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Wednesday, July 13, 2022

BSEB Class 6 Hindi रचना निबंध लेखन Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 6th Hindi रचना निबंध लेखन Book Answers

BSEB Class 6 Hindi रचना निबंध लेखन Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 6th Hindi रचना निबंध लेखन Book Answers
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Bihar Board Class 6th Hindi रचना निबंध लेखन Textbooks Solutions PDF

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Bihar Board Class 6th Hindi रचना निबंध लेखन Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
Format DOC/PDF
Class 6th
Subject Hindi रचना निबंध लेखन
Chapters All
Provider Hsslive


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Bihar Board Class 6 Hindi रचना निबंध लेखन

अनुशासन

नियमानुकूल आचरण अनुशासन है । ये नियम परिवार, समाज और राष्ट्र के अलावा, अपने आप को मर्यादित रखने के लिए होते हैं। अनुशासन की शुरुआत वस्तुतः अपने पर शासन से होती है। संयमपूर्वक जीवन-यापन ही __ अपने पर शासन है । हमारे ऋषि-मुनियों ने इसके लिए कुछ नियम बनाये हैं। इन्हें अपने जीवन में उतारकर हम अपने-आप को निखार सकते हैं. विकसित कर सकते हैं । प्रकृति के सारे कार्य अनुशासनबद्ध है ।

आदमी एक सामाजिक प्राणी है । समाज का सही संचालन तभी हो सकता है, जब हमारे बात-व्यवहार एक-दूसरे के सुख-दुःख को दिमाग में रखकर किए जाते हैं । इसके लिए अपने को बाँधना पड़ता है और अपने स्वार्थ का परित्याग करना होता है।

राष्ट्र का तो विकास ही अनुशासन पर आश्रित है । यदि सुरक्षा के लिए सैनिक सदा सतर्क न रहें, सरकारी सेवक समय पर कार्यों को निपटाये नहीं, शिक्षक ज्ञान को विद्यार्थियों में बाँटे नहीं, छात्र अपने मूल कर्त्तव्य विद्याध्ययन से जी चुराये, किसान अन्न-उत्पादन में निरन्तर वृद्धि के लिए प्रयत्न न करे तो देश कहाँ जाएगा ? यदि सभी अपने-अपने मन की करने लगे तो पूरे देश में अराजकता फैल जाएगी । नतीजा होगा कि कोई-न-कोई धर दबोचेगा और फिर हम गुलाम बनकर रह जाएंगे ।

आज के बच्चों के ऊपर ही कल देश को चलाने का भार होगा । इसलिए जरूरी है कि हम शुरू से ही अनुशासन को जीवन में अपनाकर चलें । इससे हम अनुशासित जीवन जीने के आदी हो जायेंगे और अपने साथ देश-समाज को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकेंगे । हम याद रखे कि अनुशासित राष्ट्र ही सफलता की ऊँचाई छू सकता है।

पुस्तकालय

‘पुस्तकालय’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है । ‘पुस्तक’ और ‘आलय’। पुस्तक का अर्थ किताब और आलय का अर्थ घर होता है । अतः ‘पुस्तकालय’ शब्द का अर्थ ‘पुस्तकों या किताबों का घर’ होता है । जहाँ पर सामूहिक और व्यवस्थित ढंग से पढ़ने के लिए पुस्तकें रखी रहती हैं, उस स्थान को ‘पुस्तकालय’ कहा जाता है । प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकालय का रहना आवश्यक है। हमारे विद्यालय में भी पुस्तकालय है । पुस्तकालय में ज्ञानवर्द्धक और लाभदायक पुस्तकें होनी चाहिए ।

पुस्तकों, को पढ़कर ही कोई विद्वान हो सकता है । लेकिन एक आदमी अपनी जरूरत की सारी किताबें अपने पास नहीं रख सकता है । सभी किताबें सब दिन मिलती नहीं हैं । ऐसे में एक आदमी सारी किताबों को खरीद भी नहीं सकता है । पुस्तकालय से किताबें लेकर हम अपनी जरूरत पूरी करते हैं। यहाँ से कोई भी आदमी एक निश्चित समय के लिए पुस्तकें प्राप्त कर सकता है और बाद में पढ़कर उस पुस्तक को फिर पुस्तकालय में वापस कर देता है। इस तरह के अदल-बदल के द्वारा एक ही पुस्तक से बहुत लोगों को लाभ होता है। हम अपना समय बेकार की बातचीत में बर्बाद कर देते हैं । पुस्तकालय में जाकर पुस्तकों का अध्ययन करने से समय का सदुपयोग होता है । यह स्वस्थ मनोरंजन भी है । जो गरीब छात्र हैं वे पुस्तकालय से पुस्तक प्राप्त करके अपनी पढ़ाई पूरी कर सकते हैं । अतः आधुनिक जीवन में पुस्तकालय एक महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक संस्था है।

हमारी विद्यालय में पुस्तकालय का प्रभारी एक शिक्षक हैं । छात्र-संघ का एक प्रधानमंत्री होता है । वह प्रत्येक वर्ग के छात्रों को किताबें देता है । प्रत्येक वर्ग को सप्ताह में एक दिन किताबें दी जाती हैं । उसी दिन पहले की ली. गई किताबें छात्र वापस भी करते हैं । शिक्षक-छात्र बौद्धिक स्तर के अनुसार सुरुचिपूर्ण किताबें चुनकर देते हैं ।

पुस्तकालय विद्यालय का प्राण होता है । हमलोगों को पुस्तकालय का भरपूर उपयोग करना चाहिए । इसमें विभिन्न विषयों की पुस्तकें रहती है, इन पुस्तकों के पढ़ने से हमारे ज्ञान की वृद्धि होती है।

समाचार-पत्र

मनुष्य स्वभाव से जिज्ञासु होता है । वह नित्य नवीन जानकारियाँ प्राप्त करना चाहता है । पहले इस जिज्ञासा के समाधान के लिए ऐसा कोई साधन नहीं था, जो आज समाचार-पत्रों के रूप में हमें सुलभ है । समाचार-पत्रों की उत्पत्ति की कहानी, सोलहवीं सदी में इटली से आरंभ होती है । मुद्रण-यंत्रों के आविष्कार से इनका विकास होता गया । आज विश्व-भर में इनका प्रचलन है।

समाचार-पत्र कई तरह के होते हैं । जैसे-दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक तथा मासिक-पत्र । समाचार-पत्र के मुख्यतः दो भेद होते हैं ‘सामान्य’ और _ ‘विशिष्ट’ । ‘सामान्य’ समाचार-पत्र सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक . आदि विषयों से संबंधित होते हैं । ‘विशिष्ट’ समाचार-पत्रों में विशेष व्यवसाय या पेशे से संबंधित समाचार होते हैं । सामाचार-पत्र लोकतंत्र के प्रहरी हैं। आज विश्व भर में लोकतंत्र का बोलबाला है । समाचार-पत्र इस क्षेत्र में जनता के मार्गदर्शक होते हैं । समाचार-पत्रों के माध्यम से लोग अपनी इच्छा, विरोध

और आलोचना प्रकट करते हैं । इनसे राजनीतिज्ञ भी डरते हैं । नेपोलियन ने कहा था- “मैं लाखों विरोधियों की अपेक्षा तीन विरोधी समाचार-पत्रों से भयभीत रहता हूँ।” समाचार-पत्र राजनैतिक क्रिया-कलापों का पूर्ण व्योरा प्रस्तुत करते हैं । इसी के आधार पर जनता अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती है।

आज के समाचार-पत्र विविधतापूर्ण होते हैं । प्रचार-माध्यम के रूप में इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। यदि कोई अपने विचार या रचना को देशव्यापी बनाना चाहता है, तो वह समाचार-पत्रों का सहारा लेता है । इससे उसकी बात देश-भर में फैल जाती है। व्यापार के फैलाव के लिए भी ये अत्यन्त उपयोग हैं। इनमें छपे विभिन्न विषयों के लेखों से हमारा ज्ञान-विस्तार होता है । इनसे हम नए विचारों पर चिन्तन करना, इन्हें अपनाना सीखते हैं।

समाचार-पत्र देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अन्धविश्वास और रूढ़िवादिता जैसी बुराइयों को दूर करने में भी सहायक हो सकते हैं । ये अपनी आलोचनाओं से सामाजिक तथा राजनैतिक बुराईयों का पर्दाफाश कर सकते हैं । यह तभी सम्भव है, जब समाचार-पत्र स्वतंत्र तथा निष्पक्ष हों और अपने उत्तरदायित्वो को ईमानदारी से निभाते हों।

विद्यार्थी जीवन

विद्यार्थी जीवन फूलों की सेज नहीं, काँटों का ताज है, किन्तु ये काँटे फूल बनाये जा सकते हैं । यह जीवन सरल नहीं है, किन्तु इसे सरल बनाया जा सकता है । इसके लिए दृढ़ निश्चय की, घोर परिश्रम की और पूर्ण शिक्षण की आवश्यकता है।

यह जीवन विद्यालय से प्रारम्भ होता है । विद्यालय वह स्थान है जहाँ जीवन की तैयारी की पहली शिक्षा मिलती है । यह मात्र पठन-पाठन का स्थान नहीं, प्रत्युत् जीवन-निर्माण, चरित्र-निर्माण की पवित्र भूमि है । जीवन का यह भाग विद्यार्थी जीवन कहलाता है ।

बच्चे का भविष्य उसके विद्यार्थी जीवन से जाना जा सकता है । यह भावी जीवन की तैयारी का काल है। मनुष्य इसी काल में विविध ज्ञान और अनेक गुणों की तैयारी करता है । इसी काल में उस जीवन-कक्ष का बीज-वपन होता है जो आगे चलकर फूलता-फलता है। हम इस काल में जैसा कर्त्तव्य करेंगे, भावी जीवन में वैसा ही फल मिलेगा। … विद्यार्थी जीवन निर्माण का काल है । इस निर्माण-काल में शिक्षा और उपदेश की, नियम और प्रतिबन्ध की एवं अनुशासन और संकल्प की आवश्यकता होती है । हमें इन गुणों को अपनाना पड़ता है । इनकी कमी से अनर्थ हो जाने की संभावना रहती है। हमें अपने शिक्षकों और अभिभावकों को नहीं भूलना है। इनके बताये मार्ग पर चलकर ही हम अपने में आत्मनिर्भरता, कर्तव्यपरायणता और अनुशासन आदि गुणों का विकास कर सकते हैं।

छात्र-जीवन का प्रधान कर्त्तव्य है पठन-पाठन । उसे चाहिए कि वह अध्ययन, अध्यवसाय और अनुशासन का मूल्य समझे । उसके लिए संयम नियम की नितान्त आवश्यकता है। इसी से जीवन प्रतिष्ठित हो सकता है। इसके अभाव में मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान का स्वप्न चूर हो जाता है । अंगेजी में एक कहावत है-“Student life is golden life” अर्थात् विद्यार्थी जीवन स्वर्णिम जीवन होता है । इस जीवन की चमक सदा अक्षुण्ण रहे इसका ध्यान प्रत्येक विद्यार्थी को रहना चाहिए ।

हमारे प्रिय शिक्षक

लाल बिहारी बाबू हमारे वर्ग शिक्षक हैं । वे पाठ को मानो घोल कर पिलाते हैं । क्या मजाल कि उनके पढ़ाते समय कोई तनिक आवाज भूल से भी करे।

जुल्म और जबरदस्ती लाल बिहारी बाबू को बर्दाश्त नहीं । बाबू राम नारायण सिंह का पुत्र भी हमारे ही विद्यालय में पढ़ता है । वे गाँव के बड़े ही प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । विद्यालय के संचालकमंडल में भी दखल रखते हैं। एक बार उनके पुत्र ने ताव में आकर अपने साथ पढ़ने वाले हरिजन लड़के को बेवजह पीट दिया । लाल बिहारी बाबू इस अनाचार को भला कब बर्दाश्त कर सकते थे ? उतने क्रोध में पहली बार लाल बिहारी बाबू को मैंने देखा था, बेंत की छड़ी तडातड़ उस लड़के की पीठ पर पड़ रही थी । लाल बिहारी बाबू के मुँह से एक ही बात बार-बार निकल रही थी, “अरे बुद्ध ! तूम अपने सहपाठी को नीचा मानता है । तू नीच है” । वह लड़का जब घर पहुंचा तो उसके पिताजी ने सारी बात जान ली। पन्द्रह-बीस मिनट में ही लड़के को साथ लिये बाबू रामनारायण सिंह ने आते ही अपने लड़के को आज्ञा दी, “गुरुजी के पैर पकड़, शपथ ले कि आगे फिर ऐसी हरकत नहीं करेगा ! अपने साथी से अपने किए के लिए माफी माँग” | लाल बिहारी बाबू की आँखों से आँसू की धारा बह रही थी और वे हकलाते हुए कहते जा रहे थे-“खोट मुझमें है रामनारायण बाबू ! मैं लड़के को सच्ची शिक्षा नहीं दे सका कि आज आशीष देनेवाले हाथ में छड़ी उठानी पड़ गई।”

भला, ऐसे वर्ग-शिक्षक को कौन भुला सकता है ? आज सारा गाँव वस्तुतः उनके चरणों में नतमस्तक है।

बाढ़

जब नदियों का जल बढ़कर आस-पास के इलाके में फैल जाता है, तब कहा जाता है कि नदियों में बाढ़ आ गई है । अत्यधिक वर्षा और बर्फ के अधिक पिघलने से नदियों में पानी बढ़ जाता है । यह बढ़ा हुआ जल नदी के दोनों किनारों के ऊपर आ जाता है । तब पानी में आस-पास की जमीनें डूब जाती है । बाढ़ प्रायः बरसात के समय आती है । कभी-कभी किसी-किसी नदी में जोरों की बाढ़ आती है । इससे नदी के किनारे के गाँव डूब जाते हैं।

जल-शक्ति के सामने कोई भी टिक नहीं सकता है । किसी भी स्थान के लिए बाढ़ एक प्राकृतिक प्रकोप है।

बाढ़ आने से अत्यधिक हानियाँ होती हैं । अचानक बाढ़ से गाँव-के गाँव बह जाते हैं । बहुत से आदमी और पशु डूबकर मर जाते हैं । खेतों में लगी हुई फसलें बर्बाद हो जाती हैं । गाँवों में कच्चे घर गिर जाते हैं । बाढ़-वाले क्षेत्रों के लोग बेघर होकर ऊँचे स्थानों, सडकों और स्टेशनों में शरण लेते हैं। बड़े-बड़े वृक्ष बाढ़ की धारा में उखड़ कर बह जाते हैं। बाढ़ के समय नदियाँ अपनी धारा भी बदलती हैं । उपजाऊ जमीन पर बाढ़ के समय बालू जमा हो जाते हैं और जमीन ऊसर हो जाती है। बाढ़ जब उतर जाती है तो पानी नदी में चला जाता है। चारो ओर गंदगी फैली रहती है। पानी में घास-फूस आदि के सड़ने से बहुत-सी बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । खासकर पशुओं में बीमारी तेजी से फैलती है।

बाढ़ के जल में मिट्टी के चिकने और उपजाऊ कण रहते हैं। बाढ के समय ये कण हमारे खेतों में जमा हो जाते हैं । इससे हमारे खेतों की उर्वश शक्ति बढ़ जाती है । अगले वर्ष बहुत अच्छी फसल होती है । बाढ़ से गाँवों की सफाई भी हो जाती है ।

‘बाढ़ से हानियाँ भी ज्यादा हैं। इससे बचाव के लिए सरकार प्रयत्न कर रही है । बाढ़वाली नदियों के किनारे पर तटबन्ध बनाये जा रहे हैं । बाढ़ के जल के उपयोग की भी योजनाएं बनायी जा रही हैं । बाढ़ से ज्यादा नुकसान सुखाड़ से होती है।

वर्षा-ऋतु

भारतवर्ष के अन्दर छह ऋतुएँ होती है-1. वसन्त, 2. ग्रीष्म (गर्मी), 3. वर्षा, 4. शरद् (जाड़ा), 5. हेमन्त और 6. शिशिर । हम इन छहों ऋतुओं को तीन भागों में बाँट सकते हैं-गर्मी, वर्षा और जाड़ा । वर्षा ऋतु मुख्यतः आषाढ़ और सावन में आती है, लेकिन इसका प्रभाव आश्विन तक बना रहता है। वर्षा-ऋतु का आगमन ग्रीष्म (गर्मी) के बाद होता है ।

वर्षा ऋतु के आते ही आकाश में काले-काले बादल छा जाते हैं । बादल गरजने लगते हैं । भारी वर्षा प्रारम्भ हो जाती हैं । वर्षा के जल से धरती की जलती हुई छाती शीतल हो उठती है। जीव-जन्तुओं में खुशियाली छा जाती है । ग्रीष्म-ताप से झुलसे हुए पेड़-पौधे फिर से नये पत्तों से लदने लगते हैं। धीरे-धीरे धरती पर हरियाली छाने लगती है। वर्षा-ऋतु में दिन-रात वर्षा होती रहती है । बादलों की गरज और बिजली की कड़क गड़ा भयावनी होती है।

जल ही जीवन है । अत: वर्षा-ऋतु में धरती को नया जीवन मिलता है। चारों ओर हरियाली छा जाने से पृथ्वी का दृश्य देखने योग्य हो जाता है। नदी और ताल-तलैया जल से लबालब भर जाते हैं । किसानों के लिए यह बहुत खुशी का समय होता है । इसी समय धान और मकई की मुख्य फसलें बोई जाती है। रब्बी की फसल के लिए जमीन में तरी आती है। भारत की खेती वर्षा-ऋतु पर निर्भर है। – इस ऋतु से कुछ हानियाँ भी होती हैं । अधिक वर्षा के कारण नदियों में बाढ़ आ जाती है, जिससे गाँव बह जाते हैं । लगी हुई फसलें नष्ट हो जाती हैं । यातायात ठप हो जाता है । पशु-पक्षी अधिक वर्षा के कारण भींग-भीग कर मर जाते हैं । गड्ढे में पानी जम जाता है, जिससे बीमारियाँ पैदा होती हैं।

इतना होने पर भी वर्षा-ऋतु से लाभ ही अधिक है। खेती के लिए यह आवश्यक ऋतु है । वर्षा नहीं हो तो धरती वीरान और रेगिस्तान बन जाएगा।

वसन्त-ऋतु

भारत सौन्दर्यमयी प्रकृति की गोद में बसा हुआ सुषमा सम्पन्न देश है। इसे ‘प्रकृति का पालना’ भी कहा जाता है । यहाँ प्रकृति अपने रंग-बिरंगे मोहक रूपों में देखने को मिलती है । वर्ष की छह ऋतुएँ एक के बाद दूसरी क्रमसे आकर विविध रूपों में भारत-भूमि का श्रृंगार करती है । वसन्त ऋतुओं की इस माला का सबसे सुन्दर और चमकता हुआ मोती है । ऋतुराज वसन्त के आते ही उसकी मादकता हर स्थान पर छा जाती है और प्रकृति राजरानी की तरह सजने लगती है ।

ऋतुराज वसन्त के आगमन से ही शीत का भयंकर प्रकोप भाग जाता है । वसन्त का आगमन फागुन में होता है और वह चैत तक रहता है। वसन्त के आते ही पश्चिम-पवन वृक्ष के जीर्ण-शीर्ण पत्तों को गिराकर उन्हें स्वच्छ और निर्मल बना देता है । वृक्षों और लताओं के लहकते हुए नवकिसलय-दल दिखने लगते हैं । रंग-बिरंगे विविध पुष्यों की सुगन्ध दशों-दिशाओं में अपनी मादकता का संचार करने लगती है । जलवायु सम हो जाती है-न शीत की कठोरता और न ग्रीष्म का ताप । कोयल की कूक चारों ओर सुनाई पड़ने लगती है । शीत के ठिठुरे अंगों की शिथिलता मिट जाती है और उन अंगों में जीवन की नई स्फूर्ति उमड़ने लगती है । वसन्त के आगमन के साथ ही जैसे जीर्णता और पुरातनता का प्रभाव तिरोहित हो जाता है।

वसन्त में प्रकृति के कण-कण में नवजीवन का संचार हो जाता है । ऐसे में ही हँसी-खुशी के.साथ होली आती है और सबको झुमा डालती है। इसलिए होली को वसंतोत्सव भी कहा जाता है । इस समय खेतों में पकी हई फसलें लहराती रहती हैं । हर्ष में डूबे किसान अपनी फसलों को देखकर नाचने लगते हैं। ढोल की थाप ओर मैंजीरों की सकती ध्वनि से वातावरण गूंजने लगता है और ऐसा प्रतीत होता है मानों संसार में सुख-ही-सुख, आनन्द-ही-आनन्द है। वसन्त की इस मस्त कर देनेवाली माधुरी की प्रशंसा कवियों और लेखकों ने मुक्तकंठ से की है।

15 अगस्त (स्वाधीनता दिवस)

हमारे देश का सबसे महत्त्वपूर्ण और स्वर्णिम दिन है-15 अगस्त, 1947। इसी दिन हम सदियों की गुलामी की जंजीरें तोड़कर आजाद हुए । दुनिया के आजाद देशों के आकाश में एक नया सितारा जगमगा उठा-स्वाधीन भारत ।

15 अगस्त हमारा राष्ट्रीय त्योहार है । इसी दिन, देश के भाग्य ने पलटा खाया, आजादी मिली । इसके लिए हमारे देश के लाखों लोगों ने अपनी जान की बाजी लगाई । अपनी सारी जिंदगी या जवानी जेल के सीखचों के अन्दर गुजार दी। कितनी माताओं के लाल छिने, कितनी सुहागिनों के माँग धुले तब जाकर यह दिन आया । अमानवीय आत्याचारों से ऊबकर स्वतंत्रता-प्रेमी भारतीयों के हृदय में तीव्र आक्रोश पैदा हुआ और अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिली, सत्य और अहिंसा के अस्र के सामने अंग्रेजों की कठोरता प्रकम्पित हो उठी । 15 अगस्त, 1947 को शताब्दियों की खोई स्वतंत्रता भारत को पुनः प्राप्त हो गई । सारे देश में स्वतंत्रता की लहर दौड़ गई । लालकिले पर देश का अपना तिरगा झंडा लहराया । एक नये अध्याय की शुरुआत हुई।

लेकिन 15 अगस्त का दूसरा पहलू भी है । इसके एक दिन पूर्व मातृभूमि के दो टुकड़े हो गए । भारत का एक अंग कटकर पाकिस्तान बना । अखंड भारत का सपना बिखर गया । इस प्रकार एक ओर यह दिन हमारे लिए हर्ष’ का है तो दूसरी ओर विषाद का भी है। प्रतिवर्ष यह राष्ट्रीय पर्व बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है । विद्यालय के छात्र अपने इस ऐतिहासिक उत्सव को बड़े उल्लास और उत्साह के साथ मनाते हैं । उसी दिन राज्यों की राजधानियों में भी किसी सार्वजनिक स्थानों पर मुख्यमंत्री के कर-कमलों द्वारा झंडा फहराया जाता है । सभी सरकारी कार्यालयों में भी काफी सरगर्मी के साथ तिरंगा झंडा फहराया जाता है तथा लोग अपने-अपने घरों पर भी तिरंगा झंडा फहराते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में विशेष आयोजन होता है । प्रधानमंत्री लालकिले पर झंडा फहराने के बाद राष्ट्र को संबोधित करते हैं । राज्यों की आकर्षक झाँकियाँ निकाली जाती हैं।

यद्यपि हमें आजादी मिल गई है तथापि देश की स्थिति दयनीय है, अशिक्षा है, भ्रष्टाचार है, भूख है, गरीबी है । इन्हें मिटना होगा, तभी हम सही अर्थ में स्वतंत्र देश के आदर्श नागरिक बन सकेंगे।

हमारा देश : भारत

भारत हमारा प्यारा देश है । हम सभी भारत माता की संतान हैं । मनुष्य का जहाँ जन्म होता है, वहाँ वह पलता-बढ़ता है, वह मनुष्य की जन्मभूमि होती है। भारत हमारी जन्मभूमि है । यहीं की मिट्टी, हवा और पानी में हम पले हैं। हमारे लिए यह स्वर्ग से भी बढ़कर है । यह एक महान देश है और संसार का शिरोमणि है।

जब दुनिया के अन्य देशों के लोग असभ्यावस्था में जंगलों में घूमते थे, उस समय भारत में वेद की ऋचाएं गूंजती थीं । भारत भूमि अवतारों, ऋषियों, मुनियों एवं महात्माओं की तपोभूमि है । यहीं पर दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गाँधी जैसे महान आत्माओं ने भारत का मान विश्व में ऊँचा किया है। – इसके उत्तर में नेपाल-चीन ओर तिब्बत हैं। इसके दक्षिण में हिन्द महासागर है । इसके पूरब में बंगाल की खाड़ी और म्यांमार (बर्मा) हैं । भारत के पश्चिम में अरब सागर, पाकिस्तान और अफगानिस्तान हैं । उत्तर में संसार का सबसे ऊँचा पर्वत हिमालय भारत माता के सिर का जगमगाता मुकुट है।

प्राकृतिक दृष्टि से यह एक सम्पन्न देश है । यहाँ की नदियों में सालों भर मीठे जल का प्रवाह होते रहता है। गंगा और ब्रह्मपत्र के उत्तरी मैदान काफी उपजाऊ हैं । अनेक प्रकार के अन्न यहाँ उपजते हैं । यहाँ नदियों का जाल बिछा है । यहाँ की जलवायु मानसूनी और उत्तम है । भारत के पठारी भाग के गर्भ में खनिज-रत्नों का भंडार छिपा है । चारों ओर फैली वन-सम्पदा इसके ऐश्वर्य में चार चाँद लगाती है । भारत सदा शान्ति और अहिंसा का पुजारी रहा है । आज भी भारत अपने इस पुनीत संदेश को सारी दुनिया में फैला रहा है ।

भारत के लोग महान राष्ट्रप्रेमी हैं । इसकी मान-प्रतिष्ठा के लिए यहाँ के लोग सदा अपना बलिदान देने के लिए तैयार रहते हैं । हमारे अन्दर देश-प्रेम की भावना सदा भरी रहनी चाहिए । तभी देश सुरक्षित रहेगा ।

होली

ऋतुओं में वसन्त का, फूलों में गुलाब का और रसो में शृंगार का जो महत्त्व है, वही स्थान त्योहारों में होली का है । मात्र यही एक त्योहार है जिसमें वसन्त की सुषमा, गुलाब की खुशबू और श्रृंगार की मादकता का अपूर्व संयोग है। यह हँसी-खुशी का पर्व है । दिन-रात अपनी कर्म-संकुलता में उलझे मनुष्य को यह पर्व आनन्द और प्रसन्नता से भर देता है।

इस पर्व के पीछे भी एक पौराणिक कथा प्रचलित है। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहाद भगवान विष्णु का भक्त था । हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मरवाने “की हरचन्द कोशिश की, पर भगवान की कृपा से वह सदा बचता गया । प्रह्लाद की बुआ होलिका के पास वरदानयुक्त एक चादर थी, जिसे ओढ़कर कोई भी आदमी आग में नहीं जलता था । अन्त में हिरण्यकशिपु के कहने पर होलिका ” ने वही चादर ओढ़ ली और प्रह्लाद को लेकर आग में प्रवेश कर गई। भगवत्कृपा से उसी समय जोरों की हवा चली और होलिका की चादर प्रह्लाद के शरीर से लिपट गई । प्रहाद भगवान का नाम लेता हुआ चिता से बाहर आ गया और होलिका जल मरी । इसी खुशी में यह पर्व मनाया जाता है।

यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है । रात्रि में होलिका दहन होता है और सुबह लोग एक-दूसरे पर रंग डालते हैं । दोपहर के बाद स्नान के पश्चात् अबीर-गुलाल का कार्यक्रम प्रारंभ होता है। उस दिन हर चेहरा एक रंग में रंग जाता है । न कोई बड़ा होता है न छोटा, न कोई ऊँच होता है न नीच, न कोई धनी होता है न निर्धन । बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री, पुरुष सभी एक ही रंग में रंगे हुए. एक ही मस्ती में मस्त । इस दिन हर गाँव का गली-कृचा ‘मोहन खेले होली हो’ की ध्वनि से गूंजने लगता है । हर स्थान पर मालपूआ और पकवान की सोधी गंध फैलने लगती है । ढोल और मँजीर की ध्वनि से आकाश गूंजने लगता है । सारा वैर-भाव भूलकर सभी एक-दूसरे को गले मिलते हैं। .. आज की भौतिकवादी दुनिया में होली की खुशियों की झोली बहुत कुछ खाली हो गयी है, फिर भी इसमें अन्य त्योहारों से अधिक खुशियाँ हैं । इस सामाजिक पर्व को भाइचारे और सहृदयता से ही मनाया जाना चाहिए ।

दुर्गापूजा या विजयादशमी

दुर्गापुजा हिन्दुओं का सर्वप्रमुख पर्व है । इस पर्व को कहीं दशहरा, कहीं शारदीय नवरात्रपूजा और कहीं विजया दशमी भी कहा जाता है । इस पर्व को मुख्य रूप से बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश के लोग बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं। दुर्गापूजा शक्ति की उपासना है । यह अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है।

दुर्गापूजा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के विषय में कई तरह की धार्मिक कथाएँ प्रचलित हैं। कुछ लोग कहते हैं कि राम नं इसी दिन रावण का वध किया था । उसकी खुशी में यह पर्व मनाया जाता है । कुछ लोगों के अनुसार महिपासुर नामक असुर महान शक्तिशाली एवं पराक्रमी था । उसने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था । स्वर्ग-च्युत भयातुर देवताओं ने भगवान विष्णु की स्तुति-आराधना की । ब्रह्मा, विष्णु, महेश-इन त्रिदेवों के शरीर से तथा सभी देवताओं के शरीर से थोड़ा-थोड़ा तेज निकला और सबके सम्मिलित तेज-पुंज से नारी रूप में आदिशक्ति माता दुर्गा प्रकट हुई । देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र माता को प्रदान किए । माता हुंकार करती – हुई युद्ध के मैदान में पहुंची और प्रचंड बली महिषासुर का वध किया । उसी विजय के उपलक्ष्य में दुर्गापुजा का पर्व मनाया जाता है । कथाएँ जो भी सत्य हो, पर यह पूर्णतः सत्य है कि यह पर्व असत्य पर सत्य की, अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में मनाया जाता है।

दुर्गापूजा का पर्व दस दिन तक मनाया जाता है । आश्विन मास के शुक्लपक्ष के प्रारम्भ में ही कलश-स्थापन होता है और माता दुर्गा की पूजा प्रारम्भ हो जाती है । बड़ी निष्ठा, श्रद्धा-भक्ति, बड़े उल्लास और धूम-धाम से दुर्गापूजा की जाती है । दशमी को यज्ञ की समाप्ति के बाद विर्जन का काम होता है । इस अवसर पर कहीं-कहीं मेला लगता है तथा विभिन्न स्थानों पर संगीत-समारोह का भी आयोजन किया जाता है।

दुर्गापूजा के अवसर पर सभी शिक्षण-संस्थान और सरकारी कार्यालय बन्द कर दिये जाते हैं । सभी लोग मिल-जुलकर इस पर्व को मनाते हैं । इस पुनीत अवसर पर हम सबको अपनी संस्कृति से शील और शक्ति की सीख लेनी चाहिए । यह उत्सव मात्र प्रचण्ड शक्ति का ही प्रचार नहीं, बल्कि इसके सात्त्विक तेज का भी प्रेरक है । अतः सबको सात्विक भाव से ही माँ दुर्गा की पूजा करनी चाहिए । इस पूजा के चलते अगर धार्मिक द्वेष उत्पन्न होता है, तो निश्चित रूप से पूजा का मूल उद्देश्य नष्ट हो जाता है ।

मेरे प्रिय कवि : तुलसीदास

सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, नन्ददास आदि भक्त कवियों की काव्यकृतियों के रसास्वादन करने का सुअवसर हमें मिला । किन्तु महाकवि तुलसीदास की रचनाओं-रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली में भक्ति-भावना के उद्रेक की जितनी क्षमता विद्यमान है, उतनी किसी कवि की रचनाओं में नहीं । उनकी रचनाओं में काव्य-सौष्ठव के दोनों पक्षों-भावपक्ष और कलापक्ष का अद्भुत , समन्वय हुआ है।

तुलसीदास ने विशृंखलित भारतीय संस्कृति को ठोस रूप प्रदान किया । तुलसीदास का आविर्भाव जिस काल में हुआ था, भारत में वह काल परस्पर विरोधी संस्कृतियों, साधनाओं, जातियों का सन्धिकाल था। देश की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्थिति विशृंखलित हो रही थी । तुलसीदास ने समाज का सम्यक दिशा प्रदान की। उन्होंने अपने आराध्यदेव मर्यादा-पुरुषोत्तम राम के पावन चरित्र में शौर्य, विनयशीलता, पुरुषार्थ, करुणा तथा वात्सल्य भाव आदि मानवीय विभूतियों को संजोकर रख दिया है । राम के विमल चरित्र में ईश्वरीय एवं मानवीय गुण दोनों समवेत रूप से मुखरित हुए हैं।

यद्यपि महाकवि तुलसीदास के जन्म-स्थान, जन्म-तिथि, माता-पिता, शिक्षा-दीक्षा आदि के संबंध में विद्वानों में मतभेद है, फिर भी अधिकांश विद्वानों ने इनका जन्म संवत् 1589 के लगभग माना है तथा आत्माराम दूबे को इनका पिता और हुलसी को माता स्वीकारा है। गुरु नरहरिदास के चरणों में रहकर इनकी शिक्षा-दीक्षा हुई । इनका विवाह रत्नावली के साथ हुआ जिन्होंने इन्हें भगवद्-भक्ति की ओर प्रेरित किया !

तुलसीदास सचमुच आदर्शवादी भविष्यद्रष्टा थे । अपने आदर्श चरित्रों के आधार पर उन्होंने भारतवर्ष के भावी समाज की कल्पना की थी । प्रत्येक चरित्र-चित्रण में तुलसी ने मानव वृत्तियों को गंभीरता से देखा-परखा है। इसीलिए पाठक तुलसीदास द्वारा प्रतिपादित अनुभूतियों को उनके राग, वैराग्य, हास्य और रुदन को अपना ही राग-वैराग्य, हास्य और रुदन समझते हैं । यही कवि की सच्ची कला की महानता है।

प्रदूषण

प्रकृति के विभिन्न घटका में असंतुलन ‘प्रदूषण’ कहलाता है । पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व बना रहे : इसके लिए उसका प्रकृति के साथ समन्वय होना ही चाहिए । प्रदूषण के कारण वयजीव को संख्या में कमी, पारिस्थितिक असंतुलन, प्राकृतिक विपदाएँ, जनसंख्या वृद्धि आदि हैं। पर्यावरण के असंतुलन से ही प्रदूषण बढ़ता है। कारखाने की चिमनियों से निकलनेवाले धुएँ वातावरण को विषाक्त बना रहे हैं, उनके कूड़े-कचड़े तथा गंदी नालियों का बहाव नदियों की ओर किया जा रहा है । जंगलों की धड़ाधड़ कटाई हो रही है और खेतों में मनमाने ढंग से कीटाणुनाशक दवाइयाँ छिड़की जा रही है । इससे प्रदूषण की जटिल समस्याएँ उठ खड़ी हो गई हैं । इस समस्या ने मानव जाति के अस्तित्व के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया है।

प्रदूषण के अन्तर्गत वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, और मिट्टी-प्रदूषण की चर्चा मुख्य रूप से होती है । भारत में भी प्रदूषण की मुख्य यही समस्याएँ हैं। जल, वायु, मिट्टी हमारे जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण हैं। लेकिन मानव सभ्यता के विकास के साथ इन प्राकृतिक उपादानों की शुद्धता और निर्मलता भी घटती गई है ।

हमें अपने स्वास्थ्य तथा वायु, जल एवं मिट्टी के प्रदूषण की समस्याओं को नियंत्रित रखने के लिए जल्द ही किसी कारगर उपाय का पता लगाना आवश्यक है। वायुमंडल के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए वृक्षारोपण कार्यक्रम में तीव्रता लानी होगी। नदियों के जल-प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए दूषित नालियों के प्रदूषित जल के बहाव के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी। मिट्टी के प्रदूषण को रोकने के लिए जहरीली खाद पर रोक लगानी होगी । यह कार्य सरकार तथा जनता दोनों के पारस्परिक सहयोग द्वारा ही संभव है। अतः प्रदूषण की समस्या के निराकरण के लिए जन-जागृति और जन-अभिरुचि पैदा करना आवश्यक है । इसीलिए प्रदूषण को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है ।

विज्ञान के चमत्कार
अथवा, विज्ञान और हमारा जीवन

विज्ञान का अर्थ है-प्राकृतिक शक्तियों का विशेष ज्ञान । ज्ञान जब शृंखला की कड़ियों में गुँथ जाता है, तो विज्ञान की सृष्टि होती है । ज्ञान चेतना का विज्ञान है और विज्ञान शक्ति का ज्ञान है । ज्ञान परिचय है और विज्ञान शक्ति । ज्ञान चेतना है और विज्ञान उस चेतना के फल का भोग । ज्ञान जिज्ञासा की – तृप्ति है और विज्ञान उस तृप्ति का प्रयोजन । विज्ञान का धरातल प्रयोजन का है, भौतिक क्षेत्र में सुख-सुविधा और समृद्धि की उपलब्धि है । तात्पर्य यह कि “मनुष्य के अनुभव एवं अवलोकन से प्राप्त क्रमबद्ध एवं सुसंगठित ज्ञान को विज्ञान कहते हैं।”

विज्ञान के साथ नानव जीवन का घनिष्ठ सम्बन्ध है । विज्ञान के चामत्कारिक आविष्कारों के प्रभाव से सारा संसार घर-आँगन-सा प्रतीत होने लगा है । विज्ञान ने ‘समय’ और ‘दूरी’ पर अधिकार कर लिया है । आज विज्ञान द्वारा रेल, मोटर, ट्राम, जलयान, वायुयान, रॉकेट और अंतरिक्ष-यान बनाये जा चुके हैं जिनके द्वारा दो स्थानों के बीच की दूरी समाप्त हो गई है। इतना ही नहीं, विज्ञान ने हमें वायरलेस, टेलीफोन, रेडियो एवं टेलीविजन दिये हैं, जिनके द्वारा संसार भर का समाचार घर-बैठे प्राप्त कर सकते हैं। चलचित्र हमारे मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन है । अणुवीक्षण यंत्र के द्वारा हम सूक्ष्मातिसूक्ष्म अदृश्य पदार्थों को भी देखने की सामर्थ्य प्राप्त कर चुके हैं।

तार, टेलीफोन, टैलीपिंटर, बेतार के तार, मुद्रण यंत्र, एक्स-रे आदि विज्ञान के अद्भुत चमत्कार हैं । विज्ञान के चलते ही आज दुनिया का कोई रोग असाध्य नहीं रह गया है । कम्प्यूटर का आविष्कार तो आधुनिक युग का सबसे अद्भुत आविष्कार है । यह मानव के लिए प्रायः सभी क्षेत्रों में सर्वाधिक उपयोगी है । विज्ञान ने बिजली के रूप में मनुष्य को एक महान शक्ति प्रदान की है । शक्ति के अन्य विभिन्न साधन भी विज्ञान की ही देन है । इस प्रकार शिक्षा का क्षेत्र हो या कृषि का या उद्योग का, मानव जीवन के लिए विज्ञान अत्यधिक उपयोगी है।

विज्ञान के उपर्युक्त सभी चमत्कारों को उनके व्यवहार ही निर्देशित करते हैं कि वे मानवता के लिए हितकर हैं या अहितकर । एक ओर विज्ञान ने अगर मनुष्यता के लिए सुख और सुविधाओं का अम्बार लगा दिया है, तो दूसरी ओर उसने मानवता को विनाश के रास्ते पर भी ला खड़ा किया है । विज्ञान ने अनेक भयंकर अस्त्र-शस्त्रों का आविष्कार कर मानवता को खतरे में डाल दिया है। अतः विज्ञान को ‘विज्ञान’ बनाने के लिए उसे जनहितकारी बनाया जाना चाहिए।

कम्प्यूटर और उसका महत्त्व

आधुनिकतम वैज्ञानिक आविष्कारों में कम्प्यूटर एक अद्भुत आविष्कार है । क्या रेडियो, क्या दूरदर्शन क्या चलचित्र–सर्वत्र कम्प्यूटर के सम्बन्ध में प्रचार का कार्य जारी है। कम्प्यूटर एक ऐसा उपयोगी यंत्र है जिससे मनोरंजन या मनबहलाव नहीं हो सकता है । इसलिए जनसाधारण उसकी ओर आकृष्ट नहीं होते और उसका प्रचार विभिन्न माध्यमों से किया जाता है । अतः यह स्पष्ट है कि कम्प्यूटर टंकण यन्त्र आदि की तरह एक कामयाब मशीन मात्र है और इसलिए इसका प्रचार केवल आवश्यकता के अनुरूप ही होता है । इस यंत्र से गणना सम्बन्धी बहुत बड़ा काम अत्यन्त आसानी से क्षणमात्र में हो सकता है ।

चूँकि मानव-मस्तिष्क द्वारा सम्पादित सभी काम कम्प्यूटर से सही-सही और अत्यन्त अल्प काल में हो जाते हैं, इसलिए आधुनिक काल में इसका प्रयोग सभी क्षेत्रों में हो रहा है। बड़े-बड़े व्यवसायों एवं तकनीकी संस्थाओं और प्रशासकीय कार्यालयों में इसके उपयोग से बहुत तरह के कार्य सम्पादित हो रहे हैं । बड़े-बड़े उत्पादनों का हिसाब-किताब लगाने तथा भावी उत्पादन संबंधी अनुमान की गणना करने में कम्प्यूटर से काम लिया जाता है । यही कारण है कि आजकल व्यवसाय, चिकित्सा, अंतरिक्ष कार्यक्रम, प्रतिरक्षा एवं अखबारी दुनिया में कम्प्यूटर सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कम्प्यूटर आधुनिक युग के लिए अत्यन्त आवश्यक है । व्यावसायिक, प्रशासनिक, चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में कम्प्यूटर के प्रयोग से अप्रत्याशित लाभ उठाया जा सकता है । कम्प्यूटर की सहायता से सभी क्षेत्रों में विकास की गति में कई गुनी वृद्धि हुई है। मौसम संबंधी भविष्यवाणी में कम्प्यूटर की गणना बेजोड़ है । इस प्रकार सभी क्षेत्रों के विकास का सही आकलन करके मानव-मात्र का उपकार कर रहा है । आशा है, निकट भविष्य में यह मानव-कल्याण का अचूक साधन प्रमाणित होगा।

दहेज-प्रथा : एक अभिशाप

देहज-प्रथा भारतीय समाज की सबसे विषम कुरीति है । दहेज की रूढ़ि के चलते भारतीय समाज निराशा और कुण्ठा के अन्धकार में भटक रहा है। दहेज-प्रथा रूढ़िवादिता, शोपण एवं सामाजिक अन्धविश्वास का जीता-जागता उदाहरण है। यह विशाल सर्प की तरह पूरे समाज को अपनी कुण्डली में समेटे हुए है । इसने अच्छे-बुरे, ज्ञानी-अज्ञानी, शिक्षित-अशिक्षित सबों को एक सतह पर ला खड़ा किया है । पूरा समाज दहेज की दारुण ज्वाला से धधक रहा है।

आज इस कुप्रथा के चलते बहुत-से वर, योग्य वधू नहीं प्राप्त कर पाते । फलतः जीवन दु:खमय और नारकीय होता जा रहा है । यह कुप्रथा संक्रामक बीमारी की तरह घर-घर में फैलती चली जा रही है । हर कन्या का पिता इस कुप्रथा के चलते चिन्ता-ग्रस्त हैं । जैसे-जैसे कन्या की उम्र बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे परिवार निराशा के अन्धकार में डूबता चला जा रहा है । पिता अपना घर-द्वार, जमीन आदि बेचकर वर के अभिभावक की मांग पूरी करने में लगे हैं । वर-पक्ष की माँग सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही चली जा रही है। इस राक्षसी प्रथा के बहुत-से दुष्परिणाम हुए हैं । विवाह मे दहेज की कमी के कारण अनेक कन्याओं की हत्या एवं आत्म-हत्या के समाचारों से अखबार के पन्ने भरे पड़े हैं। बहुत-सारी कन्याओं को इस प्रथा के राक्षस ने लील लिया है, बहुत-से घर इस कुप्रथा को भेंट चढ़ चुके हैं । क्या विडम्बना है, जो आज कन्या की शादी के लिए गली-गली भटक रहे हैं, वही कल लड़के की शादी के लिए अकड़ते और दहेज माँगते हैं । तलवा सहलाने वाला ही सिर पर चढ़ने लगता है।

हम सबको भारतमाता के सिर पर लगे इस दाग को धोना है। इसके लिए समाज के अविवाहित युवक-युवतियों को आगे बढ़कर आदर्श का परिचय देना है । हमारी सरकार भी इस राक्षसी प्रथा को समाप्त करने के लिए कृतसंकल्प है। दहेज लेना और देना दण्डनीय अपराध है । फिर भी यह कुप्रथा फल-फूल रही है, क्योंकि हम सभी इसका सामूहिक विरोध नहीं कर रहे हैं। जिस दिन हम सभी इसके विरुद्ध खड़े हो जायेंगे. उसी दिन यह कुप्रथा समाप्त हो जायेगी ।

महात्मा गाँधी

“चल पड़े जिधर दो डंग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर ।” – सोहनलाल द्विवेदी

धन्य है वह देश जिसने एक-से-एक महापुरुषों को जन्म देकर अपनी मिट्टी का मान और गौरव बढ़ाया है ! इन महापुरुषों ने विश्व को नया प्रकाश और नयी प्रेरणा दी है। प्रातः स्मरणीय महात्मा गाँधी भी महापुरुषों की उसी पंक्ति में आते हैं, जिन्होंने अपने देश ही नहीं, वरन् विश्व-कल्याण को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया ।

महात्मा गाँधी का पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था । इनका जन्म 2 अक्टूबर, 1869 ई. में गुजरात राज्य के पोरबन्दर नामक स्थान में हुआ था। इनके पिता करमचन्द गाँधी एक रियासत के दीवान थे और माता पुतली बाई एक महान् धार्मिक महिला थीं । इनकी शिक्षा का श्रीगणेश पोरबन्दर की पाठशाला से हुआ । बचपन में ही इनका विवाह कस्तूर वा नाम की बालिका से सम्पन्न करा दिया गया । मैट्रिक पास करने के बाद ये बैरिस्टरी पढ़ने लंदन गए ।

बैरिस्टर बनकर वे बम्बई हाईकोर्ट में वकालत करने लगे, लेकिन सफलता नहीं मिल सकी । वे एक मुकदमे की पैरवी में दक्षिण अफ्रीका गये, जो इनके क्रान्तिकारी जीवन का श्रीगणेश था । वहाँ उन्होंने प्रवासी भारतीयों के पक्ष में अंग्रेजों का डटकर विरोध किया । दक्षिण अफ्रीका में सफलता एवं अनुभव प्राप्त करके भारत आये । भारत में क्रांति का श्रीगणेश बिहार राज्य के चम्पारण जिले में किया । धीरे-धीरे उनकी आवाज भारत-भर में गूंजने लगी । फिर तो आजादी की लड़ाई का बिगुल बज उठा असहयोग आन्दोलन, ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन एवं ‘करो या मरो’ के नारे ने अंग्रेजों के इस विशाल साम्राज्य की नींव हिला दी इस क्रम में गाँधीजी को कई बार जेल की यात्राएँ करनी पड़ी एवं असहनीय पीड़ाएँ भी झेलनी पड़ी, लेकिन सत्य और अहिसां का वह पुजारी सदा अपने पथ पर चट्टान की तरह अडिग रहा । 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हो गया । एक हजार वर्षों के बाद भारतीय जनता ने आजादी की हवा में सौस ली । अब गाँधीजी भारत में राम-राज्य लाने के लिए प्रयत्न – करने लगे और भावी योजनाओं पर विचार-विमर्श करने लगे । 30 जनवरी, 1948 ई. संध्या की बेला थी । काल चुपके चुपके आ पहुँचा । प्रार्थना की पवित्र बेला में नाथूराम गोडसे की तीन गोलियाँ चली । गाँधीजी गिरे और ‘हे रामा’ कहते हुए स्वर्ग सिधार गये । इस खबर से भारत ही नहीं, समूचा विश्व शोकाकुल हो उठा । राम-राज्य का स्वप्न अधूरा रह गया !

ईद

हिन्दुओं के लिए जैसे होली, वैसे मुसलमानों के लिए ईद है । दोनों आनन्द के पर्व हैं । इस्लामी हिजरी सन् चन्द्रमास पर आधारित होता है । इसके बारह महीनों में एक महीना “रमजान” का होता है । यह बहुत पवित्र महीना माना जाता है । इस महीने में मुसलमान भाई रोजा रखते हैं, दिनभर रोजा रखने के बाद शाम को नमाज अदा करते हैं । फिर पूरा परिवार सामूहिक रूप से खाते-पीते हैं । इसे ही. रोजा रखना’ कहते हैं । रमज़ान के महीने में पांच बार नमाज अदा करना, रोजा रखना, खैरात देना और नेक कार्यों में लगना आवश्यक होता है।

तीस दिन विधिपूर्वक रोजा रखने के बाद, अगले महीने की पहली तारीख को यानी दूज का चाँद देखकर दूसरे दिन ‘ईद’ का त्योहार मनाया जाता है। चाँद के दर्शन करते ही लोग एक-दूसरे को मुबारकवाद देते हैं । ‘ईद’ को ‘ईद-उल-फितर’ भी कहा जाता है ।

ईद के दिन हर घर में सुबह से ही चहल-पहल रहती है । स्नानादि के बाद नए कपड़े पहनकर सभी बच्चे, बूढ़े, बड़े ईदगाह या किसी बड़े मैदान में जुटते हैं । एक के पीछे दूसरे लोग कतार में खड़े हो जाते हैं । पहले आनेवाला आगे की पंक्ति में होगा । यहाँ कोई मालिक या नौकर, कोई छोटा या बड़ा नहीं होता । खुदा के दरबार में सभी बराबर हैं । एक साथ झुकना – घुटने के बल बैठना, सिर नबाना बड़ी ही खूबसूरत अनुशासन का दृश्य उपस्थित करता है । गरीबों को उस दिन अपनी शक्ति के अनुसार दान देते हैं । उनमें सेवइयाँ और कपड़े बांटे जाते हैं।

ईद की नमाज खत्म होते ही बच्चे मिठाइयों और खिलौने की दुकानों पर टूट पट्ने हैं । बड़े-बूढ़े सभी एक-दूसरे के गले मिलते हैं । घर पर आनेवाले लोगों का स्वागत तरह-तरह के पकवानों से, जिसमें सेवई जरूर होती है, किया जाता है । जगह-जगह कव्वालियों और गजलों का जलसा रात देर तक चलता रहता है।

बड़े इंतजार के बाद हर साल ईद आती है और खुशियाँ लुटा जाती है। उसके पहले एक महीने तक का नियमित उपवास शरीर की भी शुद्धि करता है । ईद हमें बराबरी और खुशी का संदेशा देती है । वह हमें अनुशासित नियमित जीवन बिताने का पाठ पढ़ाती है।

भारतीय नारी की महत्ता

समर्पण की मूर्ति नारी भारत की नारी का नाम सुनते ही हमारे सामने प्रेम, करुणा, दया, त्याग और सेवा-समर्पण की मूर्ति अंकित हो जाती है। जयशंकर प्रसाद ने नारी के महत्त्व को यों प्रकट किया है।

नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पदतल में।
‘पीयूष स्रोत-सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में ॥

नारी के व्यक्तित्व में कोमलता और संदरता का संगम होता है । वह तर्क की जगह भावना से जीती है । इसलिए उसमें प्रेम, करुणा, त्याग आदि गुण अधिक होते हैं। इन्हीं की सहायता से वह अपने तथा अपने परिवार का जीवन सुखी बनाती है।

पश्चिमी नारी-उन्नत देशों की नारियों प्रगति की अंधी दौड़ में पुरुषों से मुकाबला करने लगी हैं। वे पुरुषों के समान व्यवसाय और धन-लिप्सा में संलग्न हैं। उन्हें अपने माधुर्य, ममत्व और वात्सल्य की कोई परवाह नहीं है। अनेक नारियाँ माता बनने का विचार ही मन में नहीं लाती। वे केवल अपने सुख, सौंदर्य और विलास में मग्न रहना चाहती हैं। भोग-विलास की यह जिंदगी भारतीय आदशों के विपरीत है।

भारतीय नारी-भारतवर्ष ने प्रारंभ से नारी के ममत्त्व को समझा है। इसलिए यहाँ नारियों की सदा पूजा होती रही है। प्रसिद्ध कथन है –

यह नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता।

भारत की नारी प्राचीन काल में पुरुषों के समान ही स्वतंत्र थी। मध्यकाल में देश की स्थितियाँ बदलीं । आक्रमणकारियों के भय के कारण उसे घर की चारदीवारी में सीमित रहना पड़ा । सैकड़ों वर्षों तक घर-गृहस्थी रचाते-रचाते उसे अनुभव होने लगा कि उसका काम बर्तन-चौके तक ही है। परंतु वर्तमान युग में यह धारणा बदली। बदलते वातावरण में भारतीय नारी को समाज में खुलने का अवसर मिला। स्वतंत्रता आंदोलन में सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू, सत्यवती जैसी महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । परिणामस्वरूप स्त्रियों में पढ़ने-लिखने और कुछ कर गजरने की आकांक्षा जाग्रत हुई।

वर्तमान नारी-भारत की वर्तमान नारी विकास के ऊँचे शिखर छू चुकी है। उसने शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों से बाजी मार ली है। कंप्यूटर के क्षेत्र में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है । नारी-सुलभ क्षेत्रों में उसका कोई मुकाबला नहीं है। चिकित्सा, शिक्षा और सेवा के क्षेत्र में उसका योगदान अभूतपूर्व है । आज अनेक नारियाँ इंजीनियरिंग, वाणिज्य और तकनीकी जैसे क्षेत्रों में भी सफलता प्राप्त कर रही हैं। पुलिस, विमान-चालन जैसे पुरुषोचित क्षेत्र भी अब उससे ‘अछूते नहीं रहे हैं।

दोहरी भूमिका वास्तव में आज नारी की भूमिका दोहरी हो गई है। उसे घर और बाहर दो-दो मोर्चों पर काम संभालना पड़ रहा है। घर की सारी जिम्मेदारियाँ और ऑफिस का कार्य-इन दोनों में वह जबरदस्त संतुलन बनाए हुए है। उसे पग-पग पर पुरुष-समाज की ईर्ष्या, घृणा, हिंसा और वासना से भी लड़ना पड़ता है। सचमुच उसकी अदम्य शक्ति ने उसे इतना महान बना दिया है।

आतंकवाद

भारत में आतंकवाद-भारत मूलतः शांतिप्रिय देश है। इसलिए यहाँ की धरती ने बुद्ध, महावीर, गाँधी जैसे अहिंसक नेता पैदा किए हैं। आतंकवाद की प्रवृत्ति यहाँ का जमीन से मेल नहीं खाती । परंतु दुर्भाग्य से पिछले दो दशकों से भारतवर्ष आतंकवाद की लपेट में आता जा रहा है। सन 1967 में बंगाल में नक्सलवाद का उदय हुआ।

सन 1981 से 1991 तक भारत का पंजाब प्रांत आतंकवाद की काली छाया से घिरा रहा । तत्कालीन भ्रष्ट राजनीति और पाकिस्तान की साजिश के कारण फैला सिख-आतंकवाद हजारों निरपराधों की जान लेकर रहा।

काश्मीर में आतंकवाद-पाकिस्तान जब पंजाब में हिंदू-सिख को लड़ाने में सफल न हो पाया तो उसने काश्मीर में अपनी गतिविधियाँ तेज कर दी। पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों की योजनाबद्ध घुसपैठ हुई। नौजवान युवकों को जबरदस्ती आतंक के रास्ते पर डालने के लिए घृणित हथकंडे अपनाए गए । जान-बूझकर काश्मीर में भारत-विरोधी वातावरण का निर्माण किया गया। वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ दिल दहलाने वाले भयंकर अत्याचार किए गए, ताकि वे काश्मीर छोड़कर अन्यत्र जा बसें और काश्मीर पर पाकिस्तान का कब्जा हो सके।

काश्मीर का आतंकवाद आज कैंसर का रूप धारण कर चुका है। पाकिस्तानी आतंकवादी कभी मुंबई में तो कभी कोलकाता में बम विस्फोट करते हैं, कभी गुजरात के अक्षरधाम में तो कभी काश्मीर की मस्जिद में खून-खराबा करते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद—आज आतंकवाद राष्ट्र की सीमाओं को पार करके पूरे विश्व में अपना जाल ला चुका है। ओसामा बिन लादेन ने अफगानिस्तान की भूमि पर रहकर अमेरिका के ट्विन टावरों को पल भर में भूमिसात कर दिया।

आतंकवाद फैलने के कारण आज विश्व में जो आतंकवाद फैल रहा है, उसका प्रमुख कारण है-धार्मिक कट्टरता । ओसामा बिन लादेन, तालिबान, लश्करे-तोएबा, सीरिया, पाकिस्तान, फिलीस्तिीन-सबके पीछे सांप्रदायिक शक्तियाँ काम कर रही हैं। आज आतंकवादी आधनिक तकनीक का भरपुर प्रयोग करते हैं। उनके पास विध्वंस की ढेरों सामग्री है।

भारत में आतंकवाद फैलने का एक अन्य कारण है-क्षेत्रवाद और राजनीतिक स्वार्थ । वोट के भूखे राजनेता जानबूझकर आतंकवाद को प्रश्रय देते हैं।

समाधान – आतंकवाद की समस्या मनुष्यों की बनाई हुई है, इसलिए आसानी से सुलझाई जा सकती है । जिस दिन अमेरिका की तरह पूरा विश्व दृढ़ संकल्प कर लेगा और आतंकवाद को जीने-मरने का प्रश्न बना लेगा, उस दिन यह धरती आतंक से रहित हो जाएगी।

बेरोजगारी : समस्या और समाधान

भूमिका आज भारत के सामने अनेक समस्याएँ चट्टान बनकर प्रगति का रास्ता रोके खड़ी हैं। उनमें से एक प्रमुख समस्या है-बेरोजगारी । महात्मा गाँधी ने इसे ‘समस्याओं की समस्या’ कहा था।

अर्थ बेरोजगारी का अर्थ है-योग्यता के अनुसार काम का न होना । भारत में मुख्यतया तीन प्रकार के बेरोजगार हैं । एक वे, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। वे पूरी तरह खाली हैं। दूसरे, जिनके पार्स कुछ समय काम होता है, परंतु मौसम या काम का समय समाप्त होते ही वे बेकार हो जाते हैं। ये आशिक बेरोजगार कहलाते हैं। तीसरे वे, जिन्हें योग्यता के अनुसार काम नहीं मिला।

कारण बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है-जनसंख्या-विस्फोट । इस देश में रोजगार देने की जितनी योजनाएँ बनती हैं, वे सब अत्यधिक जनसंख्या बढ़ने के कारण बेकार हो जाती हैं। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत यहाँ पूरी तरह चरितार्थ होती है। बेरोजगारी का दूसरा कारण है-युवकों में बाबूगिरी की होड़ । नवयुवक हाथ का काम करने में अपना अपमान समझते हैं। विशेषकर पढ़े-लिखे युवक दफ्तरी जिंदगी पसंद करते हैं। इस कारण वे रोजगार-कार्यालय को धूल फांकते रहते हैं।

‘बेकारी का तीसरा बड़ा कारण है-दूषित शिक्षा-प्रणाली । हमारी शिक्षा-प्रणाली नित नए बेरोजगार पैदा करती जा रही है। व्यावसायिक प्रशिक्षण का हमारी शिक्षा में अभाव है । चौथा कारण है-गलत योजनाएँ । सरकार को चाहिए कि वह लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। मशीनीकरण को उस सीमा तक बढ़ाया जाना चाहिए जिससे कि रोजगार के अवसर कम न हों। इसीलिए गाँधी जी ने मशीनों का विरोध किया था, क्योंकि एक मशीन कई कारीगरों के हाथों को बेकार बना डालती है।

दुष्परिणाम बेरोजगारी के दुष्परिणाम अतीव भयंकर हैं । खाली दिमाग शैतान का घर । बेरोजगार युवक कुछ भी गलत-शलत करने पर उतारू हो जाते हैं । वही शांति को भंग करने में सबसे आगे होते हैं। शिक्षा का माहौल भी वही बिगाड़ते हैं जिन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगता है।

समाधान–बेकारी का समाधान तभी हो सकता है, जब जनसंख्या पर रोक लगाई जाए। युवक हाथ का काम करें। सरकार लघु उद्योगों को • प्रोत्साहन दे । शिक्षा व्यवसाय से जुड़े तथा रोजगार के अधिकाधिक अवसर जुटाए जाएँ।

समय अमूल्य धन है

समय जीवन है-फ्रैंकलिन का कथन है-‘तुम्हें अपने जीवन से प्रेम है, तो समय को व्यर्थ मत गँवाओं क्योंकि जीवन इसी से बना है।’ समय को नष्ट करना जीवन को नष्ट करना है । समय ही तो जीवन है । ईश्वर एक बार एक ही क्षण देता है और दूसरा क्षण देने से पहले उसको छीन लेता है।

समय का सदुपयोग आवश्यक समय के सदुपयोग का अर्थ है-उचित अवसर पर उचित कार्य पूरा कर लेना । जो लोग आज का काम पर और कल का काम परसों पर टालते रहते हैं, वे एक प्रकार से अपने लिए जंजाल खड़ा करते चले जाते हैं। मरण को टालते-टालते एक दिन सचमुच मरण आ ही जाता है । जो व्यक्ति उपयुक्त समय पर कार्य नहीं करता, वह समय को नष्ट करता है । एक दिन ऐसा आता है, जबकि समय उसको नष्ट कर देता है। जो छात्र पढ़ने के समय नहीं पढ़ते, वे परिणाम आने पर रोते हैं।

समय की अगवानी आवश्यक समय रुकता नहीं है। जिसे उसका उपयोग उठाना है, उसे तैयार होकर उसके आने की अग्रिम प्रतीक्षा करनी चाहिए । जो समय के निकल जाने पर उसके पीछे दौड़ते हैं, वे जिंदगी में सदा घिसटते-पिटते रहते हैं। समय सम्मान माँगता है। इसलिए कबीर ने कहा है –

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगा, बहुरि करेगा कब ।।

उचित समय पर उचित कार्य-जो जाति समय का सम्मान करना जानती है, वह अपनी शक्ति को कई गुना बढ़ा लेती है । यदि सभी गाड़ियाँ अपने निश्चित समय से चलने लगें तो देश में कितनी कार्यकुशलता बढ़ जाएगी। यदि कार्यालय के कार्य ठीक समय पर संपन्न हो जाएँ, कर्मचारी समय के पाबंद हों तो सब कार्य सुविधा से हो सकेंगे। यदि रोगी को ठीक समय पर दवाई न मिले तो उसकी मौत भी हो सकती है। अतः हमें समय – की गंभीरता को समझना चाहिए।


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