेक्ष आंदोलन तीसरे विश्व का एक समूह है। यह उन देशों का समूह है जो गरीब व पिछड़े हुए देश हों और जो आधुनिकीकरण चाहते हों। इस समूह को हम विकासशील विश्व भी कह सकते हैं। गुट-निरपेक्ष आंदोलन की यह मान्यता है कि कुछ देश इसलिए गरीब है कि कुछ अन्य देशों ने उन्हें गरीब बनाया है। यही कारण है कि गुट-निरपेक्ष आंदोलन एक नए अन्तर्राष्ट्रीय विश्व की स्थापना करना चाहता है जिसमें उत्तरी गोलार्द्ध के देश दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों की आर्थिक सहायता करेंगे तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में रहने वाले देशों में आर्थिक सहयोग होगा।
4. गुट-निरपेक्ष आंदोलन विश्व में देशों के बीच तनावों को दूर करना चाहता था। यही कारण है कि गुट-निरपेक्ष देश यह नहीं चाहते कि कोई बड़ी शक्ति भले ही वह अमेरिका हो या सोवियत संघ, किसी अन्य देश पर अपना कोई सैनिक अड्डा बनाए। यही कारण है कि यह आन्दोलन इस पक्ष में नहीं है कि भारतीय महासागर को सैनिक अड्डा बनाया जाए। यह आंदोलन ईरान-इराक युद्ध की समाप्ति चाहता है तथा फिलिस्तीनी समस्या का शीघ्र-अतिशीघ्र समाधान करेगा।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर
I. निम्नलिखित विकल्पों में सही का चुनाव कीजिए
प्रश्न 1.
क्यूबा का मिसाइल संकट किसके लिए संकट था?
(अ) इंग्लैंड
(ब) फ्रांस
(स) अमेरिका
(द) सोवियत संघ
उत्तर:
(स) अमेरिका
प्रश्न 2.
शीतयुद्ध कब शुरू हुआ?
(अ) 1914 के बाद
(ब) 1918 के बाद
(स) 1939 के बाद
(द) 1945 के बाद
उत्तर:
(द) 1945 के बाद
प्रश्न 3.
दो ध्रुवीय विश्व का आरंभ कब हुआ?
(अ) 1945 के बाद
(ब) 1939 के बाद
(स) 1918 के बाद
(द) 1914 के बाद
उत्तर:
(अ) 1945 के बाद
प्रश्न 4.
वारसा संधि कब हुई?
(अ)1953
(ब) 1954
(स) 1955
(द) 1956
उत्तर:
(स) 1955
प्रश्न 5.
परमाणु बम का प्रयोग किस देश पर किया गया?
(अ) अमेरिका
(ब) जापान
(स) फ्रांस
(द) ब्रिटेन
उत्तर:
(ब) जापान
प्रश्न 6.
गुट-निरपेक्ष आंदोलन की स्थापना कब हुई?
(अ) 1961
(ब) 1960
(स) 1959
(द) 1958
उत्तर:
(अ) 1961
प्रश्न 7.
शीतयुद्ध के प्रति भारत की क्या नीति थी?
(अ) सकारात्मक
(ब) नकारात्मक
(स) न तो सकारात्मक और न नकारात्मक
(द) सक्रिय और हस्तक्षेप की
उत्तर:
(द) सक्रिय और हस्तक्षेप की
II. स्तम्भ (अ) का स्तम्भ (ब) से मिलान कीजिए
उत्तर:
- (अ)
- (स)
- (ब)
- (य)
- (द)
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