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Wednesday, June 22, 2022

BSEB Class 11 Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Book Answers

BSEB Class 11 Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Book Answers
BSEB Class 11 Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Book Answers


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Bihar Board Class 11th Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Textbooks Solutions PDF

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Bihar Board Class 11th Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
Format DOC/PDF
Class 11th
Subject Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)
Chapters All
Provider Hsslive


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BSEB Class 11th Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Textbooks Solutions with Answer PDF Download

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Bihar Board Class 11 Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रमाणशास्त्र (Theory of knowledge) का महत्त्व है –
(क) तर्क विद्या के महत्त्व को बढ़ाने के कारण
(ख) धर्म विद्या के महत्त्व को बढ़ाने के कारण
(ग) नीतिशास्त्र के महत्त्व को बढ़ाने के कारण
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) तर्क विद्या के महत्त्व को बढ़ाने के कारण

प्रश्न 2.
प्रमा है –
(क) ज्ञान का वास्तविक रूप
(ख) ज्ञान का अवास्तविक रूप
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) ज्ञान का वास्तविक रूप

प्रश्न 3.
‘उपमान’ का शाब्दिक अर्थ होता है –
(क) सादृश्यता या समानता के द्वारा संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध का ज्ञान होना
(ख) समानुपात के द्वारा संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सादृश्यता या समानता के द्वारा संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध का ज्ञान होना

प्रश्न 4.
न्याय – दर्शन के अनुसार ‘शब्द’ के क्या अर्थ हैं?
(क) विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ का ज्ञान
(ख) ‘शब्द’ के अर्थ का ज्ञान
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ का ज्ञान

प्रश्न 5.
पद हैं –
(क) आकृति विशेष
(ख) जाति-विशेष
(ग) प्राकृति विशेष
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 6.
न्याय दर्शन के अनुसार शब्द होते हैं –
(क) नित्य (Eternal)
(ख) अनित्य (Not-eternal)
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) अनित्य (Not-eternal)

प्रश्न 7.
गौतम के अनुसार न्याय के प्रकार हैं –
(क) पूर्ववत् अनुमान
(ख) शेषवत् अनुमान
(ग) समान्तयो दृष्टि
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 8.
पंचावयव में प्रतिज्ञा का कौन-सा स्थान है?
(क) पहला
(ख) दूसरा
(ग) तीसरा
(घ) चौथा
उत्तर:
(क) पहला

प्रश्न 9.
न्याय की ज्ञानमीमांसा (Nyaya theory of knowledge) का पहला अंग है –
(क) अनुमान
(ख) प्रत्यक्ष
(ग) उपमान
(घ) शब्द
उत्तर:
(ख) प्रत्यक्ष

प्रश्न 10.
न्याय दर्शन के प्रतिपादक हैं –
(क) महर्षि गौतम
(ख) महर्षि कणाद
(ग) महर्षि कपिल
(घ) महात्मा बुद्ध
उत्तर:
(क) महर्षि गौतम

प्रश्न 11.
न्याय दर्शन को कितने खण्डों में बाँटा गया है –
(क) चार
(ख) तीन
(ग) दो
(घ) पाँच
उत्तर:
(क) चार

प्रश्न 12.
न्यायशास्त्र के अनुसार ज्ञान के स्वरूप है –
(क) प्रभा (Real knowledge)
(ख) अप्रभा (Non-real Knowledge)
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

प्रश्न 13.
न्याय के अनुसार प्रमाण है –
(क) प्रत्यक्ष एवं अनुमान
(ख) प्रत्यक्ष एवं उपमान
(ग) अनुमान एवं शब्द
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 14.
ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान कहलाता है –
(क) प्रत्यक्ष (Perception)
(ख) उपमान (Comparison)
(ग) शब्द (Verbal authority)
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) प्रत्यक्ष (Perception)

प्रश्न 15.
मीमांसा दर्शन के प्रर्वतक कौन थे?
(क) महर्षि जेमिनी
(ख) महर्षि गौतम
(ग) महर्षि कणाद
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) महर्षि जेमिनी

प्रश्न 16.
परार्थानुमान में कितने वाक्यों (Propositions) की आवश्यकता होती है –
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर:
(घ) पाँच

प्रश्न 17.
न्याय दर्शन के अनुसार पदार्थों की संख्या है –
(क) 8
(ख) 5
(ग) 16
(घ) 14
उत्तर:
(ग) 16

प्रश्न 18.
प्रयोजनानुसार अनुमान होते हैं –
(क) स्वार्थानुमान एवं परमार्थानुमान
(ख) पूर्ववत् एवं शेषवत् अनुमान
(ग) सामान्य तो दृष्टि अनुमान
(घ) परमार्थानुमान केवल
उत्तर:
(क) स्वार्थानुमान एवं परमार्थानुमान

प्रश्न 19.
‘अक्षपाद’ नाम से कौन जाने जाते हैं?
(क) महर्षि गौतम
(ख) महर्षि नागार्जुन
(ग) महर्षि कपिल
(घ) महर्षि चर्वाक
उत्तर:
(क) महर्षि गौतम

Bihar Board Class 11 Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘प्रमाण’ के कितने प्रकार हैं?
उत्तर:
गौतम के अनुसार प्रमाण के चार प्रकार हैं। वे हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द।

प्रश्न 2.
न्याय-दर्शन के अनुसार ‘शब्द’ (Verbal Authority) के अभिप्राय को स्पष्ट करें।
उत्तर:
न्याय-दर्शन के अनुसार, ‘शब्द’ चौथा प्रमाण है। किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।

प्रश्न 3.
उपमान क्या है? अथवा, उपमान (Comparison) का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर:
न्याय-दर्शन के अनुसार ‘उपमान’ को प्रमाण का तीसरा भेद बताया गया है। उपमान का शाब्दिक अर्थ होता है, सादृश्यता या समानता के द्वारा संज्ञा-संज्ञि-संबंध का ज्ञान होना।

प्रश्न 4.
न्याय दर्शन के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर:
न्याय दर्शन के प्रवर्तक गौतम ऋषि माने जाते हैं।

प्रश्न 5.
व्याप्ति-सम्बन्ध क्या है?
उत्तर:
दो वस्तुओं के बीच एक आवश्यक सम्बन्ध जो व्यापक माना जाता है, इसे ही . व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal relation) से जानते हैं। जैसे-धुआँ और आग में व्याप्ति सम्बन्ध है।

प्रश्न 6.
अनुमान क्या है?
उत्तर:
अनुमान का अर्थ होता है, एक बात से दूसरी बात को जान लेना। यदि कोई बात हमें प्रत्यक्ष या आगमन के द्वारा जानी हुई है तो उससे दूसरी बात भी निकाल सकते हैं। इसी को अनुमान कहते हैं। गौतम अनुमान को प्रमाण का दूसरा भेद मानते हैं।

प्रश्न 7.
प्रमाणशास्त्र (Theory of knowledge) का न्याय दर्शन में क्या महत्त्व है?
उत्तर:
पूरे न्याय दर्शन का महत्त्व उसके प्रमाणशास्त्र को लेकर है, जिसमें शुद्ध विचार के नियमों का वर्णन है। उन नियमों के पालन से तत्त्व-ज्ञान प्राप्त करने के उपायों पर प्रकाश डाला गया है। तर्क विद्या के महत्त्व को बढ़ाने के कारण न्याय दर्शन को लोग ‘न्याय-शास्त्र’ कहकर पुकारते हैं, जो भारतीय तर्कशास्त्र (Indian logic) का प्रतीक बन गया है।

प्रश्न 8.
न्याय दर्शन को कितने खण्डों में बाँटा जा सकता है?
उत्तर:
न्याय दर्शन को चार खण्डों में बाँटा जाता हैं वे हैं-प्रमाणशास्त्र, संसार सम्बन्धी विचार, आत्मा एवं मोक्ष विचार तथा ईश्वर-विचार।

प्रश्न 9.
‘प्रमाण’ क्या है?
उत्तर:
‘प्रमा’ को प्राप्त करने के जितने साधन हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहा गया है। गौतम के अनुसार प्रमाण के चार साधन हैं।

प्रश्न 10.
प्रत्यक्ष (Perception) क्या है?
उत्तर:
वे सभी ज्ञान जो हमें ज्ञानेन्द्रियों (Sense Organs) के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हें हम प्रत्यक्ष (Perception) कहते हैं। प्रत्यक्ष तभी संभव है, जब इन्द्रियाँ और पदार्थ के बीच सम्पर्क हो।

प्रश्न 11.
‘प्रमा’ (Real knowledge) क्या है?
उत्तर:
न्यायशास्त्र में ज्ञान के दो स्वरूप बताए गए हैं-प्रमा और अप्रमा। प्रमा ही ज्ञान का वास्तविक रूप है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उपमान एवं अनुमान (Comparison and inference) के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करें। अथवा, उपमान एवं अनुमान के बीच क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
अनुमान प्रत्यक्ष के आधार पर ही होता है लेकिन अनुमान प्रत्यक्ष से बिल्कुल ही भिन्न क्रिया है। अनुमान का रूप व्यापक है। उसमें उसका आधार व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal relation) रहता है, जिसमें निगमन यानि निष्कर्ष में एक बहुत बड़ा बल रहता है तथा वह सत्य होने का अधिक दावा कर सकता है। दूसरी ओर, उपमान भी प्रत्यक्ष पर आधारित है, लेकिन अनुमान की तरह व्याप्ति-सम्बन्ध से सहायता लेने का सुअवसर प्राप्त नहीं होता है।

उपमान से जो कुछ ज्ञान हमें प्राप्त होता है उसमें कोई भी व्याप्ति-सम्बन्ध नहीं बतलाया जा सकता है। अतः उपमान से जो निष्कर्ष निकलता है वह मजबूत है और हमेशा सही होने का दावा कभी नहीं कर सकता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुमान को उपमान पर उस तरह निर्भर नहीं करना पड़ता है जिस तरह उपमान अनुमान पर निर्भर करता है। सांख्य और वैशेषिक दर्शनों में ‘उपमान’ को एक स्वतंत्र प्रमाण नहीं बताकर अनुमान का ही एक रूप बताया गया है। अगर हम आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो पाएँगे कि उपमान भले ही ‘अनुमान’ से अलग रखा जाए लेकिन अनुमान का काम ‘उपमान’ में हमेशा पड़ता रहता है।

प्रश्न 2.
पदार्थ-प्रत्यक्ष (Object-Perception) का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
किसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हमारे सामने कोई पदार्थ वस्तु या द्रव्य हो। जब हमारे सामने ‘गाय’ रहेगी तभी हमें उसके सम्बन्ध में किसी तरह का प्रत्यक्ष भी हो सकता है। अगर हमारे सामने कोई पदार्थ या वस्तु नहीं रहे तो केवल ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रत्यक्ष का निर्माण नहीं कर सकती हैं। इसलिए प्रत्यक्ष के लिए बाह्य पदार्थ या वस्तु का होना आवश्यक है। न्याय दर्शन में सात तरह के पदार्थ बताए गए हैं। वे हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय एवं अभाव। इनमें ‘द्रव्य’ को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसके बाद अन्य सभी द्रव्य पर आश्रित हैं।

प्रश्न 3.
प्रमाण-शास्त्र (Theory of knowledge) के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
पूरा न्याय-दर्शन गौतम के प्रमाण सम्बन्धी विचारों पर आधारित है। प्रमाणशास्त्र ज्ञान प्राप्त करने के साधनों (Sources of knowledge) पर प्रकाश डालने का प्रयास करता है। न्यायशास्त्र में ज्ञान के दो रूप बताए गए हैं-प्रमा और अप्रमा। प्रमा ही ज्ञान का वास्तविक रूप है। प्रमा को प्राप्त करने के जितने साधन बताए गए हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहते हैं।

प्रमाण के सम्बन्ध में जो विचार पाए जाते हैं, उन्हें ही प्रमाण-शास्त्र के नाम से पुकारते हैं। न्याय-शास्त्र में प्रमाण के चार प्रकार बताएँ गए हैं। दूसरे शब्दों में गौतम के अनुसार चार तरह के शब्दों से वास्तविक ज्ञान यानि ‘प्रमा’ की प्राप्ति हो सकती है। वे हैं – प्रत्यक्ष (Perception), अनुमान (Inference), उपमान (Comparison) एवं शब्द (Verbal Authority)।

प्रश्न 4.
न्याय-दर्शन के आधार पर ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें। अथवा, भारतीय दर्शन में ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।
उत्तर:
जिस किसी शब्द में अर्थ या संकेत की स्थापना हो जाती है, उसे ‘पद’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में शक्तिमान शब्द को हम पद कहते हैं। किसी पद या शब्द में निम्नलिखित अर्थ या संकेत को बतलाने की शक्ति होती है –

1. व्यक्ति-विशेष (Individual):
यहाँ ‘व्यक्ति’ का अर्थ है वह वस्तु जो अपने गुणों के साथ प्रत्यक्ष हो सके। जैसे-हम ‘गाय’ शब्द को लें। वह द्रव्य या वस्तु जो गाय के सभी गुणों की उपस्थिति दिखावे गाय के नाम से पुकारी जाएगी। न्याय-सूत्र के अनुसार गुणों का आधार-स्वरूप जो मूर्तिमान द्रव्य है, वह व्यक्ति है।

2. जाति-विशेष (Universal):
अलग-अलग व्यक्तियों में रहते हुए भी जो एक समान गुण पाया जाए उसे जाति कहते हैं। पद में जाति बताने की भी शक्ति होती है। जैसे-संसार में ‘गाय’ हजारों या लाखों की संख्या मे होंगे लेकिन उन सबों की ‘जाति’ एक ही कही जाएगी।

3. आकृति-विशेष (Form):
पद में आकृति (Form) को बतलाने की शक्ति होती है। आकृति का अर्थ है, अंगों की रचना। जैसे-सींग, पूँछ, खूर, सर आदि हिस्से को देखकर हमें ‘जानवर’ का बोध होता है। इसी तरह, दो पैर, दो हाथ, दो आँखें, शरीर, सर आदि को देखकर आदमी (मानव) का बोध होता है।

प्रश्न 5.
‘परार्थानुमान’ से आप क्या समझते हैं? अथवा, पंचावयव (Five-membered syllogisem) के अर्थ को स्पष्ट करें।
उत्तर:
जब हमें दूसरों के सामने तथ्य (facts) के प्रदर्शन की जरूरत पड़ती है तो अपने अनुमान से दूसरे को सहमत करने की जरूरत पड़ती हैं, वहाँ हमारा अनुमान परार्थानुमान (knowledge for others) कहलाता है। परार्थानुमान में हमें अपने विचारों को सुव्यवस्थित करना पड़ता है तथा अपने वाक्यों को सावधानी और आत्मबल (Self Confidence) के साथ एक तार्किक शृंखला (Logical Chain) में रखना पड़ता है।

इसलिए परार्थानुमान में हमें पाँच वाक्यों (Five propositions) की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार के अनुमान में पाँच भाग होते हैं। इसे ही पंचावयव (Five membered syllogism) के नाम से पुकारा जाता है। गौतम के अनुसार अनुमान में पाँच वाक्यों का होना बिल्कुल ही आवश्यक है। इसे हम निम्नलिखित ढंग से उदाहरण के रूप में रख सकते हैं –

(क) पहाड़ पर आग है। – प्रतिज्ञा
(ख) क्योंकि इसमें धुआँ है। – हेतु
(ग) जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है। – व्याप्ति
(घ) पहाड़ पर धुआँ है। – उपनय
(ङ) इसलिए पहाड़ पर आग है। – निगमन

प्रश्न 6.
क्या शब्द ‘नित्य’ (Eternal) है?
उत्तर:
नित्य का मतलब है कि जिसका न तो आदि हो और न अन्त (End)। इसी तरह अनित्य का मतलब होता है जिसका आदि और अन्त जाना जा सकें। क्या शब्द नित्य है ? इस संबंध में न्याय-दर्शन एवं मीमांसा-दर्शन के विद्वानों में मतभेद पाए जाते हैं। मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक महर्षि जेमिनि का कहना है कि ‘शब्द’ नित्य (Eternal) है।

कहने का मतलब इसका आदि और अंत नहीं होता है। शब्द की न तो उत्पत्ति होती है और न इनका विनाश हो सकता है। ‘शब्द’ का अस्तित्व तो अनादि काल से है। उनके अनुसार शब्द के ऊपर एक आवरण रहता है जिस कारण उसे हम हमेशा सुन नहीं सकते। जब वह आवरण हट जाता है तो वह सुनाई पड़ता हैं। जेमिनि ऋषि का तर्क है कि ‘शब्द’ का विनाशक कारण तो कुछ भी देखने को मिलता नहीं है, तो फिर उसका विनाश कैसे होगा?

न्याय-दर्शन मीमांसा के मत का खंडन करते हुए यह बतलाता है कि शब्द अनित्य (Note eternal) है। कहने का मतलब शब्द का जन्म होता है और उसका विनाश भी होता है। अभिप्राय यह है कि शब्द का आदि और अन्त दोनों सम्भव है। गौतम के अनुसार ‘शब्द’ का विनाशक कारण है, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता है। अगर हमारी इच्छा हो तो उस विनाश कारक को अनुमान (Inference) के द्वारा जान सकते हैं वात्स्यायन भी गौतम की बात का जोरदार समर्थन करते हैं।

न्याय-दर्शन के विद्वानों का तर्क है कि शब्द की उत्पत्ति’ होती है, अभिव्यक्ति नहीं। अभिव्यक्ति तो उसकी होती है जो पहले से रहता है तथा जो आवरण में छिपे रहने के कारण दिखाई नहीं पड़ता है। ऐसी बात शब्द के साथ नहीं है। न्याय दर्शन के समर्थकों का कहना है कि अगर शब्द नित्य है तो वह ‘शाश्वत’ क्यों नहीं बना रहता यानि हमेशा कायम क्यों नहीं रहता? अतः शब्द उत्पन्न होने पर ही सुनाई पड़ता है। इसलिए शब्द अनित्य (Not-eternal) है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शब्द क्या है? शब्द के मुख्य प्रकारों या भेदों की व्याख्या करें। अथवा, न्याय दर्शन के अनुसार शब्द के अर्थ को स्पष्ट करें। शब्द के मुख्य प्रकारों की व्याख्या करें।
उत्तर:
बौद्ध, जैन, वैशेषिक दर्शन शब्द को अनुमान का अंग मानते हैं जबकि गौतम के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण (Source of knowledge) है। अनेक शब्दों एवं वाक्यों द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है उसे हम शब्द कहते हैं। सभी तरह के शब्दों से हमें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। अतः ऐसे ही शब्द को हम प्रमाण मानेंगे जो यथार्थ तथा विश्वास के योग्य हो।

भारतीय विद्वानों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जब वह विश्वासी आदमी का निश्चयबोधक वाक्य हो, जिसे आप्त वचन भी कह सकते हैं। संक्षेप में, “किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।” अतः रामायण, महाभारत या पुराणों से जो ज्ञान हमें मिलते हैं, वह प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान के द्वारा नहीं मिलते हैं, बल्कि ‘शब्द’ (verbal authority) के द्वारा प्राप्त होते हैं।

‘शब्द’ के ज्ञान में तीन बातें मुख्य हैं। वे हैं-शब्द के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया। शब्द ऐसे मानव के हों जो विश्वसनीय एवं सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय, जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हों। शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हो। कहने का अभिप्राय है कि यदि कृष्ण के उपदेश को यदि अंग्रेजी भाषा में हिन्दी भाषियों को सुनाया जाए तो उन्हें समझ में नहीं जाएगी।

शब्द के प्रकार या भेद (Kinds or Forms of Types of Verbal Authority):
शब्द के वृहत् अर्थानुसार कान का जो विषय है वह ‘शब्द’ कहलाता है। इस दृष्टिकोण से शब्द के दो प्रकार होते हैं –

1. ध्वनि-बोधक (Inarticulate) शब्द:
जिसमें केवल एक ध्वनि या आवाज ही कान को सुनाई पड़ती है, उससे कोई अक्षर प्रकट नहीं होता है। जैसे–मृदंग या सितार की आवाज को, गधे का रेंगना आदि।

2. वर्ण-बोधक (Articulate) शब्द:
जिसमें कंठ, तालु आदि के संयोग से स्वर-व्यंजनों का उच्चारण प्रकट होता है। जैसे-मानव की आवाज-पानी, हवा, आम, मछली आदि।

वर्ण-बोधक शब्द के भी दो रूप होते हैं –

3. सार्थक (meaningful) शब्द:
सार्थक शब्दों में कुछ-न-कुछ अर्थ छिपे रहते हैं। जैसे-धर्म, कॉलेज, पूजा, पुस्तक, भवन आदि।

4. निरर्थक (unmeaningful) शब्द:
निरर्थक शब्द के अर्थ प्रकट नहीं होते हैं। जैसे – आह, ओह, उफ, खट, पट आदि। तर्कशास्त्र में हमारा सम्बन्ध केवल सार्थक शब्दों से ही रहता है क्योंकि तर्कशास्त्र का विषय विचार है। कोई भी विचार सार्थक शब्दों द्वारा ही प्रकट किए जाते हैं।

नैयायिकों ने शब्द के दो प्रकार बताए हैं। वे निम्नलिखित हैं –

1. दृष्टार्थ (Perceptible) शब्द:
दृष्टार्थ शब्द उसे कहेंगे जिसका ज्ञान प्रत्यक्ष (Percep tion) के द्वारा प्राप्त हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि सभी शब्दों का प्रत्यक्ष हमें हमेशा ही हो। जैसे-हिमालय पहाड़, आगरा का ताजमहल, नई दिल्ली का संसद भवन आदि की बात की जाए तो वे दृष्टार्थ शब्द होंगे क्योंकि उनका प्रत्यक्ष संभव है।

2. अदृष्टार्थ (Inperceptible) शब्द:
अदृष्टार्थ शब्द वे हैं जो सत्य तो माने जाते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष की पहुँच से बिल्कुल बाहर रहते हैं। ऐसे शब्द आप्त वचन या विश्वसनीय लोगों के मुँह से सुनाई पड़ते हैं, यदि उन शब्दों का प्रत्यक्षीकरण करना चाहें तो संभव नहीं है।

जैसे-ईश्वर, मन, आत्मा, अमरता आदि ऐसे शब्द हैं जिन्हें हम सत्य तो मान लेते हैं लेकिन उसका प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। इसी तरह बड़े-बड़े महात्माओं एवं ऋषि-मुनियों की पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, नीति-अनीति आदि बातों का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। सूत्र के आधार पर नैयायिकों ने शब्द के दो भेद बताए हैं। वे हैं-वैदिक शब्द (Words of Vedas) एवं लौकिक शब्द (Words of human being)।

वैदिक शब्द (Words of vedas of God):
भारतवर्ष में ‘वेद’ आदि ग्रन्थ है। वैदिक वचन ईश्वर के वचन माने जाते हैं। ऐसे शब्द की सत्यता पर संदेह की बातें नहीं की जा सकती हैं। इसे हम ब्रह्मवाक्य नाम से जानते हैं। वैदिक शब्द सदा निर्दोष, अभ्रान्त, विश्वास-पूर्ण तथा पवित्र माने जाते हैं। कहने का अभिप्राय वैदिक शब्दों को बहुत से भारतीय स्वतः एक प्रमाण मानते हैं। वैदिक शब्द या वाक्य तीन प्रकार के हैं –

(क) विधि वाक्य:
विधि वाक्य में हम एक तरह की आज्ञा या आदेश पाते हैं। जैसे-जो स्वर्ग की इच्छा रखते हैं, वे अग्निहोत्र होम करें।

(ख) अर्थवाद:
अर्थवाद वर्णनात्मक वाक्य के रूप में हम पाते हैं। इसके चार प्रकार माने जाते हैं –

(i) स्तुतिवाक्य:
स्तुति-वाक्य में किसी काम का फल बतलाकर किसी की प्रशंसा की जाती है। जैसे-अमुक यज्ञ को पूरा कर अमुक व्यक्ति ने यश की प्राप्ति की।

(ii) निंदा वाक्य:
निंदा वाक्य में बुरे काम के फल को बतलाकर उसकी निंदा की जाती है। जैसे-पाप कर्म करने से मनुष्य नरक में जाता है।

(iii) प्रकृति वाक्य:
प्रकृति वाक्य में मानव के द्वारा किए हुए कामों में विरोध दिखलाया जाता है। जैसे-कोई पूरब मुँह होकर आहुति करता है और कोई पश्चिम मुँह।

(iv) पुराकल्प वाक्य:
पुराकल्प वाक्य ऐसी विधि को बतलाता है जो परम्परा से चली आती है। जैसे-‘महान संतगण’ यही कहते आते हैं, अतः हम इसे ही करें।

(ग) अनुवाद:
अनुवाद वैदिक वाक्य का तीसरा रूप कहा जा सकता है। इसमें पहले से। कही हुई बातों को दुहरा (repeat) किया जाता है।

लौकिक शब्द (Words of human beings):
सामान्य रूप से मनुष्य के वचन को हम लौकिक शब्द कह सकते हैं। लौकिक शब्द वैदिक शब्द की तरह पूर्णतः सत्य होने का दावा नहीं कर सकता है। मनुष्य के वचन झूठे भी हो सकते हैं। यदि लौकिक शब्द किसी महान् या विश्वसनीय पुरुष के द्वारा कहे जाएँ तो वे शब्द भी वैदिक वचन की तरह सत्य माने जाते हैं।

मीमांसा – दर्शन में भी शब्द के दो भेद बताए गए हैं। वे हैं-‘पौरुषेय’ और ‘अपौरुषेय’। नैयायिकों ने जिस शब्द को लौकिक कहा है, उसी को मीमांसा-दर्शन में ‘पौरुषेय’ कहा जाता है। जैसे मनुष्य के वचन या आप्तवचन ‘पौरुषेय’ शब्द कहलाते हैं। दूसरी ओर, वैदिक शब्द को मीमांसा-दर्शन में ‘अपौरुषेय’ शब्द से पुकारा जाता है। मीमांसा-दर्शन वैदिक शब्द की सत्यता एवं प्रामाणिकता को सिद्ध करना ही अपना लक्ष्य मानता है। अतः वहाँ ‘शब्द-प्रमाण’ का सहारा आवश्यक हो जाता है।

प्रश्न 2.
न्याय-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में वाक्य (sentence) के अर्थ को स्पष्ट करें। वाक्य को अर्थपूर्ण होने के लिए किन-किन बातों की आवश्यकता पड़ती है? अथवा, नैयायिकों के अनुसार वाक्य को अर्थपूर्ण होने हेतु किन-किन बातों की जरूरत होती है?
उत्तर:
न्याय-शास्त्र के विद्वान के अनुसार, ‘पदों के समूह का नाम वाक्य है।’ किसी वाक्य से जो अर्थ निकलता है, उसे ‘शब्द-बोध’ या वाक्यार्थ ज्ञान (verbal cognition) कहा जाता हैं। सभी पदों के समूह को हम वाक्य नहीं कह सकते हैं, बल्कि ऐसे ही पदों का समूह वाक्य कहलाता है, जिसका अर्थ निकले। किसी भी वाक्य को अर्थपूर्ण होने के लिए चार बातें आवश्यक हैं।

वे हैं-आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि या आसक्ति एवं तात्पर्य। यहाँ इस तथ्य को स्पष्ट कर देना प्रासंगिक प्रतीत होता है कि प्राचीन न्याय-दर्शन में केवल तीन बातों, यथा-आकांक्षा, योग्यता एवं आसक्ति को आवश्यक माना गया है जबकि नव्य-न्याय के अनुसार ‘तात्पर्य’ को भी आवश्यक ‘माना गया है।

1. आकांक्षा:
वाक्य होने के लिए पदों को आपस में एक-दूसरे की अपेक्षा रहती है, जिसे ही हम आकांक्षा कहते हैं। कहने का मतलब जब एक पद दूसरे के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करता है, तभी वाक्य से अर्थ निकलता है। जैसे, जब हम ‘मनुष्य’ और ‘मरणशील’ में सम्बन्ध स्थापित करते हुए कहते हैं कि ‘मनुष्य’ मरणशील है तो यह वाक्य का उदाहरण है।

2. योग्यता:
वाक्यों के पदों के द्वारा जिन वस्तुओं का बोध होता है, यदि उसमें कोई विरोध नहीं हो तो इस विरोधाभाव (Absence of contradiction) को ‘योग्यता’ कहते हैं। उदाहरण के लिए, हम यदि कहें कि ‘आग से प्यास बुझायी जाती है, तो इस वाक्य में योग्यता का अभाव है।’ यदि हम कहते हैं कि ‘पानी से प्यास बुझती है’ तो इस वाक्य में योग्यता का भाव है।

3. सन्निधि या आसक्ति:
वाक्य में पदों (Terms) का एक-दूसरे से समीपता (Near ness) होना ही ‘सन्निधि’ या ‘आसक्ति’ है। कहने का अभिप्राय यदि पदों के बीच समय (time) या स्थान (Place) की बहुत ही लम्बी दूरी हो तो आकांक्षा और योग्यता रहते हुए भी अर्थ नहीं निकल सकता है। अतः पदों की निकटता वाक्य के लिए आवश्यक है। यदि हम एक पेज में लिखें ‘मनुष्य’ फिर दो-चार पन्ने के बाद लिखें ‘मरणशील’ है तो उससे वाक्य का निर्माण नहीं होगा क्योंकि सभी पद बहुत दूर-दूर हैं। यद्यपि सबों में वाक्य बनाने की ‘आकांक्षा’ और ‘योग्यता’ मौजूद है।

4. तात्पर्य:
नव्य-नैयायिकों को अनुसार ‘तात्पर्य’ का जानना किसी वाक्य के लिए बहुत आवश्यक है। कहने का मतलब है कि किसी ‘पद’ का अर्थ, समय और स्थान के साथ बदल सकता है। अतः बोलनेवाले या लिखनेवाले का अभिप्राय भी समझना आवश्यक है। जैसे- कनक, Page, Light का अर्थ क्रमशः सोना या धतूरा, नौकर या पृष्ठ, प्रकाश या हल्का होता है। अतः वाक्य लिखते समय ‘पद’ के प्रयुक्त अर्थ को लिखना आवश्यक है ताकि वाक्य को समझने में कठिनाई न हो।

प्रश्न 3.
हेत्वाभास से आप क्या समझते हैं? हेत्वाभास के मुख्य प्रकारों की संक्षेप में व्याख्या करें? अथवा, हेत्वाभास क्या है? इसके भेदों को लिखें।
उत्तर:
अनुमान करना मनुष्य का स्वभाव है। साथ ही गलती करना भी मानव का स्वभाव है। अनुमान करते समय जब हमसे भूल होती है तो भारतीय तर्कशास्त्र में हेत्वाभास कहा जाता है। ‘हेत्वाभास’ का व्यवहार संकुचित एवं वृहत् दोनों अर्थों में होता है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में सत्य को दो रूप में देखा जाता है। वे हैं आकारिक (Formal) एवं वास्तविक (material)। इसलिए वहाँ अनुमान में दो तरह की भूलें हो सकती है। वे हैं-आकारिक एवं वास्तविक। लेकिन भारतीय तर्कशास्त्र में केवल वास्तविक सत्यता पर ही विचार किया जाता है। अतः यहाँ आकारिक दोष की चर्चा नहीं की जाती है।

हेत्वाभास वैसा अनुमान है, जिसमें अययार्थ हेतु केवल देखने में हेतु-सा प्रतीत होता है। हेत्वाभास का शाब्दिक अर्थ है-हेतु + आभास। यानि हेतु-सा जिसका आभास हो। वस्तुतः ऐसे हेतु नहीं होने पर वैसा प्रतीत होते हैं। नैयायिकों के अनुसार ऐसे दोष वास्तविक होते हैं, आकारिक नहीं। हेत्वाभास के भेद या प्रकार-नैयायिकों के हेत्वाभास के पाँच प्रकार बताए हैं, जो निम्नलिखित हैं –

1. सव्यभिचार (Irregular Middle):
अनुमान में निष्कर्ष हेतु (Middle term) पर निर्भर करता है। हेतु का साध्य (Major term) के साथ व्याप्ति सम्बन्ध होने से अनुमान शुद्ध हो जाता है। कहने का अभिप्राय हेतु साध्य के साथ नियमित साहचर्य होना चाहिए।

जब तक हेतु तथा साध्य का सम्बन्ध नियत तथा अनौपचारिक (Unconditional) नहीं होगा तबतक उस – व्याप्ति पर आधारित अनुमान भी गलत होगा। इस गलती को भी सव्यभिचार कहते हैं। इस प्रकार के अनुमान में हेतु साख्य के साथ रह भी सकता है और नहीं भी।
जैसे – सभी ज्ञात पदार्थों में आग है।

पहाड़ ज्ञात पदार्थ है।
∴ पहाड़ पर आग है।

यहाँ हेतु (Middle term) एवं साध्य (Major Term) में नियत साहचर्य नहीं है, क्योंकि हेतु साध्य से अलग भी पाया जाता है। यह आवश्यक नहीं कि सभी ज्ञात पदार्थों में आग हो।

2. विरुद्ध हेतु (Contradictory Middle):
अनुमान में हेतु के आधार पर ही साध्य को सिद्ध किया जाता है जो हम साबित करना चाहते हैं, अगर उसका विपरीत (opposite) ही हेतु द्वारा साबित हो तो अनुमान गलत समझा जाएगा तथा उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं। जैसे-हवा भारी है क्योंकि वह अविरक्त (empty) है। यहाँ अविरक्त पद हेतु है लेकिन यह हल्कापन सिद्ध करता है, न कि भारीपन। अतः यहाँ जो सिद्ध करना है उसका उल्टा हेतु द्वारा सिद्ध होता है।

3. सत्यप्रतिपक्ष हेतु (Inferentially contradicted middle):
जब साध्य के पक्ष तथा विपक्ष में दो समान हेतु रहे तो अनुमान के इस दोष को सत्यप्रतिपक्ष हेत्वाभास कहते हैं। इन दोनों हेतुओं में एक साध्य को प्रमाणित करता है तो दूसरा अप्रमाणित। दोनों हेतुओं का बल बराबर रहता है। जैसे-शब्द नित्य है क्योंकि वह सब जगह सुनाई पड़ता है। शब्द अनित्य है क्योंकि घर की तरह वह एक कार्य है। यहाँ दूसरा अनुमान पहले अनुमान के निष्कर्ष को गलत साबित करता है, दोनों के हेतु बराबर शक्तिशाली हैं। अतः दोनों में कौन सही निष्कर्ष है-यह समझना कठिन है।

4. असिद्ध हेतु (Unproved Middle):
निष्कर्ष हेतु के आधार पर निकलता है। अतः यदि हेतु ही असिद्ध (Unproved) होगा तो उससे सही अनुमान नहीं निकलेगा। यथा, आकाश का फूल सुगन्धित है, क्योंकि फूल सुगन्धित होते हैं। असिद्ध हेत्वाभास भी तीन तरह के होते हैं – आश्रयासिद्ध, स्वरूपासिद्ध एवं अन्यथासिद्ध।

आश्रयासिद्ध:
यदि हेतु का आश्रय भूत अर्थात् पक्ष ही असिद्ध रहे तो उससे उत्पन्न दोष को आश्रयसिद्ध हेत्वाभास कहेंगे। जैसे-आकाश का फूल सुगन्धित है क्योंकि सभी फूल सुगन्धित होते हैं।

स्वरूपासिद्ध:
इसमें दिया हेतु पक्ष में नहीं रहता है। जैसे—आवाज नित्य है क्योंकि वह दृश्य पदार्थ है। यहाँ पक्ष ‘आवाज’ में हेतु-दृश्य पदार्थ का होना असिद्ध है।

अन्यथासिद्ध:
इस तरह के हेत्वाभास के दिए गए हेतु के अभाव में भी साध्य का सिद्ध होना संभव है। जैसे-वह मनुष्य विद्वान है क्योंकि वह ब्राह्मण है। यहाँ ‘ब्राह्मण’ और ‘विद्वान’ के बीच सही अर्थ में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं है क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि ब्राह्मण विद्वान ही हों।

5. बाधिक या कालातीत हेतु (Non-inferentially Contradicted Middle):
हेतु से बलशाली दूसरा प्रमाण अगर साध्य को गलत साबित कर दे तो वह अनुमान दोषपूर्ण समझा जाता है। जैसे-आग ठंडी है क्योंकि वह एक द्रव्य है। यहाँ जो बात कही गयी है वह देखने को नहीं मिलती है। प्रत्यक्ष ज्ञान हमें यह बोध कराता है कि आग गर्म है। अतः यहाँ प्रत्यक्ष ज्ञान हेतु से। अधिक बलशाली हेतु को उल्टा ही साबित करता है।

प्रश्न 4.
प्रत्यक्ष (Perception) क्या है? प्रत्यक्ष के कितने भेद हैं? अथवा, प्रत्यक्ष के मुख्य प्रकारों की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
गौतम ने प्रमाण के चार भेद बताएँ हैं। उन्होंने ‘प्रत्यक्ष’ को ‘प्रमा’ (Real knowledge) की प्राप्ति का पहला प्रमाण माना है। इन्द्रिय एवं वस्तु के संयोग से जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उसे हम प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। हमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं आँख, नाक, कान, जीभ एवं त्वचा। इनका जब वस्तुओं के साथ संयोग होता है तो जिस अनुभव की उत्पत्ति होती है, उसे हम प्रत्यक्ष कहते हैं।

जैसे-जब कान का संगीत के साथ सम्पर्क होता है तो हमें संगीत का प्रत्यक्ष होता है। अतः इन्द्रिय और वस्तु के सम्पर्क से जिस असंदिग्ध यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति होती है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके अतिरिक्त ‘मन’ (Mind) को छठा ज्ञानेन्द्रिय (Sence organ) बताया गया है। मन एक भीतरी ज्ञानेन्द्रिय (Inner sense organ) है। सुख, दुख, इच्छा, प्रेम आदि का ज्ञान ‘मन’ के द्वारा ही प्राप्त होता है।

प्रत्यक्ष के भेद (Forms of Perception):
प्रत्यक्ष का वर्गीकरण भारतीय तर्कशास्त्र में कई तरह से बताया गया है। कहने का अभिप्राय भिन्न-भिन्न आधार पर प्रत्यक्ष के भिन्न-भिन्न भेद बताए गए हैं। इन्द्रिय का पदार्थ के साथ सम्पर्क होने पर प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस आधार पर प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं –

  1. लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary perception)
  2. अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra-ordinary perception)।

1. लौकिक प्रत्यक्ष:
जब इन्द्रियों के साथ वस्तु का साधारण सम्पर्क (Simple contact) होता है तो हम उसे लौकिक प्रत्यक्ष (ordinary.perception) कहते हैं। जैसे-आँख से जब कमल के फूल का सम्पर्क होता है तो हमें प्रत्यक्ष ज्ञान होता है कि वह फूल लाल, उजला या पीला है। लौकिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-बाह्य प्रत्यक्ष (External perception) एवं मानस प्रत्यक्ष (Mental perception)।

बाह्य प्रत्यक्ष (External Perception):
बाह्य प्रत्यक्ष हमें अपनी बाहरी ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होती हैं, जिनकी संख्या पाँच हैं। इसे हम चाक्षुष-प्रत्यक्ष (Visual perception), श्रवण-प्रत्यक्ष (Auditory perception), घ्राणज-प्रत्यक्ष (Olfactory percetion), रासना-प्रत्यक्ष (Taste perception) एवं त्वाचिक-प्रत्यक्ष (Tactual perception) के नाम से जानते हैं।

मानस प्रत्यक्ष:
न्याय-दर्शन में ‘मन’ को एक ज्ञानेन्द्रिय (Sense-organ) के रूप में माना गया है। मन द्वारा जब आन्तरिक अवस्थाओं का प्रत्यक्ष होता है तो उसे मानस-प्रत्यक्ष कहते हैं। मानस प्रत्यक्ष के उदाहरण सुख, दुख, प्रेम, घृणा आदि मनोभावों के अनुभव हैं। मन को न्यायशास्त्र में केन्द्रीय इन्द्रिय के रूप में माना गया है। इस तथ्य को वैशेषिक, सांख्य और मीमांसा दर्शन भी मानते हैं। क्योंकि ‘मन’ सभी प्रकार के ज्ञान के बीच एकता स्थापित करता है।

केवल वेदान्त-दर्शन ‘मन’ को एक आन्तरिक ज्ञानेन्द्रिय नहीं मानता है। लौकिक प्रत्यक्ष के अन्य तीन भेदों की चर्चा की गयी है। वे हैं-निर्विकल्प प्रत्यक्ष, सविकल्प प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञा। निर्विकल्प प्रत्यक्ष-कभी-कभी पदार्थों का प्रत्यक्ष तो होता है लेकिन उसका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। उसका सिर्फ आभास मात्र होता है। उदाहरण के लिए, गम्भीर चिन्तन या अध्ययन में मग्न होने पर सामने की वस्तुओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। हमें सिर्फ यह ज्ञान होता है कि कुछ है, लेकिन क्या है, इसको नहीं जानते हैं। निर्विकल्प प्रत्यक्ष को मनोविज्ञान में संवेदना के नाम से भी जानते हैं।

सविकल्प प्रत्यक्ष:
जब किसी विषय या वस्तु का प्रत्यक्ष हमें हो तथा उस विषय का ज्ञान भी हमें प्राप्त हो जाए कि वह ‘क्या है’ तो उसे हम सविकल्प प्रत्यक्ष कहते हैं। इसे ही हम मनोविज्ञान में प्रत्यक्षीकरण कहते हैं। मनोविज्ञान में ‘प्रत्यक्षीकरण’ की परिभाषा अर्थपूर्ण संवेदना के रूप में दी गयी है। उदाहरण के लिए, जब कान से कोई आवाज सुनाई पड़ती है तो सुनाई निर्विकल्प प्रत्यक्ष रहता है, लेकिन जब हम यह जान जाते हैं कि वह सुनाई पड़नेवाली आवाज ‘कोयल’ की ही है, तो इसे हम सविकल्प प्रत्यक्ष कहेंगे।

प्रत्यभिज्ञा-न्यायशास्त्र में कुछ नैयायिकों ने निर्विकल्प और सविकल्प प्रत्यक्ष के साथ एक तीसरा लौकिक प्रत्यक्ष के रूप में प्रत्यभिज्ञा की चर्चा की है। प्रत्यभिज्ञा को हम हिन्दी में ‘पहचानना’ कह सकते हैं। ‘प्रत्यभिज्ञा’ का अर्थ है ‘प्रतिगता अभिज्ञान’। कहने का अर्थ है कि जिस विषय का पहले साक्षात्कार हो चुका हो, उसका फिर से अगर प्रत्यक्ष हो तो उसे ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहेंगे। यदि हम किसी व्यक्ति को देखकर यह कह बैठते हैं कि यह अमुक लड़की है। जिसको हमने अमुक समय में अमुक स्थान पर देखा था तो इसे हम प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। हमें इस तथ्य को स्मरण रखनी चाहिए कि इन की इन तीनों लौकिक प्रत्यक्ष के वर्गीकरण को बौद्ध दर्शन एवं वेदान्त दर्शन नहीं मानते हैं।

2. अलौकिक प्रत्यक्ष:
जब किसी पदार्थ या वस्तु के साथ इन्द्रियों का असाधारण या अलौकिक सम्पर्क हो तो वह अलौकिक प्रत्यक्ष कहलाता है। उदाहरण के लिए हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ कुछ ही जानवरों को देख सकती हैं। सभी जानवरों को साधारण रूप में जानना असंभव है। इसके बावजूद हमें सभी जानवरों के ‘पशुत्व-गुण’ का प्रत्यक्ष हो सकता है। इसे ही हम अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। अलौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद यानि प्रकार होते हैं-सामान्य लक्षण, ज्ञान लक्षण एवं योगज।

सामान्य लक्षण:
जाति गुण के द्वारा सम्पूर्ण जाति का प्रत्यक्ष होना सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष कहलाता हैं। मनुष्य का जाति गुण मनुष्यता है। किसी एक मनुष्य में ‘मनुष्यत्व’ को देखकर हम सम्पूर्ण मानव जाति को देख लेते हैं क्योंकि यह गुण सभी मनुष्यों का सामान्य गुण है। सभी मानव का लौकिक प्रत्यक्ष संभव नहीं है। इसलिए हम कहते हैं कि सबों का अलौकिक प्रत्यक्ष होता है।

अतः जाति-गुण के प्रत्यक्ष के द्वारा सम्पूर्ण जाति का प्रत्यक्ष होना सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष है। ज्ञान लक्षण-जब हमें एक इन्द्रिय से किसी दूसरी इन्द्रिय के विषय का प्रत्यक्ष होता है तो यह असाधारण या अलौकिक प्रत्यक्ष है, जिसे हम ज्ञान-लक्षण कहते हैं। जैसे-चन्दन देखने से सुगन्धित होने का ज्ञान, चाय देखने से गर्म होने का ज्ञान आदि अलौकिक ज्ञान लक्षण के श्रेणी में आते हैं।

योगज:
योगज ऐसा प्रत्यक्ष है जो भूत, वर्तमान, भविष्य के गुण तथा सूक्ष्म, निकट तथा दूरस्थ सभी प्रकार की वस्तुओं की साक्षात् अनुभूति कराता है। योगज या अन्तर्ज्ञान एक शक्ति हैं जिसे हम बढ़ा-घटा सकते हैं। जब यह शक्ति बढ़ जाती है तो हम दूर की चीजें तथा सूक्ष्म-चीजों का भी प्रत्यक्ष कर पाते हैं। ‘युजान’ की अवस्था में जो मनुष्य होते हैं, उन्हें कुछ ध्यान धारण करने से योगज की शक्ति आ जाती है। भगवान बुद्ध को ‘निर्वाण’ का योग, शंकराचार्य को ‘ब्रह्म का ज्ञान’ तथा तुलसीदास को चित्रकूट के घाट पर चन्दन घिसते समय भगवान राम के ‘दर्शन’ ये सभी योगज के उदाहरण कहे जा सकते हैं।

प्रश्न 5.
पाश्चात्य न्याय वाक्य और पंचावयव में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
पाश्चात्य न्याय वाक्य एवं पंचावयव में निम्नलिखित मुख्य अंतर हैं –

  1. पाश्चात्य न्याय वाक्य (Syllogism) में केवल तीन वाक्य होते हैं, जबकि गौतम के पंचावयव में पाँच वाक्य होते हैं।
  2. पश्चात्य न्याय-वाक्य में निष्कर्ष तीसरे या अन्तिम वाक्य के रूप में होता है, लेकिन गौतम के पंचावयव में निष्कर्ष यानि निगमन तीसरे वाक्य के रूप में नहीं रहता है। यह प्रतिज्ञा के रूप में एक जगह पहले वाक्य के रूप में रहता है तथा निगमन के रूप में पाँचवें वाक्य की जगह होता है।
  3. पाश्चात्य न्याय वाक्य में जो वाक्य वृहत् वाक्य (Major premise) के रूप में रहता है वह वाक्य ‘व्याप्ति’ के रूप में ‘पंचावयव’ में तीसरे स्थान के वाक्य में रहता है।
  4. पाश्चात्य न्याय-वाक्य (Syllogism) में उदाहरण देने की कोई जरूरत नहीं होती है उसके लिए कोई जगह भी नहीं रहती है, लेकिन गौतम के पंचावयव में निगमन को मजबूत दिखाने के लिए उदाहरण दिया जाता है तथा उसके लिए ‘व्याप्ति-वाक्य’ के रूप में एक खास स्थान दिया जाता है।
  5. पाश्चात्य न्याय वाक्य में परिभाषा तथा गुण की स्थापना पश्चिमी तरीके से की जाती है जो भारतीय तरीके से भिन्न है। इसलिए दोनों के न्याय-वाक्य का गुण भी आपस में एक-दूसरे से भिन्न श्रेणी का पाया जाता है।
  6. भारतीय नैयायिकों का तर्क है कि पाँच वाक्य होने से हमारा अनुमान अधिक मजबूत होता है जबकि पाश्चात्य न्याय वाक्य में केवल तीन वाक्य ही होते हैं। अतः उनका अनुमान पंचावयव की तरह मजबूत नहीं कहा जा सकता है।
  7. पाश्चात्य न्याय वाक्य में एक ही वाक्य पूर्णव्यापी होता है, जिसे हम वृहत् वाक्य के रूप में जानते हैं। उदाहरणार्थ सभी मनुष्य मरणशील हैं।
  8. पाश्चात्य तर्कशास्त्र में पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना हेतु आगमन की जरूरत पड़ती है, जिसमें कुछ उदाहरणों का निरीक्षण कर हम पूर्णव्यापी वाक्य बनाते हैं। जैसे-मोहन, सोहन, करीम, आदि को मरते देखकर हम पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करते हैं कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं।’
  9. भारतीय न्याय दर्शन में ‘आगमन’ के रूप में कोई तर्कशास्त्र अलग नहीं है। जो काम आगमन के द्वारा होता है वह तो उदाहरण सहित ‘व्याप्ति-वाक्य’ में ही हो जाता है।
  10. इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘पंचावयव’ में आगमन एवं निगमन दोनों सम्मिलित हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि पाश्चात्य न्याय-वाक्य एवं पंचायवयव’ में मौलिक अंतर है।

प्रश्न 6.
न्याय-शास्त्र में ज्ञान (Knowledge) के अर्थ को स्पष्ट करें। न्यायशास्त्र के सोलह पदार्थों की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
भारतीय दर्शनों में ज्ञान, बुद्धि एवं प्रत्यय इत्यादि शब्दों का प्रयोग एक अर्थ या एक रूप में नहीं किया जाता है। अतः इन शब्दों के एक अर्थ में प्रयोग की आदत से एक शब्द-भ्रम हो जाता है। अतः इन भ्रमों से बचने के लिए न्याय-सूत्र में उन शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है। ‘ज्ञान’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है, व्यापक तथा संकुचित अर्थ में। व्यापक अर्थ में यथार्थ और अयथार्थ दोनों तरह के ज्ञान का बोध कराया जाता है।

संकुचित अर्थ में ज्ञान का मतलब केवल यथार्थ ज्ञान से ही लिया जाता है। न्यायशास्त्र में ज्ञान के दो प्रकार बताए जाते हैं। वे हैं-प्रमा (Real) एवं अप्रमा (Unreal knowledges)। मनुष्य का अनुभव भी दो तरह का होता है यथार्थ और अयथार्थ। यथार्थ अनुभव के द्वारा जो हम ज्ञान प्राप्त करते हैं उसे ‘प्रमा’ कहते हैं, जैसे अपनी आँख से देखकर यह कहना कि दूध उजला होता है। इसके विपरीत, अयथार्थ अनुभव के आधार पर जो हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे ‘अप्रमा’ कहते हैं। जैसे अंधेरी रात में रस्सी को देखकर साँप का ज्ञान होना। प्रमा को प्राप्त करने के लिए जो साधन बताए गए हैं, उन्हें प्रमाण कहा जाता है। न्याय-दर्शन के अनुसार सोलह पदार्थ हैं, वे निम्नलिखित हैं –

1. प्रमाण:
प्रमा को प्राप्त करने के जो साधन हैं, उसे ही प्रमाण कहते हैं। अतः प्रमाण के द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के सभी उपायों का वर्णन किया जाता है।

2. प्रमेय:
प्रमाण के द्वारा जिन विषयों का ज्ञान हमें होता है, उसे प्रमेय कहते हैं। गौतम के अनुसार प्रमेय की संख्या बारह है –

  • आत्म
  • शरीर
  • उभय ज्ञानेन्द्रियाँ
  • इन्द्रियों के विषय
  • बुद्धि
  • मन
  • प्रवृत्ति
  • दोष
  • प्रैत्यभाव यानि पुनर्जन्म
  • फल
  • दुःख तथा
  • अपवर्ग प्रमेयों का वर्णन किया है, जिनसे मोक्ष की प्राप्ति हो।

3. संशय:
यह मन की वह अवस्था है, जिसमें मन के सामने दो या अधिक विकल्प दिखाई पड़ते हैं। अतः जब एक ही वस्तु के सम्बन्ध में कई परस्पर विरोधी विकल्प उठ जाते हैं तो उसका निश्चित ज्ञान नहीं होता है, उसे ही हम संशय कहते हैं। संशय न तो निश्चित ज्ञान है और न ज्ञान का पूर्ण अभाव। इसे हम भ्रम या विपर्यय भी नहीं कह सकते हैं।

4. प्रयोजन:
जिसके लिए कार्य में प्रवृत्ति होती है उसे ही प्रयोजन कहते हैं। प्रयोजन की प्राप्ति के लिए ही हम कोई कार्य करते हैं। जो कोई कार्य इच्छापूर्वक किया जाता है, उसका प्रयोजन अवश्य रहता है।

5. दृष्टांत:
जिसे देखने से किसी बात का निश्चय हो जाए, उसे दृष्टांत कहते हैं, वाद-विवाद में अपनी बात को साबित करने के लिए इसका सहारा लिया जाता है।

6. सिद्धान्त:
सिद्धान्त उसे कहते हैं जिसके द्वारा किसी वाद-विवाद का अन्तर का विषय साबित हो जाए। कोई विषय जब प्रमाण द्वारा अन्तिम रूप से स्थापित किया जाता है तो उसे सिद्धान्त कहते हैं।

7. अवयव:
अनुमान दो तरह का होता है। वे हैं-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। परार्थानुमान में हम पाँच नियम पूर्ण वाक्यों द्वारा कोई अनुमान निकालते हैं। उन नियमपूर्ण वाक्यों को ही अवयव कहते हैं।

8. तर्क:
तर्क एक प्रकार की काल्पनिक युक्ति है जिसके द्वारा विपक्षी के कथन को दोषपूर्ण और गलत साबित किया जाता है। तर्क के द्वारा ही किसी सिद्धान्त का प्रबल समर्थन होता है।

9. निर्णय:
किसी विषय के सम्बन्ध में निश्चित ज्ञान को ही निर्णय कहते हैं। अत: किसी विषय के सम्बन्ध में उत्पन्न संशय के दूर हो जाने पर हम जिस निश्चय पर पहुँचते हैं, उसे ही निर्णय कहते हैं।

10. बाद:
बाद उस विचार को कहते हैं, जिसमें प्रमाण और तर्क की सहायता से विपक्षी के कथन की पूर्ण खंडन करके अपने पक्ष का समर्थन किया जाता है और वहीं पर लिया गया यह अन्तिम निर्णय किसी स्वीकृत पूर्व स्थापित सिद्धान्त के विरोध में नहीं होता है।

11. जल्प:
जब वादी और प्रतिवादी के वाद-विवाद का उद्देश्य यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना नहीं होता है, तो वह जल्प कहलाता है। इसमें सत्य की प्राप्ति की इच्छा का बिल्कुल ही अभाव रहता है। यहाँ दोनों पक्षों का उद्देश्य केवल विजय प्राप्त करना ही रहता है।

12. वितंडा:
वितंडा वह है जिसमें वादी अपने पक्ष का समर्थन नहीं करता केवल प्रतिवादी के मत का खंडन करता चला जाता है। वितंडा में केवल प्रतिवादी के मत का किसी तरह खंडन करके ही जीतने का प्रयास किया जाता है। जल्प में वादी किसी-न-किसी तरह से अपने मत का प्रतिपादन भी करता है, जिसका अभाव वितंडा में पाया जाता है।

13. छल:
जब प्रतिवादी के शब्दों का वास्तविक अर्थ छोड़कर कोई दूसरा अर्थ ग्रहण करके दोष दिखलाया जाए, तो उसे छल कहते हैं। यह धूर्तता पूर्ण उत्तर है। छल तीन प्रकार का होता है –

(क) वाक्छल
(ख) सामान्य छल
(ग) उपचार छल।

14. जाति:
केवल समानता और असमानता के आधार पर जो दोष दिखाया जाता है उसे जाति कहते हैं। उदाहरण के लिए नैयायिकों का कहना है कि शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घर की तरह एक कार्य है। अगर कोई इसका खंडन यह कहकर करना चाहे कि ‘शब्द’ और ‘अशरीरधारी’ में कोई भी व्याप्ति सम्बन्ध नहीं किया जा सकता है।

15. निग्रह स्थान:
इसका शाब्दिक अर्थ होता है पराजय अथवा तिरस्कार का स्थान वाद-विवाद के क्रम में वादी एक ऐसे स्थान पर पहुँच जाता है, जहाँ उसे हार स्वीकार करनी पड़ती है या उसके चलते कोई अपमान सहना पड़ता है तो उसे निग्रह स्थान कहते हैं। निग्रह स्थान के दो कारण होते हैं। वे हैं-अज्ञानता एवं गलत ज्ञान।

प्रश्न 7.
अनुमान क्या है? अनुमान के विभिन्न भेदों की संक्षेप में व्याख्या करें। अथवा, अनुमान से आप क्या समझते हैं? अनुमान के मुख्य प्रकारों की विवेचना करें।
उत्तर:
भारतीय तर्कशास्त्र में प्रत्यक्ष के बाद अनुमान दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। भारतीय न्यायशास्त्र में अनुमान का महत्त्व पाश्चात्य तर्कशास्त्र के जैसा नहीं माना गया है। भारतीय तर्कशास्त्र में ‘अनुमान’ को केवल ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन मात्र माना गया है। अनुमान शब्द के दो भाग मालूम पड़ते हैं-अनु + मान। ‘अनु’ का अर्थ होता है पश्चात् या बाद में तथा ‘मान’ का अर्थ होता है ज्ञान। अतः अनुमान का शाब्दिक अर्थ है बाद में प्राप्त होने वाला ज्ञान।

भारतीय तर्कशास्त्रियों के अनुसार ‘अनुमान’ उस ज्ञान को कहते हैं जो किसी पूर्वज्ञान के बाद प्राप्त होता है। जैसे-आकाश में बादल देखने के बाद अनुमान करते हैं कि वर्षा होगी। न्यायशास्त्र के अनुसार जिसके आधार पर कोई अनुमान निकाला जाए उसे ‘हेतु’ या ‘साधन’ या ‘लिंग’ अथवा ‘चिह्न’ कहते हैं। न्याय-दर्शन में अनुमान को ‘तत्पूर्वक’ भी कहा गया है। इसका अर्थ है-“दो प्रत्यक्ष जिसके पूर्व में हो, वह अनुमान है। ऐसा विचार गौतम का है।” अनुमान के भेद या प्रकार-भारतीय तर्कशास्त्र में अनुमान को हम तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं। वे हैं –

(अ) प्रयोजन के अनुसार (According to purpose)
(ब) प्राचीन न्याय यानि गौतम के अनुसार (According to Gautam or old Nyana)
(स) नव्य-न्याय के अनुसार (According to New-Nyaya)

यहाँ हम गौतम के विचारानुसार अनुमान के भेदों को समझने का प्रयत्न करेंगे।

प्रयोजन के अनुसार अनुमान के प्रकार (According to purpose):
अनुमान करने में हमारे दो उद्देश्य या प्रयोजन हो सकते हैं-एक तो अपने लिए अनुमान करना और दूसरे लोगों या पराये लोगों के लिए अनुमान करना। इस दृष्टि से अनुमान के दो भेद हैं –

(क) स्वार्थानुमान (Knowledge for oneself)
(ख) परार्थानुमान (Knowledge for others)

स्वार्थानुमान:
जब हम केवल अपने बारे में कुछ जानना चाहते हैं या अपनी शंका को दूर करने के लिए अनुमान करते हैं तो वह स्वार्थानुमान कहलाता है। इसमें तीन ही वाक्यों का प्रयोग होता है। जैसे-पहाड़ पर धुआँ है तो अन्त में हेतु (Middle term) और साध्य (Major term) के बीच व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal relation) के द्वारा सम्बन्ध दिखाया जाता है। यथा, जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ आग रहती है।

परार्थानुमान:
जो अनुमान दूसरों की शंका मिटाने या समझाने के लिए किया जाता है, उसे हम परार्थानुमान कहते हैं। परार्थानुमान में अनुमान के लिए पाँच वाक्य की आवश्यकता होती है, जिसे गौतम मुनि ने पंचावयव (Five membered syllogism) कहा है। जैसे –

  1. पहाड़ पर आग है। – प्रतिज्ञा
  2. क्योंकि पहाड़ पर धुआँ है।
  3. जहाँ धुआँ रहता है, वहाँ आग रहती है। – यथा रसोईघर (उदाहरण सहित व्याप्ति वाक्य)
  4. पहाड़ पर धुआँ है। – उपनय
  5. इसलिए पहाड़ पर आग है। – निगमन भारतीय तर्कशास्त्र में गौतम के पंचावयव नाम से प्रसिद्ध है।

गौतम या प्राचीन न्याय के अनुसार अनुमान के भेद या प्रकार:
गौतम के अनुसार न्याय के तीन भेद होते हैं –

(क) पूर्ववत् अनुमान (Inference from Cause to Effect)
(ख) शेषवत् अनुमान (Inference from Effect to cause)
(ग) सामान्यतोदृष्टि (Inference from Similarity)

(क) पूर्ववत् अनुमान:
जब हम कारण से कार्य का कोई अनुमान निकालते हैं तो वह पूर्ववत् अनुमान कहलाता है। इसमें भविष्य का अनुमान वर्तमान कारण से भी करते हैं। जैसे-समय से वर्षा देखकर अच्छी फसल का अनुमान करना पूर्ववत् अनुमान है। इसी तरह, बादल देखकर वर्षा का अनुमान पूर्ववत् अनुमान है। यहाँ ‘बादल’ कारण है और उसका कार्य ‘वर्षा’ है। इस तरह का अनुमान व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal Relation) पर भी आश्रित रहता है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में यह अनुमान कार्य-कारण के नियम (Law of Causation) पर निर्भर करता है।

(ख) शेषवत् अनुमान:
यह अनुमान भी कार्य-कारण के नियम पर निर्भर करता है। शेषवत् अनुमान में हम कार्य से कारण (from effect to cause) के बारे में कुछ सोचते हैं। अतः जब कोई कार्य दिया रहे और तब उसके कारण (cause) का जो हम अनुमान करेंगे उसे शेषवत् अनुमान कहेंगे। जैसे-सड़क पर पानी देखकर वर्षा का अनुमान, मलेरिया देखकर उसके मच्छर का अनुमान आदि शेषवत् अनुमान के उदाहरण हैं।

(ग) सामान्यतोदृष्टि:
यदि दो पदार्थों या वस्तुओं को साथ-साथ देखें तो एक को देखकर दूसरे का भी अनुमान किया जा सकता है। यह ‘सामान्यतोदृष्टि’ अनुमान कहलाता है। जैसे-जब किसी जानवर में ‘सीग’ देखते हैं तो उसमें ‘पूँछ’ होने का भी अनुमान कर बैठते हैं तो यह सामान्यतोदृष्टि अनुमान है। इसमें कार्य-कारण नियम का सर्वथा अभाव होता है। इसमें अनुमान का आधार सामान्यता की बातें (Point of similarity) तथा दो वस्तुओं के साथ मेल की बातें रहती हैं।

प्रश्न 8.
गौतम के अनुसार ‘पंचावयव’ का विशलेषण करें। अथवा, न्याय दर्शन के अनुसार पाँच वाक्यों (Five propositions) को समझावें।
उत्तर:
परार्थानुमान में हमें अपने विचारों को सुव्यवस्थित करना पड़ता है। अपने वाक्यों को सावधानी और आत्मबल के साथ एक तार्किक शृंखला में रखना पड़ता है। अतः परार्थानुमान में हमें पाँच वाक्यों की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार के अनुमान में पाँच हिस्से होते हैं। इसे पंचावयव (Five membered Syllogism) के नाम से पुकारा जाता है।

‘पंचावयव’ का अर्थ ही होता है जिसमें पाँच अवयव या हिस्से हों। न्याय दर्शन में इसे ही गौतम का पंचावयव नाम से जानते हैं। इसे ‘न्याय प्रयोग’ के नाम से भी जानते हैं। मीमांसा दर्शन एवं वेदान्त दर्शन के विद्वानों के अनुमान के निमित्त केवल तीन वाक्यों को ही चर्चा की है। उनके अनुसार पंचावयव में समय और शक्ति की बचत होती है। गौतम के अनुसार पंचावयव में पाँच वाक्यों का होना आवश्यक है। इसे हम निम्नलिखित ढंग से स्पष्ट कर सकते हैं –

  1. पहाड़ पर आग है। – प्रतिज्ञा
  2. क्योंकि पहाड़ पर धुआँ है। – हेतु
  3. जहाँ धुआँ रहता है, वहाँ आग रहती है। – यथा रसोईघर। उदाहरण सहित व्याप्ति वाक्य
  4. पहाड़ पर धुआँ है। – उपनय
  5. इसलिए पहाड़ पर आग है। – निगमन प्रतिज्ञा-प्रतिज्ञा अनुमान का वह वाक्य है जिसे हम साबित करना चाहते हैं।

वाक्यों के क्रम में इसका पहला स्थान होता है। गौतम मुनि के अनुसार जो हमें साबित करना है उसका एक मजबूत संकल्प कर लेना चाहिए। इसीलिए इसे प्रतिज्ञा के नाम से पुकारा जाता है। गौतम के अनुसार जो साध्य विषय है, उसका निर्देशन करना ही प्रतिज्ञा है, जैसे-‘पहाड़ पर आग है’ यह अनुमान में प्रतिज्ञा के रूप में है।

हेतु-हेतु का स्थान न्याय-वाक्य में दूसरा रहता है। यह प्रतिज्ञा का कारण बताता है। प्रतिज्ञा की वास्तविकता दिखाने के लिए जिस कारण को हम सामने वाक्य के रूप में रखते हैं, उसे हेतु कहेंगे। क्योंकि इसमें धुआँ है।’ हेतु वाक्य है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में हेतु के साथ मेल खाते हुए जो वाक्य होते हैं, उसे लघु वाक्य (Minor premise) के नाम से जानते हैं।

उदाहरण सहित व्याप्ति-वाक्य-यह एक पूर्णव्यापी वाक्य के रूप में रहता है। इसका स्थान भारतीय न्याय वाक्यों के क्रम में तीसरा रहता है। इस वाक्य में ‘साध्य’ (Major term) एवं हेतु’ (Middle term) का वह सम्बन्ध दिखाया जाता है जो टूट नहीं सकता है। व्याप्ति-सम्बन्ध बहुत ही मजबूत रहता है, वह टूटता नहीं है। इसका रूप सर्वव्यापक रहता है।

जैसे-‘धुआँ’ और ‘आग’ के बीच व्याप्ति सम्बन्ध है। जैसे रसोईघर का उदाहरण देकर हम यह बताना चाहते हैं कि रसोईघर में जब धुआँ देखते हैं तो वहाँ पर आग मिलती है। अतः इसे हम उदाहरणसहित व्याप्ति वाक्य कहते हैं। वस्तुतः यह अनुमान का मेरुदण्ड है। जब तक इस वाक्य की हम स्थापना नहीं करेंगे तब तक प्रतिज्ञा साबित नहीं होती है।

उपनय-उपनय का स्थान पंचावयव में चौथा है। अनुमान के लिए यहीं पर वह स्थान या पक्ष रहता है यहाँ हम कुछ साबित कर दिखाना चाहते हैं। यहाँ साध्य के अस्तित्व को दिखाने की व्यवस्था की जाती है। ‘पहाड़ पर धुआँ है। उपनय का उदाहरण है। गौतम के अनुसार ‘हेतु’ और ‘साध्य’ का सम्बन्ध उदाहरण के द्वारा देने के बाद अपने पक्ष में उसे स्वींचना ही उपनय कहलाता है। निगमन-निगमन को दूसरे शब्दों में निष्कर्ष भी कहते हैं। निगमन वही वाक्य है जिसमें हम अनुमान के द्वारा कुछ साबित कर दिखला देते हैं।

गौतम के पंचावयव में इसका स्थान पाँचवें वाक्प के रूप में रहता है। स्वार्थानुमान या पाश्चात्य न्याय-वाक्य में इसका स्थान तीसरे वाक्य के रूप में रहता है। गौतम के अनुसार जब प्रतिज्ञा साबित हो जाती है तो उसका रूप ‘निगमन’ का हो जाता है।

उदाहरण के लिए-‘पहाड़ पर आग है’ इसे हम साबित करना चाहते थे, अतः जब तक यह साबित नहीं हुआ था तब तक इसे हम प्रतिज्ञा के नाम से जानते थे लेकिन जब ‘हेतु’, ‘व्याप्ति-वाक्य’ और ‘उपनय’ की सहायता से इसे साबित कर देते हैं तो इसका रूप निगमन का हो जाता है। अतः प्रतिज्ञा जब ‘निगमन’ की अवस्था में आता है तो वहाँ संदेह दूर हो जाता है। इसके एक विश्वास और बल मिल जाता है। वस्तुतः निगमन ही ‘अनुमान’ की अन्तिम सीढ़ी है।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि गौतम अनुमान की परिपक्वता एवं मजबूती के लिए पाँच वाक्यों का होना आवश्यक बताते हैं। गौतम ने तो केवल पंचावयव को आवश्यक बताया जबकि वात्स्यायन मुनि ने दस अवयव की चर्चा की जो उपयुक्त नहीं जान पड़ता है। मीमांसा एवं वेदान्त दर्शन केवल तीन वाक्यों को ही आवश्यक बताते हैं। वस्तुतः गौतम के पंचावयव का अपना विशेष महत्त्व है। यहाँ पाश्चात्य तर्कशास्त्र की तरह आगमन का अलग अस्तित्व नहीं रखा गया है।

प्रश्न 9.
प्रमाण-शास्त्र (Theory of knowledge) में प्रमाण के कितने स्त्रोत बताए गए हैं? संक्षेप में व्याख्या करें। अथवा, गौतम के अनुसार वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति के कितने स्त्रोत हैं? अथवा, प्रमा (Real knowledge) प्राप्ति के कितने साधन हैं? विवेचना करें।
उत्तर:
न्याय दर्शन गौतम के प्रमाण-सम्बन्धी विचारों पर आधारित है। न्यायशास्त्र में ज्ञान के दो स्वरूप बताए गए हैं। वे हैं-प्रमा एवं अप्रमा। प्रमा ही ज्ञान का वास्तविक स्वरूप है। प्रमा को प्राप्त करने के जितने साधन बताए गए हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहते हैं। प्रमाण के सम्बन्ध में जो विचार पाए जाते हैं, उन्हें ही प्रमाण-शास्त्र के नाम से पुकारते हैं। गौतम के अनुसार प्रमाण – के चार प्रकार बताए गए हैं। गौतम के अनुसार चार तरह के वास्तविक ज्ञान यानि प्रमा की प्राप्ति हो सकती है। वे हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द।

1. प्रत्यक्ष (Perception):
न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष को प्रमाण का पहला भेद बताया गया है। प्रत्यक्ष की उत्पत्ति प्रति + अक्षण से हुई है, जिसका अर्थ ‘आँख’ के सामने होना होता है। लेकिन यह संकीर्ण अर्थ है क्योंकि प्रत्यक्ष का मतलब ‘आँख’ के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों से रहता हैं कान से सुनना, जीभ से चखना, नाक से सूंघना, चमड़े से छूना भी उसी तरह का प्रत्यक्ष कहलाता है, जिस तरह आँख से देखना। अतः प्रत्यक्ष का अर्थ होता है किसी भी ज्ञानेन्द्रिय के सामने होना। प्रत्यक्ष तभी संभव है जब इन्द्रियाँ (Organs) और पदार्थ (Object) के बीच एक सन्निकर्ष (Contact) हो। प्रत्यक्ष के मुख्य दो भेद होते हैं –

(क) लौकिक प्रत्यक्ष एवं अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra-ordinary perception)। लौकिक प्रत्यक्ष के दो भेद बताये गए हैं। वे हैं-बाह्य प्रत्यक्ष (External Perception) एवं मानस-प्रत्यक्ष (Internal Perception) न्यायं दर्शन में मन (Mind) एक ज्ञानेन्द्रिय (Sense-Organ) के रूप में माना गया है। मन कोई बाहरी चीज नहीं है, जिसे हम आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों की तरह देख सकें। मन का अस्तित्व शरीर के भीतर माना गया है जो अदृश्य है। हमें अपने जीवन में सुख-दुख, प्रेम-घृणा आदि मनोभावों का अनुभव होता रहता है।

सुख-दुख का ज्ञान हमें आँख, कान, नाक आदि से प्राप्त नहीं हो सकता है। इस ज्ञान की प्राप्ति ‘मन’ के द्वारा की जा सकती है। इसीलिए ‘मन’ से प्राप्त ‘प्रत्यक्ष को मानस-प्रत्यक्ष’ कहते हैं। न्यायशास्त्र के अनुसार ‘मन’ कोई पदार्थ या द्रव्य (Matter) का बना हुआ नहीं रहता है। अतः इसकी ज्ञान-शक्ति भी विशेष प्रकार की होती है। यह सभी प्रकार के ज्ञान के बीच एकता स्थापित करता रहता है इसलिए इसे केन्द्रीय इन्द्रिय (Central organ) कहा जाता है।

2. अनुभव (Inference):
भारतीय तर्कशास्त्र में अनुमान का स्थान प्रत्यक्ष के बाद आता है। तर्कशास्त्र में प्रमाण (Sources of knowledge) के रूप में अनुमान को दूसरा भेद बतलाया गया है। अनुमान का महत्त्व पाश्चात्य दर्शन में तो इतना अधिक है कि समूचे तर्कशास्त्र का विषय ही अनुमान समझा जाता है। इसके अनुसार अनुमान का अर्थ होता है ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना। लेकिन भारतीय तर्कशास्त्र में ‘अनुमान’ का महत्त्व पाश्चात्य तर्कशास्त्र के ऐसा नहीं बतलाया गया है।

यहाँ अनुमान को केवल ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन मात्र माना गया है। जिसका स्थान प्रत्यक्ष के बाद आता है। ‘अनुमान’ शब्द के दो भाग हैं अनु + मान। ‘अनु’ का अर्थ होता है पश्चात् या बाद में और ‘मान’ का अर्थ होता है ‘ज्ञान’ इसलिए, ‘अनुमान’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘बाद’ में प्राप्त होने वाला ज्ञान। अतः अनुमान उस ज्ञान को कहते हैं जो किसी पूर्वज्ञान के बाद प्राप्त होता है। जैसे-बादल से वर्षा का अनुमान करते हैं, धुएँ से आग का अनुमान करते हैं।

गौतम ने अनुमान को ‘तत्पूर्वकम्’ कहा है क्योंकि ‘तत्पूर्वक’ का अर्थ होता है प्रत्यक्ष मूलक। यदि लक्षण या लिंग दिखाई नहीं पड़े, किन्तु आगमन (शास्त्र) या बड़े महापुरुषों के आप्त वचन से उसका हमें ज्ञान हो तो उसी के बल पर अनुमान किया जा सकता है। अतः अनुमान का अर्थ होता है, एक बात से दूसरी बात को जान लेना। यदि कोई बात हमें प्रत्यक्ष या आगमन के द्वारा जानी हुई है तो उससे दूसरी बात भी निकाल सकते हैं।

इसी को अनुमान कहा जाता अनुमान के लिए एक और पूर्वज्ञान की आवश्यकता रहती है, जिसे व्यक्ति-ज्ञान कहते हैं। व्याप्ति दो वस्तुओं के बीच एक आवश्यक सम्बन्ध है जो व्यापक माना जाता है। जैसे – ‘धुआँ’ और ‘आग’ में व्याप्ति सम्बन्ध है, क्योंकि यह सर्वविदित है कि जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है, वहाँ-वहाँ आग पायी जाती है। इसका कारण यह है कि ‘धुआँ’ और ‘आग’ के बीच व्याप्ति-सम्बन्ध है। जिसका ज्ञान हमें पहले से रहना चाहिए तभी उसके बल पर अनुमान निकाला जा सकता है।

अनुमान में पक्षधर्मता होता है। पक्षधर्मता का अर्थ होता है पक्ष (स्थान-विशेष) में लिंग या हेतु या साधन का पाया जाना, जैसे-पहाड़ (स्थान-विशेष) में ‘धुआँ’ का पाया जाना। व्याप्ति ज्ञान से धुआँ और आग का सम्बन्ध जाना जाता है तथा पक्षधर्मता से पहाड़ और धुआँ का सम्बन्ध जानते हैं। दोनों को मिलाकर हम पहाड़ और आग के बीच सम्बन्ध स्थापित करते हैं, यही परामर्श है और इसी के चलते अनुमान होता है।

3. उपमान (Comparison):
न्याय दर्शन में ‘उपमान’ को प्रमाण (Sources of knowledge) के तीसरे भेद के रूप में बतलाया गया है। न्याय-दर्शन और मीमांसा दर्शन उपमानं को एक स्वतंत्र प्रमाण (Independent source of knowledge) के रूप में बतलाया गया है। उपमान का शाब्दिक अर्थ होता है “सादृश्यता’ या ‘समानता’ के द्वारा संज्ञा-संज्ञि-सम्बन्ध का ज्ञान होना।

जिस वस्तु को हमने पहले कभी नहीं देखा हैं और उसके बारे में दूसरों से वर्णन सुना है और अगर उसी से मिलती कोई वस्तु मिलती है तो वहाँ, हम सुनी हुई बातों के साथ उस वस्तु का मिलान करने लगते हैं, जिसे उपमान (Comparison) कहते हैं। उपमा या सादृश्यता के आधार पर जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसे उपमिति कहते हैं। उपमान कारण है तो उपमिति उसका फल या कार्य। उपमा के बाद जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है, उसे हम उपमिति कहते हैं।

न्याय-दर्शन एवं मीमांसा-दर्शन में उपमान को प्रमाण के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है। आज के युग में बहुत से आविष्कार और अदृश्य पदार्थों का ज्ञान इसी उपमान के द्वारा प्राप्त होता है। आयुर्वेद में उपमान के आधार पर ही अनेक अपरिचित औषधियों और औषधी के द्रव्यों का वर्णन मिलता हैं। उपमान को लेकर सभी भारतीय दार्शनिकों का एक समान मत नहीं है। कुछ विद्वान उपमान को अनुमान का ही एक रूप मानते हैं।

4. शब्द (Verbal Authority):
न्याय दर्शन के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण है। ‘शब्द’ का अर्थ एक या दो साधारण शब्दों (Words) से नहीं लगाया गया है, बल्कि अनेक शब्दों और वाक्यों के द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है, उसे शब्द (knowledge) के नाम से जाना जाता है। सभी शब्दों से हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है, अतः ऐसे ही ‘शब्द’ को हम प्रमाण मानते हैं, जो यथार्थ हो तथा जो विश्वास के योग्य हो। भारतीय दार्शनिकों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जबकि वह किसी बड़े और विश्वासी आदमी का निश्चय बोधक वाक्य हो जिसे हम आप्त वचन भी कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में, “किसी विश्वासी और महान् पुरुष के वचन के अर्थ (Meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।”

इतिहास का ज्ञान हमें शब्द के द्वारा ही होता है। रामायण, महाभारत या अन्य पुराण का जो ज्ञान लोगों को होता है, उसका ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान या उपमान नहीं है बल्कि उनका ज्ञान ‘शब्द’ के द्वारा ही प्राप्त होता है। अतः ‘शब्द’ को न्याय-दर्शन में एक स्वतंत्र प्रमाण माना गया है। अतः स्पष्ट है कि ‘शब्द’ ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया है। शब्द ऐसे मनुष्य के हों, जो विश्वसनीय और सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हैं तथा शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हों।


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