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BSEB Class 9 Hindi व्याकरण परसर्ग ‘ने’ का क्रिया पर प्रभाव Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 9th Hindi व्याकरण परसर्ग ‘ने’ का क्रिया पर प्रभाव Book Answers |
Bihar Board Class 9th Hindi व्याकरण परसर्ग ‘ने’ का क्रिया पर प्रभाव Textbooks Solutions PDF
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Board | BSEB |
Materials | Textbook Solutions/Guide |
Format | DOC/PDF |
Class | 9th |
Subject | Hindi व्याकरण परसर्ग ‘ने’ का क्रिया पर प्रभाव |
Chapters | All |
Provider | Hsslive |
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BSEB Class 9th Hindi व्याकरण परसर्ग ‘ने’ का क्रिया पर प्रभाव Textbooks Solutions with Answer PDF Download
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‘ने’ एक परसर्ग है। इसे विभक्ति भी कहते हैं इसके प्रयोग से क्रिया में विकार आता है। इस विकार को समझने से पूर्व क्रिया के स्वरूप, भेद तथा प्रयोग को जानना आवश्यक है।
क्रिया
(अकर्मक, सकर्मक, द्विकर्मक एवं प्रेरणार्थक क्रिया)
जिस शब्द से किसी काम का करना या होना प्रकट हो, उसे क्रिया कहते हैं; जैसे–खाना, पीना, उठना, बैठना, होना आदि।
उदाहरण-
- पक्षी आकाश में उड़ रहे हैं।
- महेश आँगन में घूमता है।
- सुरेश रात को दूध अवश्य पीता है।
- बर्फ पिघल रही है।
उपर्युक्त वाक्यों में उड़ रहे हैं, घूमता है, पीता है, पिघल रही है-शब्दों से होने अथवा करने की प्रक्रिया का बोध होता है। अतः ये क्रिया पद हैं।
क्रिया पदबंध की रचना दो प्रकार के अंशों से मिलकर होती है। एक अंश तो वह है जो उस क्रिया पदबंध को मुख्य अर्थ प्रदान करता है। इसे मुख्य क्रिय कहा जाता है तथा मुख्य क्रिया के अलावा जो भी अंश शेष रह जाता है, वह स.. सहायक क्रिया का अंश होता है।
- लड़कियाँ गाना गा चुकी हैं।
- वह हँस रहा है।
- अब आप जा सकते हैं।
मुख्य क्रिया-गा, हँस, जा।।
सहायक क्रिया-चुकी हैं, रहा है, सकते हैं।
क्रिया के भेद
कर्म के अनुसार या रचना की दृष्टि से क्रिया के दो भेद हैं-
- सकर्मक और
- अकर्मक।
1. सकर्मक क्रिया-जिस क्रिया के साथ कर्म रहता है अथवा उसके रहने की संभावना रहती है, उसे ‘सकर्मक क्रिया’ कहते हैं। सकर्मक क्रिया का करनेवाला कर्ता ही होता है, परन्तु उसके कार्य का फल कर्म पर पड़ता है। .
‘राम पुस्तक पढ़ता है’-यहाँ ‘पढ़ना’ क्रिया सकर्मक है, क्योंकि उसका एक कर्म है। पुस्तक पढ़ने वाला ‘राम’ है, परन्तु उसकी क्रिया ‘पढ़ना’ का फल ‘पुस्तक’ पर पड़ता है। ‘वह पीता है यहाँ ‘पीना’ क्रिया सकर्मक है, क्योंकि उसके साथ किसी कर्म का प्रयोग न रहने पर भी कम्र की संभावना हैं ‘पीता है’ के पहले कर्म के रूप में ‘जल’ या ‘दूध’ शब्द रखा जा सकता है।
सकर्मक क्रिया के तीन भेद हैं-
(क) पूर्ण एककर्मक कियाएँ-यह वास्तव में सकर्मक क्रिया ही है। इसमें एक कर्म की आवश्यकता होती है।
जैसे-राम ने रावण को मारा।
यहाँ ‘मारा’ क्रिया कर्म (रावण को) के बिना अधूरी है। तथा इस कर्म के समावेश से अर्थ भी पूरा हो गया है।
कुछ उदाहरण–सोहन पुस्तक पढ़ रहा है।
राम आम खाएगा।
(ख) पूर्ण द्विकर्मक क्रियाएँ-ऐसी क्रियाओं में दो कर्म होते हैं। जैसे
गोपी ने गीता को पुस्तक दी।
रमेश ने गोपाल को गाड़ी बेची।
प्रायः देना, लेना, बताना आदि प्रेरणार्थक क्रियाएँ इसी कोटि के हैं।
(ग) अपूर्ण ‘सकर्मक क्रियाएँ-वैसी क्रियाओं हैं जिसमें कर्म होता है फिर भी कर्म के किसी पूरक शब्द की आवश्यकता बनी रहती है। अन्यथा अर्थ अपूर्ण हो जाता है! मानना, समझना, बनना, चुनना आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं। जैसे-मैं रमेश को मुर्ख समझता हूँ, इस वाक्य में ‘रमेश को’ कर्म हैं परन्तु कर्म अकेले अपूर्ण अर्थ देता है।
अत: ‘मूर्ख’ पुरक के आने पर अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
जैसे-जनता ने श्री प्रकाश को अपना प्रतिनिधि चुना।
2. अकर्मक क्रिया-जिस क्रिया के साथ कर्म न रहे अर्थात जिसकी क्रिया का फल कर्त्ता पर ही पड़े, उसे ‘अकर्मक क्रिया’ कहते हैं।
‘राम हँसता है’-इस वाक्य में ‘हँसना’ क्रिया अकर्मक है, क्योंकि यहाँ न तो हँसना का कोई कर्म है और न उसकी सम्भावना ही है। ‘हँसना’ क्रिया का फल भी ‘राम’ पर ही पड़ता है।
अकर्मक क्रिया तीन प्रकार की होती है-
(क) स्थित्यर्धक पूर्ण अकर्मक क्रिया-यह क्रिया बिना कर्म के पूर्ण अर्थ .. देती है और कर्ता की स्थिर दशा का बोध कराती है। जैसे
बच्चा सो रहा है। (सोने की दशा)
राधा रो रही है। (रोने की दशा) ।
परमात्मा है। (अस्तित्व की दशा)
(ख) गत्यर्थक (पूर्ण) अकर्मक क्रियाएँ-ये क्रियाएँ भी अकर्मक होती हैं। इनमें कर्म की आवश्यकता नहीं पड़ती। ये पूर्ण अकर्मक होती है, क्योंकि इनमें किसी पूरक की आवश्यकता नहीं होती। इन क्रियाओं में कर्ता गतिशील रहता है। जैसे-उड़ना, घूमना, तैरना, उठना, गिरना, जाना, आना, दौड़ना आदि।
उदाहरण-
- रवि दिल्ली जा रहा है।
- लड़का सड़क पर दौड़ रहा है।
(ग) अपूर्ण अकर्मक क्रिया-जिन क्रियाओं के प्रयोग के समय अर्थ की पूर्णता के लिए कर्ता से सम्बन्ध रखने वाले किसी शब्द-विशेषण की जरूरत पड़ती है, उन्हें अपूर्ण अकर्मक क्रियाएँ कहते हैं। ‘होना’ इस कोटि की सबसे प्रमुख क्रिया है। बनना, निकलना आदि प्रकार की अन्य क्रियाएँ हैं।
यथा-मैं हूँ।
वह बहुत है।
महात्मा गाँधी थे।
उपर्युक्त अपूर्ण वाक्यों में पूरक के प्रयोग की आवश्यकता है। यथा-
मैं बीमार हूँ।
वह बहुत तेज है।
महात्मा गाँधी राष्ट्रपिता थे।
यहाँ बीमार का सम्बन्ध वाक्य के कर्ता में से है।
“तेज’ का सम्बन्ध वाक्य के कर्ता वह से है।
“राष्ट्रपिता” का सम्बन्ध वाक्य के कर्ता महात्मा गाँधी से है।
अकर्मक-सकर्मक में परिवर्तन (अंतरण)
क्रियाओं का अकर्मक होना या सकर्मक होना प्रयोग पर निर्भर करता हैं, न कि उनके. धातु रूप पर। यही कारण है कि कभी-कभी अकर्मक क्रियाएँ सकर्मक रूप में प्रयुक्त होती हैं और कभी सकर्मक क्रियाएँ अकर्मक रूप में प्रयुक्त होती हैं। जैसे
पढ़ना (सकर्मक)-मोहन कितना पढ़ रहा है।
पढ़ना (अकर्मक)-श्याम आठवीं में पढ़ रहा है।
खेलना (सकर्मक)-बच्चे हॉकी खेलते हैं।
खेलना (अकर्मक)-बच्चे रोज खेलते हैं।
“हँसना’, ‘लड़ना’ आदि कुछ अकर्मक क्रियाएँ सजातीय कर्म आने पर सकर्मक रूप में प्रयुक्त होती हैं। जैसे-
शेरशाह ने अनेक लड़ाइयाँ लड़ीं।
वह मस्तानी चाल चल रहा था।
ऐंठना, खुजलाना आदि क्रियाओं के दोनों रूप मिलते हैं। जैसे-
धूप में रस्सी ऐंठती है। (अकर्मक)
नौकर रस्सी ऐंठ रहा है। (सकर्मक)
प्रेरणार्थक क्रिया
जब कर्ता स्वयं क्रिया नहीं करता, बल्कि एक प्रेरक की सहायता से क्रिया कराता है या दो प्ररेकों की सहायता से क्रिया संपन्न करवाता है तो उस वाक्य-रचना को प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं। हिन्दी में प्रेरणार्थक वाक्यों के दो भेद हैं
1. प्रथम प्रेरणार्थक-जब कर्त्ता क्रिया तो करता है किन्तु उसके साथ एक ‘प्रेरक कर्ता’ भी होता है जो क्रिया-निष्पादन का प्रेरक या व्यवस्थापक बनकर उपस्थित रहता है, तब उसे प्रथम प्रेरणार्थक वाक्य कहते हैं।
उदाहरणतया-
माँ लड़के को दवाई पिलाती है।
यहाँ ‘माँ’ लड़के (कर्ता) को दवाई पिलाने का कार्य करा रही है।
2. द्वितीय प्रेरणार्थक-जब कर्ता को क्रिया कराने के लिए ‘प्रथम प्रेरक’ . किसी दूसरे प्रेरक’ की सहायता लेकर क्रिया निष्पादन करवाता है, तब उसे द्वितीय प्रेरणार्थक रचना कहते है।।
उदाहरणतया-माँ ने सोहन द्वारा अशोक को दवाई पिलवाई।
यहाँ माँ ‘प्रथम प्रेरक’ है तथा ‘सोहन’ द्वितीय प्ररेक है। ये दोनों मिलकर ‘अशोक’ कर्ता को दवाई पिलाने का कार्य संपन्न कर रहे हैं।
नीचे की रूपावली से बात स्पष्ट हो जाएगी
कर्ता-कर्म-क्रिया-अशोक रोटी खाता है।।
प्रथम प्रेरक-कर्ता-कर्म-क्रिया-माँ अशोक को रोटी खिलाती है।
प्रथम प्रेरक-द्वितीय प्रेरक-कर्ता-कर्म-क्रिया-माँ मनोहर द्वारा अशोक को रोटी खिलवाती है।
इस प्रकार क्रिया के रूपों में ‘खाता-खिलवाती’ परिवर्तन हुआ। हिन्दी में प्रेरणार्थक धातुओं की रचना-प्रक्रिया इस प्रकार है –
संयुक्त क्रिया
जो क्रिया दो या दो से अधिक धातुओं के मेल से बनती है, उसे संयुक्त क्रिया कहते हैं। जैसे-घनश्याम रो चुका, किशोर रोने लगा, वह घर पहुँच गया। इन वाक्यों में ‘रो चुका’, ‘रोने लगा’ और ‘पहुँच गया’ संयुक्त क्रियाएँ हैं। विधि और आज्ञा को छोड़कर सभी क्रियापद दो या अधिक क्रियाओं के योग से बनते हैं, किन्तु संयुक्त क्रियाएँ इनसे भिन्न हैं; क्योंकि जहाँ एक ओर साधारण क्रियापद ‘हो, रो, सो, खा’ इत्यादि धातुओं से बनते हैं, वहाँ दूसरी ओर संयुक्त क्रियाएँ ‘होना, आना, जाना, रहना, रखना, उठाना, लेना, पाना, पड़ना, डालना, सकना, चुकना, लगना, करना, भेजना, चाहना’ इत्यादि क्रियाओं के योग से बनती हैं।
इसके अतिरिक्त सकर्मक तथा अकर्मक दोनों प्रकार की संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं। जैसे-
अकर्मक क्रिया से-लेट जाना, गिर पड़ना।
सकर्मक क्रिया से-बेच लेना, काम करना, बुला लेना, मार देना।
संयुक्त क्रिया की एक विशेषता यह है कि उसकी पहली क्रिया प्रायः प्रधान होती है और दूसरी उसके अर्थ में विशेषता उत्पन्न करती है। जैसे-मैं पढ़ सकता हूँ। वह लिखता है।
भेद-संयुक्त क्रियाएँ जिन-जिन क्रियाओं के योग से बनती हैं वे चार प्रकार की होती हैं
(क) मुख्य क्रिया
(ख) सहायक क्रिया
(ग) संयोजी क्रिया
(घ) रंजक क्रिया।
(क) मुख्य क्रिया-संयुक्त क्रियाओं में एक क्रिया मुख्य होती है। उपर्युक्त वाक्य में लिख मुख्य क्रिया है।
(ख) सहायक क्रिया-काल का बोध कराने वाली क्रिया को सहायक क्रिया कहते हैं। उपर्युक्त वाक्यों में ‘है’ सहायक क्रिया है।
(ग) संयोजी क्रियाएँ-संयोजी क्रियाएँ मुख्य क्रिया के पक्ष, उसकी वृत्ति तथा वाच्य की सूचना देती हैं। यथा-
(i) पक्ष का उद्घाटन करने वाले उदाहरण –
(ख) संयोजी क्रियाएँ कर्त्ता की इच्छा, अनिच्छा, विवशता या सार्थकता आदि वृत्तियों को भी प्रकट करती हैं। जैसे-
(ग) संयोजी क्रियाएँ वाक्य के वाच्य का भी बोध कराती हैं। जैसे-
(घ) अनुमति देने में भी हिन्दी में संयोजी क्रिया ‘दे’ का प्रयोग किया जाता है। जैसे-उसे चुपचाप खेलने दो-अनुज्ञाद्योतक ने + दें।
(घ) रंजक क्रियाएँ-रंजक क्रियाएँ मुख्य क्रिया के अर्थ को रंजित करती . हैं अर्थात् विशिष्ट अर्थछवि देती हैं। सामान्यतः ये आठ हैं-आना, जाना, उठना, बैठना, लेना, देना, पड़ना, डालना। नीचे इनके उदाहरण दिए जा रहे हैं –
संयुक्त क्रियाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें –
1. कहीं-कहीं संयुक्त क्रिया के दोनों पदों का क्रम तथा रूप बदलने पर उनके अर्थ में परिवर्तन आ जाता है। उदाहरणतया –
(क.) मोहन ने उसे मार दिया। (जान से मार दिया)
(ख) मोहन ने उसे दे मारा। (अचानक चोट कर दी)
2. निषेधात्मक वाक्यों में मुख्य क्रिया के साथ रंजक क्रिया का प्रयोग नहीं होता। यथा –
3. संयुक्त क्रिया में ‘सकना’ और ‘चुकना’ जैसी क्रियाएँ रंजक क्रिया के रूप में प्रयुक्त होती हैं। वास्तव में ये रंजक क्रियाएँ नहीं हैं और न ही इनका स्वतंत्र अर्थ
होता है, किन्तु वे मुख्य क्रिया के साथ जुड़कर क्रिया के सामर्थ्य, पूर्णता आदि का बोध कराती हैं। जैसे –
(क) रमेश यह काम कर सकता है। (सामर्थ्य का भाव)
(ख) शीला मुंबई जा चुकी है। (पूर्णता का भाव)
समापिका और असमापिका क्रियाएँ-वे क्रियाएँ जो वाक्य को समाप्त करती हैं। ये प्रायः अन्त में रहती हैं। उदाहरणतया –
- रीता खाना पका रही है।
- गोपाल बाग में टहल रही है।
- गुरु का सम्मान करो।
- लड़का सड़क पर दौड़ता है।
उपर्युक्त वाक्यों में मोटे काले शब्द समापिका क्रियाओं के उदाहरण हैं। ये क्रियाएँ वाक्यों की समाप्ति कर रही है।
असमापिका क्रियाएँ-वे क्रियाएँ जो वाक्य की समाप्ति नहीं करतीं, बल्कि अन्यत्र प्रयुक्त होती है। इन्हें क्रिया का कृदन्ती रूप भी कहते हैं। जैसे-
(i) नदी में तैरती हुई नौका कितनी अच्छी लग रही है।
(ii) आलमारी पर पड़े गुलदस्ते को उठा लाओ।
असमापिका क्रियाओं का विवेचन तीन दृष्टियों से किया जाता है-
(क) रचना की दृष्टि से
(ख) बने शब्दभेद की दृष्टि से
(ग) प्रयोग की दृष्टि से।
(क) रचना की दृष्टि से-कृदंती रूपों या असमापिका क्रियाओं की रचना चार प्रकार के प्रत्ययों से होती है –
- अपूर्ण कृदंत-ता, ते, ती, जैसे-बहता तिनका, बहते पत्ते, बहती नदी।
- पूर्ण कृदंत-आ, ई, ए, जैसे-बैठा लड़का, बैठे लोग, बैठी लड़की।
- क्रियार्थक कृदंत-ना, नी, ने, जैसे-लिखना है, लिखनी है, लिखने हैं।
- पूर्वकालिक कृदंत-कर, जैसे-खाकर, नहाकर।
(ख) शब्द-भेद की दृष्टि से-कृदंती शब्द या तो संज्ञा होते हैं या विशेषण और क्रिया विशेषण, जैसे –
1. संज्ञा-ना : दोपहर में खाना/पीना/सोना मेरा नित्य कर्म है।
ने : सीता आने वाली है।
2. विशेषण-ता/ते/ती : बहता पानी शुद्ध होता है।
खिलती कलियों को मत तोड़ी।
आ/ई/ए : भागा हुआ चोर पकड़ा गया।
सोयी हुई बच्ची अचानक उठ गयी।
गिरे हुए फूल मत उठाओ।
3. क्रिया विशेषण-ते ही/ते ते/ कर/ए, ऐ
वह गिरते ही मर गया।
वह खाते-खाते मर गया।
वह खाकर जाएगा।
वह चलते-चलते थक गया।
(ग) प्रयोग की दृष्टि से-इस दृष्टिकोण से कृदन्त निम्नलिखित छः प्रकार . के होते हैं
1. क्रियार्थक कृदंत-इनका प्रयोग भाववाचक संज्ञा के रूप में होता है। जैसे-लिखना, पढ़ना, खेलना आदि। उदाहरण –
उसे नित्य टहलना चाहिए।
छात्रों को पढ़ना चाहिए।
2. कर्तृवाचक कृदंत-इस कृदंत से कर्तृवाचक संज्ञा बनती है।
जैसे- धातु + ने + वाला/वाले।
भाग + ने + वाला = भागने वाला।
वाक्य-प्रयोग-लिखने वाले से पूछ।
जाने वालों को रोको।
3. वर्तमानकालिक कृदंत-ये कृदन्त वर्तमान काल में हो रही किसी क्रियात्मक विशेषता का ज्ञान कराते हैं। ये विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। जैसे-बहुत हुआ पानी . वाक्य-प्रयोग-बहता हुआ जल स्वच्छ होता है।
4. भूतकालिक कृदंत-ये कृदंत भी विशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं। परन्तु ये भूतकाल में सम्पन्न किसी किया का बोध कराते हैं। जैसे–पका हुआ फल।
वाक्य-प्रयोग-पका हुआ फल मीठा होता है।
5. तात्कालिक कृदंत-इन कृदंतों की समाप्ति पर तुरन्त मुख्य क्रिया सम्पन्न हो जाती है। इनका रूप धातु + ते ही’ से निर्मित होता है। जैसे-‘आते ही’, ‘कहते ही’ आदि
वाक्य-प्रयोग-वे जाते ही कहने लगे।
पत्र पढ़ते ही वह रो पड़ा।
6. पूर्वकालिक कृदंत-मुख्य क्रिया से पूर्व की गई क्रिया का बोध ‘पूर्वकालिक कृदंत क्रिया’ से होता है। इसका निर्माण-‘धातु + कर’ से होता है। जैसे-सो + कर, पढ़ + कर, लिख + कर आदि।।
वाक्य प्रयोग-मोहन खाकर स्कूल गया।
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