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BSEB Class 9 Hindi Godhuli Chapter 12 शिक्षा में हेर-फेर Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 9th Hindi Godhuli Chapter 12 शिक्षा में हेर-फेर Book Answers |
Bihar Board Class 9th Hindi Godhuli Chapter 12 शिक्षा में हेर-फेर Textbooks Solutions PDF
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Board | BSEB |
Materials | Textbook Solutions/Guide |
Format | DOC/PDF |
Class | 9th |
Subject | Hindi Godhuli Chapter 12 शिक्षा में हेर-फेर |
Chapters | All |
Provider | Hsslive |
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BSEB Class 9th Hindi Godhuli Chapter 12 शिक्षा में हेर-फेर Textbooks Solutions with Answer PDF Download
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प्रश्न 1.
बच्चों के मन की वृद्धि के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर-
साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन है कि जो कम-से-कम जरूरी है वहीं तक शिक्षा को सीमित किया गया तो बच्चों के मन की वृद्धि नहीं हो सकेगी। आवश्यक शिक्षा के साथ स्वाधीनता के पाठ को पिलाना होगा, अन्यथा बच्चे की चेतना का विकास नहीं होगा।
प्रश्न 2.
आयु बढ़ने पर भी बुद्धि की दृष्टि में वह सदा बालक ही रहेगा। कैसे?
उत्तर-
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यहाँ बड़े ही सूक्ष्म दृष्टि से समझाने का प्रयास किया है कि आवश्यक शिक्षा के साथ-साथ स्वाधीनता का पाठ भी सिखाया जाना चाहिए वरना आयु बढ़ने पर भी बुद्धि की दृष्टि से वह सदा बालक ही रहेंगा!
प्रश्न 3.
बच्चों के हाथ में यदि कोई मनोरंजन की पुस्तक दिखाई पड़ी तो वह फौरन क्यों छीन ली जाती है? इसका क्या परिणाम होता है?
उत्तर-
उपयुक्त प्रश्न के आलोक में विद्वान साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बताया है कि हमारे बच्चों को व्याकरण, शब्दकोष, भूगोल के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता-उनके भाग्य में अन्य पुस्तकें नहीं हैं। दूसरे देश के बालक जिस आयु में अपने नये दाँतों से बड़े आनन्द के साथ गन्ने चबाते हैं, उसी आयु में हमारे बच्चे स्कूल की बेंच पर अपनी पतली टाँगों को हिलाते हुए मास्टर के बेंत हजम करते हैं
और उसके साथ उन्हें कड़वी गालियों के अलावा दूसरा कोई मसाला भी नहीं मिलता।
साहित्यकार ने मनोवैज्ञानिक कारण’ बताते हुए कहा है कि इससे उनकी मानसिक पाचन शक्ति का ह्यस होता है। जिस तरह भारत की संतानों का शरीर उपर्युक्त आहार और खेल-कुद के अभाव से कमजोर रह जाता है उसी तरह उनके मन का पाकाशय भी अपरिणत रह जाता है।
प्रश्न 4.
“हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनन्द का स्थान नहीं होता।” आपकी समझ से इसकी क्या वजह हो सकती है?
उत्तर-
मेरी समझ से साहित्यकार ने बड़ा ही विलक्षण उदाहरण देते हुए बताया है कि-हवा से पेट नहीं भरता-पेट तो भोजन से ही भरता है। लेकिन भोजन का ठीक से हजम करने के लिए हवा आवश्यक है। वैसे ही एक ‘शिक्षा पुस्तक’ को अच्दी तरह पचाने के लिए बहुत-सी पाठ्य सामग्री की सहायता जरूरी है। आनन्द के साथ पढ़ते रहने से पठन-शक्ति भी अलक्षित रूप से बढ़ती है, सहज स्वाभाविक नियम से ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिन्ता-शक्ति भी सबल होती है।
प्रश्न 5.
हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत क्यों नहीं होती?
उत्तर-
कवि मनीषी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उपर्युक्त प्रश्न के आलोक में कहा है क – अंग्रेजी विदेशी भाषा है। शब्द विन्यास और पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका कोई सामंजस्य नहीं। भावपक्ष और विषय-प्रसंग भी विदेशी बात हैं। शरू से आखिर तक सभी चीजें अपरिचित होती है, इसलिए धारणा उत्पन्न होने से पहले ही हम रटना आरंभ कर देते हैं। फल वही होता है जो बिना चबाया हुआ अन्न निगलने से होता है। शायद बच्चों को किसी ‘रीडर’ में Hay-making का वर्णन है। अंग्रेज बालकों के लिए यह एक सुपरिचित चीज है और उन्हें इस वर्णन में आनन्द मिलता है। Snowball से खेलते हुए Charlie का Katie से कैसे झगड़ा आ यह भी अंग्रेज बच्चे के लिए कतहलजनक घटना है। लेकिन हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा में यह सब पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत नहीं होती, उनके सामने कोई चित्र प्रस्तुत नहीं होता अंधभाव से उनका मन अर्थ को टटोलता रह जाता है।
प्रश्न 6.
अंग्रेजी भाषा और हमारी हिन्दी में सामंजस्य नहीं होने के कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर-
साहित्यकार ने उपर्युक्त प्रश्न के आलोक में गहरी अनुभूति का अध्ययन कर हमें बताया है कि अंग्रेजी और हिन्दी में सामंजस्य क्यों नहीं है। उन्होंने कहा है कि ऐसे शिक्षक हमें शिक्षा देते हैं जो अंग्रेजी भाषा, भाव, आचार, व्यवहार, साहित्य-किसी से भी परिचित होते हैं और उन्हें के हाथों हमारा अंग्रेजी के साथ प्रथम परिचय होता है वे न तो स्वदेशी भाषा अच्दी तरह जानते हैं, न अंग्रेजी। वे बच्चों को पढ़ाने की तुलना में मन बहलाते हैं, वे इस कार्य में पूरी तरह सफल होते हैं।
साहित्यकार का कथन है कि यदि बालक केवल एक ही संस्कृत में रहते तो उनकी वाल्य प्रकृति को तृप्ति मिलती। लेकिन वे अंग्रेजी पढ़ने के प्रयास में न सीखते हैं, न खेलते हैं, प्रकृति के सत्यराज में प्रवेश के लिए उन्हें अवकाश ही नहीं मिलता,
साहित्य के कल्पना-राज्य का द्वार उनके लिए अवरूद्ध रह जाता है।
लेखक के विदेशी भाषा के व्याकरण और शब्दकोश में; जिसमें जीवन नहीं, आनन्द नहीं, अवकाश या नवीनता नहीं, जहाँ हिलने-डुलने का स्थान नहीं, ऐसी शिक्षा की शुष्क, कठोर, संकीर्णता में बालक कमी मानसिक शक्ति; चित्र का प्रसार या चरित्र की बलिष्ठता प्राप्त कर सकता है ? लेखक ने अंग्रेजी भाषा और हिन्दी में सामंजस्य नहीं होने के अनेक कारणों को गिनाया है जो सटीक है।
प्रश्न 7.
लेखक के अनुसार प्रकृति के स्वराज्य में पहुँचने के लिए क्या आवश्यक हैं?
उत्तर-
लेखक ने प्रकृति के स्वराज्य में पहुँचने के लिए जो उपाय सुझाया है वह सारगर्भित है। उन्होंने कहा है कि यदि बच्चों को मनुष्य बनाना है तो यह क्रिया बाल्यकाल से ही आरंभ हो जानी चाहिए। शैशव से ही केवल स्मरण-शक्ति पर बल न देकर उसके साथ-ही-साथ चिंतन-शक्ति और कल्पना-शक्ति को स्वाधीन रूप से परिचालित करने का उन्हें अवसर भी दिया जाना चाहिए।
हगारी नीरस शिक्षा में जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ हो जाता है। हम बाल्यावस्था से कैशोर्य में और कैशोर्य से यौवन में प्रवेश करते हैं शुष्क ज्ञापन का बोझ लेकर। सरस्वती के साम्राज्य में हम मजदूरी ही करते रहते हैं, मनुष्यत्व का विकास नहीं होता। प्रकृति के स्वराज्य में पहुँचने के लिए लेखकाने रहन-सहन, संस्कृति, आवार-विचार, घर-गृहस्थी इत्यादि बातों का समुचित ज्ञान होना आवश्यक बताया है तभी हम प्रकृति के स्वराज्य में पहुँच कर आनन्द ले सकते हैं अन्यथा ऐसे ही भटकते रहेंगे और सरस्वती के साम्राज्य में भी मजदूरी ही करते रहेंगे।
प्रश्न 8.
जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर-
साहित्यकार ने बड़ा ही सुन्दर और सटीक उदाहरण देते हुए बताया है कि-बाल्यकाल से ही यदि भाषा-शिक्षा के साथ भाव-शिक्षा की भी व्यवस्था हो और भाव के साथ समस्त जीवन-यात्रा नियमित हो, तभी हमारे जीवन में यथार्थ सामंजस्य स्थापित हो सकता है। हमारा व्यवहार तभी सहज मानवीय व्यवहार हो सकता है और प्रत्येक विषय में उचित परिमाण की रक्षा हो सकती है। जिस भाव से हम शिक्षा ग्रहण करते हैं उसके अनुकूल हमारी शिक्षा नहीं है। हमारे समाज की सारी सभ्यता, संस्कृति उस शिक्षा में नहीं है। चिंता-शक्ति और कल्पना-शक्ति दोनों जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए अत्यावश्यक हैं।
इसलिए जब तक हमारी शिक्षा में उच्च आदर्श, जीवन के कार्यकलाप, आकाश और पृथ्वी, निर्मल प्रभात और सुंदर संध्या, परिपूर्ण खेत और देशलक्ष्मी स्त्रोतस्विनी का संगीत उस साहित्य में ध्वनित नहीं होगा तब तक जीवन-यात्रा सफल संपन्न नहीं होगी।
प्रश्न 9.
रीतिमय शिक्षा का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
साहित्यकार ने बड़े ही रोचक ढंग से रीतिमय शिक्षा के संबंध में बताया है कि-संग्रहणीय वस्तु हाथ आते ही उसका उपयोग जानना, उसका प्रकृत परिचय प्राप्त करना और जीवन के साथ-ही-साथ आश्रय स्थल बनाते जाना-यही है रीतिमय शिक्षा।
इसलिए यदि बच्चों को मनुष्य बनाना है तो केवल स्मरण-शक्ति पर बल न देकर उसके साथ-ही-साथ चिंतन-शक्ति और कलपना-शक्ति को स्वाधीन रूप से परिचालित करने का भी अवसर उन्हें दिया जाना चाहिए।
प्रश्न 10.
शिक्षा और जीवन एक-दूसरे का परिहास किन परिस्थितियों में करते हैं?
उत्तर-
लेखक ने उपर्युक्त प्रश्न के संदर्भ में हमें बहुत ही बहुमूल्य तथ्यों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कराया है। जैसे-हमारी नीरस शिक्षा में बहुमूल्य समय नष्ट हो जाता है। बीस-बाईस वर्ष की आयु तक हमें जो शिक्षा मिलती है उसका हमारे जीवन से रासायानिक मिश्रण नहीं होता। इससे हमारे मन को एक अजीब आकार मिलता है। शिक्षा से हमें जो विचार और भाव मिलते हैं उनमें से कुछ को तो लेई से जोड़कर हम सुरक्षित रखते हैं, और बचे हुए कालक्रम से झड़ जाते हैं।
बर्बर जातियों के लोग शरीर पर रंग लगाकर या शरीर के विभिन्न अंगों को गोंदकर, गर्व का अनुभव करते हैं; जिससे उनके स्वाभाविक स्वास्थ्य की उज्जवलता और लावण्य छिप जाते हैं। उसी तरह हम भी अपनी विलायती विद्या का लेप लगाकर दंभ करते हैं किंत यथार्थ आंतरिक जीवन के साथ उसका योग बहत कम ही होता है। हम सस्ते, चमकते हुए, विलायती ज्ञान को लेकर शान दिखाते हैं विलायती विचारों का असंगत रूप से प्रयोग करते हैं। हम स्वयं यह नहीं समझते कि अनजाने ही हम कैसे अपूर्व प्रहसन का अभिनय कर रहे हैं। यदि कोई हमारे ऊपर हँसता है तो हम फौरन योरोपीय इतिहास से बड़े-बड़े उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
लेखक ने यहाँ शिक्षा और जीवन के बीच परिहास का विलक्षण उदाहरण प्रस्तुत किया है जो विचारणीय तथ्य है। लेखक ने निचोड़ के रूप में जो विचार व्यक्त किया है वह है-जब हम शिक्षा के प्रति अशद्धा व्यक्त करते हैं तब शिक्षा भी हमारे जीवन से विमुख हो जाती हैं। हमारे चरित्र के ऊपर शिक्षा का प्रभाव विस्तृत परिमाण में नहीं पड़ता। शिक्षा और जीवन का आपसी संघर्ष बढ़ता जाता है। वे एक-दूसरे का परिहास करते हैं।
प्रश्न 11.
मातृभाषा के प्रति अवज्ञा की भावना लोगों के मन में किस तरह उत्पन्न होती है?
उत्तर-
लेखक ने मनोवैज्ञानिक तथ्य को उजागर करते हुए उपर्युक्त प्रश्न को समझाने का प्रयास किया है।
लेखक का कथन है कि-हमारे बाल्यकाल की शिक्षा में भाषा के साथ भाव नहीं होता, और जब हम बड़े होते हैं तो परिस्थिति इसके ठीक विपरीत हो जाती है। अब भाव होते हैं, लेकिन उपर्युक्त भाषा नहीं होती। भाषा शिक्षा के साथ-साथ, भाव-शिक्षा की वृद्धि न होने से योरोपीय विचारों से हमारा यथार्थ संसर्ग नहीं होता, और इसीलिए आजकल बहुत से शिक्षित लोग योरोपीय विचारों के प्रति अनादर व्यक्त करने लगे हैं। दूसरी ओर, जिन लोगों के विचारों से मातृभाषा का दृढ़ संबंध नहीं होता वे अपनी भाषा से दूर हो जाते हैं और उसके प्रति उनके मन में अवज्ञा की भावना उत्पन्न होती है।
हम चाहे जिस दिशा से देखें, हमारी भाषा, जीवन और विचारों का सामंजस्य दूर हो गया है। हमारा व्यक्तित्व विच्छिन्न होकर निष्फल हो रहा है, इसलिए मातृभाषा के प्रति अवज्ञा उत्पन्न हो रही है।
व्याख्याएँ
प्रश्न 12.
(क) “हम विधाता से यही वर मांगते हैं-हमें क्षुधा के साथ अन्य, शीत के साथ वस्त्र, भाव के साथ भाषा और शिक्षा के साथ शिक्षा प्राप्त करने दो।”
(ख) “चिंता-शक्ति और कल्पना-शक्ति दोनों जीवन यात्रा संपन्न करने के लिए अत्यावश्यक है।”
उत्तर-
(क) प्रस्तुत पंक्तियाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखित ‘शिक्षा में हेर-फर’ शीर्षक निबंध से उद्धृत हैं। इसमें लेखक ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से भाव को प्रस्तुत किया है।
लेखक का कहना है कि हेर-फेर दर होने से ही हमारा जीवन सार्थक होगा हम सर्दी में गरम कपड़े और गर्मी में ठंड कपड़े जमा नहीं कर पाते तभी हमारे जीवन में इतना दैन्य है-वरना हमारे पास है सब कुछ।
इसलिए लेखक ईश्वर से उपर्युक्त वर मांगता है। वह कहता है कि हमारी दशा तो वैसी ही है कि
पानी बिच मीन पियासी ।
मोहि सुनि-सुनि आवे हॉसी।
हमारे पास पानी भी है और प्यास भी है। पानी के बीच छटपटाती, तड़पतीमछली की तरह हमारी स्थिति है। इस स्थिति पर हँसी भी आती है। आँखों से आँसू टपकते हैं, लेकिन हम प्यास नहीं बझा पाते।
(ख) प्रस्तुत पंक्तियाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर रचित ‘शिक्षा में हेर-फेर’ निबंध से उद्धृत हैं। इसमें लेखक ने सफल दार्शनिक के रूप में उपर्युक्त पंक्तियों का विवेचन किया है।
लेखक का कथन है कि चिंतन-शक्ति और कल्पना-शक्ति दोनों जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए अत्यावश्यक हैं, इसमें संदेह नहीं। यदि हमें वास्तव में मनुष्य होना है तो इन दोनों को जीवन में स्थान देना होगा। इसलिए यदि बाल्यकाल से ही चिंतन और कल्पना पर ध्यान न दिया गया तो काम पड़ने पर उनका अभाव दुखदायी सिद्ध होगा। हमारी शिक्षा में पढ़ने की क्रिया के साथ-साथ सोचने की क्रिया नहीं होती। हम ढेर-का-ढेर जमा करते हैं पर कुछ निर्माण नहीं करते।
लेखक का कथन सत्य है कि जबतक चिंतन-शक्ति और कल्पना-शक्ति साथ-साथ संचालित नहीं होंगी मनुष्य हमेशा असफल ही रहेगा। इसलिए मनुष्यत्व के विकास के लिए उपयुक्त दोनों शक्तियों को साथ-साथ ग्रहण करना होगा।
प्रश्न 13.
वर्तमान शिक्षा प्रणाली का स्वाभाविक परिणाम क्या है?
उत्तर-
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में लेखक ने वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के स्वाभाविक परिणाम का बड़ा ही चिंतनीय पक्ष उपस्थित किया है।
लेखक का कथन है कि जब हमारे बच्चे इस भाषा को पढ़ते हैं तो उनके मन में कोई स्मृति जागृत नहीं होती, उनके सामने कोई चित्र प्रस्तुत नहीं होती। अंधभाव से उनका मन अर्थ को टटोलता रहता है। नीचे के दर्जे जो मास्टर पढ़ाते हैं में अंग्रेजी भाषा, भाव, आचार, व्यवहार, साहित्य-किसी से वे परिचित नहीं होते हैं और उन्हीं के हाथों हमारा अंग्रेजी के साथ प्रथम परिचय होता है। वे न तो स्वदेशी भाषा अच्छी तरह जानते हैं, न अंग्रेजी। उन्हें बस यही सुविधा है कि बच्चों को पढ़ाने की तुलना में उनका मन बहलाना बहुत आसान है। लेखक ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली के स्वाभाविक दोषों को बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है।
प्रश्न 14.
अंग्रेजी हमारे लिए काम-काज की भाषा है, भाव की भाषा नहीं। कैसे?
उत्तर-
लेखक का कथन है कि अंग्रेजी विदेशी भाषा है, इसे काम-काज की भाषा की संज्ञा दी जा सकती है। शब्द-विन्यास और पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका कोई सामंजस्य नहीं। भाव-पक्ष और विषय-प्रसंग भी विदेशी होते हैं। शुरू से आखिर तक सभी अपरिचित चीजें होती हैं, इसलिए धारणा उत्पन्न होने से पहले ही हम रटना आरंभ कर देते हैं। फल वही होता है जो बिना चबाया अन्न निगलने से होता है।
लेखक ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से समझाया है कि अंग्रेजी भाषा से हम बेरोजगारी की समस्या को थोड़ा सुलझा सकते हैं मगर हमारी संस्कृति, सभ्यता, आचार-विचार आदि सभी नियमों का पालन आदि के साथ अपनी भावना को विकसित करने में अपनी मातृभाषा सहायक होती है। यही सत्य है।
प्रश्न 15.
आज की शिक्षा मानसिक शक्ति का हस कर रही है। कैसे? इससे छुटकारे के लिए आप किस तरह की शिक्षा को बढ़ावा देना चाहेंगे?
उत्तर-
लेखक का कथन उपर्युक्त प्रश्न के संदर्भ में यह कहना है कि हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनन्द का स्थान नहीं होता। जो नितांत आवश्यक है उसी को हम कंठस्थ करते हैं। इससे काम तो किसी-न-किसी तरह चल जाता है लेकिन हमारा विकास नहीं होता। हवा से पेट नहीं भरता-पेट तो भोजन से ही भरता है। लेकिन भोजन को ठीक से हजम करने के लिए हवा आवश्यक है।
लेखक का कहना है कि आनंद के साथ पढ़ते-रहने से पठन-शक्ति भी अलक्षित रूप से बढ़ती है; सहज-स्वाभाविक नियम से ग्रहण-शक्ति,. धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति भी सबल होती है।
लेखक का कथन है कि मानसिक शक्ति का ह्यस करने वाली इस निरापद शिक्षा से मुक्ति के लिए हमें मातृभाषा के माध्यम से मानसिक शक्ति का विकास करना होगा तभी हमें इससे छुटकारा मिल सकेगा।
नीचे लिखे गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें।
1. अंग्रेजी विदेशी भाषा है। शब्द-विन्यास और पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका कोई सामंजस्य नहीं है। भावपक्ष और विषय-प्रसंग भी विदेशी होते हैं। शुरू से आखिर तक सभी अपरिचित चीजें हैं, इसलिए धारणा उत्पन्न होने से पहले ही हम रटना आरंभ कर देते हैं। फल वही होता है जो बिना चबाया अन्य निगलने से होता है। शायद बच्चों की किसी ‘रीडर’ में Hay-Making का वर्णन है। अंग्रेज बालकों के लिए यह एक सुपरिचित चीज है और उन्हें इस वर्णन से आनंद मिलता है। Snowball से खेलते हुए Charlie का Katie से कैसे झगड़ा हुआ, यह भी अंग्रेज बच्चे के लिए कुतूहलजनक घटना हैं लेकिन हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा में यह सब पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत नहीं होती, उनके सामने कोई चित्र प्रस्तुत नहीं होता। अंधभाव से उनका मन अर्थ को टटोलता रह जाता है। (क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) किस दृष्टि से अंग्रेजी का हमारी भाषा के साथ सामंजस्य नहीं है, और क्यों?
(ग) अंग्रेज बालकों के लिए क्या एक चीज सुपरिचित है और इससे बच्चों को क्या मिलता है?
(घ) बच्चों का मन अंधभाव से क्या टटोलता रह जाता है?
(ङ) बच्चे किसी चीज को कब रटने लगते हैं और इसका उनपर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-
(क) पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है। इस भाषा से जुड़े विषय और भाव-पक्ष भी विदेशी हैं। इस भाषा से जुड़ी तमाम बातें-शब्द-विन्यास, पद-विन्यास आदि सभी कुछ हमारे लिए अपरिचित हैं। इस कारण किसी भी दृष्टि से हमारी भाषा के साथ अंग्रेजी का कोई सामंजस्य नहीं बैठता है।
(ग) अंग्रेज बालकों की रीडर में ‘Hay-Making’ का वर्णन आया है। यह शब्द और उससे जुड़ा अर्थ उन बच्चों के लिए जाना-पहचाना शब्द है। उन्हें HayMaking के वर्णन को पढ़कर काफी आनंद मिलता है। यह आनंद उन्हें इसलिए मिलता है कि वे इससे काफी परिचित हैं और इससे जुड़ी बातों को अच्छी तरह जानते हैं। यह शब्द उनके देश और परिवेश से जुड़ा हुआ है।
(घ) हिंदी भाषा-भाषी या किसी भी भारतीय भाषा-भाषी बच्चे जब अंग्रेजी भाषा सीखना या पढ़ना शुरू करते हैं तो वे उस विदेशी भाषा से मिलने और जुड़नेवाली बातों को चाहकर भी अच्छी तरह समझ नहीं पाते और वे बातें उनकी स्मृति में नहीं आ पातीं। ऐसी स्थिति में बच्चों के सामने कोई चित्र भी नहीं उभर पाता है। परिणामतः, बच्चों का मन उससे जुड़े अर्थ को अंधभाव से ही टटोलता रह जाता है।
(ङ) अंग्रेजी भाषा का हमारी भाषा से किसी भी रूप में कोई सामंजस्य नहीं बैठता है। वह हमारे लिए हर दृष्टि से एक अपरिचित भाषा है। हमारे बच्चे जब उस भाषा को पढ़ना और सीखना शुरू करते हैं, तब उस भाषा के संबंध में उनकी कोई निश्चित धारणा नहीं बनती। परिणामतः, बच्चे धारणा बनने के पहले उस भाषा से जुड़ी बातों को रटना आरंभ कर देते हैं। इसका परिणाम वही होता है जो बिना चबाया अन्न निगलने से होता है।
2. हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनंद के लिए स्थान नहीं होता। जो नितांत आवश्यक है उसी को हम कंठस्थ करते हैं। इससे काम तो किसी-न-किसी तरह चल जाता है, लेकिन हमारा विकास नहीं होता। हवा से पेट नहीं भरता-पेट तो भोजन से ही भरता है। लेकिन भोजन को ठीक से हजम करने के लिए हवा आवश्यक है। वैसे ही, एक “शिक्षा पुस्तक’ को अच्छी तरह पचाने के लिए बहुत-सी पाठ्यसामग्री की सहायता जरूरी है। आनंद के साथ पढ़ते रहने से पठन-शक्ति भी अलक्षित रूप से बढ़ती है; सहज-स्वाभाविक नियम से ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति भी सबल होती है। लेकिन, मानसिक शक्ति का ह्रास करनेवाली इस निरानंद शिक्षा से हमें कैसे छुटकारा मिलेगा कुछ समझ में नहीं आता।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों का विकास किस कारण से नहीं हो पाता
(ग) शिक्षा-पुस्तक को पूचाने के लिए किस रूप में किसी सहायता जरूरी है?
(घ) आनंद के साथ पढ़ने से क्या लाभ मिलता है?
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-
(क) पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) हमारी शिक्षा-पद्धति में यह बड़ा दोष है कि उनमें बचपन के समय से आनंद के लिए कोई प्रावधान या जगह नहीं होती है। यह आनंद बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। परिणामतः, बच्चे इस आनंद से विरत रहने की स्थिति में बाल्यशिक्षा की प्राप्ति के क्रम में किसी तथ्य को कंठस्थ करने की प्रक्रिया से जड जात हैं। इस स्थिति में धरातल पर तो उनका काम चल जाता है, लेकिन उनका सही विकास बाधित हो जाता है और बच्चे विकास से वंचित रह जाते हैं।
(ग) लेखक यह मानता है कि शिक्षा की पुस्तक को अच्छी तरह पचाने के लिए कुछ पाठ्य-सामग्रियों की सहायता जरूरी है, जैसे–भोजन को हजम करने के लिए हवा की जरूरत होती है। उन पाठ्य-सामग्रियों में शिक्षा के साथ जुड़ी आनंद की सामग्री भी शामिल है। लेकिन, यह दु:ख की बात है कि हमारी शिक्षा में बचपन से ही आनंद का कोई स्थान नहीं दिया जाता है, अर्थात हम शिक्षा की सामग्री को आनंद की स्थिति में ग्रहण न कर उसे रटने की पद्धति से ग्रहण करते हैं।
(घ) आनंद के साथ जब हम पढ़ाई करते हैं तब हमारी पठन-शक्ति बड़े सूक्ष्म ढंग से बढ़ती है। उसके सहज स्वाभाविक नियम से शिक्षार्थी की ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति भी सक्षम और मजबूत बनती है। तब उस स्थिति में शिक्षा को पचाने में हमारी क्षमता अपनी सबलता का परिचय देती है। यह दु:ख की बात है कि हमारी शिक्षा में पाठ्य-सामग्री के तत्त्व के रूप में इसका अभाव
(ङ) इस गद्यांश में लेखक ने हमारी शिक्षा के दोषों को जगजाहिर किया है। लेखक के अनुसार हमारी शिक्षा का यह एक बहुत बड़ा दोष है कि उसमें बचपन से ही आनंद के साथ शिक्षा प्राप्त करने का कोई तरीका या प्रावधान नहीं है। बच्चे जो भी शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे दबाव, भय और तनाव की मन:स्थिति में ही उसे प्राप्त करते हैं। इस कारण उनकी पठन-शक्ति, ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति दुर्बल बनी रहती है और वे शिक्षा को पचा नहीं पाते।
3. लेकिन अंग्रेजी पढ़ने के प्रयास में ना वे सीखते हैं, ना खेलते हैं। प्रकृति के सत्यराज में प्रवेश करने के लिए उन्हें अवकाश ही नहीं मिलता। साहित्य के कल्पना-राज्य का द्वार उनके लिए अवरूद्ध रह जाता है।
मनुष्य के अंदर और बाहर दो उन्मुक्त विहार-क्षेत्र हैं, जहाँ से वह जीवन, बल और स्वास्थ्य का संचय करता है। जहाँ नाना वर्ण-रूप-गंध, विचित्र गति और संगीत, प्रीति और उल्लास उसे सर्वांग चेतन और विकसित करते हैं। इन दोनों मातृभूमियों से निर्वासित करके अभागे बालकों को एक विदेशी कारागृह में बंद कर दिया जाता है। जिनके लिए ईश्वर ने माता-पिता के हृदय में स्नेह का संचार किया है जिनके लिए माता की गोद को कोमलता प्रदान की गई है,जो आकार में छोटे होते हुए भी घर-घर की सारी जगह को अपने खेला के लिए यथेष्ट नहीं समझते, ऐसे बालकों को अपना बचपन कहाँ काटना पड़ता है? विदेशी भाषा में व्याकरण और शब्दकोश में; जिसमें जीवन नहीं, आनंद नहीं, अवकाश या नवीनता नहीं, जहाँ-हिलने-डुलने का स्थान नहीं, ऐसी शिक्षा की शुष्क, कठोर, संकीर्णता में।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) अंग्रेजी पढ़ने के प्रयास में बच्चे किन-किन चीजों से वंचित हो । जाते हैं?
(ग) मनुष्य के अंदर और बाहर जो उन्मुक्त विहार क्षेत्र हैं उनसे उन्हें क्या लाभ मिलते हैं और इनसे विरत रहने पर उन्हें क्या कष्ट झेलना पड़ता है?
(घ) बच्चों को विदेशी भाषा के व्याकरण और शब्दकोश में क्या मिलता है?
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बच्चों की किन विशेषताओं का उल्लेख किया है?
उत्तर-
(क) पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) लेखक का कथन है कि अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है जिसके पढ़ने के प्रयास में बच्चों को लाभ के रूप में कुछ मिलता नहीं। इसके विपरीत सुख के ढेर सारे साधनों से उन्हें वंचित रह जाना पड़ता है। अंग्रेजी भाषा जब वे पढ़ने और सीखने लगते हैं तब वे उस क्रम में उस भाषा से कुछ सीख नहीं पाते, उस भाषा को सीखने की प्रक्रिया में उनके समय की बर्बादी होती है, क्योंकि खेलने का और प्रकृति के सुखद राज्य में विचरण करने का उन्हें समय ही नहीं मिलता। उनके लिए कल्पना का द्वार भी बंद ही रह जाता है।
(ग) लेखक का यह कथन है कि मनुष्य के लिए दो विहार क्षेत्र हमेशा तैयार मिलते हैं। ये दोनों विहार क्षेत्र उन्मुक्त हैं। इनमें एक बाहर का है और दूसरा उसके अंदर का। इन दोनों उन्मुक्त विहार क्षेत्रों में मनुष्य भ्रमण कर विविधवर्णी रूप, गंध, समय की विचित्र गति और संगीत, प्रेम और उल्लास की प्राप्ति करता है। इससे उसकी सर्वांग चेतन-शक्ति विकसित होती है। उनसे विरत रहकर वह एक विदेशी कारागृह में बंद रहने का दुःख भोगता है।
(घ) बच्चों को विदेशी भाषा के व्याकरण और शब्दकोश में न तो जीवन की विशेषता, आनंद, अवकाश और नवीनता के दर्शन होते हैं और न जीवन के अन्य कोई सुखद पक्ष के। वहाँ शिक्षा की शुष्क, कठोर, संकीर्णता में बँधे रहने के सिवा वे और कुछ पाते नहीं। इस स्थिति में उनकी मानसिक स्थिति अविकसित रह जाती है और उनका व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है।
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बच्चों की कुछ इन विशेपताओं का वर्णन किया है-बच्चे अपने माता-पिता के स्नेह और प्रेम के सत्पात्र होते हैं। ईश्वर ने माता-पिता के हृदय में उनके लिए ही स्नेह का संचार किया है और उनके लिए ही माता की गोद को ईश्वर ने कोमलता प्रदान की है। ये बच्चे ही हैं जो आकार में छोटे होते हुए भी अपने घर के आँगन को खेलने-कूदने के लिए पर्याप्त साधन नहीं मानते और स्वतंत्र रूप से वहाँ विचरण करते रहते हैं।
4. इस तरह बीस-बाईस वर्ष की आयु तक हमें जो शिक्षा मिलती है उसका हमारे जीवन से रासायनिक मिश्रण नहीं होता। इससे हमारे मन को एक अजीब आकार मिलता है। शिक्षा से हमें जो विचार और भाव मिलते हैं उनमें से कुछ को तो लेई से जोड़कर सुरक्षित रखते हैं और बचे हुए कालक्रम से झड़ जाते हैं। बर्बर जातियों के लोग शरीर पर रंग लगाकर या शरीर के विभिन्न अंगों को गोदकर, गर्व का अनुभव करते हैं; जिससे उनके स्वाभाविक स्वास्थ्य की उज्ज्वलता और लावण्य छिप जाते हैं। उसी तरह हम भी अपनी विलायती विद्या का लेप लगाकर दंभ करते हैं, किंतु यथार्थ आंतरिक जीवन के साथ उसका भोग बहुत कम ही होता है। हम सस्ते, चमकते हुए, विलायती ज्ञान को लेकर शान दिखाते हैं, विलायती विचारों का असंगत रूप से प्रयोग करते हैं। हम स्वयं यह नहीं समझते कि अनजाने ही हम कैसे अपूर्व प्रहसन का अभिनय कर रहे हैं। यदि कोई हमारे ऊपर हँसता है तो हम फौरन यूरोपीय इतिहास से बड़े-बड़े उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) बीस-बाईस वर्ष की आयु तक प्राप्त शिक्षा से हमें क्या मिलता
(ग) विलायती विद्या का लेप लगाकर हम क्या करते रहने को मजबूर होते रहते हैं?
(घ) हम हँसी के पात्र कब बनते हैं और उससे बचने के लिए हम क्या करते हैं?
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-
(क) पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) बीस-बाईस वर्ष की आयु तक प्राप्त शिक्षा से हमें ठोस रूप में कुछ लाभप्रद वस्तु या गुण-लाभ नहीं मिल पाता है। ऐसे प्राप्त साधन हमारे जीवन में घुल-मिल नहीं पाते हैं। इसकी प्राप्ति से हमारे मन को स्वाभाविक रूप से सुख-शांति नहीं मिल पाती, बल्कि इसके विपरीत हमारे मन को एक विचित्र स्वरूप मिलता है जो हमारे लिए सुखद नहीं होता। इससे हमें जो विचार और भाव की प्राप्ति होती है उनका कोई शाश्वत मूल्य नहीं होता।
(ग) विलायती शिक्षा का लेप लगाकर हम झूठ का दंभ करते हैं जिनका यथार्थ आंतरिक जीवन के साथ कुछ भी या कोई भी योग नहीं के बराबर होता है। हम झूठा प्रदर्शन करते हैं, गलत रूप से चमकते रहते हैं। विदेशी भाषा से प्राप्त ज्ञान को लेकर शान का प्रदर्शन करते हैं और विलायती विचारों को असंगत रूप से प्रयोग में लाकर उनका प्रचार करते रहते हैं।
(घ) हम विदेशी भाषा से प्राप्त ज्ञान, शान और गुमान में इस प्रकार इतराये फिरते हैं कि हम अपने लोगों के बीच हँसी का पात्र बन जाते हैं। लोगों का हमारे इस नकली रूप पर हँसना स्वाभाविक हो जाता है। लोगों की इस हँसी से बचन के लिए हम शीघ्रातिशीघ्र विदेशों खासकर यूरोपीय इतिहास के पन्नों से उदाहरण ढूँढ-ढूँढकर लोगों के सामने अपनी विशेषता का परिचय देने का प्रयास करते हैं।
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय यह है कि अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा का अध्ययन, मनन और चिंतन हमारे लिए किसी भी रूप में उपयोगी और महत्त्वपूर्ण नहीं है। जिस प्रकार बर्बर जाति के लोग शरीर पर रंग का लेप चढ़ाकर या शरीर के अंगों को गोद-गोदकर लोगों के सामने गर्व का अनुभव करते हैं, उसी तरह विदेशी भाषा का लेप लगाकर लोग व्यर्थ के ज्ञान, गुमान और शान का अनुभव कर उसका प्रचार-प्रसार करते हैं। लेखक की दृष्टि में यह हास्यास्पद है।
5. बाल्यकाल से ही यदि भाषा-शिक्षा के साथ भाव-शिक्षा की भी व्यवस्था हो और भाव के साथ समस्त जीवन-यात्रा नियमित हो, तभी हमारे जीवन में यथार्थ सामंजस्य स्थापित हो सकता है। हमारा व्यवहार तभी सहज मानवीय व्यवहार हो सकता है और प्रत्येक विषय में उचित परिणाम की रक्षा हो सकती है। हमें यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि जिस भाव से हम जीवन-निर्वाह करते हैं उसके अनुकूल हमारी शिक्षा नहीं है। जिस घर में हमें सदा अपना जीवन बिताना है उसका उन्नत चित्र हमारी पाठयपुस्तकों में नहीं है। जिस समाज के बीच हमें अपना जीवन बिताना है उस समाज का कोई उच्च आदर्श हमें शिक्षा-प्रणाली में नहीं मिलता। उसमें अब हम अपने माता-पिता, सुहद-मित्र, भाई-बहन किसी का प्रत्यक्ष चित्रण नहीं देखते। हमारे दैनिक जीवन के कार्यकलाप को उस साहित्य में स्थान नहीं मिलता।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) हमारा व्यवहार किस परिस्थिति में सहज मानवीय व्यवहार हो सकता है?
(ग) हमें कौन-सी बात अच्छी तरह समझना चाहिए?
(घ) अनुकूल शिक्षा कौन-सी शिक्षा होती है और उससे हमें क्या मिलता है?
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-
(क) पाठ-शिक्षा में हरे-फर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) यदि बचपन से ही हमारी भाषा-शिक्षा के साथ भाव- शिक्षा की भी व्यवस्था रहती है तो उस परिस्थिति में हमारी सम्पूर्ण जीवन-यात्रा भाव के साथ नियमित रूप से चलती है। तभी हम यथार्थ जीवन की स्थिति से जुड़ते हैं। उसी स्थिति में तभी हमारा व्यवहार सहज मानवीय व्यवहार हो सकता है।
(ग) हमें यह बात अच्छी तरह समझना चाहिए कि हमारी शिक्षा हमारे जीवन-निर्वाह के भाव के अनुकूल नहीं है। हम जिस घर में सदा-सर्वदा के लिए रहने के लिए बाध्य हैं उसका सही साफ-सुथरा चित्र हमारी पाठय-पुस्तकों में है ही नहीं। हमारे दैनिक-जीवन के कार्यकलाप को उस शिक्षा में कहीं कोई स्थान नहीं मिलता है और वहाँ हमें गतिशील जीवन के संगीत के स्वर को सुनने के लिए कोई अवसर नहीं मिलता।
(घ) अनुकूल शिक्षा वही शिक्षा होती है जो हमारे जीवन-निर्वाह के भाव से जुड़ी होती है। उस शिक्षा की पाठय-पुस्तकों में हमारे-स्थायी निवास के उन्नत चित्र विद्यमान रहते हैं और उस शिक्षा की प्रणाली में हमारे सामाजिक जीवन का कोई उच्च आदर्श विद्यमान रहता है। वहाँ हमारे वैयक्तिक और दैनिक जीवन के कार्यकलाप की चर्चा, कथन और अंकन के लिए उचित स्थान उपलब्ध होता है और उस शिक्षा से हमारे जीवन के क्षण जुड़े रहते हैं।
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने हमारी भाषा-शिक्षा के साथ जुड़ी भाव-शिक्षा की व्यवस्था के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। भाषा-शिक्षा भाव-शिक्षा की व्यवस्था से जुड़कर सही रूप में लाभदायी होती है। तभी हम सहज मानवीय व्यवहार के रूप में अपने दैनिक व्यवहार को परिणत कर सकते हैं। आज हमारा दुर्भाग्य है कि हमारी भाषा-शिक्षा हमारी भाव-शिक्षा के साथ जुड़ी नहीं है। इस स्थिति में हमारी शिक्षा की पाठय-पुस्तकों में हमारे इष्ट, घर तथा समाज का कोई स्थान नहीं है और हमारे जीवन का मिलान और सामंजस्य वहाँ नहीं हो पाता है।
6. कहानी है कि एक निर्धन आदमी जाड़े के दिनों में रोज भीख माँगकर गरम कपड़ा बनाने के लिए धन-संचय करता, लेकिन यथेष्ट धन जमा होने तक जाड़ा बीत जाता। उसी तरह जब तक वह गर्मी के लिए उचित कपड़े की व्यवस्था कर पाता तब तक गर्मी भी बीत जाती। एक दिन देवता ने उसपर तरस खाकर उसे वर माँगने को कहा तो वह बोला, ‘मेरे जीवन का यह हेर-फेर दूर करो, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मैं जीवन भर गर्मी में गरम कपड़े और सर्दी में ठंडे कपड़े प्राप्त करता रहा हूँ। इस परिस्थिति में संशोधन कर दो-बस, मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा। हमारी प्रार्थना भी यही है। हेर-फेर दूर होने से ही हमारा जीवन सार्थक होगा। हम सर्दी में गरम कपड़े और गर्मी में ठंडे कपड़े जमा नहीं कर पाते, तभी तो हमारे जीवन में इतना दैन्य है-वरना हमारे पास है सबकुछ।
(क) पाठ और लेखक के नाम लिखें।
(ख) इस कहानी में कैसे व्यक्ति की कहानी है? उस व्यक्ति के कार्य का परिचय दीजिए।
(ग) एक दिन किस परिस्थिति में उस व्यक्ति ने देवता से क्या वरदान माँगा?
(घ) उसके अनुसार उसके जीवन में दैन्य का क्या रूप है?
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-
(क) पाठ-शिक्षा में हेर-फेर, लेखक-रवीन्द्रनाथ टैगोर
(ख) इस कहानी में एक गरीब व्यक्ति की कहानी है। वह व्यक्ति जाड़े के दिनों में रोज भीख माँग-माँगकर गरम कपड़ा बनाने के लिए धन जमा करता था, लेकिन दुर्भाग्य उस बेचारे का कि जब तक वह यथेष्ट धन जमा करता, तब तक जाड़ा ही बीत जाता।
(ग) वह व्यक्ति जब जाड़ा और गरमी के लिए कपड़े की व्यवस्था न कर पाया, तो उसने अपने ऊपर तरस खाए एक देतवा से यह वरदान माँगा कि मेरे जीवन में यह हेर-फेर है कि मैं जाड़े तथा गरमी दोनों ऋतुओं में जब तक कपड़े खरीदने के लिए भीख मांगकर धन जमा करता हूँ तब तक ऋतुओं के अनुकूल वस्त्र की व्यवस्था नहीं कर पाता।
(घ) उसके अनुसार उसके जीवन में दैन्य का रूप यह है कि वह जीवनभर गरमी में गर्म कपड़े और सर्दी में ठंड कपड़े ही प्राप्त करता रहा है। वह इसमें हेर-फेर चाहता है, अर्थात वह गर्मी में ठंडे कपड़े और ठंड में गर्म कपड़ें प्राप्त करना चाहता है।
(ङ) प्रस्तुत गद्यांश में लेखक के कथन का आशय यह है कि हम अपनी वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था से जीवन के अनुकूल जीने का साधन नहीं प्राप्त कर रहे हैं। हमारे जीवन में एक विचित्र प्रकार की दीनता आ गई है। वह दीनता हमारे जीवन के घोर प्रतिकूल है। हमारी स्थिति उस भिखारी की तरह है जो जाड़े के अनुकूल वस्त्र पाने के लिए पूरा शीतकाल भीख माँगने में ही बिता देता है। जब तक वह उसके लिए साधन जुटाता है तब तक जाड़े की ऋतु गुजर जाती है। ग्रीष्म ऋतु में भी यही स्थिति उसके साथ जुड़ी रहती है। इस विचित्र स्थिति में हमारा जीवन सार्थक नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि हम जीवन की अनुकूलता के अनुरूप भाषा-शिक्षा प्राप्त करें।
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