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Wednesday, June 22, 2022

BSEB Class 11 Sociology Understanding Social Institutions Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Sociology Understanding Social Institutions Book Answers

BSEB Class 11 Sociology Understanding Social Institutions Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Sociology Understanding Social Institutions Book Answers
BSEB Class 11 Sociology Understanding Social Institutions Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Sociology Understanding Social Institutions Book Answers


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Class 11th
Subject Sociology Understanding Social Institutions
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Bihar Board Class 11 Sociology सामाजिक संस्थाओं को समझना Additional Important Questions and Answers

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
विवाह संस्था की उत्पत्ति के महत्त्वपूर्ण कारण बताइए।
उत्तर:
विवाह संस्था की उत्पत्ति के महत्त्वपूर्ण कारण निम्नलिखित हैं –

  • यौन संतुष्टि-यह जैविक आवश्यकता है।
  • संतानों का वैधानीकरण-यह सामाजिक आवश्यकता है।
  • आर्थिक सहयोग करना-यह आर्थिक आवश्यकता है।

प्रश्न 2.
विवाह की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:

  • हैरी एम. जॉनसन के अनुसार, “विवाह एक ऐसा स्थायी संबंध है जिससे एक पुरुष और एक स्त्री समुदाय को बिना नुकसान पहुँचाए संतानोत्पत्ति की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होता है।”
  • आर. एच. लॉबी के अनुसार, “विवाह स्पष्टतः स्वीकृत उस संबंध संगठनों को प्रकट कता है जो यौन संबंधी संतुष्टि के उपरांत भी स्थिर रहता है तथा पारिवारिक जीवन की आधारशिला बनाता है।”

प्रश्न 3.
विवाह संस्था के कोई दो उद्देश्य बताइए।
उत्तर:

  • विवाह संस्था का मूल उद्देश्य यौन-संबंधों को सामाजिक प्रतिमानों के अनुरूप नियमित करना है। विवाह के माध्यम से परिवार अस्तित्व में आता है।
  • विवाह दो विपरीत लिंग के व्यक्तियों को यौन संबंध रखने की स्वीकृति देता है तथा। उनसे प्राप्त संतान को सामाजिक वैधता प्रदान करता है।

प्रश्न 4.
ज्ञात करें कि आपके समाज में विवाह के कौन-कौन से नियमों का पालन किया जाता है? कक्षा में अन्य विद्यार्थियों द्वारा किए गए प्रेक्षणों से अपने प्रेक्षणों की तुलना करें तथा चर्चा करें।
उत्तर:
हमारे समाज में विवाह के अनेक रूप हैं। इन रूपों को विवाह करने वाले साथियों ‘ की संख्या और कौन किससे विवाह कर सकता है, को नियंत्रित किए जाने वाले नियमों के आधार पर पहचाना जा सकता है। वैधानिक रूप से विवाह करने वाले साथियों की संख्या के संदर्भ में विवाह के दो रूप पाए जाते हैं-एकल विवाह तथा बहु-विवाह। एकल विवाह प्रथा एक व्यक्ति को एक समय में एक ही साथी तक सीमित रखती है। इस व्यवस्था में पुरुष केवल एक पत्नी और स्त्री केवल एक पति रख सकती है। यहाँ तक कि जहाँ बहु विवाह की अनुमति है वहाँ भी एक विवाह ही ज्यादा प्रचलित है। व्यावहारिक कार्य-विद्यार्थी स्वयं करें।

प्रश्न 5.
सजातीय विवाह के विषय में संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
पजातीय विवाह वैवाहिक साथी अर्थात् पति-पत्नी के चुनाव के संबंध में कुछ प्रतिबंध लगाता है। फोलसम के अनुसार, “सजातीय विवाह वह नियम है जिसके अनुसार एक व्यक्ति प ए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू (उच्च माध्यमिक) समाजशास्त्र वर्ग-11 – 53 को अपनी जाति या समूह में विवाह करना पड़ता है। हालांकि, निकट के रक्त संबंधियों से विवाह की अनुमति नहीं होती है।” इस प्रकार, सजातीय विवाह के अन्तर्गत एक व्यक्ति अपनी जाति, धर्म अथवा प्रजाति में ही विवाह कर सकता है। जाति तथा धार्मिक समुदाय भी अंत:विवाही होते हैं।

प्रश्न 6.
विजातीय विवाह के विषय में संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
विजातीय विवाह के अन्तर्गत एक व्यक्ति को अपने समूह तथा नातेदारी से बाहर विवाह करना पड़ता है। समुदाय के द्वारा अपने सदस्यों पर कुछ विशेष व्यक्तियों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं। विजातीय विवाह के नियम सभी समुदाय में पाए जाते हैं। हिंदू विवाह में गोत्र तथा सपिण्ड विजातीय विवाह होते हैं। चीन में जिन व्यक्तियों के उपनाम एक ही होते हैं उनके बीच विवाह नहीं हो सकता।

प्रश्न 7.
गोत्र तथा सपिण्ड से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
(i) गोत्र – गोत्र से तात्पर्य एक परिवार के ऐसे समूह से होता है जिनके सदस्य अपने वंश की उत्पत्ति एक काल्पनिक पूर्वज से मानते हैं। इस प्रकार हिंदू समाज में गोत्र विवाह वर्जित है।

(ii) सपिण्ड-हिंदू समाज में सपिण्ड विवाह भी वर्जित माना गया है। मिताक्षरा के अनुसार सपिंड उन व्यक्तियों को कहते हैं जिनके द्वारा किसी पूर्वज के शरीर के कणों को अपने शरीर में रखा जाता है। गौतम तथा वरिष्ठ जैसे सूत्रकारों का मत है कि पिता की साथ तथा माता की पाँच पीढ़ियों में विवाह नहीं करना चाहिए।

हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत पिता की पाँच तथा माता की तीन पीढ़ियों तथा विवाह वर्जित कर दिया गया है । इस प्रकार, इन सदस्यों के बीच भी वैवाहिक संबंध वर्जित है।

प्रश्न 8.
निकटाभिगमन निषेध का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:

  • निकटाभिगमन निषेध लगभग सभी समाजों में विजातीय विवाह का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नियम है।
  • सम्पूर्ण विश्व में माता-पुत्र, पिता-पुत्री तथा भाई-बहन के बीच विवाह संबंध निषेध होते हैं।
  • इस प्रकार, प्राथमिक नातेदारों के बीच यौन-संबंधों पर प्रतिबंध को निकटाभिगमन निषेध कहा जाता है। निकटाभिगमन निषेध के नियम का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को दंडित किया जाता है।

प्रश्न 9.
निकटाभिगमन निषेध के कारण बताइए।
उत्तर:
विजातीय विवाह के नियमों को स्वतंत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिए लागू किया जाता है। किंग्सले डेविस के अनुसार, निकटाभिगमन निषेध के द्वारा वैवाहिक संबंधों तथा संवेदनाओं को केवल विवाहित जोड़ों तक ही सीमित करता है। इस प्रकार पिता-पुत्री, भाई-बहन तथा माता-पुत्र के संबंधों को वैवाहिक परिधि से बाहर रखा जाता है। अतः नातेदारी संगठन में आने वाली तमाम भ्रामक स्थितियों को समाप्त कर दिया जाता है। इस प्रकार परिवार संगठन बना रहता है।

निकटाभिगमन निषेध के निम्नलिखित वैज्ञानिक कारण हैं

  • सुजनन विज्ञान की दृष्टि से निकट नातेदारों के बीच वैवाहिक संबंधों के कारण निषेधात्मक अंत:स्नातिक परिणामों की संभावना बनी रहती है।
  • निकट के नातेदारों के बीच वैवाहिक संबंध होने से संतान मंदबुद्धि वाली होती है।

प्रश्न 10.
विवाह जैविकीय आवश्यकता को सामाजिक वैधता प्रदान करता है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
यौन संबंध व्यक्ति की मूल जैविकीय आवश्यकताओं में से एक है। सामान्य जीवन के लिए आवश्यक है कि व्यक्तियों की कामेच्छा सामाजिक मानदंडों के अनुरूप पूरी होती रहे। विवाह के माध्यम से मनुष्य की केवल जैविकीय आवश्यकताएँ पूरी होती हैं, वरन् मनोवैज्ञानिक संतुष्टि भी होती है।

प्रश्न 11.
बच्चों के वैधानीकरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:

  1. सभ्य समाज में विवाह की संस्था के माध्यम से जहाँ एक तरफ सहवास को नियमित करना आवश्यक समझा जाता है
  2. वहीं दूसरी तरफ पति-पत्नी को आवश्यक समझा जाता है, वहीं दूसरी तरफ पति-पत्नी के संबंधों से उत्पन्न बच्चों को सामाजिक वैधता प्रदान करना भी आवश्यक समझा जाता है।
  3. समाज को निरंतरता प्रदान करने हेतु माता-पिता की यह वैधानिक तथा नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों की समुचित देखभाल करें।

प्रश्न 12.
आर्थिक सहयोग विवाह संस्था का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार्य है । स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

  1. विवाह संस्था का उद्देश्य मात्र यौन संतुष्टि की जैविकीय आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं है वरन् आर्थिक सहयोग भी इसका एक मुख्य उद्देश्य है।
  2. अर्थव्यवस्था के उत्तरोत्तर विकास, श्रम विभाजन तथा व्यावसायिक भिन्नता के कारण व्यक्तियों के बीच आर्थिक सहयोग की आवश्यकता निरंतर बढ़ती चली जाती है।

प्रश्न 13.
विवाह संस्था के संदर्भ में मार्गन के उद्विकासीय सिद्धांत का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
विवाह संस्था के संबंध में लेविस मार्गन का उद्विकासीय सिद्धांत प्रारंभिक जनरीतियों तथा सामाजिक प्रचलनों पर आधारित है। मार्गन का मत है कि व्यक्तियों के समूह के सबसे प्रारंभिक स्वरूप में यौन-संबंधों की प्रकृति पूर्णरूपेण नियंत्रण मुक्त थी। मार्गन का मत है कि मानव समाज का विकास निम्न अवस्था से उच्च अवस्था की ओर होता है।

मार्गन ने विवाह के उद्विकास के विभिन्न चरण बताए हैं –

  • प्रारंभिक काल्पनिक यौन साम्यवादी समाज
  • समूह विवाह
  • बहु विवाह तथा
  • एक विवाह

प्रश्न 14.
परिवार की संरचना के मुख्य तत्त्व क्या हैं?
उत्तर:
परिवार की संरचना के मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं –
(i) वैवाहिक संबंध –

  • एक सामाजिक संस्था के रूप में परिवार की उत्पत्ति विपरीत लिंगियों के वैवाहिक संबंधों से प्रारम्भ होती है।
  • यह जरूरी नहीं है कि प्रत्येक परिवार एक जैविकीय समूह हो। कभी-कभी बच्चों को गोद भी लिया जाता है।

(ii) रक्त-संबंध – परिवार के सदस्य संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया से परस्पर जुड़े होते हैं। जिस परिवार में व्यक्ति स्वयं जन्म लेता है उसे जन्म का परिवार कहा जाता है। दूसरी तरफ, जिस परिवार में उसके स्वयं के बच्चे होते हैं उसे प्रजनन का परिवार कहा जाता है।

प्रश्न 15.
परिवार के दो प्रमुख सामाजिक कार्य बताइए।
उत्तर:
समाज की केंद्रीय इकाई के रूप में परिवार के दो प्रमुख सामाजिक कार्य निम्नलिखित हैं –
(i) समाजीकरण – जन्म लेते बच्चा परिवार का स्वाभाविक सदस्य बन जाता है। परिवार में – ही अंत:क्रिया के माध्यम से सामाजिकता का पाठ सीखता है। समाज के स्थापित आदर्शों, प्रतिमानों तथा स्वीकृत व्यवहारों को बच्चा परिवार में ही सीखता है। इस प्रकार परिवार समाजीकरण की प्रथम पाठशाला है। बर्गेस तथा लॉक के अनुसार, “परिवार बालक पर सांस्कृतिक प्रभाव डालने वाली मौलिक समिति है तथा पारिवारिक परंपरा बालक को उसके प्रति प्रारंभिक व्यवहार, प्रतिमान व आचरण का स्तर प्रदान करती है।”

(ii) सामाजिक नियंत्रण – परिवार एक प्राथमिक समूह है। परिवार सामाजिक नियंत्रण के स्वैच्छिक प्रतिमान विकसित करता है। व्यक्ति इन प्रतिमानों का स्वाभाविक रूप से अनुपालन करते हैं। इस प्रकार परिवार सामाजिक नियंत्रण की स्थायी संस्था है जो अनौपचारिक साधनों के द्वारा सामाजिक नियंत्रण की प्रक्रिया को जारी रखती है।

प्रश्न 16.
परिवार के दो प्रमुख आर्थिक कार्य बताइए।
उत्तर:

  • सामाजिक संरचना की एक महत्त्वपूर्ण तथा मूलभूत प्राथमिक इकाई के रूप में परिवार अनेक आर्थिक कार्य भी करता है। परिवार
  • अपने सदस्यों के लिए रोटी, कपड़ा तथा मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
  • प्राचीन काल से आज तक परिवार आर्थिक क्रियाओं का केंद्र रहा है।
  • परिवार के सदस्य अपनी विभिन्न आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति परिवार में ही करते हैं।

प्रश्न 17.
विस्तृत परिवार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
यदि एकाकी या संयुक्त परिवार के सदस्यों के अलावा कोई नातेदार परिवार का हिस्सा बनता है तो उसे विस्तृत परिवार कहते हैं। विस्तृत परिवार में एकाकी नातेदारों के अतिरिक्त दूर के रक्त संबंधी हो सकते हैं या साथ रहने वाले नातेदार और भी अधिक दूर के हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, सास-ससुर का अपने दामाद के परिवार में रहना।

प्रश्न 18.
मातृवंशीय एवं मातृस्थानीय परिवार के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
बैचोपन तथा मार्गन जैसे समाजशास्त्रियों का मत है कि परिवार का प्रथम स्वरूप मातृक था। मातृवंशीय एवं मातृस्थानीय परिवार की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

  • मातृवंशीय परिवार में वंशावली माता के माध्यम से चलती है।
  • परिवार में मुख्य सत्ता तथा निर्णय करने का अधिकार माता के पास होती है।
  • बच्चों की देखभल पत्नी के रिश्तेदारों के घर में होती है। इस प्रकार ये परिवार मातृस्थानीय होते हैं। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत के नायर परिवार मातृस्थानीय हैं।
  • संपत्ति का उत्तराधिकार स्त्रियों के पास होता है। मेघालय में खासी जनजाति में मातृ-सत्तात्मक परिवार पाए जाते हैं।

प्रश्न 19.
विवाह के दो सामान्य स्वरूप कौन से हैं? एकल विवाह के संबंध में संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
विवाह के दो स्वरूप हैं –

  • एकल विवाह तथा
  • बहु विवाह

एकल विवाह एक ऐसा वैवाहिक संबंध है जिसमें एक समय में एक पुरुष केवल एक ही स्त्री से विवाह कर सकता है। एकल विवाह के अन्तर्गत पति-पत्नी किसी एक की मृत्यु होने या विवाह-विच्छेद के बाद ही दुबारा विवाह कर सकते हैं। पिडिंगटन के अनुसार, “एकल विवाह, विवाह का वह स्वरूप है जिसमें कोई भी व्यक्ति एक समय में एक व्यक्ति से अधिक के साथ विवाह नहीं कर सकता है।” । हिन्दू समाज में एक विवाह को प्रमुखता प्रदान की जाती है। मैलिनोवस्की के अनुसार, “एक पत्नीत्व विवाह का एकमात्र उचित प्रकार है, रहा है तथा रहेगा।”

प्रश्न 20.
बहु-विवाह के संबंध को संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
बहु-विवाह विवाह का वह संगठन है जिसके अंतर्गत एक पुरुष का दो या दो से अधिक स्त्रियों या एक स्त्री का दो या दो से अधिक पुरुषों अथवा सामूहिक रूप से अनेक पुरुषों के बीच वैवाहिक संबंध होते हैं। बलसारा के अनुसार, “विवाह का वह प्रकार जिसमें सदस्यों की बहुलता पायी जाती है बहु-विवाह कहा जाता है।”

बहु-विवाह के निम्नलिखित चार स्वरूप हैं –

  • बहुपति विवाह
  • बहुपत्नी विवाह
  • द्विपत्नी विवाह
  • समूह विवाह

प्रश्न 21.
बहुपति विवाह के संबंध में संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
बहुपति विवाह के निम्नलिखि दो स्वरूप पाए जाते हैं –

  • भ्रातृत्व बहुपति विवाह तथा
  • गैर-भ्रातृत्व बहुपति विवाह

भ्रातृत्व बहुपति विवाह के अंतर्गत स्त्री सभी भाइयों की पत्नी समझी जाती है। सभी भाई संतान के पिता होते हैं।
गैर-भ्रातृत्व बहुपति विवाह के अंतर्गत एक स्त्री के कई पति होते हैं, लेकिन वे आपस में भाई नहीं होते हैं। गैर-भ्रातृत्व बहुपति विवाह में पतियों में से किसी एक को धार्मिक संस्कार के जरिए बच्चे का सामाजिक पिता माना जाता है।

प्रश्न 22.
परिवार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
परिवार की रचना ऐसे व्यक्तियों से होती है जिनमें नातेदारों के संबंध पाए जाते हैं। क्लेयर के अनुसार, “परिवार से हम संबंधों की वह व्यवस्था समझते हैं जो माता-पिता और उनकी संतोनों के बीच पायी जाती है।” मेकावर तथा पेज के अनुसार, “परिवार वह समूह है जो यौन संबंधों पर आधारित है और जो इतना छोटा तथा स्थायी है कि उसमें बच्चों की उत्पत्ति तथा पालन-पोषण हो सके।”

प्रश्न 23.
भारतीय परिवार के विशेष संदर्भ में परिवार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
भारतीय परिवार अपेक्षाकृत अधिक जटिल सामजिक संरचना है जिनमें आमतौर पर दो या तीन पीढ़ियाँ निवास करती हैं। इन्हें संयुक्त परिवार भी कहते हैं। डॉ. इरावती कर्वे के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो सामान्यतः एक भवन में रहते हैं, जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं, जो सामान्य संपत्ति के स्वामी होते हैं तथा जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं तथा जो किसी-न-किसी प्रकार एक-दूसरे के रक्त संबंधी हैं।”

प्रश्न 24.
परिवार की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. परिवार व्यक्तियों की केवल सामूहिकता नहीं है। परिवार के व्यक्ति एक-दूसरे से परस्पर जैविकीय, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से जुड़े होते हैं।
  2. परिवार एक सार्वभौम सामाजिक प्रघटना है। यह समाज की मूल इकाई है तथा इसमें सदस्यों के बीच भावनात्मक संबंध पाया जाता है।

प्रश्न 25.
“समाज के अस्तित्व हेतु नियंत्रण की व्यवस्था आवश्यक है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
नियंत्रण तथा नियमों के अभाव में समाज में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जिसके कारण संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था ही अस्त-व्यस्त हो जाएगी। नियंत्रण के साधन प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी रूप में अवश्य ही पाए जाते हैं। आधुनिक जटिल समाज में नियंत्रण के औपचारिक साधन अधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावी होते हैं लेकिन अनौपचारिक साधनों का महत्त्व भी काफी अधिक होता है। आदिम समाज में परिवार, समुदाय तथा नातेदारी आदि संस्थाएँ सामाजिक नियंत्रण का कार्य करती हैं। आधुनिक जटिल समाजों में नियंत्रण के अनौपचारिक साधनों की अपेक्षा औपचारिक साधन अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं।

प्रश्न 26.
सत्ता की परिभाषा दीजिए सत्ता के प्रमुख तत्त्व बताइए।
उत्तर:
सत्ता की परिभाषा –

  • सी. राइट मिल्स के अनुसार, “सत्ता का तात्पर्य निर्णय लेने के अधिकार तथा दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार को अपनी इच्छानुसार तथा
  • संबंधित व्यक्तियों की इच्छा के विरुद्ध प्रभावित करने की क्षमता से है।
  • रॉस का मत है कि सत्ता का तात्पर्य प्रतिष्ठा से है। प्रतिष्ठित वर्ग के पास सत्ता भी होती है।

सत्ता के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं –

  • प्रतिष्ठा
  • प्रसिद्धि
  • प्रभाव
  • क्षमता
  • ज्ञान
  • प्रभुता
  • नेतृत्व
  • शक्ति

प्रश्न 27.
शक्ति तथा सत्ता में मुख्य अंतर बताइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वैबर ने शक्ति तथा सत्ता में अंतर बताया है। वैबर के अनुसार यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर उसकी इच्छा के विरुद्ध अपना प्रभाव स्थापित करता है तो इस प्रभाव को शक्ति कहते हैं। दूसरी तरफ, सत्ता वह प्रभाव है जिसे उन व्यक्तियों द्वारा स्वेच्छा पूर्वक स्वीकार किया जाता है जिनके प्रति इसका प्रयोग होता है। इस प्रकार, सत्ता एक वैधानिक शक्ति है। अतः हम सत्ता को सामाजिक रूप से प्रभाव कह सकते हैं। जब शक्ति को वैधता प्रदान कर दी जाती है तो यह सत्ता का स्वरूप धारण कर लेती है तथा व्यक्ति इसे स्वेच्छा पूर्वक स्वीकार कर लेता है।

प्रश्न 28.
पारम्परिक सत्ता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पारंपरिक सत्ता को व्यक्तियों द्वारा आदतन स्वीकार किया जाता है। व्यक्तियों द्वारा किसी की शक्ति को केवल इस कारण से स्वीकार किया जाता है कि उनसे पहले के व्यक्तियों ने भी उसे स्वीकार किया था अतः सत्ता का अनुपालन एक परंपरा बन जाता है। परंपरागत सत्ता की प्रकृति व्यक्तिगत तथा अतार्किक होती है।

पारंपरिक सत्ता के प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं –

  • जनजाति का मुखिया
  • मध्यकाल के राजा तथा सामंत
  • परंपरागत पितृसत्तात्मक परिवार का मुखिया आदि।

प्रश्न 29.
करिश्माई सत्ता के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
करिश्माई सत्ता से युक्त व्यक्ति में असाधारण प्रतिभा, नेतृत्व का जादुई गुण तथा निर्णय लेने की क्षमता पायी जाती है। जनता द्वारा ऐसे व्यक्ति का सम्मान किया जाता तथा उसमें विश्वास प्रकट किया जाता है। यही कारण है कि व्यक्तियों द्वारा करिश्माई सत्ता के आदेशों का पालन स्वेच्छापूर्वक किया जाता है। करिश्माई सत्ता की प्रकृति व्यक्तिगत तथा तार्किक होती है। अब्राहम लिंकन, महात्मा गाँधी आदि करिश्माई व्यक्तित्व से युक्त थे।

प्रश्न 30.
पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

  • पितृवंशीय परिवार में पत्नी विवाह के पश्चात् पति के घर में रहने जाती है।
  • पितृवंशीय परिवार में पिता परिवार का मुखिया तथा संपत्ति का सर्वोच्च स्वामी होता है।
  • परिवार की वंशावली पिता के माध्यम से चलती है।
  • पितृवंशीय परिवार पितृस्थानीय होते हैं।

प्रश्न 31.
बहुपत्नी परिवार के विषय में दो बिन्दु दीजिए।
उत्तर:

  • बहुपत्नी परिवार में एक व्यक्ति एक समय में एक से अधिक पत्नियाँ रखता है।
  • अनेक जनजातियों में इस प्रकार के परिवार पाए जाते हैं।

प्रश्न 32.
बहुपति परिवार के विषय में संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
बहुपति परिवार में एक स्त्री के एक समय में एक से अधिक पति होते हैं। बहुपति परिवार दो प्रकार के होते हैं –
(i) भ्राता बहुपति परिवार – भ्राता बहुपति परिवार में स्त्री के सभी पति आपस में भाई होते हैं। वेस्टर मार्क के अनुसार, “जब एक लड़का किसी स्त्री से शादी कर लेता है तो वह लड़की प्रायः उस समय उसके अन्य सब भाइयों की पत्नी बन जाती है तथा उसी प्रकार बाद में पैदा होने वाला भाई भी बड़े भाईयों के अधिकारों में भागीदार माना जाता है।”
हमारे देश में भ्राता बहुपति परिवार खासी तथा टोडा जनजाति में पाये जाते हैं।

(ii) अभ्राता बहुपति परिवार – अभ्राता बहुपति परिवार में स्त्री के अनेक पति परस्पर भ्राता न होकर अनेक गोत्रों के व्यक्ति होते हैं जो एक-दूसरे से अपरिचित होते हैं। नायर जनजाति में इस प्रकार के परिवार पाए जाते हैं।

प्रश्न 33.
नातेदारी का अर्थ स्पष्ट कीजिए। नातेदारी के प्रकार बताइए।
उत्तर:
नातेदारी का अर्थ-नातेदारी रक्त तथा विवाह का ऐसा बंधन है जो व्यक्तियों को एक समूह से बाँधता है। इस, प्रकार नातेदारी व्यवस्था किसी परिवार के सदस्यों के आपसी संबंधों तथा इन सदस्यों से जुड़े दूसरे परिवारों के सदस्यों के आपसी संबंधों को संगठित और वर्गीकृत करने की केवल एक प्रणाली है। मुरडाक के अनुसार, “यह मात्र संबंधों की ऐसी रचना है जिसमें व्यक्ति एक-दूसरे से जटिल आंतरिक बंधन एवं शाखाकृत बंधनों द्वारा जुड़े होते हैं।”

नातेदारी के प्रकार –

  • वैवाहिक नातेदारी-जब किसी पुरुष द्वारा किसी कन्या से विवाह किया जाता है तो उसका संबंध न केवल कन्या से होता है वरन् कन्या के परिवार के अनेक सदस्यों से भी स्थापित हो जाता है।
  • समरक्तीय नातेदारी-समरक्तीय नातेदारी का संबंध रक्त के आधार पर होता है। उदाहरण के लिए माता-पिता तथा बच्चों के बीच समरक्तीय संबंध होते हैं।

प्रश्न 34.
राजनीतिक संस्थाएँ किन्हें कहते हैं?
उत्तर:
प्रत्येक समाज में नियंत्रण – उन्मुख नियम तथा संगठन व इन नियमों से संबंधित संगठनात्मक शक्तियाँ पायी जाती हैं, इन्हें ही राजनीतिक संस्थाएँ कहा जाता है।

प्रश्न 35.
धर्म के संबंध में ई. बी. टायलर के सिद्धांत का संक्षेप में वर्णन कीजिए। अथवा, ‘आत्मवाद’ के सिद्धांत का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ई. बी. टायलर ने अपनी पुस्तक प्रिमिटिव कल्चर में धर्म की उत्पत्ति के विषय में आत्मवाद के सिद्धांत का वर्णन किया है। आत्मवाद के सिद्धांत के अनुसार धर्म की उत्पत्ति आत्मा की धारणा से हुई है। मृत्यु के तथ्यों तथा स्वप्नों की प्रघटना से आदिम लोगों के मन में विचार की उत्पत्ति हुई कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा का देहांतरण होता है। निद्रा के समय इन देहारित आत्माओं द्वारा शरीर का आत्माओं से अर्संबंध स्थापित होता है। वास्तव में, स्वप्न को इसी अन्तःक्रिया की अभिव्यक्ति कहा जाता है।

प्रश्न 36.
धर्म की उत्पत्ति के विषय में जे. जी. फ्रेजर के विचार बताइए।
उत्तर:
फ्रेजर ने अपनी पुस्तक गोल्डन बो में धर्म की उत्पत्ति के सिद्धांत का उल्लेख किया है। उसने धर्म की उत्पत्ति के बारे में एक नए सिद्धांत ‘जादू से धर्म की संक्रांति’ का प्रतिपादन किया है। फ्रेजर का विचार है कि जादू धर्म से पहले का स्तर है। फ्रेजर के अनुसार, “जादू प्रकृति पर बलपूर्वक नियंत्रण का प्रयास है।”

जादू का संबंध कार्य तथा कारण से है। कार्य तथा कारण की असफलता के कारण ही धर्म की उत्पत्ति हुई है। आदिम लोगों के द्वारा शुरू में जादू के माध्यम से शक्तियों को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया, लेकिन नियंत्रण में असफल हो जाने के बाद उन्हें किसी अलौकिक शक्ति की सत्ता का अहसास हुआ।

फ्रेजर मानव विचारधारा के विकास की निम्नलिखित अवस्थाएँ बताते हैं –

  • जादुई अवस्था
  • धार्मिक अवस्था तथा
  • वैज्ञानिक अवस्था

प्रश्न 37.
धर्म की उत्पत्ति के विषय में मैक्समूलर के सिद्धांत को संक्षेप में लिखिए। अथवा, धर्म की उत्पत्ति के विषय में प्रकृतिवाद के सिद्धांत को लिखिए।
उत्तर:
धर्म की उत्पत्ति के विषय में मैक्समूलर के सिद्धांत को प्रकृतिवाद के नाम से जाना जाता है। मैक्समूलर के सिद्धांत का आधार आदिम मानव की बौद्धिक भूल है। मैक्समूलर का मत है कि आदिम मानव को प्रथम चरण में प्रकृति अत्यधिक भयपूर्ण तथा विस्मयकारी प्रतीत हुई । मूलर का मत है कि प्रकृति भय तथा विस्मय का एक विस्तृत क्षेत्र था। इसी ने प्रारम्भ से ही धार्मिक विचारों तथा भाषा के लिए मनोवेग प्रदान किया। इसी अनंत संवेदना से धर्म की उत्पत्ति हुई।

प्रश्न 38.
धर्म की उत्पत्ति के विषय में दुर्खाइम के सिद्धांत का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खाइम ने अपनी पुस्तक में धर्म के पूर्ववर्ती सिद्धांतों को निरस्त करके धर्म की समाजशास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत की। दुर्खाइम के अनुसार सभी समाजों में पवित्र तथा साधारण वस्तुओं में अंतर किया जाता है। प्रत्येक समाज में पवित्र वस्तुओं को श्रेष्ठ समझा जाता है तथा उन्हें संरक्षित किया जाता है जबकि साधारण वस्तुओं को निषिद्ध किया जाता है।

दुर्खाइम के अनुसार धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं से होता है तथा धर्म के समाजशास्त्र में साहिकता पर जो दिया जाता है। दुर्खाइम के सिद्धांत में धर्म उपयोगिता को प्रकार्यात्मक ढंग से स्पष्ट किया गया है। दुर्खाइम के अनुसार टोटमवाद धर्म का आदिम स्वरूप था।

प्रश्न 39.
विवेकपूर्ण वैधानिक समाजों में सत्ता का स्वरूप बताइए। अथवा, विवेकपूर्ण वैधानिक सत्ता के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:

  • आधुनिक औद्योगिक समाजों में सत्ता का स्वरूप वैधानिक तथा तार्किक होता है।
  • वैधानिक तथा तार्किक सत्ता औपचारिक होती है तथा इसके विशेषाधिकार सीमित तथा कानून द्वारा सुपरिभाषित होते हैं।
  • वैधानिक-तार्किक सत्ता का समावेश व्यक्ति विशेष में निहित न होकर उसके पद तथा प्रस्थिति में निहित होता है।
  • वैधानिक-तार्किक सत्ता की प्रकृति अवैयक्तिक तथा तार्किक होती है।
  • आधुनिक औद्योगिक समाज में नौकरशाही को वैधानिक तार्किक सत्ता का उपयुक्त उदाहरण समझा जाता है।

प्रश्न 40.
राज्य की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
राज्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संस्था है। मैक्स वैबर के अनुसार, “राज्य एक ऐसा संघ है जिसके पास हिंसा के वैध प्रयोग का एकाधिकार होता है तथा जिसे अन्य किसी प्रकार से परिभाषित नहीं किया जा सकता है।” आगबर्न के अनुसार, “राज्य एक ऐसा संगठन है जो निश्चित भू-प्रदेश पर सर्वोच्च सरकार द्वारा शासन करता है।”

प्रश्न 41.
राज्य के प्रमुख तत्त्व बताइए।
उत्तर:
राज्य के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं –
जनसंख्या – जनसंख्या के अभाव में राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। शासन-व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए जनसंख्या एक आवश्यक तत्त्व है।

निश्चित भू – प्रदेश-राज्य के लिए सुपरिभाषित भू-प्रदेश होना अनिवार्य है। इलियट के अनुसार, “अपनी सीमाओं में सब व्यक्तियों के ऊपर सर्वोच्चता अथवा प्रदेशीय प्रभुसत्ता तथा बाह्य नियंत्रण से पूर्ण स्वतंत्रता आधुनिक राज्य जीवन का मूल नियम है।”

संप्रभुता-संप्रभुता का तात्पर्य है कि सरकार के पास एक निश्चित भू-प्रदेश में रहने वाले व्यक्तियों पर पूर्ण नियंत्रण रखने की सर्वोच्च शक्ति होती है। लॉस्की के अनुसार, “संप्रभुता का तत्व ही राज्य को अन्य संघों से पृथक कर देता है।”

सरकार-राज्य के कार्यों के संचालन तथा नियंत्रण हेतु सरकार का होना अपरिहार्य है। सरकार के अभाव में राज्य की कल्पना निरर्थक है। सरकार का स्वरूप अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न हो सकता है।

प्रश्न 42.
धर्म की परिभाषा लिखें। धर्म की आधारभूत विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
टायलर के अनुसार, “धर्म एक अलौकिक सत्ता में विश्वास है।” दुर्खाइम के अनुसार, “धर्म विश्वासों की एकबद्धता है तथा इसमें पवित्र वस्तुओं से संबंधित क्रियाएँ होती हैं।”

धर्म की आधारभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • धर्म अलौकिक शक्तियों में विश्वास है।
  • धर्म अंततः समस्याओं के बारे में विचार प्रकट करता है तथा यह मोक्ष की विधि है।
  • प्रत्येक धर्म में कुछ विशिष्ट अनुष्ठान पाए जाते हैं।
  • प्रत्येक धर्म में स्वर्ग-नरक तथा पवित्र-अपवित्र की धारणा विद्यमान होती है।

प्रश्न 43.
शिक्षा के मूल उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
शिक्षा के मूल उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  • शिक्षा व्यक्ति का समाज से एकीकरण करती है।
  • शिक्षा समूह में परिवर्तन की सकारात्मक प्रक्रिया है।
  • शिक्षा पर्यावरण से समायोजन की प्रक्रिया है।
  • शिक्षा व्यक्तियों के कौशल में वृद्धि करती है।

प्रश्न 44.
शिक्षा की पद्धतियों के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
शिक्षा की दो प्रमुख पद्धतियाँ निम्नलिखित हैं :
(i) अनौपचारिक शिक्षा – अनौपचारिक शिक्षा एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। अनौपचारिक शिक्षा में पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम, उद्देश्य तथा पद्धति आदि नहीं होते हैं । अनौपचारिक शिक्षा की प्रक्रिया अचेतन रूप से चलती रहती है। परिवार, मित्रमण्डली, पड़ोस सामाजिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियाँ अनौपचारिक शिक्षा के प्रमुख अभिकरण हैं।

(ii) औपचारिक शिक्षा-औपचारिक शिक्षा में पूर्व निर्धारित उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, पद्धतियों के माध्यम से शिक्षा दी जाती है । औपचारिक शिक्षा चेतन रूप से चलती है। इसके द्वारा अनौपचारिक शिक्षा की कमियों को पूरा किया जाता है। विद्यालय, पुस्तकालय, विचार गोष्ठी तथा संग्रहालय आदि. इसके साधन हैं।

प्रश्न 45.
औपचारिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
औपचारिक शिक्षा की निम्नलिखित विशषताएँ हैं –

  • औपचारिक शिक्षा का स्वरूप संस्थागत होता है।
  • औपचारिक शिक्षा पूर्व निर्धारित उद्देश्यों, पाठ्यक्रम तथा मान्यताप्राप्त विद्यालयों के द्वारा दी जाती है।
  • औपचारिक शिक्षा प्रशिक्षित अध्यापकों के द्वारा दी जाती है।
  • औपचारिक शिक्षा में पाठ्यक्रम को पूरा करने के लिए एक निश्चित अवधि होती है। पाठ्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् विद्यार्थी को परीक्षा
  • में उत्तीर्ण होना पड़ता है। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद विद्यार्थी को प्रमाण-पत्र दिया जाता है।

प्रश्न 46.
आधुनिक शिक्षा के प्रमुख प्रकार्यों को बताइए।
उत्तर:
आधुनिक शिक्षा के प्रमुख प्रकार्य निम्नलिखित हैं –

  • सामाजिकरण
  • ज्ञान तथा सूचना का संप्रेषण
  • व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास
  • मानवीय संसाधनों का समुचित तथा संतुलित विकास
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा नवीन मूल्यों का विकास।

प्रश्न 47.
पूर्व-औद्योगिक समाजों में शिक्षा की विषय-वस्तु क्या थी?
उत्तर:
पूर्व-औद्योगिक समाजों में शिक्षा की विषय-वस्तु सीमित थी। विद्यालयों की संख्या बहुत कम थी। शिक्षा की विषय-वस्तु में सम्मिलित किए जाने वाले मुख्य विषय थे-धर्म, दर्शन . अध्यात्म तथा नीतिशास्त्र आदि।

प्रश्न 48.
आधुनिक शिक्षा की विषय-वस्तु की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  • आधुनिक शिक्षा की विषय-वस्तु तर्कपूर्ण, क्रमिक तथा वैज्ञानिक है।
  • विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास हेतु सहगामी तथा पाठ्येत्तर क्रियाओं को प्राथमिकता दी जाती है। पाठ्यक्रम में समानता, स्वतंत्रता,
  • अंतराष्ट्रीय बंधुत्व तथा मानवाधिकार के विचारों को महत्त्व दिया जाता है। आधुनिक शिक्षा की विषय-वस्तु परिवर्तनोन्मुखी है।
  • शिक्षा के क्षेत्र में चिकित्सा, इंजीनियरिंग, प्रबंधन विज्ञान तथा सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में नए आयाम तथा अवधारणाएँ विकसित किए जा रहे हैं।

प्रश्न 49.
हिंदू धर्म की सामान्य विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
हिन्दू धर्म की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • हिन्दू धर्म विश्व के महान धर्मों में सर्वाधिक प्राचीन है। यह धर्म लगभग 6 हजार वर्ष प्राचीन है।
  • हिन्दू धर्म बहुदेववादी है अर्थात् इसमें अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है।
  • हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म के चक्र को माना जाता है।
  • जन्म तथा मृत्यु के चक्र को माना जाता है।

प्रश्न 50.
धार्मिक अनुष्ठान का अर्थ बताइए।
उत्तर:
डेविस के अनुसार, “धार्मिक अनुष्ठान धर्म का गतिशील पक्ष है।” धार्मिक अनुष्ठान को अधिप्राकृतिक तथा पवित्र वस्तुओं के संदर्भ में व्यक्तियों के व्यवहार से संबंधित माना जाता है। धार्मिक अनुष्ठान उपकरणात्मक क्रिया है जिसमें लक्ष्य प्रेरित होती है। धार्मिक अनुष्ठान किसी निश्चित लक्ष्य अथवा कामनाओं को प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं। धार्मिक व्यवहार में विशेष वस्त्र धारण करना उपवास करना, नृत्य तथा भिक्षा आदि को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 51.
पंथ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पंथ का अर्थ-पंथ की उत्पत्ति आमतौर पर पुराने स्थापित धर्मों के विरुद्ध प्रतिवाद के रूप में होती है। पंथ द्वारा प्रचलित धार्मिक आस्थाओं, नियमों तथा विश्वासों से हटकर एक नई मानसिक स्थिति का विकास किया जाता है। पंथ की उत्पत्ति सामाजिक असंतोष में पायी। जाती है। पंथ की सदस्यता ऐच्छिक होती है। पंथ में परंपरागत धर्म के सिद्धांतों को अस्वीकार किया जाता है। पंथ में पंथ की शिक्षाओं का अनुकरण करने के लिए लोगों को प्रेरित किया जाता है।

हिंदू धर्म में अनेक पंथ पाए जाते हैं, जैसे-नाथ पंथ, कबीर पंथ, नानक पंथ, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन तथा राधा स्वामी आदि। ईसाई धर्म में भी पंथ पाए जाते हैं : जैसे मेथेडिस्ट तथा बैपटिस्ट।

प्रश्न 52.
धार्मिक संप्रदाय की परिभाषा कीजिए।
उत्तर:
धार्मिक संप्रदाय : धार्मिक संप्रदाय एक धार्मिक संगठन है। इनकी उत्पत्ति किसी नेता विशेष की विचारधारा. तथा चिंतन से होती है। ऐसी विशिष्ट विचारधरा वाले नेता का अनुसरण उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जिनकी विचारधारा समान होती है। एक धार्मिक संप्रदाय के लोग विशिष्ट देवी-देवताओं में विश्वास रखते हैं। एक व्यक्ति के द्वारा एक धार्मिक संप्रदाय का अनुसरण करने केथ-साथः किसी अन्य धर्म के सिद्धांतों में भी आस्था रखी जा सकती है. उदाहरण के लिए हमारे देश में बय गुरुदेव तथाः साई बाबा आदि धार्मिक संप्रदाय मणका कल्ट हैं।

प्रश्न 53.
शिक्षा की सीमान दीजिए।
उत्तर:
मा हिम के अनुसार, यस्क मोदी उस ऐसे व्यक्तियों पर डाला नाका जीवनपोत चलती रहती है.जया जॉन के प्रत्येक अनुभव से इसकी वृद्धि होती है।

प्रश्न 54.
शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख उपकरण है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का प्रमुख उपकरण है। शिक्षा के द्वारा व्यक्तियों में. तर्कपूर्ण, कैज्ञानिक तथा गतिशील दृष्टिकोण का विकास किया जाता है। शिक्षा द्वारा व्यक्तियों के रूढ़िवादी; अतार्किक तथा जड़ विचारों को परिमार्जन किया जाता है।

शिक्षा समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में आवश्यक परिवर्तन का प्रमुख उपकरण है। शिक्षा मनुष्यों में सामाजिक चेतना का संचार करती है। इस संदर्भ में स्त्री शिक्षा का काफी महत्त्व है। शिक्षा के द्वारा लाए गए परिवर्तन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन व्यक्तियों के अर्जित गुणों को महत्त्व प्रदान करना है। शिक्षा के द्वारा समाज में समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुत्व की भावना का विकास करके सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को एक नयी तथा व्यापक दिशा प्रदान की जाती है।

प्रश्न 55.
विकासशील देशों के संदर्भ में आधुनिक शिक्षा के सम्मुख चुनौतियाँ बताइए।
उत्तर:
विकासशील देशों के संदर्भ में आधुनिक शिक्षा के सम्मुख दो चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं – शिक्षा का लोकतंत्रीकरण करना-इसके अंतर्गत अशिक्षित लोगों को शिक्षित करके साक्षरता की दर में वृद्धि करने का प्रयास किया जाता है। लोगों के जीवन स्तर में सुधर करना ताकि वे शिक्षा की ओर स्वाभाविक रुचि दिखा सकें। स्त्री शिक्षा तथा प्रौढ़ शिक्षा के लिए विशेष प्रयास करना । सीमित साधनों का यथोचित तथा अधिकतम उपयोग करना।

प्रश्न 56.
शिक्षा के सांगठनिक ढाँचे अथवा संरचना के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
शिक्षा के निम्नलिखित तीन स्तर हैं तथा प्रत्येक स्तर का एक निश्चित सांगठनिक ढाँचा है -\
(i) प्रारंभिक स्तर-इसके निम्नलिखित दो स्तर होते हैं –

  • प्राथमिक स्तर-कक्षा 1 से 5 तक।
  • उच्च प्राथमिक स्तर-कक्षा 6 से 8 तक।

(ii) माध्यमिक स्तर –

  • माध्यमिक स्तर-कक्षा 9 से 10 तक।
  • उच्चतर माध्यमिक स्तर-कक्षा 11 से 12 तक।

(iii) विश्वविद्यालय स्तर-इसके अंतर्गत विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।

प्रश्न 57.
लोकतांत्रिक व्यवस्था में शिक्षा का महत्व बताइए।
उत्तर:
लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुख्य आदर्श हैं –

  • समानता
  • स्वतंत्रता
  • बंधुत्व

शिक्षा के माध्यम से व्यक्तियों में लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेश किया जाता है। शिक्षा व्यक्तियों को उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों के बारे में समुचित ज्ञान कराती है। शिक्षित व्यक्तियों में राजनीतिक चेतना का स्तर अपेक्षाकृत अधिक होता है। यही कारण है कि प्रत्येक लोकतांत्रिक सरकार द्वारा साक्षरता का प्रतिशत बढ़ाने के लिए शिक्षा के सार्वभौमीकरण का गंभीर प्रयास किया जाता है।

प्रश्न 58.
शिक्षा के प्रकार्यवादी दृष्टिकोण के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र के प्रकार्यवादी दृष्टिकोण के अंतर्गत समाज पर शिक्षा के सकारात्मक प्रभाव को स्वीकार किया जाता है। समाजवादी दुर्खाइम के अनुसार, “समाज उसी स्थिति में जीवित रह सकता है जब समाज के सदस्यों में पर्याप्त अंशों में समरूपंता हो। शिक्षा के द्वारा उस समरूपता को स्थायी बनाया जाता है तथा संवर्धित किया जाता है।

समाज में व्यक्ति निश्चित नियमों के अनुसार अंतःक्रिया करते हैं। टालकॉट पारसंस के अनुसार विद्यालय के द्वारा नवयुवकों का समाज के मूलभूत मूल्यों के साथ समाजीकरण किया जाता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डेविस तथा मूर ने भी समाज में शिक्षा की प्रकार्यवादी भूमिका को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है।

प्रश्न 59.
शिक्षा के मार्क्सवादी दृष्टिकोण के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार शिक्षा व्यवस्था के मूल्यों तथा सिद्धांतों का निर्धारण समाज की वर्ग स्थापना के द्वारा किया जाता है। समाज में अभिजात वर्ग शिक्षा व्यवस्था के सिद्धांतों तथा स्वरूपों पर अपना प्राधिकार रखता है।

मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अनुसार अभिजात वर्ग द्वारा शिक्षा के सिद्धांतों तथा संरचना का निर्धारण अपने हितों की सुरक्षा के लिए किया जाता है। शिक्षा के अंतर्गत केवल उन्हीं कौशलों का विकास किया जाता है जो अभिजात वर्ग के हितों की पूर्ति करते हों।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
विजातीय विवाह से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
विजातीय विवाह का अर्थ-विजातीय विवाह के अन्तर्गत एक व्यक्ति को अपने समूह के बाहर विवाह करना पड़ता है। यद्यपि हिंदू समाज में जाति के अंदर विवाह करने का प्रावधान है, तथापि अपने गोत्र, प्रवर तथा सपिंड में विवाह करने का निषेध है। प्रत्येक समाज में सदस्यों पर कुछ विशेष व्यक्तियों से वैवाहिक संबंध स्थापित करने पर प्रतिबंध लगाया जाता है। निकट के नातेदारों के बीच वैवाहिक संबंध है।

के. डेविस के अनुसार परिवारिक व्यभिचार वर्जन इसलिए मौजूद है, क्योंकि वे अनिवार्य हैं तथा परिवारिक संरचना का एक भाग है। जॉर्ज मूरडॉक के अनुसार, “लैंगिक प्रतियोगिता तथा ईर्ष्या से बढ़कर संघर्ष का कोई अन्य रूप अधिक घातक नहीं है। माता-पिता तथा बच्चों के मध्य सहोदरों के बीच यौन ईर्ष्या का अभाव परिवार को एक सहकारी सामाजिक समूह के रूप में मजबूत करता है, इसकी समाज संबंधी सेवाओं की कुशलता में वृद्धि करता है तथा समाज को पूर्ण रूप से शक्तिशाली बनाता है।

इस प्रकार, विजातीय विवाह के अंतर्गत एक जाति के सदस्यों से यह आशा की जाती है कि वे अपनी ही जाति के अंतर्गत विवाह करें, लेकिन साथ-साथ अपने निकट रक्त संबंधियों, परिवार के सदस्यों, अपने गोत्र, पिंड तथा प्रवर के मध्य विवाह न करें।

विजातीय विवाह के स्वरूप-भारत में बहिर्विवाह के निम्नलिखित रूप पाए जाते हैं
(i) गोत्र विजातीय विवाह-गोत्र का संबंध प्रायः परिवार के किसी आदिकालीन पुरुष से होता है। जिन व्यक्तियों का आदि पुरुष एक होता है, भाई-बहन समझा जाता है। दूसरे शब्दों : में हम कह सकते है कि एक गोत्र के व्यक्तियों का खून समान होता है। अतः एक ही गोत्र के व्यक्तियों में विवाह निषेध समझा जाता है।

(ii) प्रवर विजातीय विवाह-प्रवर शब्द का तात्पर्य आह्वान करना है। यज्ञ के समय – पुरोहितों द्वारा चुने गए ऋषियों के नाम ही प्रवर हैं। चूँकि यजमान द्वारा पुरोहितों को यश के लिए
आमंत्रित किया जाता है, अतः यजमान तथा पुरोहितों के प्रवर एक समझे जाने के कारण उनके बीच वैवाहिक संबंध नहीं हो सकते थे।

(iii) पिंड विजातीय विवाह-हिंदू धर्म के अनुसार पिंड का तात्पर्य है सामान्य पूर्वज । जो व्यक्ति एक ही पियर को पिंड अथवा श्राद्ध अर्पित करते हैं, उन्हें परस्पर सपिंड कहा जाता है। वशिष्ट तथा गौतम के अनुसार पिता की सात पीढ़ियों तथा माता की पांच पीढ़ियों में विवाह निषेध। हिन्दू विवाह अधिनियम में पीढ़ियों के क्रमशः पाँच तथा तीन कर दिया गया है।

विजातीय विवाह के लाभ –

  • विजातीय विवाह प्राणिशास्त्रीय दृष्टिकोण से उचित है। इससे संतान बलवान तथा बुद्धिमान पैदा होती है।
  • समनर तथा कैलर ने विजातीय विवाह को प्रगतिवादी कहा है।
  • विजातीय विवाह के विभिन्न संस्कृतियों का संपर्क होता है।
  • विजातीय विवाह से हानियाँ –
  • विवाह का क्षेत्र अत्यधिक सीमित हो जाता है।
  • बाल विवाह तथा दहेज प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों को बढ़ावा मिलता है।

प्रश्न 2.
विजातीय विवाह क्यों प्रचलित है?
उत्तर:
विजातीय विवाह के अंतर्गत एक जाति के सदस्यों से यह आशा की जाती है कि वे अपनी ही जाति के अंतर्गत विवाह करें, लेकिन इनके साथ-साथ अपने निकट रक्त संबंधियों, परिवार के सदस्यों, अपने गोत्र, पिंड तथा प्रवर के मध्य विवाह न करें।

विजातीय विवाह के नियम प्रचलित होने के निम्नलिखित कारण हैं –

  • विजातीय विवाह प्राणिशास्त्रीय दृष्टिकोण से उचित माना गया है। इसके कारण संतान हृष्ट-पुष्ट होती है।
  • समनर तथा कैलर ने विजातीय विवाह को प्रगतिवादी माना है।
  • विजातीय विवाह में निकट के रक्त संबंधियों में वैवाहिक संबंधों में पर प्रतिबंध लगाया जाता है । के. डेविस के अनुसार, “पारिवारिक व्यभिचार वर्जन इसलिए मौजूद है, क्योंकि वे अनिवार्य हैं तथा पारिवारिक संरचना का एक भाग है।”
  • जॉर्ज मूरडॉक ने इस संबंध में उचित ही कहा है, “लैंगिक प्रतियोगिता तथा ईर्ष्या से बढ़कर संघर्ष का कोई अन्य रूप अधिक घातक नहीं है।
  • माता-पिता तथा बच्चों के मध्य तथा सहोदरों के बीच यौन इस प्रकार, विजातीय विवाह परिवार को एक संस्था के रूप में बनाए रखता है।
  • सभी समाजों में किसी-न-किसी रूप में विजातीय विवाह के नियमों का पालन किया जाता है।
  • हिंदू विवाह में सगोत्र, प्रवर तथा सपिंड विजातीय विवाह होते हैं।
  • विजातीय विवाह सामाजिक संबंधों में समरसता तथा स्थायीपन बनाए रखता है। इसके कारण नातेदारी संगठन में आने वाली भ्रामक स्थितियाँ समाप्त हो जाती हैं।
  • सुजन विज्ञान की दृष्टि से निकट के नातेदारों के बीच वैवाहिक संबंध होने से जो संतानें उत्पन्न होती हैं, वे सामान्यतः मंद बुद्धि वाली होती हैं।

प्रश्न 3.
विवाह के नियम तथा प्रतिमान समझाइए।
उत्तर:
विवाह के नियम तथा प्रतिमान निम्नलिखित हैं –
(i) अंत: या सजातीय विवाह के नियम-अंतः विवाह के नियम के अंतर्गत एक व्यक्ति आमतौर पर अपनी प्रजाति, जाति तथा धर्म के ही विवाह कर सकता है। फोलसम के शब्दों में, “अंतः विवाह वह नियम है जिसके अनुसार एक व्यक्ति को अपनी ही जाति यः समूह में विवाह करना पड़ेगा हालांकि, निकट के रक्त संबंधियों में विवाह की अनुमति। नहीं होती है।” भारत में जाति एक अंत:विवाही समूह है। इसका तात्पर्य है कि कोई भी पुरुष अथवा स्त्री अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता।

(ii) बहिर्विवाह या विजातीय विवाह के नियम –

  • बहिर्विवाह के नियम के अंतर्गत ऐसे विवाहों को रोका जाता है जिनमें आपस में रक्त का संबंध अथवा नजदीकी संबंध हो।
  • हिन्दू विवाह में सगोत्र तथा सपिंड विजातीय समूह होते हैं। गोत्र परिवारों का एक समूह हैं जो अपनी उत्पत्ति की समानता काल्पनिक पूर्वज से स्वीकारते हैं।

(iii) निकटाभिगमन निषेध –

  • निकटाभिगमन निषेध का तात्पर्य है कि प्राथमिक नातेदारों के बीच यौन-संबंधों पर प्रतिबंध।
  • निकटाभिगमन निषेध लगभग सभी समाजों में विजातीय विवाहों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नियम है।
  • विश्व के किसी समाज में माता-पुत्र, भाई-बहन, पिता-पुत्री के बीच संबंध नहीं पाए जाते हैं।

प्रश्न 4.
विवाह संबंधों तथा रक्त संबंधों में भेद कीजिए।
उत्तर:
विवाह संबंध तथा रक्त संबंध दोनों ही सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। दोनों ही प्रकार से संबंधों में निम्नलिखित भेद हैं –
(i) वैवाहिक संबंध-परिवार का प्रारंभ विपरीत लिंगियों के वैवाहिक संबंधों से प्रारम्भ होता है। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “परिवार वह समूह है जो लिंग संबंध पर आधारित है तथा काफी छोटा व इतना स्थायी है कि बच्चों की उत्पत्ति और पालन-पोषण करने योग्य है।” क्लेयर के अनुसार, “परिवार से हम संबंधों की वह व्यवस्था समझते हैं जो माता-पिता और उनकी संतानों के बीच पायी जाती है।”

जहाँ तक परिवार की संरचना का प्रश्न है परिवार में पति-पत्नी संतान के बिना भी हो सकते हैं, लेकिन परिवार संस्था के रूप में फिर भी रहता है। हालांकि, यह आंशिक परिवार कहलाएगा। इस प्रकार प्रत्येक परिवार के लिए एक जैविकीय समूह होना जरूरी नहीं है। कभी-कभी पति-पत्नी बच्चों को गोद लेते हैं। ये गोद लिए बच्चे भी परिवार के सदस्य होते हैं। इस प्रकार, परिवार में केवल दांपत्य संबंध ही पाए जा सकते हैं।

(ii) रक्त संबंध-परिवार के सदस्य एक-दूसरे से प्रजनन की प्रक्रिया के माध्यम से परस्पर संबद्ध होते हैं। इस प्रकार, जैविकीय अंतर्संबंध रक्त संबंध है जिन्हें सामाजिक दृष्टिकोण से नातेदारी कहा जाता है। अतः परिवार एक नातेदारी समूह कहलाता है। प्रत्येक नातेदारी व्यवस्था में रक्त संबंध तथा निकटता के संबंध पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, पिता तथा पुत्र के संबंध रक्त पर आधारित हैं। नातेदारी संबंधों द्वारा विवाह के नियमों का निर्धारण होता है। नातेदारी संबंधों में परिवर्तन होता रहता है, हालांकि, परिवर्तन की गति बहुत धीमी होती है।

प्रश्न 5.
औद्योगीकरण ने नातेदारी व्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित किया है?
उत्तर:
समाज लोगों में सामाजिक संबंधों का विकास परिवार, विवाह तथा समान वंश परंपरा के कारण होता है। वास्तव में संबंध तथा संबोधन ही नातेदारी के आधार हैं। उदाहरण के लिए पितामह, पिता, माता, भाई, बहन, चाचा ताऊ आदि संबोधन सामाजिक संबंधों की स्थापना करते हैं। रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, “नातेदारी प्रथा वह व्यवस्था है जो व्यक्तियों को व्यवस्थित सामाजिक जीवन में परस्पर संहयोग करने की प्रेरणा देती है।”

चार्ल्स विनिक के अनुसार, “नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आ जाते हैं जो कि अनुमानित तथा वास्तविक, वंशावली संबंधों पर आधारित हैं।”

औद्योगीकरण का नातेदारी व्यवस्था पर प्रभाव :

  • औद्योगीकरण की प्रक्रिया के कारण ग्रामीण जनता रोजगार की तलाश में नगरों की ओर पलायन करती है।
  • औद्योगीकरण के कारण प्राथमिक संबंध कमजोर हो जाते हैं तथा द्वितीयक संबंध महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं।
  • औद्योगीकरण के कारण आर्थिक संबंधों का विकास होता है जिससे सामाजिक संबंध के स्वरूप में परिवर्तन होने लगता है।
  • औद्योगीकरण के कारण नगरीकरण की प्रक्रिया में तेजी आती है। सामाजिक संबंधों तथा सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होने लगता है।
  • औद्योगीकरणं के कारण नए प्रकार के सामाजिक संबंध विकसित होने लगते हैं तथा नातेदारी व्यवस्था कमजोर हाने लगती है।
  • औद्योगीकरण के कारण सामाजिक अलगाव, मापदंडहीनता तथा व्यक्ति में केंद्रित जीवन पद्धति का विकास होने लगता है। इसके कारण संबंधों का महत्त्व बढ़ता चला जाता है।

अंततः हम कह सकते हैं कि औद्योगीकरण की प्रक्रिया के कारण नातेदारी संबंध दिन-प्रतिदिन कम महत्त्वपूर्ण होते जाते हैं। द्वितीयक तथा तृतीयक संबंधों को बढ़ता हुआ विस्तार प्राथमिक – संबंधों के दायरे को सीमित कर देता है।

प्रश्न 6.
नातेदारी के. प्रकार बत्ताइए।
उत्तर:
नातेदारी के प्रकार – नातेदारी को तकनिकी रूप से विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है । मोरंगन द्वारा नातेदारी शब्दावली को निम्नलिखित दो श्रेणियों में बाँटा गया है –

  • वर्गीकृत प्रणाली तथा
  • वर्णनात्मक प्रणाली।

1. वर्गीकृत प्रणाली – वर्गीकृत प्रणाली के अन्तर्गत विभिन्न संबंधियों को एक ही श्रेणी में शामिल किय जाता है। इनके लिए समान शब्द प्रयोग किए जाते हैं। उदाहरण के लिए अंकल शब्द एक वर्गीकृत शब्द है जिसका इस्तेमाल मंचा, जाऊ मांथा फूका, मौमा आदि रिश्तेदारों के लिए किया जाता है। अक्ल को प्रति कक्ति, वेश्यू गया सची कपकच मामलों की श्रेणी मो इंगित करता है। इस प्रणाली में एक शब्द दो व्यक्तियों के मध्य निश्चित सबंध का का करता है।

2. वर्णनात्मक प्रणाली – उदाहरण के लिए, माता तथा पिता वर्णनात्मक शब्द है. इसी प्रकार हिंदी भाषा के चाचा, मामा, मौसा, साऊ, साला, अंजा, नंदोई, भाभी, भतीजा सादि वर्णनात्मक शब्द है, जो एक ही मातेदार को निर्दिष्ट करते हैं। निष्कर्षः किसी एक नातेदारी शब्दावली अर्थात् वर्गीकृत प्रणाली या वर्णनात्मक प्रणाली का प्रयोग विशुद्ध रूप से नहीं किया जाता है। दोनों ही प्रणालियाँ मिले-जुले रूप में प्रचलित हैं।

प्रश्न 7.
सजातीय विवाह से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सजातीय विवाह के अंतर्गत एक व्यक्ति अपने समूह के अंदर ही विवाह कर सकता है। सजातीय विवाह में बाह्य के सदस्यों के साथ विवाह निषेध होता है। फोलसम के अनुसार, “सजातीय विवाह वह नियम है जिसके अनुसार एक व्यक्ति को अपनी ही जातीय समूह में विवाह करना पड़ेगा हालांकि निकट के रक्त संबंधियों से विवाह की अनुमति नहीं होती है।” वस्तुतः सजातीय विवाह तथा विजातीय विवाह सापेक्ष शब्द हैं। एक दृष्टिकोण से जो सजातीय विवाह है, वह दूसरे दृष्टिकोण से विजातीय विवाह है। हमारे देश में जाति एक सजातीय विवाह समूह है अर्थात् कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर के पुरुष अथवा स्त्री से विवाह नहीं कर सकता। जाति की तरह धार्मिक समुदाय भी सजातीय विवाह समूह होता है। इसका तात्पर्य है कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म वाले पुरुष या स्त्री से ही विवाह कर सकता है।

सजातीय विवाह के कारण –

  • समूह की सजातीयता को बनाए रखना
  • समूह के संख्याबल को बनाए रखना
  • समूह की रक्त शुद्धता को बनाए रखना
  • समूह में एकता की भावमा को बनाए रखना
  • धर्म की पृथकता के कारण।

सजातीय विवाह के प्रकार –

  • विभागीय अथवा जनजातीय सजातीय विवाह – इस प्रकार के सजातीय विवाह के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति अपनी जनजाति से बाहर विवाह नहीं कर सकता है।
  • जाति सजातीय विवाह – इस प्रकार के विवाह में व्यक्ति अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं कर सकता है।
  • उपजाति सजातीय विवाह – इस प्रकार के सजातीय में विवाह उप-जातियों तक सीमित है। डॉ. एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार, “जाति से मेरा तात्पर्य वेदों के अनुसार जातियों से नहीं है, वरन् उपजाति से है जो अंत:विवाह की वास्तविक इकाई है।”
  • प्रजाति सजातीय विवाह – सजातीय विवाह के इस प्रकार के अनुसार एक राष्ट्र के व्यक्ति ही परस्पर विवाह कर सकते हैं।

सजातीय विवाह के गुण –

  • समूह में एकता की भावना कायम रहती है
  • समूह के व्यावसायिक रहस्य कायम रहते हैं।

सजातीय विवाह के दोष –

  • राष्ट्रीय एकीकरण में बाधक
  • जीवन साथी के चुनाव ‘का क्षेत्र सीमित हो जाता है
  • आधुनिक युग में इस सिद्धांत की जरूरत नहीं है।

प्रश्न 8.
एकाकी परिवार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
(i) एकाकी परिवार का अर्थ-एकाकी परिवार व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें पति, पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे सम्मिलित होते हैं। एकाकी परिवार सबसे छोटी इकाई है। एकाकी परिवार में निम्नलिखित नातेदारी संबंध होते हैं-पति-पत्नी, पिता-पुत्र, पिता-पुत्री, माता-पुत्री, भाई-बहन, बहन-बहन तथा भाई-भाई।

(ii) पूरित एकाकी परिवार-पूरित एकाकी परिवार में एकाकी. परिवार के सदस्यों के अलावा पति की विधवा माता या विधुर पिता या उसके अविवाहित भाई तथा बहन सम्मिलित होते हैं।
प ए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू (उच्च माध्यमिक) समाजशास्त्र वर्ग-11969

(iii) एकाकी परिवार के उदय के कारण –

  • नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की सामाजिक व आर्थिक प्रवृत्तियों के कारण लोग नगरों में आकर बसने लगते हैं।
  • नगरों में स्थानाभाव के कारण संयुक्त परिवार साधारणतया एक साथ नहीं रह पाते हैं।
  • आधुनिक विचारों तथा सभ्यता के कारण एकाकी परिवार लगातार महत्त्वपूर्ण होते जा रहे हैं। डॉ. आर. के. मुकर्जी के अनुसार, “इस प्रकार संयुक्त परिवार एक महत्त्वपूर्ण विशेषता खो रहा है।” संयुक्त परिवार द्वारा सम्पादित किए जाने वाले अनेक कार्य अन्य
  • सामाजिक तथा आर्थिक संस्थाओं द्वारा किए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए बीमा, पेंशन, छोटे बच्चों की देखभाल के लिए केंद्र आदि।
  • जैसे-जैसे गाँवों में कृषि कार्यों का यंत्रीकरण हो रहा है तथा कृषि में लोगों की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम होती जा रही है, वैसे-वैसे गाँवों में भी एकाकी परिवार की प्रवृत्ति का उदय हो रहा है।

(iv) एकाकी परिवार के गुण –

  • परिवार के सदस्यों में पारस्परिक घनिष्ठता
  • परिवार के सदस्यों में आर्थिक समायोजन
  • परिवार में सदस्यों को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा
  • व्यक्तित्व के विकास में सहायक
  • स्त्री का सम्मानपूर्ण दर्जा
  • बच्चों की अच्छी देख-भाल

(v) एकाकी परिवार के दोष –

  • बच्चों का समुचित पालन-पोषण नहीं हो पाता
  • आपत्तियों का सामना करने में कठिनाई
  • सुरक्षा की भावना का अभाव
  • वृद्धावस्था में सुरक्षा का अभाव

प्रश्न 9.
कौन-सा देश वास्तविक रूप से लोकतंत्र नहीं है और क्यों?
उत्तर:
यद्यपि समकालीन विश्व में लोकतांत्रिक व्यवस्था एक प्रतिनिधि राजनीतिक व्यवस्था है तथापि विश्व के अनेक देशों में अभी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं पायी जाती है। विश्व के कुछ देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था क्यों नहीं पायी जाती है इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले लोकतंत्र का अर्थ समझ लेना आवश्यक है।

लोकतंत्र एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जिसमें आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विषमताओं को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है। लोकतांत्रिक सरकार बहुमत के सिद्धांत पर आधारित होती है। सरकार द्वारा निर्णय पारस्परिक सहनशीलता तथा सहमति के आधार पर लिए जाते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पसंख्यकों को भी अपनी पृथक् पहचान बनाए रखने की गारंटी दी जाती है।
देश जो कि वास्तविक रूप से लोकतांत्रिक नहीं हैं-विश्व में अनेक देश ऐसे हैं जो लोकतांत्रिक होने की बात तो कहते हैं, लेकिन उनकी शासन व्यवस्था सत्तावादी है, जैसे-पाकिस्तान, अमेरिका, रूस, ईरान आदि। इन देशों में जनता की इच्छाओं तथा भावनाओं का सम्मान नहीं किया जाता है।

सत्तावादी सरकारें जनहित के बजाए स्वहित में विश्वास करती हैं। जनता को राजनीतिक अधिकार भी प्रदान नहीं किए जाते हैं। लोकतंत्र के सार्वभौम आदर्शों, जैसे–स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व का सत्तावादी सरकारों में कोई स्थान नहीं है। – सत्तावादी सरकारें मानवाधिकारों की अवहेलना भी करती हैं। इन देशों में सरकार विरोधियों का दमन किया जाता है। उदाहरण के लिए म्यांमार (बर्मा) तथा सिंगापुर इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 10.
ज्ञात करें की व्यापक संदर्भ में आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन होने से परिवार में सदस्यता, आवासीय प्रतिमान और यहाँ तक कि पारस्परिक संपर्क का सरीका परिवर्तित होता है, उदाहरण के लिए प्रवास।
उत्तर:
हमारे दैनिक जीवन में प्रायः हम परिवार को अन्य क्षेत्रों जैसे आर्थिक या राजनीतिक से भिन्न और अलग देखते हैं। फिर भी हम देखगें कि परिवार, गृह, उसकी संरचना और मानक, शेष समाज से गहरे जुड़े हुए हैं। एक अच्छा उदाहरण जर्मन एकीकरण के अज्ञात परिणामों का है। सन् 1990 ई. के दशक में एकीकरण के बाद जर्मनी में विवाह प्रणाली में तेजी से गिरावट आई क्योंकि नए जर्मन राज्य ने एकीकरण से पूर्व परिवारों को प्राप्त संरक्षण और कल्याण की सभी योजनाएँ रद्द कर दी थीं।

आर्थिक असुरक्षा की बढ़ती भावना के कारण लोग विवाह से इंकार करने लगे। परिवार के निर्माण पर प्रश्न चिह्न लग गया। इसे अनजाने परिणाम के रूप में भी जाना जा सकता है। इस प्रकार बड़ी आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण परिवार और नातेदारी परिवर्तित और रूपांतरित होते रहते हैं लेकिन परिवर्तन की दिशा सभी देशों और क्षेत्रों में हमेशा एक समान नहीं हो सकती। हालांकि इस परिवर्तन का यह अर्थ नहीं है कि पिछले नियम और संरचना पूरी तरह नष्ट हो गए हैं, क्योंकि परिवर्तन और निरंतरता सहवर्ती होते हैं।

प्रश्न 11.
आधुनिक राज्य की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक राज्य केवल नियंत्रणकारी संस्था नहीं है। आधुनिक युग में राज्य के कार्यों तथा उत्तरदायित्वों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। कल्याणकारी राज्य की कल्पना ने राज्य के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि की है। संक्षेप में आधुनिक राज्य की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(i) राज्य सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों का मुख्य आधार-आधुनिक समय में राज्य सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तनों का मुख्य आधार है। राज्य के द्वारा उन समस्त परिस्थितियों का निर्माण करने का प्रयत्न किया जाता है, जिनसे व्यक्तियों को आर्थिक व सामाजिक न्याय प्राप्त हो सके।

(ii) कल्याणकारी राज्य-आधुनिक राज्य कल्याणकारी होते हैं। इसका तात्पर्य है कि राज्य व्यक्तियों के सर्वांगीण विकास हेतु निरंतर प्रयास करेगा। कल्याणकारी राज्य जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्तियों के कल्याण की बात करता है।

(iii) नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करना-आधुनिक राज्य द्वारा नागरिकों के समुचित तथा सर्वागीण विकास हेतु मौलिक अधिकार प्रदान किए जाते हैं। हमारे देश में नागरिकों को छः मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं।

(iv) नियंत्रण तथा संतुलन का सिद्धांत-आधुनिक राज्य में कार्यपालिका को न्यायपालिका से पृथक् रखा जाता है। इसके अलावा सरकार के तीनों अंगों (कार्यपालिका, व्यवस्थापिका तथा न्यायपालिका) के संदर्भ में नियंत्रण तथा संतुलन का सिद्धांत अपनाया जाता है। सरकार के तीनों अंगों को एक-दूसरे के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता आधुनिक
राज्य की विशिष्ट विशेषता है।

प्रश्न 12.
शक्ति और राज्य पर संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
शक्ति-व्यक्ति द्वारा सामाजिक जीवन में कुछ कार्य स्वेच्छा से किए जाते हैं तथा कुछ कार्यों को करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। शक्ति वस्तुतः सत्ता अनुभवात्मक पहलू है। शक्ति की अवधारणा में भौतिक तथा दबावात्मक पहलू पाए जाते हैं। वैधानिक शक्ति राजनीतिक संस्थाओं का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है। रास्य-जैसा कि एन्डर्सन तथा पार्कर ने कहा है कि “राज्य समाज में वह निकाय है जिसे किसी भू-प्रदेश की सीमा में दमनात्मक नियंत्रण के प्रयोग का अधिकार प्राप्त है।”

राज्य वास्तव में शक्ति का वैधानिक प्रयोग करने का अधिकार रखता है। समाजशास्त्र के शब्दकोष में फेयरचाइल्ड ने “राज्य को ऐसा निकाय, समाज का स्वरूप अथवा उसकी संस्था बतलाया है जिसे बल प्रयोग करने तथा दमनात्मक नियंत्रण प्रयुक्त करने का अधिकार है।” उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि शक्ति तथा राज्य एक दूसरे से संबंधित हैं। राज्य ही वैधानिक रूप से शक्ति के प्रयोग का अधिकारी है। राज्य व्यक्ति तथा समाज के हितों की सुरक्षा हेतु शक्ति का प्रयोग करता है।

प्रश्न 13.
आधुनिक शिक्षा की मुख्य विशेषताओं का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक शिक्षा का मूल उद्देश्य बच्चे का सर्वांगीण विकास करना है। श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण के इस युग में शिक्षा व्यक्तियों के कौशल में वृद्धि करती है तथा उन्हें समाज का उपयोगी सदस्य बनाती है। जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, “शिक्षा से एक एकीकृत मनुष्य का विकास करने की आशा की जाती है तथा इसके द्वारा समाज में उपयोगी कार्य करने के लिए नवयुवक तैयार किए जाते हैं जिससे वे सामूहिक जीवन में भागीदारी कर सकें।”

(i) आधुनिक शिक्षा के मुख्य उद्देश्य – आधुनिक शिक्षा की मुख्य विशेषताओं के विश्लेषण हेतु शिक्षा के उद्देश्यों तथा प्रकार्यों का अध्ययन आवश्यक है।

(a) सुकरात, अरस्तू तथा बेकन आदि दार्शनिकों के अनुसार शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ज्ञान प्रदान करना है। अपने व्यापक अर्थ में ज्ञान का तात्पर्य है मानसिक विकास ज्ञान के समुचित विकास से व्यक्ति उचित तथा अनुचित में अंतर कर सकता है।

(b) शिक्षा द्वारा व्यक्तियों का सांस्कृतिक विकास किया जाता है। संस्कृति द्वारा बालक की जन्मजात प्रवृत्तियों का परिमार्जन किया जाता है । संस्कृति द्वारा ही व्यक्ति पर्यावरण से समायोजन सीखता है।

(c) शिक्षा द्वारा चरित्र निर्माण किया जाता है। जॉन डीवी के अनुसार, “विद्यालयी शिक्षा तथा अनुशासन का एक व्यापक उद्देश्य नागरिकों में लोकतंत्रात्मक आदर्शों तथा मूल्यों का विकास करना है, जिससे वे आदर्श नागरिक बन सकें।

(ii) आधुनिक समाज में शिक्षा के प्रकार्य-आधुनिक समाज में शिक्षा के मुख्य प्रकार्य निम्नलिखित हैं –

  • संतुलित सामाजिकरण
  • श्रम एवं सूचना का प्रसारण
  • व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास तथा चरित्र निर्मा
  • मानव संसाधनों का समुचित विकास
  • प्रभावशाली सामाजिक नियंत्रण
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा मूल्यों का विकास
  • सांस्कृतिक आधार पर निर्माण

आधुनिक शिक्षा ज्ञान के नए आयामों तथा अवधारणाओं का अवलंबन करती हुई विशेषीकरण की ओर निरंतर अग्रसर हो रही है।

प्रश्न 14.
धर्म पर दुर्खाइम की समाजशास्त्रीय दृष्टि की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खाइम ने धर्म की उत्पत्ति के सभी पूर्ववर्ती सिद्धांतों को निरस्त करके धर्म की समाजशास्त्रीय व्याख्या निम्नलिखित तरीके से प्रस्तुत की
(i) दुर्खाइम का मत है कि धर्म के पूर्ववर्ती सिद्धांतों ने आदिम मनुष्य को दार्शनिक बना दिया जबकि, आदिम मानव के विचार तथा सामाजिक जीवन अत्यंत सरल थे।

(ii) दुर्खाइम का मत है कि धर्म के सभी पूर्ववर्ती सिद्धांतों में मनोवैज्ञानिक पहलू पर अधिक जोर दिया गया जबकि धर्म की भावना पूर्णरूपेण सामाजिक है।

(iii) दुर्खाइम के अनुसार सभी समाजों में पवित्र तथा साधारण वस्तुओं में अंतर किया जाता है। पवित्र वस्तुएँ विशेष तथा श्रेष्ठ समझी जाती हैं तथा उन्हें संरक्षित व पृथक् रखा जाता है जबकि साधारण वस्तुएँ निषिद्ध समझी जाती हैं तथा उन्हें पवित्र वस्तुओं से दूर रखा जाता है।

(iv) दुर्खाइम टोटमवाद को धर्म का अत्यंत आदित स्वरूप मानते हैं। दुर्खाइम का मत है कि टोटम की उत्पत्ति समूह से हुई है। दुर्खाइम पवित्र तथा अपवित्र, देवी-देवता, स्वर्ग-नरक तथा । टोटम को समूह का सामूहिक प्रतिनिधान मानते हैं। समूह जीवन से संबंधित होने के कारण टोटम को पवित्र समझा जाता है। व्यक्तियों द्वारा टोटम का सम्मान इसलिए किया जाता है क्योंकि वे सामाजिक मूल्यों का सम्मान करते हैं।

इस प्रकार, टोटम के द्वारा सामूहिक चेतना का सम्मान किया जाता है। व्यक्तियों की धर्म में निष्ठा सामूहिक एकता को अधिक मजबूत करती है। समारोह तथा अनुष्ठान लोगों को समुदाय में बंधने का काम करते हैं। दुर्खाइम ने धर्म के समाजशास्त्र में सामूहिकता पर अधिक जोर दिया है। धार्मिक अनुष्ठान तथा उत्सव व्यक्तियों के बीच सामाजिकता की भावना उत्पन्न करते हैं।

(v) अनेक समाजशास्त्रियों द्वारा दुर्खाइम के धर्म के सिद्धांत की आलोचना इसमें अंतर्निहित दार्शनिकता के आधार पर की गई है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैलिनॉस्की तथा रेडक्लिफ ब्राउन ने कहा है कि धर्म सामाजिक समरसता बनाए रखता है तथा व्यक्तियों के व्यवहार को नियंत्रित करता है।

प्रश्न 15.
धर्म की सामाजिक भूमिका के विषय में अपने विचार व्यक्त कीजिए।
अथवा
“संगठित धर्म का समाज तथा व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है।” इस कथन पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर:
धर्म की सामाजिक भूमिका का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान-संगठित धर्म का व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। धर्म के द्वारा व्यक्ति की आध्यात्मिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है। धर्म के द्वारा वैचारिक स्तर पर सृजन-विनाश, जन्म तथा मृत्यु, सामाजिक तथा वैयक्तिक आदर्शों, लौकिक एवं पारलौकिक उद्देश्यों को व्यापक दर्शन प्रदान किया जाता है।

(ii) सामाजिकरण नियंत्रण का सशक्त साधन-प्रसिद्ध समाजशास्त्री पारसंस के अनुसार धर्म के मूल्य-प्रतिमान समाजीकरण तथा सामाजिक नियंत्रण में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं । धार्मिक मान्यताओं के आधार पर ही व्यक्ति वांछनीय तथा अवांछनीय क्रियाओं में अंतर करना सीखते हैं। दुर्खाइम के अनुसार सामाजिक उत्सवों, कर्मकांडों तथा संस्कारों के माध्यम से धर्म के द्वारा सामाजिक सुदृढ़ता को मजबूत बनाया जाता है।

(iii) सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना-संगठित धर्म के द्वारा सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने तथा सामाजिक नियंत्रण को सुदृढ़ करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। अपने व्यापक तथा व्यावहारिक संदभ्र में धर्म के द्वारा व्यक्ति और समूह के दृष्टिकोण को नियंत्रित किया जाता है। प्रथाएँ तथा परंपराएँ धर्म के नियंत्रणकारी साधन बन जाते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप ही सामाजिक व्यवस्था का विकास होता है।

(iv) नैतिकता को बढ़ाता है-धर्म के द्वारा समाज में नैतिक मूल्यों को बढ़ाया जाता है। नैतिकता के माध्यम से समूह के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सकारात्मक प्रेरणा मिलती है। धर्म नैतिकता को दिशा तथा निर्देशन प्रदान करता है।

प्रश्न 16.
सामाजिक संरचना किस तरह से आधुनिक शिक्षा की प्रकृति को प्रभावित करती है?
उत्तर:
सामाजिक संरचना निम्नलिखित तरीके से आधुनिक शिक्षा की प्रकृति को प्रभावित करती है –
(i) सामाजिक संरचना के द्वारा शिक्षा के स्वरूप तथा दिशा का निर्धारण किया जाता है। शिक्षा समाज की उप-व्यवस्था है। प्रत्येक समाज की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएँ, इतिहास, मूल्य तथा परंपराएँ होती हैं, इन सबका स्वरूप समाज की विरासत कहलाता है। प्रत्येक समाज अपनी विरासत को न केवल जीवित रखना चाहता है वरन् उसका हस्तांतरण अगली पीढ़ी को भी करना चाहता है।

सामाजिक संरचना का प्रभाव शिक्षा का अवश्य पड़ता है। उदाहरण के लिए, भारतीय संस्कृति के परंपरागत स्वरूप का प्रभाव आधुनिक शिक्षा पर साफ-साफ दिखाई देता है। आधुनिक शिक्षा द्वारा विद्यालयों में छात्रों को भारत के इतिहास तथा संस्कृति के ज्ञान के साथ-साथ आधुनिक विषयों जैसे-विज्ञान, पर्यावरण, तकनीकी ज्ञान तथा लोकतांत्रिक मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है।

(ii) सामाजिक संरचना की आर्थिक आवश्यकताएँ के अनुसार शिक्षा प्रणाली का विकास होता है। प्राचीन तथा मध्यकाल में समाज में धर्म का प्रभाव अत्यधिक था अतः शिक्षा भी धार्मिक आवश्यकताओं के अनुरूप थी। आधुनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था ने सामाजिक संरचना में मूलभूत परिवर्तन कर दिए अतः शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण भी इस प्रकार किया गया है कि वह आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था की उत्पादन पद्धति तथा आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके।

(iii) किसी देश में पायी जाने वाली राजनीतिक व्यवस्था शिक्षा की प्रकृति को निर्धारित करती है। समाज की प्रभावशाली राजनीतिक विचारधारा का प्रभाव शिक्षा के उद्देश्यों तथा मूल्यों पर साफ-साफ दिखाई देता है। उदाहरण के लिए एक लोकतांत्रिक समाज में शिक्षा का मौलिक’ उद्देश्य निम्नलिखित तत्त्वों से निर्धारित होता है

  • समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुत्व
  • पंथ-निरपेक्षता
  • आदर्श नागरिकों का निर्माण
  • राष्ट्रीय एकीकरण की भावना का विकास

लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत लोकतांत्रिक मूल्यों तथा उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षा का सार्वभौमीकरण किया जाता है। शिक्षा के प्रसार से आर्थिक तथा सामाजिक असमानता भी उत्तरोत्तर कम होती चली जाती है।

(iv) सामाजिक संरचना के अनुरूप ही पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाता है। लोकतांत्रिक, साम्यवादी तथा तानाशाही राजनीतिक व्यवस्थाओं में शिक्षा के मूल उद्देश्य तथा मूल्य पृथक-पृथक हो सकते हैं। उदाहरण के लिए लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में समानता, स्वतंत्रता तथा पंथ-निरपेक्षता शिक्षा के मूल उद्देश्य वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज की स्थापना है।

(v) कोई भी शिक्षा व्यवस्था सामाजिक संरचना की प्रकृति के प्रतिकूल नहीं जा सकती है। शिक्षा के माध्यम से छात्रों को सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय परंपराओं से परिचित कराया जाता है। सरकार द्वारा शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय लक्ष्यों की जानकारी दी जाती है तथा नागरिकों को इन लक्ष्यों के प्रति सचेत किया जाता है।

प्रश्न 17.
समाज में शिक्षा की भूमिका पर प्रकार्यवादी समाजशास्त्रियों के विचारों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
प्रकार्यवादी समाजवादी समाजशास्त्रियों द्वारा समाज पर शिक्षा के सकारात्मक प्रभाव को स्वीकार किया जाता है। एमिल दुर्खाइम के अनुसार, “समाज तब तक जीवित रह सकता है जब तक समाज के सदस्यों में पर्याप्त अंशों में समरूपता पाई जाती है। शिक्षा के द्वारा समरूपता को स्थायी बनाया जाता है तथा संवर्धित किया जाता है।”

दुर्खाइम का मत है कि जटिल औद्योगिक समाजों में शिक्षा के द्वारा उन महत्त्वपूर्ण कार्यों को किया जाता है जो परिवार या मित्र समूह नहीं कर सकते हैं। परिवार तथा मित्र समूह में व्यक्ति अपने संबंधियों अथवा मित्रों से पारस्परिक अंतःक्रिया करते हैं जबकि दूसरी तरफ, समाज में व्यक्ति को ऐसे लोगों से भी अंत:क्रिया करनी पड़ती है जो न उसका संबंधी होता है और न ही मित्र। विद्यालय में विद्यार्थी इस तरह के अपरिचितों से अंत:क्रिया करता है तथा सीखता एवं सहयोग करता है।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री टालकॉट पारसन्स के अनुसार विद्यालय के द्वारा नवयुवकों का समाज के मूलभूत नियमों का सम्मान करने की शिक्षा के साथ-साथ औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप होने वाली परिस्थितियों तथा दशाओं में आए परिवर्तनों से समायोजन करना भी सिखाया जाता है।

समाज में शिक्षा की प्रकार्यवादी भूमिका को किंग्सले डेविस तथा विल्वर्ट मूर द्वारा भी महत्त्व प्रदान किया गया है। इन दोनों समाजशास्त्रियों का मत है कि सामाजिक स्तरीकरण एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत समाज में व्यक्तियों के पदों का निर्धारण उनकी योग्यतानुसार किया जाता है। शिक्षा व्यवस्था समाज में व्यक्तियों के पदों का उनकी योग्यतानुसार निर्धारण करती है ताकि योग्य व्यक्ति महत्त्वपूर्ण पद पा सकें।

प्रश्न 18.
उदाहरणों सहित अनौपचारिक तथा औपचारिक शिक्षा के अंतर को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
(i) अनौपचारिक शिक्षा का अर् थ- अनौपचारिक शिक्षा के अंतर्गत बालक परिवार, पड़ोस तथा मित्रमंडली में भाषा, परंपरा, प्रथा, लोकगीत तथा संगीत आदि के माध्यम से सीखता है। – अनौपचारिक शिक्षा संस्थागत नहीं होती है। परिवार में ही वर्णमाला, गणित, लेखन, पठनपाठन का संप्रेषण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक होता रहता है। अनौपचारिक शिक्षा अनवरत जीवनपर्यंत चलती रहती है।

(ii) औपचारिक शिक्षा का अर्थ – औपचारिक शिक्षा के अंतर्गत बालक को पूर्व नियोजित पाठ्यक्रम, उद्देश्यों तथा शिक्षा पद्धतियों के द्वारा विद्यालय में अध्यापकों द्वारा प्रदान किया जाता है। औपचारिक शिक्षा में पाठ्यक्रम को पूर्ण करने की निश्चित अवधि होती है। निश्चित अवधि में पाठ्यक्रम की समाप्ति के पश्चात् विद्यार्थियों को परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती है। परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् विद्यार्थियों को परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती है। परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात्। विद्यार्थियों को प्रमाण-पत्र दिया जाता है।

प्रश्न 19.
भारत में संयुक्त परिवार की प्रणाली को बनाए रखने वाले मूल कारकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली को बनाए रखने के लिए निम्नलिखित मूल कारक उत्तरदायी हैं –
(i) अर्थव्यवस्था का कृषि पर आधारित होना – भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था संयुक्त परिवार प्रणाली को प्रमुख रूप से बनाए रखने में उत्तरदायी है। आज भी देश की लगभग 70 प्रतिशत जनता प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई हैं।

(ii) पितृपूजा की परंपरा – हिन्दू समुदाय में प्राचीन काल से ही पितृपूजा अथवा पूर्वजों की पूजा की परंपरा प्रचलित रही है। परिवार के सदस्य संयुक्त रूप से अपने पितरों की पूजा करते हैं।

(iii) धर्म – प्राचीन काल से ही धर्म भारतीय सामाजिक संगठन का मूल आधार रहा है। सामान्य देवी-देवताओं की अराधना तथा अनेक धार्मिक कार्यों को संयुक्त रूप से करने की परंपरा ने संयुक्त परिवार प्रणाली को सशक्त आधार प्रदान किया है।

राधा विनोद पाल के शब्दों में, “धार्मिक विधियों का प्रारंभिक रूप मृत व्यक्तियों की पूजा थी। वंशजों का यह कर्त्तव्य था कि वे उस पूजा को जारी रखें। इसलिए इससे पूर्णरूपेण न सही आंशिक रूप से परिवार के संरक्षण को सर्वत्र अत्यधिक महत्त्व मिला। परिवार के सदस्यों के पितरों के प्रति धर्मपालन के कुछ कर्त्तव्य होते थे। वे उन कर्तव्यों से पारिवारिक भूमि और यज्ञ-वेदी से जुड़े रहते थे। जैसे यज्ञ-वेदी भूमि से संयुक्त रहती थी, उसी प्रकार परिवार भूमि के साथ बंधा रहता था।”

प्रश्न 20.
शक्ति से आप क्या समझते हैं? शक्ति की प्रकृति को निर्धारित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक बताइए।
अथवा
शक्ति पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
शक्ति की परिभाषा – व्यक्ति सामाजिक जीवन में कुछ कार्यों को स्वेच्छा से करता है तथा कुछ कार्यों को करने के लिए बाध्य होता है। शक्ति की अवधारणा में भौतिक तथा दबावात्मक पहलू पाये जाते हैं। शक्ति, सत्ता का अनुभावात्मक तथा भौतिक पहलू होता है । शक्ति के कारण ही संपूर्ण समाज तथा उसके सदस्य सत्ता के निर्णयों को बाध्यता अथवा दबाव के कारण स्वीकार करते हैं।

शक्ति के कारक – शक्ति की प्रकृति को निर्धारित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं –

  • सामाजिक प्रस्थिति
  • सामाजिक प्रतिष्ठा
  • सामाजिक ख्याति
  • शारीरिक भौतिक शक्ति
  • शिक्षा, ज्ञान तथा योग्यता

प्रश्न 21.
परिवर्तन के उपकरण के रूप में शिक्षा की भूमिका क्या है? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का मुख्य उपकरण है। शैक्षिक मूल्य तथा संरचनाएँ सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में उत्प्रेरक का काम करती हैं। परिवर्तन के उपकरण के रूप में शिक्षा की भूमिका का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –

(i) सामाजिक तथा सांस्कृतिक संरचना में परिवर्तन – शिक्षा सामाजिक तथा सांस्कृतिक संरचनाओं में परिवर्तन का प्रमुख उपकरण है। आधुनिक शिक्षा के माध्यम से व्यक्तियों के कट्टर, रूढ़िवादी तथा अवैज्ञानिक विचारों को आधुनिक, तार्किक तथा गतिशील विचारों में परिवर्तित किया जा सकता है। वर्तमान समय में भारतीय समाज में परिवार तथा जाति-व्यवस्था में आने वाले परिवर्तनों का मुख्य कारण आधुनिक शिक्षा का प्रसार है।

(ii) सामाजिक चेतना में वृद्धि करना – आधुनिक शिक्षा सामाजिक चेतना में वृद्धि करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। व्यक्तियों को उनके अधिकारों तथा भूमिकाओं के विषय में जानकारी शिक्षा के माध्यम से दी जा रही है। शिक्षा के द्वारा स्त्री-पुरुष की समानता को मुख्य लक्ष्य बनाया गया है। इसके परिणामस्वरूप स्त्रियों को पुरुषों के समान राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था का तो आधार ही सामाजिक तथा आर्थिक समानता है। लिंग भेद समस्या को काफी हद तक कम किया गया है। आज शिक्षित महिलाएं राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण तथा गतिशील भूमिका निभा रही हैं।

(iii) सामाजिक परिवर्तन के नए आयाम – शिक्षा के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के नए आयाम विकसित किए जा रहे हैं। परंपरागत भारतीय समाज में व्यवसायों का निर्धारण भी जाति के आधार पर होता था। इस प्रकार, अंतर्जातीय संबंधों प्रकृति की असमानता तथा शोषणकारी होती थी।

आधुनिक शिक्षा ने समानता तथा स्वतंत्रता को वैचारिकी का मुख्य लक्ष्य बनाया। स्वतंत्र भारत के संविधान में भी समानता, स्वतंत्रता तथा धार्मिक स्वतंत्रता को मौलिक अधिकारों की सूची में सम्मिलित करके इस बात का स्पष्ट संकेत दिया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति को जाति, वंश, लिंग, धर्म तथा रंग आदि में भेदभाव के बिना राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक क्रियाओं में प्रगति के समान अवसर प्रदान किए जाएंगे।

(iv) शिक्षा का सार्वभौमीकरण – शिक्षा के सार्वभौमीकरण ने सामाजिक संरचना में आमूल-चूल परिवर्तन किए हैं। साक्षरता की बढ़ती हुई दर ने सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में चेतना के नए आयाम स्थापित किए हैं। स्त्रियों में साक्षरता की बढ़ती हुई दर ने सामाजिक संरचना को गतिशील बनाया है।

शिक्षा का मूल उद्देश्य समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुत्व के आधार एक शोषण रहित समाज की स्थापना करना है। तार्किक तथा वैज्ञानिक विचारों के प्रसार ने परंपरागत अवैज्ञानिक तथा अतार्किक शृंखलाओं को काफी हद तक कम कर दिया है। परिवर्तन के एक उपकरण के रूप में शिक्षा व्यक्तियों को उनकी अर्जित योग्यताओं के आधार पर सामाजिक स्तर प्रदान कराने में अनवरत रूप से प्रयासरत है।

प्रश्न 22.
सामाजिक संस्थाएँ परस्पर किस प्रकार व्यवहार करती हैं? विवेचना कीजिए। एक उच्च कक्षा के विद्यार्थी के रूप में स्वयं से प्रारम्भ करते हुए, दो विविध प्रकार की सामाजिक संस्थाओं का अध्ययन कीजिए। क्या वे आप पर नियंत्रण रखती हैं या आप इन संस्थाओं के नियंत्रण में रहते हैं?
उत्तर:
समाज में अनेक प्रकार की सामाजिक संस्थएँ हैं, जैसे-परिवार, विद्यालय, चर्च आदि ये सभी परस्पर मिलकर कार्य करती हैं। बालक सर्वप्रथम परिवार में शिक्षा ग्रहण करता है। तत्पश्चात् वह विद्यालय जाता है, जहाँ वह विधिवत् शिक्षा ग्रहण करता है। इस प्रकार परिवार व विद्यालय नामक संस्थाएँ आपस में व्यवहार करती हैं।

समाज में अनेक संस्थाएँ व्यक्ति पर नियंत्रण का भी काम करती हैं-जैसे कानून, कानून व्यक्ति की उद्देयता पर नियंत्रण करता है। हम संस्थाओं के नियंत्रण में स्वेच्छा से रहते हैं। क्योंकि सामाजिक बंधन इसके लिए प्रेरित करते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
आधुनिक औपचारिक शिक्षा पद्धति के संगठन और पाठ्यक्रम संबंधी विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक औपचारिक शिक्षा पद्धति के संगठन तथा पाठ्यक्रम संबंधी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(i) औपचारिक शिक्षा का अर्थ – औपचारिक शिक्षा के अंतर्गत पूर्व निर्धारित उद्देश्यों, पाठ्यक्रम तथा अध्यापन पद्धतियों के माध्यम से समयबद्ध कार्यक्रम के आधार पर विद्यालय में शिक्षक द्वारा ज्ञान प्राप्त कराया जाता है। नियमित तथा स्वीकृत विद्यालयों में निश्चित अवधि में पाठ्यक्रम की समाप्ति के बाद परीक्षा का आयोजन किया जाता है। परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने के बाद विद्यार्थियों को प्रमाण-पत्र दिया जाता है।

औपचारिक शिक्षा की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • संगठनिक संरचना
  • निश्चित तथा स्पष्ट पाठ्यक्रम
  • निश्चित नियम तथा व्यवस्थाएँ

(ii) संगठनिक संरचना-शिक्षा के निम्नलिखित तीन स्तर हैं –
(a) प्रारम्भिक स्तर – प्रारम्भिक शिक्ष के निम्नलिखित दो स्तर होते हैं –

  • प्राथमिक स्तरः कक्षा 1 से 5 तक।
  • उच्च प्राथमिक स्तर : कक्षा 6 से 8 तक।

हमारे देश में प्रारंभिक स्तर की शिक्षा को बालक साधारणतया 14 वर्ष तक की आयु तक प्राप्त कर लेते हैं। भारत सरकार द्वारा इस स्तर की शिक्षा को नि:शुल्क तथा अनिवार्य बना दिया गया है।

(ii) माध्यमिक स्तर – माध्यमिक शिक्षा के अंतर्गत कक्षा 9 तथा 10 की शिक्षा को सम्मिलित किया जाता है। कक्षा 11 तथा 12 की शिक्षा को उच्चतर माध्यमिक स्तर अथवा इंटरमीडिएट स्तर की शिक्षा में सम्मिलित किया जाता है।

(iii) विश्वविद्यालय स्तर – उच्चतर माध्यमिक स्तर अथवा इंटरमीडिएट स्तर की शिक्षा के पश्चात् विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा प्रारंभ होती है। इस स्तर पर विद्यार्थी उच्चस्तरीय तथा विशेषीकृत अध्ययन करते हैं।

(iv) निश्चित तथा स्पष्ट पाठ्यक्रम – औपचारिक शिक्षा के अंतर्गत शिक्षा के प्रत्येक स्तर अर्थात् प्रारंभिक स्तर, माध्यमिक स्तर तथा विश्वविद्यालय स्तर के लिए पृथक-पृथक पाठ्यक्रम विकसित किया जाता है।

माध्यमिक शिक्षा आयोग – (1952-53 ई.) ने अपने प्रतिवेदन में लिखा है कि “पाठ्यक्रम का तात्पर्य विद्यालय में पढ़ाए जाने वाले पारस्परिक विषयों से नहीं है, इसके अंतर्गत उन अनुभवों को पूर्णरूपेण सम्मिलित किया जाता है जिन्हें विद्यार्थी विद्यालय की अनेक गतिविधियों के माध्यम से प्राप्त करता है। ये गतिविधियाँ विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यशाला, खेल का मैदान और अध्यापकों तथा विद्यार्थियों के बीच अनौपचारिक संपर्क द्वारा चलती रहती है। इस प्रकार, विद्यालय का पूरा जीवन (गतिविधियाँ) ही पाठ्यक्रम बन जाता है जो कि विद्यार्थियों के जीवन को प्रत्येक बिंदु पर छू सकता है तथा एक संतुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता करता है।

मुनरो के अनुसार, “पाठ्यक्रम में वे समस्त गतिविधियाँ सम्मिलित होती हैं जिन्हें विद्यालय द्वारा शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उपयोग में लाया जाता है।” लैटिन भाषा में पाठ्यक्रम का तात्पर्य है ‘रेस कोर्स’ अथवा दौड़ का मैदान। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम रूपी मार्ग पर दौड़कर बच्चा शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करता है। पाठ्यक्रम संरचना के मुख्य आधार प्रारंभिक, माध्यमिक तथा विश्वविद्यालय स्तर पर श्रेणीबद्ध क्रम के अंतर्गत बदलते रहते हैं।

ये मुख्य आधार निम्नलिखित हैं –

  • दार्शनिक आधार
  • मनोवैज्ञानिक आधार
  • समाजशास्त्रीय आधार
  • वैज्ञानिक आधार

(v) निश्चित नियम तथा व्यवस्थाएँ – औपचारिक शिक्षा के अंतर्गत निश्चित नियम तथा व्यवस्थाएँ होती हैं। विद्यार्थियों को किसी भी पाठ्यक्रम में प्रवेश हेतु न्यूनतम योग्यता का निर्धारण किया जाता है। विद्यार्थियों को शिक्षा संस्थाओं के नियमों का पालन करना पड़ता है।

प्रश्न 2.
अधिकारों के प्रकारों की विवेचना कीजिए। उनका समाज में क्या अस्तित्व है ? वे आपके जीवन को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
अधिकार की परिभाषा-व्यक्ति की उन माँगों को, जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हो तथा राज्य द्वारा संरक्षण प्राप्त हो अधिकार कहते हैं। कभी-कभी असंरक्षित माँगें भी अधिकार बन जाती हैं भले ही उन्हें कानून का संरक्षण प्राप्त न हुआ हो। उदाहरण के लिए काम पाने का अधिकार राज्य ने भले ही स्वीकार न किया हो परंतु उसे अधिकार ही माना जाएगा क्योंकि काम के बिना कोई भी व्यक्ति अपना सर्वोच्च विकास नहीं कर सकता।

बेन तथा पीटर्स ने अधिकार की परिभाषा करते हुए कहा है, “अधिकारों की स्थापना एक सुस्थापित नियम द्वारा होती है। वह नियम चाहते कानून पर आधारित हो या परंपरा पर।” ऑस्टिन के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति का वह सामर्थ्य है जिसमें वह किसी दूसरे से कोई काम करा सकता हो या दूसरे को कोई काम करने से रोक सकता है।” लास्की के अनुसार, “अधिकार सामान्य जीवन की वह परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन को पूर्ण नहीं कर सकता।”

अधिकारों के प्रकार –
(i) नैतिक अधिकार – नैतिक अधिकार वे अधिकार हैं जो व्यक्ति की भावना पर आधारित हैं । माता-पिता का यह नैतिक अधिकार है,कि बुढ़ापे की अवस्था में उनकी संतान उनकी सहायता करे । इन अधिकारों के पीछे कोई सत्ता नहीं होती अर्थात् यदि पुत्र अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा न करे तो उसको कानून के अनुसार दंडित नहीं किया जा सकता केवल समाज उसे अच्छी दृष्टि से नहीं देखता।

(ii) वैधानिक अधिकार – जो अधिकार राज्य द्वारा हम पर लागू किए जाते हैं और उनका उल्लंघन करने पर व्यक्ति को कानून के अनुसार दंडित किया जाता है। ये अधिकार निम्नलिखित हैं

(a) मौलिक अधिकार-वे वैधानिक अधिकार जो संविधान द्वारा उस राज्य के नागरिकों को दिए जाते हैं, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। देश का संविधान मौलिक कानून होता है। उसमें मिलने वाले अधिकार भी मौलिक होते हैं। ये अधिकार व्यक्ति के विकास में बहुत उपयोगी होते हैं –

  • समानता का अधिकार
  • स्वतंत्रता का अधिकार
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार, सांस्कृतिक तथा शिक्षा संबंधी अधिकार
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार ये सभी अधिकार मौलिक अधिकार हैं।

(b) राजनीतिक अधिकार – चुनाव में भाग लेना, मतदान का अधिकार, उम्मीदवार बनने का अधिकार तथा सरकारी पद ग्रहण करना, सरकार की आलोचना, राजनीतिक दल बनाना आदि राजनीतिक अधिकारों के श्रेणी में आते हैं।

(c) सामाजिक या नागरिक अधिकार-जीवन का अधिकार, भाषण एवं अभिव्यक्ति का अधिकार, संपत्ति का अधिकार, समुदाय बनाने का अधिकार, आवागमन का अधिकार आदि इन श्रेणी में आते हैं।

(d) आर्थिक अधिकार-काम करने का अधिकार, अवकाश का अधिकार तथा आर्थिक सुरक्षा का अधिकार आर्थिक अधिकार की श्रेणी में आते हैं।

प्रश्न 3.
कार्य पर एक निबंध लिखिए। कार्यों की विद्यमान श्रेणी और ये किस तरह बदलती हैं, दोनों पर ध्यान केंद्रित करें?
उत्तर:
बच्चे अक्सर कल्पना करते हैं कि जब बड़े होंगे तो किस प्रकार कौन-सा कार्य करेंगे। यह कार्य वास्तव में ‘रोजगार’ होता है। यह ‘कार्य’ सरल का सर्वाधिक अर्थ है। वास्तव में, यह.एक अत्यधिक सरल विचार है। अनेक प्रकार के कार्य वेतन सहित रोजगार के विचार की पुष्टि नहीं करते। जैसे अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में किए जाने वाले अधिकांश कार्य प्रत्यक्षतः किसी औपचारिक रोजगार आँकड़ों में नहीं गिने जाते हैं। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से आशय है नियमित रोजगार के क्षेत्र से हटकर किया जाने वाला कार्य-ब्यवहार। इसमें कभी-कभी किए गए कार्य अथवा सेवा के बदले नकद भुगतान किया जाता है। लेकिन प्रायः इसमें वस्तुओं अथवा सेवाओं का आदान-प्रदान भी किया जाता है।

हम कार्य को शारीरिक और मानसिक परिश्श्रमों के द्वारा किए जाने वाले ऐसे स्वैतनिक या अवैतनिक कार्यों के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जिनका उद्देश्य मानव की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करना है।

कार्य के आधुनिक रूप और श्रम विभाजन-प्राचीन समाज में अधिकतर लोग खेतों में कृषि कार्य करते थे अथवा पशुओं की देखभाल करते थे। औद्योगिक रूप से विकसित समाज में जनसंख्या का बहुत छोटा भाग कृषि कार्यों में लगा हुआ है और अब कृषि का भी औद्योगीकरण हो गया है। कृषि कार्य मानव द्वारा करने की अपेक्षा अधिकांशतः मशीनों द्वारा किया जाने लगा है। भारत जैसे देश में आज भी अधिकतर आबादी ग्रामीण और कृषि कार्यों में अथवा अन्य ग्राम आधारित व्यवसायों में संलग्न है। भारत में और भी कई प्रवृत्तियाँ हैं उदाहरण के लिए सेवा क्षेत्र का विस्तार। आधुनिक समाज में अर्थव्यवस्था की एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता है, श्रम का जटिल विभाजन।

कार्य असंख्य विभिन्न व्यवसायों में विभक्त हो गया है जिनमें लोग विशेषज्ञ हैं। पारंपरिक समाज में गैर-कृषि कार्य को शिल्प की दक्षता के साथ जोड़ा जाता था। शिल्प लंबे प्रशिक्षण के माध्यम से सीखा जाता था और सामान्यतः श्रमिक उत्पादन प्रक्रिया के आरंभ से अंत तक सभी कार्य करता था। आधुनिक समाज में भी कार्य की स्थिति में परिवर्तन देखा है औद्योगीकरण से पूर्व, अधिकतर कार्य घर पर किए जाते थे और कार्य पूरा करने में परिवार के सभी सदस्य सामूहिक रूप से उसमें हाथ बँटाते थे। औद्योगिक प्रौद्योगिकी में विकास, जैसे बिजली और कोयले से मशीन संचालन से घर पर भी कार्य अलग-अलग होने लगे। पूँजीपति, उद्योगपतियों के उद्योग व औद्योगिक विकास का केंद्र बिंदु बन गए।

उद्योगों में नौकरी करने वाले लोग विशिष्ट कार्यों को करने के लिए प्रशिक्षित थे और इस कार्य के बदले उन्हें वेतन प्राप्त होता था। प्रबंधक कार्यों का निरीक्षण किया करता था क्योंकि उनका उद्देश्य श्रमिक की उत्पादकता बढ़ाना और अनुशासन बनाए रखना था।

आधुनिक समाज की एक मुख्य विशेषता है आर्थिक अन्योन्याश्रियता का असीमित विस्तार। हम सभी अत्यधिक रूप से श्रमिकों पर निर्भर करते हैं जो हमारे जीवन को बनाए रखने वाले उत्पादों और सेवाओं के लिए संपूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आधुनिक समाजों में अधिकतर लो अपने भोजन व रहने के मकान का या अपनी उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते हैं।

कार्य का रूपांतरण – औद्योगिक प्रक्रियाएँ उन सरंल प्रक्रियाओं में विभाजित हो गई जिनका सही समय निर्धारण, संगठन और निगरानी संभव है। थोक उत्पादन के लिए थोक बाजारों की आवश्यकता होती है। साथ ही उत्पादन की प्रक्रिया में कई नवपरिवर्तन हुए। संभवतया इनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्वचलित उत्पादन की कड़ियों (मूविंग असेंबली लाइन) का निर्माण था। आधुनिक औद्योगिक उत्पादन के लिए कीमती उपकरणों और निगरानी व्यवस्थाओं के माध्यम से कर्मचारियों की निरंतर निगरानी करना आवश्यक है।

विगत कई दशकों से ‘उदार उत्पादन’ और ‘कार्य के विकेंद्रीकरण’ की ओर झुकाव हुआ ‘ है। यह तर्क दिया जाता है कि भूमंडलीकरण के इस दौर में व्यवसाय और देशों के मध्य प्रतिस्पर्धा में वृद्धि हो रही है इसलिए व्यवसाय के लिए बदलती बाजार अवस्थाओं के अनुकूल उत्पादन को व्यवस्थित करना आवश्यक हो गया है।

प्रश्न 4.
समाजशास्त्र धर्म का अध्ययन करता है. कैसे?
उत्तर:
धर्म काफी लंबे समय से अध्ययन और चिंतन का विषय रहा है। समाज के बारे में सामाजिक निष्कर्ष धार्मिक चिंतनों से अलग हटकर है। धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन धर्म के धार्मिक या ईश्वरमीमांसीय अध्ययन से कई तरह से भिन्न है।

धर्म समाज में वास्तव में कैसे कार्य करता है और अन्य संस्थाओं के साथ इसका क्या संबंध है, के बारे में यह आनुभाविक अध्ययन करता है।
यह तुलनात्मक पद्धति का उपयोग करता है।
यह समाज और संस्कृति के अन्य पक्षों के संबंध में धार्मिक विश्वासों, रिवाजों और संस्थाओं की जाँच करता है।

अनुभविक पद्धति का अर्थ है कि समाजशास्त्री धार्मिक प्रघटनाओं के लिए निर्णायक उपागम को नहीं अपनाना। यहाँ तुलनात्मक पद्धति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह एक अर्थ में सभी समाजों को एक-दूसरे के समान स्तर पर रखती है। यह बिना किसी पूर्वाग्रह और भेदभाव के अध्ययन में सहायता करती है। समाजशास्त्री दृष्टिकोण का अर्थ है कि धार्मिक जीवन को केवल घरेलू जीवन, आर्थिक जीवन और राजनीतिक जीवन के साथ संबंद्ध करके ही बोधगम्य बनाया जा सकता है।

धर्म सभी ज्ञात समाजों में विद्यमान है हालांकि धार्मिक विश्वास और रिवाज एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में परिवर्तित होते रहते हैं। सभी धर्मों की समान विशेषताएँ हैं –

  • प्रतीकों का समुच्चय, श्रद्धा या सम्मान की भावनाएँ
  • कर्मकांड या अनुष्ठान
  • विश्वासकर्ताओं का एक समुदाय।

धर्म के साथ संबंद्ध कर्मकांड विविध प्रकार के होते हैं । कर्मकांडीय कार्यों में प्रार्थना करना, भजन गाना, प्रभु का गुणगान करना, विशेष प्रकार का भोजन करना या ऐसा भोजन नहीं करना समाहित होते हैं। कुछ दिनों का उपवास रखना और इसी प्रकार के अन्य कार्यों को भी सम्मिलित किया जा सकता है। चूँकि कर्मकांडीय धार्मिक प्रतिकों से संबद्ध होते हैं अतः इन्हें प्रायः आदतों

और सामान्य जीवन प्रक्रियाओं से एकदम भिन्न रूप में देखा जाता है। दैवीय सम्मान में मोमबत्ती या दीया जलाने का महत्त्व सामान्यतया कमरे में रोशनी करने से एकदम भिन्न होता है । धार्मिक कर्मकांड प्रायः व्यक्तियों द्वारा अपने दैनिक जीवन में किए जाते हैं लेकिन सभी धर्मों में विश्वासाकर्ताओं द्वारा सामूहिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं । सामान्यतः ये नियमित अनुष्ठान विशेष संस्थानों-चर्चों, मस्जिदों, मंदिरों, तीर्थों में आयोजित किए जाते हैं।

विश्वभर में धर्म एक पवित्र क्षेत्र है। इस बात पर विचार करें कि विभिन्न धर्मों के सदस्य पवित्र क्षेत्र में प्रवेश करने के पूर्व क्या करते हैं। उदाहरण के लिए, सिर को ढंकते हैं या नहीं ढकते, जूते उतारते हैं या विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करते हैं आदि। इन सबमें जो बात समान है वह श्रद्धा की भावना, पवित्र स्थानों या स्थितियों की पहचान और प्रति सम्मान की भावना।

एमिल दुर्खाइम का अनुसरण करने वाले धर्म के समाजशास्त्री उस पवित्र क्षेत्र को समझने में रुचि रखते हैं जो प्रत्येक समाज में सांसारिक चीजों से भिन्न होता है। अधिकतर मामलों में पवित्रता में अलौकिकता का तत्त्व होता है। अधिकांशतः किसी वक्ष या मंदिर की पवित्रता के साथ यह विश्वास जुड़ा होता है कि इसके पीछे कोई अलौकिक शक्ति है, इसलिए यह पवित्र है। फिर भी यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आरंभ में बौद्ध और कंफ्यूशियसवाद में अलौकिकता की कोई संकल्पना नहीं थी लेकिन जिन व्यक्तियों और चीजों को वे पवित्र मानते थे उनके लिए उनमें पूर्णरूपेण श्रद्धा थी।

धर्म का समाजशास्त्रीय अध्ययन करते हुए प्रश्न उत्पन्न होता है कि धर्म का अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ क्या संबंध है। धर्म का शक्ति और राजनीति के साथ बहुत निकट का संबंध रहा है। उदाहरण के लिए, इतिहास में समय-समय पर सामाजिक परिवर्तन के लिए धार्मिक आंदोलन हुए हैं, जैसे विभिन्न जाति-विरोधी आंदोलन अथवा लिंग आधारित भेदभाव के विरुद्ध आंदोलन। धर्म किसी व्यक्ति के निजी विश्वास का मामला ही नहीं है अपितु इसका सार्वजनिक स्वरूप भी होता है और धर्म को इसी सार्वजनिक स्वरूप के कारण ही यह समाज के अन्य संस्थाओं के संबंध में महत्त्वपूर्ण होता है।

समाजशास्त्र शक्ति को व्यापक संदर्भ में देखता है। अतः राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र के बीच संबंध को जानना समाजशास्त्रीय हित में है। प्राचीन समाजशास्त्रियों को विश्वास था कि जैसे-जैसे समाज आधुनिक होता जाएगा धर्म का जीवन के अन्य क्षेत्रों पर प्रभाव कम होता जाएगा । धर्म निरपेक्षता की अवधारण इस प्रक्रिया का वर्णन करती है। समकालीन घटनाएँ समाज के विभिन्न पक्षों में धर्म की दृढ़ भूमिका की जानकारी देती हैं।

समाजशास्त्री मैक्स वेबर (1864-1920 ई.) के महत्त्वपूर्ण कार्य दर्शाते हैं कि किस तरह समाजशास्त्र सामाजिक और आर्थिक व्यवहार के न्य पक्षों के साथ धर्म के संबंधों को देखता है । वेबर का तर्क है कि कैल्विनवाद (प्रोटेस्टेंट इसाई धर्म की एक शाखा) आर्थिक संगठन की पद्धति के रूप में पूँजीवाद के उद्भव और विकास को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है। कैल्विनवादियों का मत था कि विश्व की रचना भगवान की महिमा के लिए हुई। इसका अभिप्राय है कि संसार में किया गया कोई भी कार्य उसके गौरव के लिए किया जाता है, यहाँ तक कि सांसारिक कार्य को भी पूजा कार्य बना दिया गया। हालांकि इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कैल्विनवादी भाग्य की अवधारणा में विश्वास करते थे जिसका अर्थ है कि कौन स्वर्ग में जाएगा

और कौन नर्क में, यह पूर्व से ही निश्चित था। चूँकि यह ज्ञात नहीं हो सकता था कि किसे स्वर्ग मिलेगा और किसे नर्क, लोग इस संसार में अपने कार्य में भगवान की इच्छा के संकेत देखने लगे। इस प्रकार व्यक्ति चाहे जो भी व्यवसाय करता हो यदि वह अपने व्यवसाय में दृढ़ और सफल है तो उसे भगवान की प्रसन्नता का संकेत माना जाता था। अर्जित किया गया धन सांसारिक उपभोग में लगाने के लिए नहीं था अपितु कैल्विनवाद का सिद्धांत मितव्ययता से रहने का था।

धर्म का अलग क्षेत्र के रूप में अध्ययन नहीं किया जा सकता। सामाजिक शक्तियाँ हमेशा और अनिवार्यतः धार्मिक संस्थाओं को प्रभावित करती हैं। राजनीतिक बहस, आर्थिक स्थितियाँ और लिंग संबंधी मानक हमेशा धार्मिक व्यवहार को प्रभावित करते हैं। इसके विपरीत धार्मिक मानक सामाजिक समझ को प्रभावित और कभी-कभी निर्धारित भी करते हैं। विश्व की आधी आबादी महिलाओं की है। इसलिए समाजशास्त्रीय रूप से यह पूछना भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि मानव आबादी के इतने बड़े हिस्से का धर्म से क्या संबंध है। धर्म समाज का महत्त्वपूर्ण भाग है और अन्य भागों से अनिवार्यतः संबद्ध है। समाजशास्त्र या समाजशास्त्रियों का कार्य इन विभिन्न अंत:संबंधों को उजागर करना है। धार्मिक प्रतीक एवं कर्मकांड अक्सर समाज की भौतिक और कलात्मक संस्कृति से जुड़े होते हैं।

प्रश्न 5.
सामाजिक संस्था के रूप में विद्यालय पर एक निबंध लिखिए। अपनी पढ़ाई और वैयक्तिक प्रेक्षणों, दोनों का इसमें प्रयोग कीजिए।
उत्तर:
विद्यालय एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। परिवार से निकलकर बच्चा विद्यालय के अपरिचित वातावरण में पहुँचता है, जहाँ वह धीरे-धीरे सामंजस्य बिठाकर शिक्षा की कई . सीढ़ियों को पार करता है। हमारे विद्यालय का नाम सर्वोदय विद्यालय है। इसका भवन पक्का है। इसमें 25 कमरे हैं। सभी कमरों में खिड़कियाँ एवं रोशनदान हैं। विद्यालय में एक बड़ा हॉल है जहाँ सामूहिक बैठकें होती हैं । सांस्कृतिक कार्यक्रम भी यहीं आयोजित होते हैं।

सभी कक्षाओं में बिजली के पंखे लगे हुए हैं। प्रत्येक कक्षा में एक अलमारी .बनी है। इसमें चॉक, डस्टर एवं उपस्थित रजिस्टर रखा जाता है। हमारे विद्यालय में बहुत अच्छे ढंग से पढ़ाई-लिखाई होती है। यहाँ लगभग 600 छात्र-छात्राएँ हैं। इनमें से लगभग आधी छात्राएँ हैं। हमारे विद्यालय में ग्यारह शिक्षक एवं सात शिक्षिकाएँ हैं। हमारी प्रधानाध्यापिका का नाम श्रीमती सुधा जैन है। सभी अध्यापक अनुशासन प्रिय एवं कार्यकुशल हैं। हमारी समाजशास्त्र की कक्षा डॉ. अमित राज लेते हैं। वे समाजशास्त्र विषय को ऐसे पढ़ाते हैं कि वह शीघ्र ही समझ में आ जाता है।

हमारा विद्यालय एक आदर्श विद्यालय है। यहाँ पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ खेल-कूद की भी अच्छी व्यवस्था है। विद्यार्थियों को समय-समय पर खेल-कूद, शारीरिक शिक्षा एवं योग का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। विद्यालय में हर वर्ष मार्च महीने में वार्षिक खेल प्रतियोगिता का आयोजन होता है। बच्चे विद्यालय के मैदान में प्रतिदिन तरह-तरह के खेल खेलते हैं। हमारे खेल शिक्षक हमें नए-नए खेल खेलना सिखाते हैं।

पुस्तकालय का बड़ महत्त्व है। इसलिए हमारे विद्यालय में एक छोटा पुस्तकालय खोला गया है। यहाँ विभिन्न विषयों की पुस्तकों के अलावा कहानियों, नाटकों एवं बाल-कविताओं की पुस्तकें उपलब्ध हैं। पुस्तकालय में बैठकर विभिन्न प्रकार की पुस्तकों का अध्ययन किया जा सकता है।

हमारे विद्यालय में पेय जल एवं शौचालय का अच्छा प्रबंध है। विद्यालय में एक कैंटीन है। यहाँ शिक्षक एवं विद्यार्थी मध्यावकाश के समय जलपान करते हैं। विद्यालय के आँगन में कई सुंदर एवं हरे-भरे पड़े हैं। छोटे बच्चों के लिए यहाँ झूले हुए हैं।

हमारा विद्यालय हर दृष्टिकोण से अच्छा है। हमारे विद्यालय का परीक्षा परिणाम शत-प्रतिशत आता है। यहाँ सभी प्रकार की सुविधाएँ हैं। इन सुविधाओं के कारण हमारा विद्यालय पूरे शहर में प्रसिद्ध है। हमारे विद्यालय में दूर-दराज के विद्यार्थी पढ़ने आते हैं। हमारे विद्यालय में निर्धन एवं बेसहारा बच्चों को निःशुल्क किताबें तथा वर्दी दी जाती हैं। मुझे अपने विद्यालय पर गर्व है।

प्रश्न 6.
विवाह की परिभाषा कीजिए और इसका.सामाजिक महत्त्व बताए।
उत्तर:
विवाह मानव समाज की एक मौलिक, प्राचीन तथा अनिवार्य संस्था है। प्रत्येक समाज में विपरीत लिंगियों के मध्य यौन संबंध स्थापित करने के कुछ नियम होते हैं, इन्हीं नियमों के पुंज को विवाह संस्था कहा जाता है। विवाह के माध्यम से केवल यौन संबंधों का निर्धारण नहीं होता, वरन् पति-पत्नी के कुछ अधिकार तथा कर्त्तव्य भी निर्धारित हो जाते हैं।

विवाह की परिभाषाएँ-हैरी एम. जॉनसन के अनुसार, “विवाह एक ऐसा स्थायी संबंध है जिससे एक पुरुष तथा एक स्त्री को समुदाय की स्थिति को क्षति पहुँचाये बिना संतोनोत्पत्ति की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है।” कॉलिन्स डिक्शनरी ऑफ सोश्योलोजी के अनुसार, “विवाह एक वयस्क पुरुष तथा एक वयस्क स्त्री के मध्य सामाजिक रूप से स्वीकृत तथा कभी-कभी कानूनी रूप से वैध मिलन है।”

ई. ए. हॉबल के अनुसार, “विवाह सामाजिक नियमों का एक पुंज है जो कि विवाहित युग्म के पारस्परिक, उसके रक्त संबंधियों के, उनके बच्चों के तथा समाज के प्रति संबंधों को नियंत्रित तथा परिभाषित करता है। वेस्टर मार्क के अनुसार, “विवाह एक या अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला वह संबंध है जो प्रथा अथवा कानून द्वारा स्वीकृत होता है जिसमें संगठन में आने वाले दोनों पक्षों तथा उनसे उत्पन्न बच्चों के अधिकार एवं कर्तव्यों का समावेश होता है।”

गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “विवाह एक प्रजनन मूलक परिवार के स्थापना की समाज स्वीकृत विधि है।” आर. एच. लॉवी के अनुसार, “विवाह उन स्पष्ट स्वीकृत संगठनों को प्रकट करता है जो लिंग संबंधी संतुष्टि के उपरांत भी स्थिर रहता है एवं पारिवारिक जीवन की आधारशिला का निर्माण करता है।”

बील्स तथा हॉइजर के अनुसार, “विवाह प्रत्येक मानव समाज में जिससे हम परिचित हैं, एक जटिल सांस्कृतिक प्रघटना है जिसमें कि पूर्णतया प्राणिशास्त्रीय यौन संबंधों का निर्वाह होता है, किन्तु इसके अतिरिक्त बच्चों तथा गृहस्थी का पालन-पोषण तथा परिवार पर लादी गई सांस्कृतिक आवश्यकताएँ आदि सामाजिक क्रियाएँ भी होती हैं।” हार्टन तथा हंट के अनुसार, “विवाह एक स्वीकृत सामाजिक प्रणाली है, जिसके अनुसार दो या दो से अधिक व्यक्ति परिवार की स्थापना करते हैं।” मेलीनोवस्की के अनुसार, “विवाह बच्चों की उत्पत्ति तथा देखभाल हेतु समझौता है।” ई. आर. ग्रोब्ज के अनुसार, “विवाह साथी बनकर रहने की सार्वजनिक स्वीकृति तथा कानूनी पंजीकरण है।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि विवाह एक सामाजिक संस्था है जो कि –

  • एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ लिंग संबंधों को परिभाषित करता है।
  • पति-पत्नी तथा बच्चों के अधिकारों तथा कर्तव्यों को निर्धारित करता है।

वैवाहित संस्था की उन्नति में निम्नलिखित कारण महत्त्वपूर्ण हैं –

  • यौन संतुष्टि अर्थात् जैविकीय आवश्यकता
  • संतानों का वैधानिक अर्थात् सामाजिक आवश्यकता

विवाह के प्रकार-समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से विवाह के निम्नलिखित स्वरूप हैं –
(i) एक विवाह –

  • जोड़ा विवाह
  • मोनोजिनी
  • अस्थायी एक विवाह

(ii) बहु-विवाह –

  • द्विपत्नी विवाह
  • बहुपत्नी विवाह
  • असीमित
  • सशर्त

(iii) बहुपति विवाह –

  • भ्राता संबंधी
  • अभ्राता संबंधी।

(iv) रक्त संबंधी विवाह –

  • देवर अथवा भाभी विवाह
  • कनिष्ठ देवर विवाह
  • ज्येष्ठ देवर विवाह
  • अनुमानतः देवर विवाह

(v) साली विवाह –

  • सीमित
  • एक साथ

विवाह का सामाजिक महत्त्व –

  • एक सामाजिक संस्था के रूप में विवाह सामाजिक ताने-बाने को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करता है।
  • प्रसिद्ध समाजशास्त्री जी. पी. मुरडॉक के अनुसार विवाह नियमित यौन संबंध तथा आर्थिक सहयो का केंद्र बिंदु है।
  • विवाह के माध्यम से मनुष्य के जैविकीय संबंधों का नियमन हो जाता है।
  • विवाह के माध्यम से बच्चों के प्रजनन को वैधता प्रदान की जाती है तथा इसके द्वारा परिवार की संरचना होती है। परिवार समाजीकरण की प्रथम पाठशाला है।
  • विवाह के माध्यम से समाज नियमबद्ध यौन संतुष्टि की अनुमति प्रदान करता है। इस प्रकार विवाह समाज में संगठन तथा सामाजिक नियमन की स्थायी संस्था है।

प्रश्न 7
सजातीय विवाह और विजातीय विवाह के नियमों से आपका क्या तात्पर्य है? उपयुक्त उदाहरणों के साथ अपने उत्तर को समझाइए।
उत्तर:
प्रत्येक समाज में जीवन साथी के चुनाव के बारे में कुछ प्रतिबंध लगाए जाते हैं। सजातीय विवाह तथा विजातीय विवाह इसी प्रकार के नियम हैं।
(i) सजातीय विवाह – सजातीय विवाह के अंतर्गत एक व्यक्ति अपने समूह के अंदर ही विवाह कर सकता है। सजातीय विवाह में बाह्य समूह के सदस्यों के साथ विवाह निषेध होता है। फोलसम के अनुसार, “सजातीय विवाह वह नियम है, जिसके अनुसार व्यक्ति को अपनी जाति या समूह में विवाह करना पड़ेगा। हालांकि, निकट के रक्त संबंधियों से विवाह की अनुमति नहीं होती है।” सजातीय विवाह के अंतर्गत जीवन-साथी के चुनाव पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं

  • सामान्यतः एक व्यक्ति अपनी जाति, धर्म तथा प्रजाति से बाहर विवाह नहीं कर सकता है।
  • हमारे देश में जाति एक अंत:विवाह समूह है, अर्थात् कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के। बाहर के पुरुष या स्त्री से वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं कर सकता है।
  • जाति की तरह धार्मिक समुदाय भी सजातीय विवाह होता है, अर्थात् कोई भी व्यक्ति अपने धर्म के बाहर के पुरुष या स्त्री से वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं कर सकता।
  • सजातीय विवाह द्वारा दो रेखाओं के बीच विवाह करने की अनुमति प्रदान की जाती है।
  • सजातीय विवाह के द्वारा ऐसी सीमाओं का निर्धारण किया जाता है जिनके द्वारा व्यक्ति को किसी समूह विशेष से बाहर तथा किसी समूह के अंदर विवाह करना पड़ता है।

सजातीय विवाह के निम्नलिखित प्रकार स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति के विवाह करने की सीमाएँ क्या हैं –

  • विभागीय तथा जनजातीय सजातीय विवाह-इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति अपने विभाग तथा जनजाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता है।
  • वर्ग सजातीय विवाह-प्रत्येक व्यक्ति का विवाह उसके वर्ग अथवा श्रेणी के अंतर्गत ही होना चाहिए।
  • जाति-सजातीय विवाह-इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता है।
  • उपजाति सजातीय विवाह-हमारे देश में विवाह की सीमा उप-जाति तक सीमित हो जाती है।
  • प्रजाति सजातीय विवाह-प्रजाति सजातीय विवाह के अंतर्गत अपनी प्रजाति के अंतर्गत ही विवाह किया जा सकता है।
  • राष्ट्रीय सजातीय विवाह-इस प्रकार के सजातीय विवाह के अंतर्गत एक राष्ट्र के व्यक्ति परस्पर विवाह कर सकते हैं।

(ii) विजातीय विवाह – विजातीय विवाह के अंतर्गत एक व्यक्ति को अपने समूह से बाहर ही विवाह करना पड़ता है। विजातीय विवाह के नियम निम्नलिखित हैं
(a) अनेक ऐसे नातेदार तथा समूह होते हैं, जिनके साथ व्यक्ति को वैवाहिक संबंध कायम करने की अनुमति नहीं दी जाती है।

(b) प्रत्येक समुदाय अपने सदस्यों पर कुछ व्यक्तियों से वैवाहिक संबंध कायम करने पर प्रतिबंध लगाता है।

(c) निकट के नातेदारों से वैवाहिक संबंध नहीं कायम किए जा सकते हैं। डेविस के अनुसार पारिवारिक व्यभिचार-वर्जन इसलिए विद्यमान हैं, क्योंकि वे अनिवार्य हैं तथा पारिवारिक संरचना का एक भाग है। इनके अभाव में परिवार की संरचना तथा प्रकार्यात्मक कुशलता समाप्त हो जाएगी।

(d) नजदीकी संबंधों में विवाह की अनुमति देने पर संपूर्ण सामाजिक तथा पारिवारिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। यही कारण है कि प्रत्येक समाज में पारिवारिक व्यभिचार पर वर्जनाएँ लगायी जाती हैं। उदाहरण के लिए भाई-बहन, पिता-पुत्री, माता-पुत्र के बीच वैवाहिक संबंधों पर प्रत्येक समाज में प्रतिबंध लगाए जाते हैं। ज़ार्ज मुरडॉक के अनुसार, “लैंगिक प्रतियोगिता एवं ईर्ष्या से बढ़कर संघर्ष का कोई अन्य रूप अधिक घातक नहीं है। माता-पिता तथा सहोदरों के बीच यौन ईर्ष्या का अभाव परिवार को एक सहकारी सामाजिक समूह के रूप में मजबूत करता है, इसकी समाज संबंधी सेवाओं की कुशलता में वृद्धि करता है तथा समाज को पूर्णरूप से शक्तिशाली बनाता है।”

(iii) विजातीय विवाह के निम्नलिखित प्रकार भारत में प्रचलित हैं –
(a) गोत्र विजातीय विवाह – हिंदुओं में ऐसा विश्वास किया जाता है कि एक ही गोत्र के व्यक्तियों में एक सा खून पाया जाता है, अतः उनके बीच सजातीय विवाह प्रतिबंधित हैं।

(b) प्रवर विजातीय विवाह – प्रवर शब्द का तात्पर्य हाह्वान करना है। यज्ञ के समय पुरोहितों द्वारा चुने गए ऋषियों का नाम ही प्रवर है। चूँकि यजमान द्वारा पुराहितों को यज्ञ के लिए आमंत्रित किया जाता था; अतः यजमान तथा पुराहितों के प्रवर एक समझे जाने के कारण उनके बीच वैवाहित संबंध नहीं हो सकते।

(c) पिंड विजातीय विवाह – हिन्दू धर्म के अनुसार पिंड का तात्पर्य है सामान्य पूर्वज। जो व्यक्ति एक ही पितर को पिंड अथवा श्राद्ध अर्पित करते हैं. परस्पर सपिंड कहा जाता है। वशिष्ठ तथा गौतम के अनुसार पिडा को संत पौडियों तथा माता की. पाँच पीड़ियों में विवाह निषेध है। हिंदू विवाह अधिनिया में इन पीढ़ियों में विवाह को क्रमशः पाच तथा बैन कर दिया गया है। सवसीय विवाह तथा विजातीय विवाह सापेक्ष याद हैं। इसका हात्पर्य है कि बोका विवाह एक प्रम में अपनाने की सिक्योकि जान माह के कर दिया। सर्वाधिक महत्वपूर्ण नियम है।

प्रश्न 8.
परिवार को परिभाषित-जिए। परिवार की मूलभूत विशेषताएँ बंबा हैं?
उत्तर:
परिवार-परिकार शब्द अंग्रेजी भाषा के फैली. शब्द का रूपांतर हैं, जिसकी उत्पत्रि लैटिन भाषा के पुलस’ शब्द से हुई है। इसका अर्थ है नौकर रोमन काननू में मुलस’ शब्द । स्वामियों, दासों, नौकरों व अन्य संबंधित व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता था।

कार्य असंख्य विभिन्न व्यवसायों में विभक्त हो गया है जिनमें लोग विशेषज्ञ हैं। पारंपरिक समाज में गैर-कृषि कार्य को शिल्प की दक्षता के साथ जोड़ा जाता था। शिल्प लंबे प्रशिक्षण के माध्यम से सीखा जाता था और सामान्यतः श्रमिक उत्पादन प्रक्रिया के आरंभ से अंत तक सभी कार्य करता था। आधुनिक समाज में भी कार्य की स्थिति में परिवर्तन देखा है औद्योगीकरण से पूर्व, अधिकतर कार्य घर पर किए जाते थे और कार्य पूरा करने में परिवार के सभी सदस्य सामूहिक रूप से उसमें हाथ बँटाते थे। औद्योगिक प्रौद्योगिकी में विकास, जैसे बिजली और कोयले से मशीन संचालन से घर पर भी कार्य अलग-अलग होने लगे। पूँजीपति, उद्योगपतियों के उद्योग व औद्योगिक विकास का केंद्र बिंदु बन गए।

उद्योगों में नौकरी करने वाले लोग विशिष्ट कार्यों को करने के लिए प्रशिक्षित थे और इस कार्य के बदले उन्हें वेतन प्राप्त होता था। प्रबंधक कार्यों का निरीक्षण किया करता था क्योंकि उनका उद्देश्य श्रमिक की उत्पादकता बढ़ाना और अनुशासन बनाए रखना था।

आधुनिक समाज की एक मुख्य विशेषता है आर्थिक अन्योन्याश्रियता का असीमित विस्तार। हम सभी अत्यधिक रूप से श्रमिकों पर निर्भर करते हैं जो हमारे जीवन को बनाए रखने वाले उत्पादों और सेवाओं के लिए संपूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आधुनिक समाजों में अधिकतर लो अपने भोजन व रहने के मकान का या अपनी उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन नहीं करते हैं।

प्रश्न 9.
परिवार के सामाजिक कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:एक
संस्था तथा समिति के रूप में समाज के रूप में समाज में परिवार काप केंद्रीय स्थान है। परिवार समाज का सूक्ष्म स्वरूप है। सामाजिक संगठन की इकाई के रूप में परिवार का अत्यधिक महत्त्व है। आग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, “किसी भी संस्कृति में परिवार के महत्त्व का मूल्यांकन करने के लिए यह मालूम करना जरूरी है कि उसके क्या कार्य हैं तथा किस सीमा तक उन्हें पूर्ण किया जा सकता है।” एक संस्था तथा समिति के रूप में परिवार के विविध कार्य हैं।

इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “किसी भी संस्था के विविध कार्य होते हैं। संभवतः सभी संस्थाओं में परिवार अत्यंत विविध कार्यों वाली संस्था है।” डेविस ने अपनी पुस्तक ह्यूमन सोसायटी तथा डब्लू जे. मूर ने अपनी पुस्तक फैमली में परिवार के निम्नलिखित सामाजिक कार्य बताए हैं

(i) प्रजनन कार्य – समाज का अस्तित्व व्यक्तियों से होता है। परिवार में कुछ विशेष व्यक्तियों के बीच यौन संबंध स्थापित करके वह कार्य पूरा किया जाता है। इस प्रकार परिवार व्यक्तियों की यौन आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ समाज को स्थायित्व भी प्रदान करता है।

(ii) परिवार के सदस्यों की देखभाल करना – नवजात शिशुओं का समुचित पालन-पोषण परिवार में ही होता है। गर्भवती स्त्री की देखभाल तथा बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने का कार्य
परिवार में ही किया जाता है।

प्रश्न 10.
परिवार की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
परिवार व्यक्तियों की केवल सामूहिकता नहीं है। परिवार में व्यक्ति जैविकीय, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से परस्पर अंतर्संबंधित होते हैं । परिवार की मूलभूम विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(i) सार्वभौमिकता-एक सामाजिक संगठन के रूप में परिवार सार्वभौमिक है। एकं संस्था के रूप में परिवार प्रत्येक समाज में पाया जाता है।

(ii) सदस्यों के बीच भावनात्मक संबंध-परिवार के सदस्यों के बीच भावनात्मक संबंध पाए जाते हैं। भावनात्मक संबंध त्याग, वात्सल्य तथा पारस्परिक प्रेम पर आधारित होते हैं। भावनात्मक संबंध रूपी सेतु परिवार के सदस्यों को परस्पर अंतर्संबंधित रखता है।

(iii) सीमित आकार-परिवार का आकार सीमित होता है। वर्तमान समय में परिवार में साधारणतया पिता, पत्नी तथा उनकी वैध संतानें सम्मिलित किए जाते हैं। नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की प्रक्रियाओं ने भी परिवार के आकार को सीमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि, भारत में पाए जाने वाले नगरीय परिवारों को एकाकी परिवार नहीं कहा जा सकता है। डॉ. एम. एन. श्रीवास्तव का मत है कि भारत में संयुक्त परिवार टूट नहीं रहे हैं वरन् उनके स्वरूप में परिवर्तन आ रहा है।

(iv) समाज की मूल इकाई के रूप में-परिवार सामाजिक संगठन की मूल इकाई है। परिवार के अंतर्गत ही सामाजिक मूल्यों, आदर्शों तथा प्रतिमानों का विकास होता है। परिवार में . प्राथमिक संबंध पाए जाते हैं। इस प्रकार, सामाजिक संरचना में परिवार की केंद्रीय स्थिति होती है।

(v) संस्कारों की प्राथमिक पाठशाला-व्यक्ति परिवार में ही सामाजिक तथा सांस्कृतिक संस्कार सीखते हैं। संस्कारों का यह क्रम पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनवरत रूप से चलता रहता है। संस्कारों का प्रभाव व्यक्तियों पर अमिट रहता है।

(vi) सदस्यों का पारस्परिक उत्तरदायित्व – एक प्राथमि पूह के रूप में परिवार के सदस्यों के बीच घनिष्ठ तथा आमने-सामने के अनौपचारिक पाए जाते हैं।

प्रश्न 11.
परिवार के विभिन्न स्वरूपों की विशेषताएँ बताइए
उत्तर:
एक सार्वभौमिक संस्था के रूप में परिवार मानव समाज को मौलिक इकाई है लेकिन विश्व के सभी समाजों में इसका स्वरूप एकसमान नहीं। सामाजिक परिस्थिति तथा सांस्कृतिक भिन्नता के कारण परिवार के अनेक स्वरूप पाए जाते हैं।

वर्तमान समय में परिवार के दो प्रमुख रूप निम्नलिखित हैं –

  • एकाकी परिवार तथा
  • संयुक्त परिवार

परिवार के अन्य स्वरूप इसके अतिरिक्त, परिवार के निम्नलिखित स्वरूप भी अनेक समाजों तथा जनतातीय समाजों में पाए जाते हैं –

  • विस्तृत परिवार
  • मातृवंशीय तथा मातृस्थानीय परिवार
  • पितृवंशीय तथा पितृस्थानीय परिवार
  • बहुपत्नी परिवार
  • बहुपति परिवार

(i) एकाकी परिवार-एकाकी परिवार वास्तव में परिवार का सबसे छोटा स्वरूप है। इसमें पति-पत्नी तथा उनके वैध एवं अविवाहित बच्चे होते हैं । एकाकी परिवार में निम्नलिखित नातेदारी संबंध पाए जाते हैं –

  • पति-पत्नी
  • पिता-पुत्र
  • पिता-पुत्री
  • माता-पुत्र
  • माता-पुत्री
  • भाई-भाई
  • भाई-बहन

पूरित एकाकी परिवार भी पाए जाते हैं। इन परिवारों में पति की विधवा माता या विधुर पिता या उसके छोटे अविवाहित भाई-बहन होते हैं।

(ii) संयुक्त परिवार – संयुक्त परिवार भारतीय समाज की विशेषता है। अति प्राचीन काल से ही संयुक्त परिवारों का अस्तित्व भारतीय समाज में रहा है। डॉ. इरावती कर्वे के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों के समूह है जो सामान्यतः एक भवन में रहते हैं, जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं, जो सामान्य संपत्ति के स्वामी होते हैं, जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं और जो किसी न किसी प्रकार एक-दूसरे के रक्त संबंधी हैं।”

आई. पी. देसाई के अनुसार, “हम ऐसे परिवार को संयुक्त परिवार कहते हैं, जिसमें पीढ़ी की गहराई की अपेक्षा अधिक लंबाई पायी जाती है और जिसके सदस्य परस्पर संपत्ति, आय तथा पारस्परिक अधिकारों व दायित्वों के आधार पर संबंधित होते हैं।” यद्यपि औद्योगीकरण, नगरीकरण, कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ह्रास, पश्चिम के प्रभाव तथा नवीन सामाजिक विधानों ने संयुक्त परिवार को काफी क्षीण कर दिया है तथापि एक परिवर्तित रूप में उनका अस्तित्व भारतीय समाज में आज भी विद्यमान है।

डॉ. एम. एन. श्रीनिवास का मत है कि भारत में संयुक्त परिवार विघटित नहीं हो रहे हैं अपितु उनके स्वरूप में परिवर्तन हो रहा है। डॉ. के. एम. कपाड़िया के अनुसार, “अभी तक संयुक्त परिवार ने काफी कष्टमय समय को पार किया है फिर भी उसका भविष्य खराब नहीं है।”

परिवार के अन्य स्वरूप –
(i) विस्तृत परिवार-विस्तृत परिवार के अन्तर्गत एकाकी नातेदारों के अतिरिक्त दूर के रक्त संबंधी भी हो सकते हैं, उदाहरण के लिए सास-ससुर तथा दामाद का. एक साथ रहना। इस प्रकार एकांकी या संयुक्त परिवार के सदस्यों के अलावा कोई अन्य नातेदार परिवार का हिस्सा बनता है तो उसे संयुक्त परिवार कहते हैं।

(ii) मातृवंशीय एवं मातृस्थानीय परिवार-मातृवंशीय परिवार के अंतर्गत पति अपनी पत्नी के साथ पत्नी की माँ अर्थात् अपनी सास के घर में रहता है। मातृवंशीय परिवार में वंशावली माँ के पक्ष में पायी
जाती है तथा परिवार में निर्णय करने की सत्ता भी माँ के पास ही होती है। माँ ही परिवार की मुखिया होती है। हालांकि, इस प्रकार के परिवार अधिक प्रचलन में नहीं हैं। दक्षिण भारत के नायर परिवार तथा मेघालय की खासी जनजाति के लोग ‘मातृसत्तात्मक परिवारों में निवास करते हैं।

(iii) पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार-विश्व के. लगभग सभी समाजों में पितृवंशीय तथा पितृस्थानीय परिवार पाए जाते हैं। इन परिवारों में वंशावली पिता के पक्ष में पायी जाती है। इन परिवारों में विवाह के बाद पत्नी पति के घर रहती है। परिवार का मुखिया पिता होता है तथा परिवार की सत्ता उसी के पास होती है।

(iv) बहुपत्नी परिवार-बहुपत्नी परिवार में एक व्यक्ति एक समय में एक से अधिक पत्नियाँ . रखता है। इस प्रकार के परिवार अनेक जनजातियों में पाए जाते हैं।

(v) बहुपति परिवार-बहुपति परिवार के अंतर्गत एक स्त्री के एक समय में एक से अधिक पति होते हैं। इन परिवार की संरचना भ्रातृत्व बहुपति विवाह से होती हैं। भारत में इस प्रकार के परिवार खासी तथा टोडा जनजातियों में पाए जाते हैं।

प्रश्न 12.
नातेदारी में आप क्या समझते हैं? सामाजिक जीवन में इसके महत्त्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
जैसा कि हम जानते हैं कि परिवार घनिष्ठ संबंधियों से बना एक संस्था है। परिवार के सदस्यों के बीच परस्पर रक्त अथवा वैवाहिक संबंध पाए जाते हैं। इन बंधनों द्वारा संबद्ध व्यक्तियों को हो नातेदार कहा जाता है लेकिन नावेदारी संबंधों का क्षेत्र परिवार तक ही सीमितन होकरें व्यापक है। वैवाहिक संखों के जरिए एक परिवार के सदस्य दूसरे परिवार के सदस्यों उपरोक्त विवेचन को पर महम कह सकते कि गावर पाक्ति है, हो सका।

बाने नोटर मुरडाक के अनुसार, “यहा (मात्र सम की एक वना है। बिसमें व्यक्ति एक-दूसरे से इंटिलं आंतरिक तथा शाखाकृत अपनी द्वारा संबंध होते हैं। डक्लिफ बाउन के अनुसार, “जावेदारी प्रथा वह व्यवस्था है जो व्यक्तियों को

व्यवस्थित सामाजिक जीवन में परस्पर सहयोग करने की प्रेरणा देती है।
वास्तव में, रैडक्लिफ ब्राउन नातेदारी व्यवस्था को सामाजिक संरचना के एक अंग के रूप स्वीकार करते हैं।
चार्ल्स विनिक के अनुसार, “नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आ जाते हैं जो कि अनुमानित तथा वास्तविक, वंशावली संबंधों पर आधारित हैं।

नातेदारी संबंधों के बदलते आयाम –

  • नातेदारी संबंध जनजातीय समाजों तथा ग्रामीण समुदायों में काफी प्रबल तथा विस्तृत होते हैं।
  • औद्योगीकरण, नगरीकरण तथा प्रौद्योगिक विकास के कारण नातेदारी संबंधों की प्रगाढ़ता में कमी आयी है।
  • प्राथमिक समूहों के स्थान पर द्वितीयक समूहों के बढ़ते महत्त्व के कारण भी नातेदारी संबंध न केवल शिथिल हुए हैं, वरन् उनका परिवार भी कम हुआ है।

नातेदारी के प्रकार –

  • वैवाहिक नातेदारी तथा
  • रक्त संबंधी नातेदारी।

1. वैवाहिक नातेदारी – वैवाहिक नातेदारी संबंधों पर आधारित होती है। उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति किसी स्त्री से विवाह करता है तो उसका संबंध न केवल उस स्त्री से स्थापित हो जाता है वरन् स्त्री के परिवार के अन्य सदस्यों से भी उसका संबंध स्थापित हो जाता है। इस प्रकार विवाह के पश्चात् कोई व्यक्ति न केवल पति बनता है, अपितु वह बहनोई तथा दामाद भी बन जाता है। इसी प्रकार कोई स्त्री विवाह के पश्चात् न केवल पत्नी बनती अपितु पुत्रवधू, चाची, भाभी, जेठानी, देवरानी तथा मामी आदि बन जाती है।

2. रक्त संबंधी नातेदारी – रक्त संबंधी नातेदारी के अंतर्गत रक्त अथवा सामूहिक वंशावली से जुड़े व्यक्ति आते हैं। वैवाहिक नातेदारी में संबंधों का आधार विवाह होता है जबकि रक्त संबंधी नातेदारी में संबंध रक्त के आधार पर होते हैं । उदाहरण के लिए, माता-पिता व उनके बच्चों तथा सहादारों के बीच रक्त संबंध पाए जाते हैं। रक्त संबंध वास्तविक तथा काल्पनिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, गोद लिए हुए बच्चे की पहचान वास्तविक पुत्र की भाँति होती है।

नातेदारी के विभिन्न आधार-हैरी एम. जॉनसन के द्वारा नातेदारी के निम्नलिखित आधार बनाए गए हैं –

  • लिंग-बहन तथा भाई शब्द रक्त संबंधियों के लिंग को बताते हैं।
  • पीढ़ी-पिता तथा पुत्र के द्वारा जहाँ एक तरफ दो पीढ़ियों की ओर संकेत करते हैं, दूसरी तरफ वे रक्त संबंधी भी हैं।
  • निकटता-दामाद तथा फूफा से निकटता के आधार पर संबंध होते हैं, लेकिन ये संबंध रक्त पर आधारित नहीं होते हैं।
  • विभाजन-सभी नातेदारी संबंधे को साधारणतया दो शाखाओं में बाँटा जाता है उदाहरण के लिए पितामह तथा नाना, भतीजी आदि ।
  • पहली शाखा का संबंध पिता के जन्म वाले परिवार से होता है तथा दूसरी शाखा का संबंध माता के जन्म लेने वाले परिवार से होता है।
  • श्रृंखला सूत्र-उपरोक्त वर्णित विभाजन का संबंध संबंधियों की निकटता के साथ है। इन संबंध की श्रृंखला का आधार निकटता अथवा रक्त संबंध है।

नातेदारी का सामाजिक जीवन में महत्त्व –

  • सामाजिक संरचना में नातेदारी संबंधों का विशेष महत्त्व है। यह परिवारिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है।
  • परिवार में व्यक्तियों की प्रस्थितियों के अनुसार निश्चित अधिकार तथा उत्तरदायित्व होते हैं।
  • नातेदार एक-दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए होते हैं तथा एक-दूसरे की सहायता अन्य संस्थाओं या व्यक्तियों की अपेक्षा अत्यधिक तत्परता से करते हैं।

प्रश्न 13.
नातेदारी संबंधों की विभिन्न श्रेणियों की.सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
निकटता अथवा दूरी के आधार पर नातेदारों में विभिन्न श्रेणियाँ पायी जाती हैं। एक व्यक्ति के नातेदारों में कुछ अत्यधिक निकट, कुछ निकट तथा कुछ अपेक्षाकृत कम निकट होते हैं। इसी प्रकार कुछ नातेदारों से दूर तथा कुछ से बहुत दूर के संबंध होते हैं । निकटता अथवा दूरी के आधार पर नातेदारों को निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटा जा सकता है

(i) प्राथमिक नातेदारी-एक ही परिवार से संबंधित व्यक्तियों को प्राथमिक नातेदार कहा जाता है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से एक एकाकी परिवार में आठ प्राथमिक नातेदार हो सकते हैं। डॉ. दुबे ने भी इसी मत का समर्थन किया है। ये आठ नातेदार निम्नलिखित हो सकते हैं –

  • पति-पत्नी
  • पिता-पुत्र
  • माता-पुत्री
  • पिता-पुत्री
  • माता-पुत्र
  • छोटे-बड़े भाई
  • छोटी-बड़ी बहनें
  • भाई-बहन

(ii) द्वितीयक नातेदारी – एक व्यक्ति के प्राथमिक नातेदारों में से प्रत्येक नातेदार के प्राथमिक नातेदार के अथवा संबंधी होते हैं। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि वे प्राथमिक संबंधी न होकर हमारे प्राथमिक संबंधियों के संबंधी होते हैं। इसी प्रकार, वे हमारे द्वितीयक संबंधी कहलाते हैं। उदाहरण के लिए चाचा (पिता या भाई) तथा बहनोई (बहन का पति), द्वितीयक अथवा गौण संबंधी हैं। ठीक इसी प्रकार, पिता-पुत्र का प्राथमिक संबंधी है जबकि चाचा अर्थात् पिता का भाई पिता का प्राथमिक संबंधी है। इस प्रकार चाचा अर्थात् पिता का भाई द्वितीयक संबंधी कहलाता है। ठीक इसी प्रकार बहन भाई की प्राथमिक संबंधी है, लेकिन बहनोई भाई का द्वितीयक संबंधी है।

(iii) तृतीयक नातेदारी – तृतीयक नातेदार प्राथमिक संबंधी के द्वितीयक संबंधी तथा द्वितीयक संबंधी के प्राथमिक संबंधी होते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हमारे प्राथमिक नातेदार के द्वितीयक अथवा गौण नातेदार हमारे तृतीयक नातेदार कहलाएंगे। उदाहरण के लिए, साले की पत्नी जिसे ‘सलाहज’ कहते हैं, तृतीयक नातेदार हैं, क्योंकि साला मेंरा द्वितीयक नातेदार है। एक अन्य उदाहरण के द्वारा भी तृतीयक नातेदारी को स्पष्ट किया जा सकता है-किसी व्यक्ति के भाई के भाई का साला उसका तृतीयक नातेदार होगा, क्योंकि भाई मेरा प्राथमिक नातेदार है तथा उसका साला मेरे भाई का द्वितीयक नातेदार है।

वे समस्त संबंधी जो तृतीयक नातेदारों से भी दूर होते हैं, उन्हें मुरडाक ने दूरस्थ नातेदार का नाम दिया है। मुरडाक ने किसी व्यक्ति के द्वितीयक नातेदारों की संख्या 33 तथा तृतीयक नातेदारों की संख्या 151 बताई है। व्यावहारिक तौर पर तृतीयक श्रेणी के नातेदारों के बीच आमतौर पर सामाजिक अंत:क्रिया पायी जाती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्राथमिक, द्वितीयक तथा तृतीयक श्रेणी के

प्रश्न 14.
धर्म को परिभाषित कीजिए। धर्म की आधारभूत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
धर्म एक सावभौमिक तथा मूलभूत सामाजिक प्रघटना है। प्रत्येक समाज में धर्म अवश्य विद्यमान रहा है। धर्म मंदव के सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण आयाम है। एक संस्था के रूप में धर्म सामाजिक संरचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धर्म एक अद्भत तथा अलौकिक शक्ति है।

धर्म की परिभाषाएँ –

  • ई. बी. टायलर के अनुसार, “धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वास है।
  • होबेल के अनुसार, “धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वास पर आधारित है, जिसमें आत्मवाद तथा मानववाद सम्मिलित हैं।
  • एमिल दुर्खाइम के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा आचरणों की वह समग्र व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संयुक्त करती है।”
  • आग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, “धर्म अतिमानवीय शक्तियों के प्रति अभिवृत्तियाँ हैं।”
  • फ्रेजर के अनुसार, “धर्म से मैं मनुष्य ने श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि या आराधना समझता हूँ जिनके संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति तथा मानव जीवन को मार्ग दिखलाती हैं और नियंत्रित करती हैं।”
  • सपीर के अनुसार, “धर्म जीवन की परेशानियों तथा उनके खतरों से परे अध्यात्मिक शांति के मार्ग की खोज करने में मनुष्य का सतत् प्रयास है।”
  • मैलिनावस्की के अनुसार, “धर्म क्रिया का एक तरीका है और साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था भी। धर्म एक समाजशास्त्री प्रघटना के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभव भी है।

धर्म की आधारभूत विशेषताएँ – धर्म की आधाभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वास है।
  • धर्म से संबंधित वस्तुएँ, प्राणी तथा स्थान पवित्र माने जाते हैं एवं उनके प्रति सम्मान तथा भय-मिश्रित व्यवहार किया जाता है।
  • जो भौतिक वस्तुएँ धार्मिक व्यवहारों में पायी जाती हैं, वे प्रत्येक संस्कृति में पृथक्-पृथक् हो सकती हैं।
  • प्रत्येक धर्म में विशिष्ट अनुष्ठान जैसे-क्रीड़ा, नृत्य, गायन, उपवास तथा विशिष्ट भोजन आदि सम्मिलित होते हैं।
  • आमतौर पर धार्मिक अनुष्ठान एकांत में किए जाते हैं, लेकिन कभी-कभी इनका आयोजन सामूहिक रूप से भी किया जाता है। “
  • प्रत्येक धर्म में एक विशिष्ट पूजा पद्धति पायी जाती है।
  • प्रत्येक धर्म में स्वर्ग-नरक तथा पवित्र-अववित्र की अवधारणा पायी जाती है।
  • धर्म अवलोकण से परे तथा विज्ञानोपरि है।
  • धर्म का आधार विश्वास तथा आस्था है, तर्क से इसका संबंध नहीं है।
  • धर्म अनुभवोपरि है।

प्रश्न 15.
धर्म की उत्पत्ति के सिद्धांतों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्रीय तथा मानवशास्त्रियों के अनुसार आधुनिक संगठित धर्मों के विकास का प्रमुख कारण आदिम मानव का भय तथा असुरक्षा की भावना, कर्मकांड तथा उपासना पद्धति आदि हैं। धर्म का उत्पत्ति सिद्धांत आमतौर पर उद्विकासीय है। इन सिद्धांतों के द्वारा समाज में धर्म और संस्था के विकास के क्रमिक स्तरों का वर्णन किया जाता है। टायलर तथा स्पेंसर का मत है कि धर्म की उत्पत्ति आदिम मनुष्य के जीवन में आत्मा की अवधारणा के कारण हुई। धर्म की उत्पत्ति के विषय में प्रमुख समाजशास्त्रियों के विचार निम्नलिखित हैं :

(i) आत्मवाद का सिद्धांत-ई. बी. टायलर ने अपनी पुस्तक प्रिमिटिव कल्चर में धर्म की उत्पत्ति के सिद्धांत का उल्लेख किया है। आत्मवाद के सिद्धांत के अनुसार आदिम मनुष्य के मस्तिष्क में आत्मा के अस्तित्व का विचार मृत्यु तथा जन्म से संबंधित उसकी कल्पना से आया। टायलर का मत है कि आदिम मनुष्य का यकीन था कि मनुष्य शरीर में आत्मा का है जो निद्रार की हालत में बाहर चली जाती है। आदिम मनुष्य के अनुसार जब आत्मा शरीर में वापस लौटकर नहीं आती है तो उसे मृत्यु की स्थिति कहते हैं। यही कारण था कि आदिम मनुष्य अपने निकट संबंधियों के मृत शरीरें का इस उम्मीद में रखता था कि मुमकिन है कि उसकी आत्मा वापस लौटकर आ जाए।

आदिम मनुष्य के मन में मृत्यु की वास्तविकता तथा स्वप्न की प्रघटना से इस विचार की उत्पत्ति हुई कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा का देहांतरण होता है। आदिम मनुष्य का यह भी विश्वास था कि यदि उसके पूर्वजों की आत्मा असंतुष्ट तथा दु:खी है तो वह भी दुःखी रहेगा। यही कारण है कि आदिम मनुष्य द्वारा पूर्वजों की आत्मा की संतुष्टि हेतु अनेक कमकांडों तथा अनुष्ठानों की उत्पत्ति हुई। इस संबंध में डॉ. मजूमदार तथा मदान ने कहा है कि “आदिमवासियों का संपूर्ण धार्मिक जीवन एक निश्चित, अज्ञेय, अवैयक्तिक, अलौकिक शक्ति में विश्वास से उत्पन्न हुआ है, जो सभी सजीव तथा निर्जीव वस्तुओं में रहती है जो विश्व में विद्यमान है।”

(ii) प्रकृतिवाद का सिद्धांत – फ्रेजर ने अपनी पुस्तक में धर्म की उत्पत्ति का सिद्धांत प्रतिपादित किया है। फ्रेजर का मत है कि आदिम मनुष्य सदैव प्रकृति से संघर्ष करता रहा। इस संघर्ष में कभी आदिम मनुष्य सफल हो जाता था तो कभी असफल। प्रकृति को नियंत्रित करने के लिए आदिम मनुष्य ने अनेक मंत्रों तथा विधियों का विकास किया। फ्रेजर इन्हें जादू कहते हैं। फ्रेजर का मत है कि जादू, धर्म से पहले का स्तर है।

आदिम मनुष्य ने पहले जादू के द्वारा प्रकृति की शक्तियों पर नियंत्रण का प्रयास किया, लेकिन इस प्रयास में असफलता के बाद उसने अलौकिक शक्ति की सत्ता को पहचाना। फ्रेजर के अनुसार, “जादू प्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक क्रम को प्रभावित करता है तथा विज्ञान के इस मौलिक विश्वींस में भाग लेता है कि यह क्रम पूर्ण तथा स्थिर है किन्तु धर्म एक भिन्न कल्पित वस्तु पर आधारित है अर्थात् मानव से उच्च शक्ति का अस्तित्व जिस पर ऐसा विश्वास किया जाता है कि वह मानव जीवन तथा प्रकृति की घटनाओं को निर्देशित तथा नियंत्रित करती है।

विश्वास का यह स्तर जो जादू में विश्वास के परे है, उस समय आता है जब मनुष्य जादू के व्यवहारों की असारता को महसूस करता है तथा इसके मुकाबले उन शक्तियों का सहारा लेता है जो यह विश्वास करता है, कारण तथा कार्य के साधारण क्रम को अपने आदेश के माध्यम से परिवर्तित कर सकता है।” फ्रेजर के सिद्धांत को जादू से धर्म की संक्रांति भी कहा जाता है। उसने मानव विचारधारा की निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ बतायी हैं –

  • जादुई अवस्था
  • धार्मिक अवस्था
  • वैज्ञानिक अवस्था

फ्रेजर के अनुसार प्रकृति से संघर्ष करते समय पराजित होने की स्थिति में आदिम मनुष्य प्रकृति को प्रसन्न करने के लिए उसकी (प्रकृति की) पूजा करता था। इस प्रकार, आदिम मनुष्य द्वारा प्रकृति की पूजा से ही धर्म की उत्पत्ति हुई। पिडिंगटन के अनुसार, “आदिम कालीन धर्म का स्रोत वह (जेम्स फ्रेजर) उचित परिणामों को प्रभावित करने के लिए जादू की असफलता में पाता है। वह विश्वास करता है कि जादू, संपर्क के सिद्धांतों का अनुचित प्रयोग है, जो उचित रूप से प्रयोग में लोने पर विज्ञान की ओर ले जाता है।”

(ii) धर्म का समाजशास्त्रीय सिद्धांत – प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खाइम ने अपनी पुस्तक में धर्म के पूर्ववर्ती सिद्धांतों को निरस्त करके धर्म की समाजशास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत की हैं। दुर्खाइम का मत है कि सभी समाजों में पवित्र तथा साधारण वस्तुओं में अंतर किया जाता है। सभी समाजों में पवित्र वस्तुओं को श्रेष्ठ समझा जाता है तथा उन्हें संरक्षित किया जाता है जबकि साधारण वस्तुओं को निषिद्ध किया जाता है।

दुर्खाइम ‘टोटमवाद’ को धर्म का आदिम स्वरूप मानते हैं। दुर्खाइम के अनुसार टोटम तथा सभी धार्मिक विचारों की उत्पत्ति सामाजिक समूह से हुई है। इस प्रकार, देवी-देवता, उचित-अनुचित तथा स्वर्ग-नरक टोटम समूह के सामूहिक प्रतिनिधान हैं। सामूहिक जीवन का प्रतीक होने के कारण टोटम को पवित्र समझा जाता है। व्यक्तियों द्वारा टोटम का सम्मान किया जाता है, क्योंकि वे सामाजिक मूल्यों का सम्मान करते हैं। इस प्रकार, टोटम सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करता है। समारोह तथा अनुष्ठान समुदाय के लोगों को एक साथ बाँधने का काम करते हैं। धर्म में व्यक्तियों की आस्था समूह एकता को सुदृढ़ करती है।

दुर्खाइम का मत है जन्म, मृत्यु तथा विवाह आदि के समय अनेक नयी सामाजिक परिस्थितियों का जन्म होता है। सामूहिक समारोह तथा अनुष्ठान प्रभावित व्यक्तियों को नई परिस्थितियों से समायोजन करने में सहयोगी होते हैं। अनेक विद्वानों ने दुर्खाइम के सिद्धांत में अंतर्निहित दार्शनिकता के कारण इसकी आलोचना भी की है।

प्रश्न 16.
आधुनिक समाज में धर्म का क्या स्वरूप है?
उत्तर:
आधुनिक समाज में धर्म के स्वरूप को समझने से पहले आवश्यक है कि धर्म के अर्थ तथा इसकी मूलभूत विशेषताओं पर प्रकार डाला जाए। हॉबल के अनुसार, “धर्म अलौकिक शक्ति में विश्वास पर आधारित है, जिसके अंतर्गत आत्मवाद तथा मानववाद सम्मिलित होते हैं।” दुर्खाइम के अनुसार, “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा आचरणों की वह व्यवस्था है, जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संयुक्त करती है।”

मेकाइवर के अनुसार, “धर्म, जैसा कि हम समझते आये हैं, से केवल मनुष्य के बीच का संबंध ही नहीं, एक उच्चतर शक्ति के प्रति मनुष्य का संबंध भी सूचित होता है।” मैलिनोवस्की के अनुसार, “धर्म, क्रिया का एक तरीका है, साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था है तथा समाजशास्त्रीय प्रघटना के साथ-साथ व्यक्तिगत अनुभव भी है।”

  • धर्म अलौकिक शक्ति अथवा समाजोपरि उच्चतर शक्ति में विश्वास है।
  • धर्म से संबंधित प्राणी, वस्तुओं तथा स्थान को पवित्र माना जाता है तथा उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया जाता है।
  • धर्म से संबंधित विश्वास उद्वेगपूर्ण तथा भावात्मक होते हैं।

आधुनिक समय में औद्योगीकरण, नगरीकरण तथा लौकिकीकरण, वैज्ञानिक विचारों तथा तर्कपूर्ण चिंतन के कारण धर्म के स्वरूप में कुछ परिवर्तन आए हैं –

  • परंपरागत समाजों में धर्म जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करता था। आधुनिक समाजों में धर्म का प्रभाव क्षेत्र कुछ सीमित हुआ है।
  • परंपरागत समाज में धार्मिक आस्था तथा विश्वास अत्यधिक सुदृढ़ होते थे तथा विभिन्न अनुष्ठानों का पालन संपूर्ण धार्मिक पद्धतियों के द्वारा किया जाता था।
  • आधुनिक समाजों में धार्मिक विश्वास तथा आस्था का सम्मान होना आवश्यक नहीं है। धर्म में विश्वास रखते हुए भी कुछ व्यक्ति धार्मिक अनुष्ठानों का संपादन अनवार्य नहीं समझते हैं।
  • प्राचीन काल तथा मध्यकाल में धर्म तथा राज्य आमतौर पर अविभाज्य थे। आधुनिक राज्य आमतौर पर धर्मनिरपेक्ष हैं। धर्म तथा. राज्य की गतिविधियों के क्षेत्र अलग-अलग हैं।

आधुनिक समय में धर्म में निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ तेजी से विकसित हो रही है –

  • धर्म रूढ़ियों, परंपराओं तथा अनुष्ठानों आदि का महत्त्व कम हो रहा है।
  • धर्म में मानवतावाद की प्रवृत्ति का उदय हो रहा है।
  • धर्म में लौकिकीकरण तथा तर्कबाद की प्रवृत्तियाँ पनप रही हैं।
  • धार्मिक क्रियाओं, पद्धतियों तथा अनुष्ठानों का संक्षिप्तीकरण हो रहा है।

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि नवीन धार्मिक मान्यताओं, विचारधाराओं तथा प्रवृत्तियों ने धर्म के प्रभाव को कुछ सीमित किया है लेकिन वैज्ञानिक खोजों के कारण मानवजाति के संपूर्ण विनाश के भय ने तथा आते-भौतिकवादी प्रवृत्तियों के नकारात्मक परिणामों ने व्यक्तियों का रुझान आध्यात्मिक शांति तथा धर्म की ओर पुनः आकर्षित किया है। धार्मिक असहिष्णुता, संकीर्णता तथा धार्मिक कट्टरता ने राष्ट्रीय स्तर पर तनाव भी उत्पन्न किया है।

प्रश्न 17.
धर्म और संस्कृति के संबंधों को चिह्नित कीजिए।
उत्तर:
यद्यपि धर्म संस्कृति का अभिन्न अंग है तथापि यह संस्कृति के अधिकांश तत्त्वों को प्रभावित करने की स्वायत्त शक्ति रखता है। यह व्यक्तियों की संपूर्ण जीवन पद्धति को प्रभावित करता है। धर्म के अंतर्गत अभौतिक तथा भौतिक दोनों ही सांस्कृतिक तत्त्व सम्मिलित होते हैं। धर्म के अभौतिक पक्षों में रहस्मयी सर्वोच्च शक्ति, आत्मा का देहांतरण तथा पवित्र और उपवित्र की धारण सम्मिलित होती है। धर्म के भौतिक पक्ष में धार्मिक क्रियाएँ तथा अनुष्ठान सम्मिलित होते हैं।

हॉबल के अनुसार, “संस्कृति सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का कुल योग है।” टालयर ने संस्कृति की व्यापक परिभाषा देते हुए लिखा है कि “संस्कृति वह संश्लिष्ट अभियोजना है जिसके अंतर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा तथा सभी तरह की क्षमताएं तथा आदतें जो . व्यक्ति समाज के एक सदस्य के नाते प्राप्त करता है, आती हैं।”

धर्म का संस्कृति पर प्रभाव – धर्म संस्कृति के अनेक तत्त्वों को प्रभावित करता है । सभी धर्मों में आस्था, अलौकिक शक्ति में विश्वास, ईश्वर की पूजा तथा पवित्र व अपवित्र जैसे सामान्य तत्त्व पाए जाते हैं।

प्रश्न 18.
धर्म के अकार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
धर्म के सकारात्मक पहलू के साथ-साथ नकारात्मक पहलू भी हैं। धर्म रूढ़िवादी प्रवृत्ति के कारण प्रगति की धारा में अवरोध उत्पन्न करता है। धर्म के लिए निम्नलिखित अकार्य किए जाते हैं –
(i) धर्म परंपरागत सामाजिक रूढ़ियों को मान्यता देता है, जिससे प्रगतिवादी विचारों का विकास नहीं हो पाता है।

(ii) धर्म मनुष्य को भाग्यवादी बना देता है। व्यक्ति संसार को मिथ्या समझने लगता है। भाग्यवादी होने के कारण व्यक्ति परिश्रम नहीं करते हैं। यही कारण है कि प्रसिद्ध साम्यवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने धर्म को जनता की अफीम कहा है।

(iii) भाग्यवादिता के कारण व्यक्ति कार्य तथा कारण में संबंधस स्थापित नहीं कर पाते हैं। ब्लैकमार तथा गिलिन के अनुसार, “धर्म की कट्टरता तथा हठधर्मिता ने बार-बार सत्य की में बाधा पहुंचाई है तथा जिज्ञासु व्यक्तियों को तथ्यों के अन्वेषण करने से रोका है। इसने विज्ञान की प्रगति को अवरुद्ध किया। विद्वानों तथा स्वतंत्र खोज में धर्म ने हस्तक्षेप किया तथा आम जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का दमन किया।

(iv) धर्म तर्क तथा विज्ञान का विरोध करता है। हैरी एल्मर बार्स के अनुसार, “जबकि रूढ़िवादी धर्म एवं आधुनिक विज्ञान के मध्य परस्पर विरोधी संघर्ष है…..।” यही कारण है कि म ए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू (उच्च माध्यमिक) समाजशास्त्र वर्ग-11999 कोपरनिकस तथा गैलीलियो को अपनी खोजों को समाज के समक्ष प्रस्तुत करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। गैलीलियों को धार्मिक विश्वासों के विरुद्ध अपनी बात कहने के कारण फाँसी दी गई। धार्मिक मान्यताओं के चलते डार्विन तथा हक्सले की खोजों को मिथ्या सिद्ध करने का प्रसार किया गया।

(v) धार्मिक असहिष्णुता, कट्टरता, हठधर्मिता तथा अलगाव के कारण समाज में विघटनकारी शक्तियों के ताने-बाने ने अत्यधिक हानि पहुँचाई है। धार्मिक उन्माद मनुष्य को तर्कशून्य बना देता है।

प्रश्न 19.
शिक्षा की परिभाषा दीजिए। शिक्षा के सांगठनिक स्वरूप का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
शिक्षा मनुष्य को जैविक प्राणी से सामाजिक प्राणी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस प्रकार, शिक्षा के माध्यम से पुरानी पीढ़ी द्वारा अपने ज्ञान को नयी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता है । प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्खाइम का मत है कि “शिक्षा का ऐसा प्रभाव है जिसका उपयोग पुरानी पीढ़ी उस पीढ़ी पर करती है जो अभी वयस्क जीवन के लिए तैयार नहीं है।” शिक्षा का उद्देश्य बच्चों में उन शारीरिक बौद्धिक तथ नैतिक दशाओं को विकसित एवं जागृत करना है जिसकी अपेक्षा उससे संपूर्ण समाज तथा तात्कालिक सामाजिक पर्यावरण द्वारा की जाती है

शिक्षा की परिभाषा –
पैस्टालॉली के अनुसार, “शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, समरस तथा प्रगतिशील विकास है।” एस. एस. मैकेंजी के अनुसार, “अपने व्यापक अर्थ में, यह (शिक्षा) एक प्रक्रिया है जो जीवन-पर्यंत चलती रहती है तथा जीवन के प्रत्येक अनुभव से वृद्धि होती है।” बोगार्डस के अनुसार, “सांस्कृतिक विरासत तथा जीवन के अर्थ को ग्रहण करना ही शिक्षा है।” महात्मा गाँधी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक के शरीर, मन तथा आत्मा में निहित सर्वोत्तम गुणों के सर्वांगीण विकास से है।”

स्वामी विवेकानंद के अनुसार, “शिक्षा मनुष्य में पहले से ही विद्यमान संपूर्णता का प्रकटीकरण है।” अमेरिका के सेकेंड्री स्कूल पुनर्गठन आयोग के प्रतिवेदन के अनुसार, “शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति में ज्ञान, रुचियों, आदर्शों, आदतों तथा शक्तियों का विकास करना है जिससे उसे अपना स्थान मिलेगा तथा वह उस स्थान का प्रयोग स्वयं तथा समाज को बनाने में श्रेष्ठ उद्देश्य हेतु करेगा।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि शिक्षा द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियों का पूर्ण विकास किया जाता है। शिक्षा द्वारा बालक को वास्तविक जीवन के लिए तैयार किया जाता है . शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तिव का सर्वांगीण विकास करना है।

शिक्षा के मुख्य उद्देश्य –

  • ज्ञान
  • सांस्कृतिक विकास
  • चरित्र निर्माण
  • शारीरिव विकास
  • आत्म-अभिव्यक्ति
  • अवकाश का सदुपयोग।

शिक्षा का सांगठनिक स्वरूप – शिक्षा के निम्नलिखित तीन स्तर हैं तथा प्रत्येक स्तर का / एक सांगठनिक ढांचा है –
(i) प्रारंभिक स्तर-प्रारंभिक स्तर के निम्नलिखित दो स्तर है –

  • प्राथमिक स्तर-कक्षा 1 से 5 तक।
  • उच्च प्राथमिक स्तर-कक्षा 6 से 8 तक।

(ii) माध्यमिक स्तर-माध्यमिक स्तर के निम्नलिखित दो स्तर हैं –

  • माध्यमिक स्तर-कक्षा 9 से 10 तक।
  • उच्चतर माध्यमिक स्तर-कक्षा 11 से 12 तक।

(iii) विश्वविद्यालय स्तर – इसके अंतर्गत विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।

प्रश्न 20.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ई. की प्रमुख विशेषताएं क्या थीं?
उत्तर:
1986 ई. की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्ष के राष्ट्रीय मूल्यों तथा आदर्शों का उल्लेख किया गया है। इस नीति के अंतर्गत समस्त देश के लिए एक समान शैक्षिक ढाँचे को स्वीकृत किया गया है तथा ज्यादातर राज्यों में 10+2+3 शिक्षा प्रणाली अपनाई गई है। 1986 ई. की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निम्नलिखित उद्देश्यों पर विशेष बल दिया गया है:

(i) एक गतिशील तथा सुसंगठित राष्ट्र के निर्माण हेतु शिक्षा के माध्यम से भारतीयों में ज्ञान, उद्देश्य की भावना और विश्वास का प्रसार करना।

(ii) शिक्षा का नियोजन इस प्रकार करना है कि वह सामाजिक तथा राजनीतिक विकास, गतिविधियों में वृद्धि, कल्याणकारी गतिविधियाँ, लोकतांत्रिक व्यवस्था, बौद्धिक, सांस्कृतिक तथा सौंदर्यगत विकास में सहायक सिद्ध हो सके।

(iii) देश में राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति पर बल दिया गया जिसका तात्पर्य था कि एक निश्चित स्तर तक सभी विद्यार्थियों को चाहे किसी भी जाति, वंश, स्थिति या लिंग के हों, गुणात्मक शिक्षा प्राप्त हो।

(iv) राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड को प्रस्तावित किया गया जिसमें इस आवश्यकता पर बल दिया गया कि एक प्राथमिक विद्यालय में कम से कम –

  • दो बड़े कमरे हों तथा जो प्रत्येक मौसम में प्रयोग में लाए जा सकें।
  • आवश्यक खिलौने तथा खेल का समान हों।
  • श्यामपट्ट हों।
  • मानचित्र, चार्ट तथा अन्य अध्ययन का समान हो।

(v) राष्ट्रीय नीति में समाज के वंचित वर्ग को शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने पर बल दिया गया। स्त्रियों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य शैक्षाणिक रूप से पिछड़े वर्गों तथा भारतीय समाज के अल्पसंख्यकों से शैक्षणिक अवसरों की समानता का वायदा किया गया।

(vi) नीति में शिक्षा प्रणाली को इस प्रकार पुनर्गठित करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया जिससे संविधान में वर्णित भारतीय जनता की आकांक्षाओं के अनुसार एक ऐसे समाज का निर्माण किया जा सके जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय तथा अवसरों की समानता पर आधारित हो।

(vii) शिक्षा के माध्यम से वैज्ञानिक, नैतिक तथा विवेकपूर्ण सामाजिक मूल्यों में वृद्धि पर बल दिया गया।

(viii) नयी पीढ़ी को स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास, मूल्यबोध, राष्ट्रीय एकीकरण, सांप्रदायिक तथा जातिगत विभाजन के खतरों तथा भारत की मिली-जुली संस्कृति से परिचित कराना।

(ix) व्यावसायिक शिक्षा का प्रबंध करना जिससे विद्यार्थी हाथ से काम करने के महत्त्व को समझ सके।

(x) छात्रों में अतीत तथा वर्तमान की उपलब्धियों के बारे में जागरुकता उत्पन्न करना जिससे कि उनमें अपनी क्षमताओं के प्रति विश्वास हो, राष्ट्र की उपलब्धियों के प्रति गौरव की अनूभूति हो। 1992 ई. से 1986 ई. की राष्ट्रीय शिक्षा की समीक्षा की गई तथा कहा गया कि इस नीति के पुनर्गठन की आवश्यकता नहीं है। 1992 ई. की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में “ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड” को उच्च प्राथमिक स्तर तक बढ़ाने की योजना बनाई गई तथा प्रत्येक विद्यालय में कम-से-कम तीन कमरों का प्रावधान किया गया।

प्रश्न 21.
शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य बताइए।
उत्तर:
विभिन्न दार्शनिकों, समाज-सुधारकों तथा शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य बताए हैं। प्रसित्र समाजशास्त्री गिलीन तथा गिलीन ने शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए हैं –

  • भाषा लिखने, बोलने एवं व्याकरण तथा गणित का ज्ञान देना।
  • जटिल संस्कृति को समझने हेतु ज्ञान देना।
  • बच्चे में सामाजिक अनुकूलन की क्षमता पैदा करना।
  • आर्थिक अनुकूलन की ट्रेनिंग देना।
  • सांस्कृतिक सुधार एवं वृद्धि में सहायता प्रदान करना।

पं. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार, “शिक्षा द्वारा मानव का एकीकृत विकास किया जाता है तथा नवयुवकों को समाज के लिए तैयार किया जाता है तथा नवयुवकों को समाज के लिए उपयोगी कार्य करने तथा सामूहिक जीवन में भाग लेने के लिए तैयार किया जाता है, लेकिन जब समाज में दिन-प्रतिदिन परिवर्तन हो रहे हों, यह जानना काफी कठिन है कि नवयुवकों को किस प्रकार तैरूार किया जाए तथा क्या लक्ष्य हों।”

प्रत्येक समाज के अपने मूल्य, आदर्श, संस्कृति, परंपराएं, विरासत तथा विचारधाराएँ होती हैं तथा शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण भी इन्हीं के अनुसार होता है। शिक्षा के कुछ उद्देश्य तो सार्वभौम होते हैं तथा कुछ उद्देश्य स्थानीय आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुसार होते हैं।

शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
(i) ज्ञान प्रदान करना-शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ज्ञान प्रदान करना है इसका तात्पर्य है बालक का मानसिक विकास करना। अपने व्यापक अर्थ में ज्ञान प्रदान करने का तार्य है कि मानसिक शक्तियों जैसे चिंतन, तर्क निर्णय आदि का समुचित तथा संतुलित विकास करना। वस्तुतः ज्ञान मानसिक विकास के लिए होता है न कि ज्ञान-ज्ञान के लिए।

(ii) सांस्कृतिक विकास-कुछ शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि शिक्षा का उद्देश्य सांस्कृतिक विकास करना अर्थात् व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाना है। महात्मा गाँधी के अनुसार, “संस्कृत प्रारंभिक वस्तु का आधार है। यह आपके व्यवहार के छोटे-से-छोटे हिस्से में परिलक्षित होनी चाहिए।”

(iii) चरित्र निर्माण-शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चरित्र निर्माण है। चरित्र का तात्पर्य है कि व्यक्ति में आंतरिक स्थायित्व तथा शक्ति का समुचित विकास हो। व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों का समुचित सामाजिकरण ही शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा के विभिन्न नैतिक गुणों जैसे प्रेम, सहानुभूति, सहयोग, बलिदान तथा सामाजिक सेवा आदि का सशक्त माध्यम है।

(iv) सर्वांगीण विकास-शिक्षा का उद्देश्य बालक का मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक विकास करना है। महात्मा गाँधी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक के शरीर, मन तथा आत्मा में निहित सर्वोत्तम गुणों के सर्वांगीण विकास से है।”

(v) सामाजिक अनुकूलन की क्षमता विकसित करना-शिक्षा के माध्यम से बालक सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन करना सीखता है। लैंडिस के अनुसार, “चूँकि शिक्षा आरंभ से ही कार्य करना प्रारंभ कर देती है तथा यह अभिवृत्तियों व मूल्यों को अत्यधिक प्रभावित करती है, अतः यह सामाजिक नियंत्रण के अन्य प्रकारों की तुलना में अधिक सफल होती है।”

(vi) आत्म-अभिव्यक्ति-आत्म-अभिव्यक्ति का तात्पर्य है कि बालक का विकास स्वतंत्र रूप से उसकी रुचियों, प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं के अनुरूप होना चाहिए। आत्म-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सामाजिक नियंत्रण के मापदंडों के दायरे में होनी चाहिए।

(vii) आत्म अनुभूति-शिक्षा का उद्देश्य बालक में ऐसी भावनाओं का विकास करना है जिससे वह उच्च नैतिक गुणों तथा आध्यात्मिक विचारों को प्राप्त कर सके। आत्म-अनुभूति का तात्पर्य है कि प्रकृति तथा मनुष्य को समझना एवं उनके मध्य अंतर्संबंध स्थापित करना। एक प्रजातांत्रिक देश में शिक्षा के उद्देश्य-कोठारी आयोग के द्वारा शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य बताए गए हैं –

  • उत्पादकता में वृद्धि करन
  • सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता का विकास करना
  • लोकतंत्र को सुदृढीकरण करना
  • राष्ट्र का आधुनिकीकरण करना
  • सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास

प्रश्न 22.
क्या शिक्षा का निजीकरण होना चाहिए? अपने विचार दीजिए।
उत्तर:
किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के सर्वांगीण विकास हेतु विकासोन्मुखी शिक्षा नीति अपरिहार्य है। शिक्षा का सार्वभौम उद्देश्य व्यक्तित्व तथा चरित्र का संतुलित विकास करना है जिससे सामाजिक विकास की धारा निर्वाध रूप से चलती रहे।

विकासशील देशों के सामने दो चुनौतियाँ प्रमुख हैं –

  • साक्षरता में वृद्धि करना
  • सर्वशिक्षा अभियान

सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत 6 से 14 वर्ष की आयु से सभी बच्चों को सन् 2010 ई. तक प्रारंभिक शिक्षा देने का प्रावधान किया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि शिक्षा का सार्वभौमीकरण किया जाए। भारतीय संविधान के अनुच्छेद में 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा देने का प्रावधान किया गया है।

1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्पष्ट कहा गया है कि –
(i) एक निश्चित स्तर तक सभी विद्यार्थियों को चाहे वे किसी भी जाति, वंश, स्थिति और लिंग के हों, गुणात्मक शिक्षा उपलब्ध होनी चाहिए।

(ii) समाज के वंचित वर्ग को शिक्षा के समान अवसर मिलने चाहिए। स्त्रियों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों तथा भारतीय समाज के असंख्यकों से शैक्षिक अवसरों की समानता का वायदा किया गया।

शिक्षा के उद्देश्यों के संदर्भ में हमारा मूल प्रश्न यह है कि शिक्षा के निजीकरण द्वारा इन उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है अथवा नहीं –

(i) शिक्षा के निजीकरण के अंतर्गत शिक्षण संस्थाओं का प्रबंधन तथा प्रशासन निजी संस्थाओं अथवा व्यक्तिगत उद्यमियों के नियंत्रण में होगा।

(ii) विचारणीय प्रश्न यह है कि निजीकरण के माध्यम से शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है ?

(iii) समाज के कमजोर वर्गों, स्त्रियों, अनुसूचित जाति, ग्राम्य समुदायों, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की शिक्षा हेतु प्रयास की दिशा क्या होगी जबकि शिक्षा बाजार के लाभ-हानि के सिद्धांत पर संचालित की जाएगी।

(iv) भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अत्यधिक असमानता है निजीकरण से यह असमानता और बढ़ेगी। अनेक समाज-सुधारक तथा शिक्षाशास्त्री वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर अभिजात्य होने का आरोप लगाते हैं। यदि ऐसी परिस्थितियों में शिक्षा का निजीकरण कर दिया गया तो शिक्षा संपन्न वर्ग का विशेषाधिकार बन जाएगी।

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि हमारे देश की परिस्थितियों में शिक्षा के निजीकरण का परिणाम होगा –

  • शिक्षा के सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया में बाधा आएगी।
  • कमजोर, वर्गों, जनजातीय तथा सुदूर पहाड़ी इलाकों तथा ग्राम्य समुदायों में शिक्षा का प्रसार अवरुद्ध हो जाएगा।
  • शिक्षा संपन्न वर्ग का विशेषाधिकार बनकर रह जाएगी।
  • देश के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विकास में असंतुलन उत्पन्न हो जाएगा।
  • राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करने में बाधा उत्पन्न होगी।

अंततः हम कह सकते हैं कि हमारे देश में शिक्षा का पूर्ण निजीकरण शिक्षा की प्रक्रिया को जनसाधारण से दूर कर देगा। भारत एक कल्याणकारी राज्य है, अतः सरकार का पुनीत कर्त्तव्य है शिक्षा के माध्यम से ज्ञान रूपी प्रकाश जन-जन तक पहुँचाए ।

प्रश्न 23.
समाज में धर्म के संगठन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सभी धर्मों में कोई-न-कोई संगठनात्मक स्वरूप अवश्य पाया जाता है। धार्मिक संगठनों का वर्गीकरण निम्नलिखित आधारों पर किया जा सकता है
(i) सदस्यता की प्रकृति –

  • अनिवार्य तथा
  • ऐच्छिक

(ii) धार्मिक समूहों का अन्य धार्मिक समूहों के प्रति दृष्टिकोण-एक धार्मिक समूह का दृष्टिकोण दूसरे धार्मिक समूह के प्रति दो प्रकार का हो सकता है –

  • उदार तथा
  • अनुदार

(iii) धर्मांतरण –

  • धर्मोतरण की आज्ञा तथा
  • धर्मांतरण का न होना।

(iv) धार्मिक समूह के संगठन की प्रकृति –

  • नमनीय तथा
  • अनमनीय

(v) पुरोहितों की भूमिक –

  • साधारण सदस्यों के हितों के लिए पुरोहितों की आवश्यकता।
  • साधारण सदस्यों के हितों के लिए पुराहितों की आवश्यकता न होना।

धार्मिक समूहों में संगठन की दृष्टि से रोमन कैथोलिक चर्च सबसे अधिक संगठित धार्मिक समूह है –

  • संपूर्ण विश्व के रोमन कैथोलिक चर्च का प्रधान पोप है, जो वेटिकन सिटी (रोम) में रहता है।
  • रोमन कैथोलिक चर्च में विश्व स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक पदसोपानक्रम पाया जाता है।
  • इसमें नौकरशाही जैसी संरचना पायी जाती है।

ईसाई धर्म में दो प्रमुख पंथ हैं –

  • कैथोलिक तथा
  • प्रोटेस्टेंट

पंथ की सदस्यता ऐच्छिक होती है तथा ये साधारणतया स्वयंसेवी समूह के रूप में कार्य करते हैं। पंथ पारस्परिक भाईचारी, समान उद्देश्य तथा समानता की भावना पर आधारित होते हैं। अन्य धार्मिक समूहों के प्रति असहिष्णुता के बावजूद पंथों का आंतरिक संगठन आमतौर पर लोकतांत्रिक होता है।

(ii) धार्मिक संप्रदाय – धार्मिक संप्रदाय अवयव कल्ट का निर्माण किसी विशिष्ट व्यक्ति की विचारधारा तथा चिंतन के परिणामस्वरूप होता है। समान विचार रखने वाले व्यक्तियों द्वारा इसका अनुसरण किया जाता है। कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक संप्रदाय के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए किसी अन्य धर्म में आस्था रख सकता है। पंथ की तुलना में संप्रदाय का आकार छोटा है तथा इसका जीवन भी कम होता है। वर्तमान समय में भारत में साईं बाबा तथा जयगुरुदेव आदि धार्मिक संप्रदाय हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
समुदाय को परिभाषित करनेवाला आवश्यक कारक है …………………..
(अ) सामान्य प्रथाएँ
(ब) सामान्य भाषा
(स) सामान्य धर्म
(द) सामान्य मात्रा
उत्तर:
(द) सामान्य मात्रा

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में से कौन समिति का उदाहरण नहीं है?
(अ) कॉलेज का छात्रावास
(ब) केन्द्रीय लोक सेवा आयोग
(स) गुप्त मतदान प्रणाली।
(द) भारतीय क्रिकेट टीम
उत्तर:
(ब) केन्द्रीय लोक सेवा आयोग

प्रश्न 3.
संघ के सदस्यों के बीच संबंध होते हैं ……………………..
(अ) बाहरी और स्थायी
(ब) भतरी और अस्थायी
(स) अन्तः संबंध एवं अस्थायी
(द) अन्तः संबंध तथा स्थायी
उत्तर:
(स) अन्तः संबंध एवं अस्थायी

प्रश्न 4.
खर्चे और बचत की आदतें बनती है …………………….
(अ) सांस्कृतिक रूप से
(ब) लघु अस्थायी अन्त:क्रिया से
(स) दार्शनिक रूप से
(द) मनोवैज्ञानिक रूप से
उत्तर:
(स) दार्शनिक रूप से

प्रश्न 5.
सामाजिक संस्था ‘नैसर्गिक’ है तो वह है …………………….
(अ) वर्ग
(ब) परिवार
(स) राजनैतिक दल
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(स) राजनैतिक दल

प्रश्न 6.
समाजशास्त्र में संस्था के रूप में परिभाषित है?
(अ) समुदाय
(ब) विवाह
(स) समाज
(द) व्यक्ति
उत्तर:
(स) समाज

प्रश्न 7.
भारत में अल्पायु समूह में लड़कियों का मृत्युदर लड़कों से ज्यादा है …………………..
(अ) ज्यादा
(ब) कम है
(स) निश्चित अनुपात में है
(द) अनिश्चित अनुपात में है
उत्तर:
(स) समाज

प्रश्न 8.
किस परिवार शास्त्री का मानना है? परिवार पति, पत्नी का बच्चों सहित अथवा बिना बच्चों का एक संघ है ………………….
(अ) मेकाइवर
(ब) एण्डरसन
(स) ऑगबर्न एवं निमकॉफ
(द) किंग्सले
उत्तर:
(अ) मेकाइवर

प्रश्न 9.
ऐसा परिवार जो स्त्री अथवा माता के विकास स्थान पर बसता है उसे क्या कहते हैं?
(अ) मातृ स्थानीय
(ब) मातृवंशीय
(स) मातृसत्तात्मक
(द) पितृस्थानीय
उत्तर:
(अ) मातृ स्थानीय

प्रश्न 10.
विवाह के रूप में होते हैं …………………..
(अ) दो
(ब) तीन
(स) पाँच
(द) इनमें कोई नहीं
उत्तर:
(अ) दो

प्रश्न 11.
समाजशास्त्री एम. एम. साह का कथन है कि स्वतंत्रता के बाद संयुक्त परिवार में …………………
(अ) निरंतर कमी हुई है
(ब) रूक-रूक वृद्धि हुई है
(स) रूक-रूक कर कमी हुई
(द) निरंतर वृद्धि हुई है
उत्तर:
(द) निरंतर वृद्धि हुई है

प्रश्न 12.
निम्न में कौन-सा समाज नहीं है ………………
(अ) आर्यसमाज
(ब) ब्रह्म समाज
(स) प्रार्थना समाज
(द) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(द) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 13.
संस्था की अवधारणा किसने दिया था?
(अ) हेर्वटस्पेंसर
(ब) कॉर्ल मार्क्स
(स) मैक्स वेबर
(द) वीरकान्त
उत्तर:
(अ) हेर्वटस्पेंसर

प्रश्न 14.
मॉर्गन के अनुसार पविार की प्रथम अवस्था की ………………….
(अ) पुनालुअन परिवार
(ब) एक विवाही परिवार
(स) समरक्त परिवार
(द) सिण्डस्मियन परिवार
उत्तर:
(स) समरक्त परिवार


BSEB Textbook Solutions PDF for Class 11th


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