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BSEB Class 8 Sanskrit वर्णविचारः Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 8th Sanskrit वर्णविचारः Book Answers |
Bihar Board Class 8th Sanskrit वर्णविचारः Textbooks Solutions PDF
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Board | BSEB |
Materials | Textbook Solutions/Guide |
Format | DOC/PDF |
Class | 8th |
Subject | Sanskrit वर्णविचारः |
Chapters | All |
Provider | Hsslive |
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BSEB Class 8th Sanskrit वर्णविचारः Textbooks Solutions with Answer PDF Download
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भाषा की सबसे छोटी इकाई वर्ण है। जैसे क, ख, अ, इ इत्यादि । इन वर्गों के संयोग से शब्द बनते हैं। वर्ण समह को ‘वर्णमाला’ में रखते हैं। वर्गों के दो भेद संस्कृत में माने गये हैं-स्वर वर्ण तथा व्यञ्जन वर्ण । अपने उच्चारण में किसी की अपेक्षा न रखने वाले को स्वर कहते हैं (स्वयं राजन्ते इति स्वराः) । जिनके उच्चारण में स्वर सहायक होता है वे व्यञ्जन कहलाते हैं (अन्वग् भवति व्यञ्जनम्) । अ, आ, इ, ई आदि स्वर हैं जबकि क, ख आदि व्यञ्जन हैं। प्राचीन काल में केवल व्यञ्जनों को ‘वर्ण’ कहते थे और स्वरों को ‘अक्षर’ कहा जाता था। किन्तु अब दोनों को वर्ण में समेटा जाता है।
स्वर वर्ण को मूलस्वर तथा सन्ध्यक्षर-दो भागों में विभक्त किया गया है। अ, इ, उ, ऋ (ल भी) ये मूल स्वर हैं जबकि ए, ऐ, ओ, औ ये चारों सन्ध्यक्षर कहलाते हैं । वस्तुतः इनका निर्माण दो मूल स्वरों से होता है (अ + इ = ए, अ + उ = ओ, आ + इ = ऐ, आ + उ = औ) । यही कारण है कि अयादि संधि में इन सन्ध्यक्षरों से अय्, अव्, आय, आव् हो जाते हैं क्योंकि इ, उ का परिवर्तन दूसरी सन्धि में य, व हो जाता है । मूलस्वरों के तीन-तीन भेद हैं ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत । ह्रस्व स्वर तो इन्हीं रूपों में लिखे जाते हैं किन्तु दीर्घ स्वरों को लिखने में लिपिगत परिवर्तन होता है – आ, ई, ऊ, ऋ । प्लुत लिखने के लिए इन्हीं के बाद तीन का अंक लगाया जाता है। ‘आ 3, ई 3, ऊ 3, ऋ3। इनका प्रयोग दूर से पुकारने में होता है। जैसे – हे राम = हे रामा 3 ! स्मरणीय है कि सन्ध्यक्षर दीर्घ होते हैं।
व्यञ्जनों को तीन वर्गों में विभक्त करते हैं :
- स्पर्श वर्ण-कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग तथा पवर्ग (25 वर्ण)
- अन्तःस्थ वर्ण-य, र, ल, व् (4 वर्ण)
- ऊष्म वर्ण-श्, ष, स्, ह (4 वर्ण)
सभी व्यञ्जनों को सामान्यतः हल् कहते हैं जो एक प्रत्याहार है । इसे पूर्व के एक पाठ में समझाया गया है। इसीलिए व्यञ्जनों की लिपि में हलन्त का प्रयोग होता है। जैसे मुनीन् में न ‘हलन्त’ कहलाता है क्योंकि इसका अन्तिम ‘न’ शुद्ध हल् या व्यञ्जन है, स्वर से जुड़ा नहीं है।
व्यञ्जनों को उच्चारण स्थानों तथा प्रयत्नों के आधार पर पुनः वर्गीकृत किया जाता है। कवर्ग (क, ख, ग, घ ङ) का उच्चारण कण्ठ से होने से इन वर्गों को कण्ठ्य कहते हैं । चवर्ग तालव्य कहलाता है, टवर्ग ‘मूर्धन्य’ है, तवर्ग ‘दन्त्य’ है जबकि पवर्ग ‘ओष्ठ्य’ है । अन्तःस्थ वर्गों में य् तालव्य है, र मूर्धन्य, ल् दन्त्य तथा व् दन्तोष्ठ्य है। ऊष्म वर्ण भी इसी प्रकार विभक्त हैं- श् (तालव्य), प् (मूर्धन्य) स् (दन्त्य) और ह (कण्ठ्य ) ।
स्वरों के भी अपने-अपने उच्चारण स्थान हैं। जैसे अ (कण्ठ्य), इ (तालव्य), उ (ओष्ठ्य) ऋ (मूर्धन्य) ल (दन्त्य) । दीर्घ और प्लुत स्वरों के भी यही स्थान हैं। सन्ध्यक्षरों के उच्चारण में दो-दो स्थानों का उपयोग होता है। जैसे ए, ऐ (कण्ठ-तालु), ओ, औ (कण्ठ-ओष्ठ) । इन उच्चारण स्थानों को स्मरण रखने से अनेक स्वर सन्धियों का रहस्य समझ में आता है।
उच्चारण स्थान से सम्बद्ध सूत्र सप्तम वर्ग की संस्कृत पाठ्य-पुस्तक (अमृता-द्वितीय भाग) के ‘प्रासङ्गिक व्याकरणम्’ में देखे जा सकते हैं। उन्हीं का विवरण यहाँ दूसरे रूप में दिया गया है।
आभ्यन्तर तथा बाह्य प्रयत्न
किसी भी वर्ण के (स्वर या व्यञ्जन) के उच्चारण के लिए उच्चारण स्थानों में एवं उनके बाहर कण्ठ-नली में किये जाने वाले प्रयास को ‘प्रयत्न’ कहते हैं। मानव अपनी इच्छा को व्यक्त करने के लिए फेफड़े से वाय-सञ्चार करता है जो कण्ठ एवं मुख विवर से टकराकर ध्वनियों को उत्पन्न करती है। इसमें कुछ प्रयास करना ही पड़ता है। प्रयास के मृदु होने या तीव्र होने के कारण उच्चारण भी मृदु या तीव्र होता है । फुसफुसाहट तक बिना प्रयास के नहीं हो सकती। अतः उच्चारण-प्रक्रिया में प्रयत्न का महत्त्वपूर्ण स्थान होता
प्रयल दो प्रकार के होते हैं-आभ्यन्तर तथा बाह्य । आभ्यन्तर प्रयत्न कण्ठ से लेकर ओष्ठ तक के बीच में होने वाले प्रयत्न को कहते हैं। ये सभी उच्चारण स्थान है. इनका परस्पर सट जाना या आधा सटा होना या बिल्कुल पृथक होना आभ्यन्तर प्रयत्नों का निर्णय करता है। बाहय प्रयत्न वस्तुतः उच्चारण स्थानों के बाहर अर्थात् कण्ठ के भीतर ही वायु के रहने की स्थिति में होते हैं। यद्यपि उदात्त आदि प्रयत्न उच्चारण स्थान के भीतर ही होते हैं फिर भी वे बाहय कहलाते हैं।
आभ्यन्तर प्रयत्न के पाँच भेद हैं
1. स्पृष्ट – क से लेकर म तक पचीस (25) व्यञ्जनों के उच्चारण में उच्चारण स्थान या तो स्वयं या जिहवा के अग्र भाग से सट जाते हैं। इसीलिए इन वर्गों को स्पर्श कहते हैं। इस प्रकार उच्चारण स्थानों के भीतर स्पर्श की क्रिया होने से स्पष्ट आभ्यन्तर प्रयत्न है।
2. ईषत् – स्पृष्ट-अन्तःस्थ वर्णों के उच्चारण में ईषत् स्पृष्ट प्रयत्न होता है। य, र, ल, व का उच्चारण करते हुए प्रतीत होता है कि जिह्वाग्र से उच्चारण स्थान लगभग स्पर्श की स्थिति में है। इसीलिए ईषत् (थोडा) स्पृष्ट नामक प्रयत्न होता है।
3. विवृत – सभी स्वर वर्णों के उच्चारण में उच्चारण स्थान परस्पर खुले रहते हैं, वायु का निर्गमन सरलता से हो जाता है। इसलिए प्रयत्न को विवृत कहते हैं।
4. ईषद-विवृत-ऊष्म वर्णों के उच्चारण में यह प्रयत्न लगता है। श, ष, स्, ह् का उच्चारण करते हुए इसका अनुभव किया जा सकता है कि उच्चारण स्थान कुछ-कुछ खुले रहते हैं।
5. संवृत – यह व्याकरण की प्रक्रिया की दृष्टि से माना गया प्रयत्न है। हस्व अ के उच्चारण में यह स्वीकृत है। बाह्य प्रयत्न वस्तुत: उच्चारण प्रक्रिया की सूक्ष्मता की व्याख्या करते हैं। इन्हें चार वर्गों में देखा जा सकता है।
1. विवार, श्वास, अघोष – वर्गों के प्रथम द्वितीय वर्ण (क्-ख, च-छ, ट्-ठ्, त्-थ्, प्-फ्) एवं श्, ए, स् – ये अघोष कहलाते हैं। इनके उच्चारण में कण्ठ के नीचे स्थित स्वर यन्त्र के द्वार खुले होते हैं। इसलिए इनके उच्चारण में तीव्र ध्वनि नहीं होती । स्वर-यन्त्र के खुले होने से इन्हें विवार कहा जाता है। बिना विशेष प्रयत्न के उच्चारण से इन्हें श्वास भी कहते हैं।
2. संवार, नाद, घोष – अन्य व्यञ्जन तथा सभी स्वर घोष कहलाते हैं। इनके उच्चारण में विशेष ध्वनि (नाद) होती है, स्वर-यन्त्र के द्वारों को प्रयत्नपूर्वक खुलवाना पड़ता है। ग् – घ – ङ्, ज्-झ-ब इत्यादि के उच्चारण में ये प्रयत्न होते हैं। सन्धियों में क का ग होना, च का ज होना इत्यादि अघोष के घोष में रूपान्तरण का उदाहरण है।
3. अल्पप्राण, महाप्राण – जिन वर्णों के उच्चारण में कम वायु लगे उन्हें अल्पप्राण कहते हैं। जैसे क्, ग, ङ् इत्यादि । दूसरी आर जिनके उच्चारण में दुहरी (अधिक) वायु का प्रयोग होता है वे महाप्राण हैं। इनमें ह के रूप में दूसरी ध्वनि जुड़ी रहती है। जैसे- ख्, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ्, ध्, फ्, भ, ह । अल्पप्राणों के साथ ह का उच्चारण होने से महाप्राण होता है।
4. उदात्त, अनुदात्त, स्वरित – इनका महत्त्व वैदिक भाषा के उच्चारण में है। उच्चारण-स्थान में उच्चतम स्थान पर जीभ को रखकर ‘उदात्त’ का, निम्नतम स्थान से अनुदात्त का और मध्यस्थान से स्वरित का उच्चारण होता है। स्मरणीय है कि ये तीनों भेद केवल स्वर वर्णों के होते हैं। सामान्य उच्चारण में इनका उपयोग नहीं होता।
1. पदविचार (Morphology) – वर्णों के योग से जो अर्थबोधक इकाई बनती है उसे ‘शब्द’ कहते हैं । शब्द बहुत व्यापक अर्थ में आता है। यहाँ तक कि अनर्थक ध्वनि को भी शब्द कहते हैं (ध्वनिः शब्द:) जैसे मेघ का शब्द या किसी वस्तु के गिरने का शब्द । पूरे वाक्य को भी शब्द कहने की परम्परा रही है (आप्तवाक्यं शब्दः)। इस व्यापक अर्थ श्रृंखला में यहाँ सार्थक ध्वनि समूह को ही शब्द कहना प्रासंगिक है। जैसे राम, गज, गम् इत्यादि । शब्द जब वाक्य में प्रयोग करने के योग्य हो जाता है तब उसे कंवल शब्द न कहकर पारिभाषिक दृष्टि से ‘पद’ (Term) कहते हैं। सामान्यतः संस्कृत में तीन प्रकार के पद होते हैं-सुबन्त पद (बालकः, राज्ञः, वयम्, चत्वारि इत्यादि), तिङन्त पद (गच्छति, अपठत्, करिष्यति, धावाम्: इत्यादि) तथा अव्यय पद (पुनः, कृत्वा, सर्वथा, शनैः, कथमपि इत्यादि) । सभी पद शब्द हैं, किन्तु सभी शब्द पद नहीं हैं।
सुबन्त पदों में लिंग, वचन, विभक्ति अनिवार्य होते हैं । इसी प्रकार तिङन्त पदों में पुरुष, वचन तथा लकार अनिवार्य हैं । तिङन्त पदों में विभक्ति और लिङ्ग नहीं होते किन्तु क्रिया के रूप में जो कृदन्त पद होते हैं (जो वस्तुतः सुबन्त ही हैं) वे लिङ्ग की विशिष्टता रखते हैं। जैस-बालक: गतवान, सीता गतवती । किन्तु लकार के रूप में जो तिङन्त होगा वह लिङ्ग के कारण भिन्नता नहीं रखेगा । जैसे-बालकः अगच्छत्, सीता अगच्छत् ।
अव्यय पद में लिङ्ग, वचन या विभक्ति के प्रभाव नहीं पड़ते, वह सदा एकरूप रहता है । ‘व्यय’ का अर्थ विकार है, जिसमें विकार नहीं होता, वह अव्यय है। इसका भी वाक्य में स्वतन्त्र प्रयोग होता है। जैसे रमा शीघ्र चलति । रमा सुबन्त है, शीघ्रम् अव्यय है, चलति तिङन्त है । ये सभी पद हैं। पद भी किसी-न-किसी रूप में शब्द हैं किन्तु सभी शब्द पद नहीं हो सकते । पद होने के लिए सुप् या तिङ् लगना अथवा अव्यय के रूप में होना अनिवार्य
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