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Monday, June 20, 2022

BSEB Class 11 Hindi गद्य रूप Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi गद्य रूप Book Answers

BSEB Class 11 Hindi गद्य रूप Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi गद्य रूप Book Answers
BSEB Class 11 Hindi गद्य रूप Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi गद्य रूप Book Answers


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Board BSEB
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Class 11th
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BSEB Class 11th Hindi गद्य रूप Textbooks Solutions with Answer PDF Download

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प्रश्न 1.
कहानी का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके प्रमुख तत्त्वों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
कहानी का स्वरूप-मनुष्य स्वभाव से कथा-कहानी कहने-सुनने में रुचि रखता है। इसी प्रवृत्ति का साहित्यिक रूप आजकल ‘कहानी’ के नाम से प्रचलित है। पहले इसे ‘गल्प’ अथवा ‘आख्यायिका’ भी कहा जाता था परंतु अब साहित्यशास्त्र में इसे ‘कहानी’ ही कहा जाता है।

‘कहानी’ का स्वरूप इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है। जिस संक्षिप्त रचना में कोई कया – कही गई हो वह ‘कहानी’ कहलाती है। कथा तो उपन्यास में भी होता है, परंतु वहाँ उसका स्वरूप विस्तृत एवं अनके उपकथाओं तथा सहकथाओं से युक्त होता है। हिन्दी के अमर कथाशिल्पी मुंशी प्रेमचंद ने कहानी का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है-

“कहानी एक ऐसी रचना है जिसमें जीवन एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र उसकी शैली तथा उसका कथा-विन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं।”

डॉ० श्रीकृष्ण लाल ने कहानी के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा है-

“आधुनिक कहानी साहित्य का एक विकसित कलात्मक स्वरूप है। इसमें लेखक अपनी कल्पना-शक्ति के सहारे कम-से-कम पात्रों अथवा चरित्रों के द्वारा कम-से-कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से मनोवांछित कथानक, चरित्र, वातावरण, दृश्य अथवा प्रभाव की सृष्टि करता है।”

“आधुनिक कहानी साहित्य का एक विकसित कलात्मक स्वरूप है। इसमें लेखक अपनी कल्पना-शक्ति के सहारे कम-से-कम पात्रों अथवा चरित्रों के द्वारा कम-से-कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से मनोवांछित कथानक, चरित्र, वातावरण, दृश्य अथवा प्रभाव की सृष्टि करता है।”

स्पष्ट है कि कहानी की मुख्य पहचान है-एकान्विति। अर्थात् घटना या घटनाएँ, पात्र या चरित्र, वातावरण का विचार-सभी किसी एक केन्द्रिय बिन्दु से गुंथे हों। उनमें विविधता, विस्तार या फैलाव न हो। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि “कहानी एक ऐसी लघु कथात्मक गद्य रचना है जिसमें जीवन की किसी एक रिणति का सरस-सजीव चित्रण होगा।”

कहानी के तत्त्व-प्रत्येक कहानी ‘ जो एक ‘घटना’ या ‘स्थिति’ को लेकर लिखी जाती है। लेखक किसी एक प्रसंग को चुनव उसके चारों ओर कथात्मक ताना-बाना सा बुन देता है। इस बुनावट के लिए वह किसी एक पात्र या कुछ पात्रों की सृष्टि करता है। पात्रों की पहचान अधिकतर उनके द्वारा उच्चारित न्यनोपकथनों (संवादों) से होती है।

पात्रों के कथनोपकथन अथवा लेखक द्वारा किया गया स्थिति चित्रण भाषा के माध्यम से संभव है। भाषा-प्रयोग की कोई विशेष विधि या पद्धति शैली कहलाती है। यह सब मिलकर कहानी में एक विशेष वातावरण का निर्माण करते हैं। अंतत: कहानी समग्र रूप से पाठकों के हृदय पर जो प्रभाव अंकित करती है, वही कहानी का उद्देश्य होता है। इस प्रकार कहानी के छह तत्त्व स्वतः स्पष्ट हैं-

(क) कथानक,
(ख) पात्र और चरित्र-चित्रण,
(ग) संवाद,
(घ) भाषा-शैली,
(ङ) वातावरण,
(च) उद्देश्य।

आवश्यक नहीं कि किसी कहानी में ये सभी तत्त्व समानुपात में ही विद्यमान हों। किसी कहानी में किसी एक तत्त्व या एकाधिक तत्वों की प्रमुखता या न्येनता हो सकती है। कुछ कहानियाँ कथा-विहीन-सी होती हैं तो कुछ कहानियों में किसी चरित्र की प्रधानता न होकर वातावरण ही प्रमुख होता है। भाषा-शैली के बिना तो कहानी का अस्तित्व ही संभव नहीं। हाँ, उद्देश्य का स्पष्ट घोषित होना आवश्यक नहीं। उसका झीना-सा आभास देना ही कहानीकार का काम है।

कहानी के उपर्युक्त तत्वों का संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है-

(क) कथानक-कथानक कहानी का ढाँचा अथवा शरीर है। इसके बिना कहानी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। कथानक जितना सीमित, सुगठित, स्वाभाविक और कुतुहलवर्धक होगा, कहानी उतनी ही प्रभावशाली सिद्ध होगी।

(ख) पात्र और चरित्र-चित्रण-कथानक का विकास पात्रों के माध्यम से होता है। विभिन्न घटनाओं अथवा क्रिया-व्यापारों का माध्यम पात्र ही होते हैं। यही क्रिया-व्यापार पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करते हैं। कहानी क्योंकि एक संक्षिप्त गद्य-रचना है, अतः इसमें पात्र-संख्या कम-से-कम होनी चाहिए। चरित्र के भी विविध पक्षों की बजाय कोई एक संवेदनीय पहलू विशेष रूप से उजागर होना चाहिए।

(ग) संवाद-कहानी का नाटकीय प्रभाव उसके संवादों में निहित है। लेखक तो कहानी . में केवल वस्तुस्थिति या वातावरण का संकेत भर देता है। कथा-विकास, चरित्र-विन्यास अथवा विचार-संप्रेषण का कार्य अधिकतर पात्रों के संवाद ही करते हैं। ये संवाद संक्षिप्त, सुगठित, चुस्त शशक्त और. हृदयस्पर्शी होने चाहिए।

(घ) भाषा-शैली-कहानी की भाषा मूलतः रचनाकार की अपनी रुचि एवं कहानी में चित्रित केवल वस्तुस्थिति या वातावरण का संकेत भर देता है। कथा-विकास, चरित्र-विन्यास अथवा विचार-संप्रेषण का कार्य अधिकतर पात्रों के संवाद ही करते हैं। ये संवाद संक्षिप्त, सुगठित, चुस्त, सशक्त और हृदयस्पर्शी होने चाहिए।

भाषा-शैली में कहानी की भाषा मूलतः हिन्दी रचनाकार की अपनी रुचि एवं कहानी में चित्रित पात्रों तथा परिवेश का दर्पण होती है। इस संबंध में हिन्दी के अमर कहानीकार मुंशी प्रेमचंद का यह कथन महत्त्वपूर्ण है-“कहानी की भाषा बहुत सरल और सुबोध होनी चाहिए….(क्योंकि) आख्यायिका (कहानी) साधारण जनता के लिए लिखी जाती है।”

कहानीकार द्वारा कथा-वर्णन या चरित्र-चित्रण के लिए जो विशेष विधि या पद्धति अपनाई जाती है वही ‘शैली कहलाती है। लेखक अपनी रुचि तथा कहानी की प्रकृति के अनुसार वर्णनात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक, पत्रात्मक अथवा डायरीशैली. में से किसी एक को अथवा कुछ शैलियों के समन्वित रूप को ग्रहण कर सकता है। शैली को प्रभावशाली बनाने के लिए मुहावरा प्रयोग, अलंकार आदि भी सहायक हो सकते हैं। इसी प्रकार व्यंग्यात्मक, चित्रात्मक या प्रतीकात्मक शैली का भी यथोचित उपयोग संभव है।

(ङ) वातावरण-नाटक या एकांकी की सफलता के लिए जो महत्त्व मंच-विन्यास का है वही महत्त्व कहानी में वातावरण का है। वास्तव में वातावरण’ कहानी का सबसे सशक्त तत्त्व है। सफल कहानीकार सजीव वातावरण की सृष्टि करके पाठकों के मन-मस्तिष्क पर कहानी का ऐसा प्रभाव अंकित करता है कि वे उसी में तल्लीन हो जाते हैं।

(च) उद्देश्य-जैसे मानव-शरीर का संचालन बुद्धि और मस्तिष्क द्वारा होता है उसी प्रकार कहानी के सभी सूत्र मूलत: एक प्रेरणा-बिंदु से जुड़े रहते हैं। वही मूल-प्रेरणा-बिन्दु ही कहानी का साध्य, लक्ष्य, कथ्यं, प्रतिपाद्य या ‘उद्देश्य’ होता है। अन्य तत्त्व उसी साध्य के साधन होते हैं। इस संबंध में हिन्दी के कहानी-सम्राट मुंशी प्रेमचंद का निम्नलिखित कथन विशेष महत्त्वपूर्ण है

“जिस कहानी में जीवन के किसी पहलू पर प्रकाश न पड़ता हो, जो सामाजिक रूढ़ियों की तीव्र आलोचना न करती हो, जो मनुष्यों के सद्भावों को दृढ़ न करे या जो मनुष्य में कूतूहल का भाव न जागृत करे, वह कहानी नहीं है।”

प्रश्न 2.
नई कहानी की विशेषताओं का परिचय दीजिए।
उत्तर-
नई कहानी-1930 ई० के आसपास हिन्दी कहानियों में भी असामाजिकता, अनास्था, काम-कुंठाएं, घुटन, संत्रास, अकेलापन, बेसहरापन, अस्तित्ववादी विचार विशेषतः क्षणवाद, जीवन के प्रति वितृष्णा आदि की भावनाएं स्पष्टतः परिलक्षित होने लगीं। उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ खुलकर सामने आईं। इन्हीं विशेषताओं के कारण ऐसी कहानियों को ‘नई कहानी’ कहते हैं

  1. ऐसी कहानी (नई कहानी) में प्रायः क्लाइमेक्स या चरमबिन्दु का आग्रह नहीं होता क्योंकि ऐसी कहानियों में विशेष मन:स्थिति के निरूपण पर बल होता है।
  2. नई कहानी की विशेषता चारित्रिक असंगति है।
  3. ऐसी कहानियों में ‘सस्पेन्स’ का अभाव रहता है।
  4. इनमें अंतर्द्वद्वों का सायास चित्रण नहीं होता।
  5. सांकेतिकता, बिम्ब-विधान तथा प्रतीकात्मकता इनमें होती हैं।
  6. इनमें कथातत्त्व नगण्य-सा होता है।
  7. इनमें मुख्यतः मध्यवर्गीय शहरी जीवन के कलुषित, अस्वस्थ एवं कुंठाग्रस्त रूप का उद्घाटन मिलता है।
  8. इनमें आंचलिकता का भी आग्रह दिखाई पड़ता है।

हिन्दी के नए कहानीकारों में मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, अमरकांत, मार्कण्डेय, फणीश्वरनाथ रेणु, मन्नू भंडार, राजकमल चौधरी, अमृत राय, रघुवीर सहाय, अजित कुमार, श्रीकांत वर्मा, मधुकर सिंह, मिथिलेश्वर आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 3.
नाटक के तत्वों का उल्लेख कीजिए। अथवा, नाटक के तत्त्वों और प्रकारों का परिचय दीजिए।
उत्तर-
प्राचीन भारतीय आचार्यों के अनुसार नाटक के केवल तीन तत्त्व हैं-वस्तु, नायक और रस। किन्तु, भारतीय और पाश्चात्य समन्वित मतानुसार नाटक के तत्त्व हैं
(क) वस्तु अथवा कथावस्तु
(ख) पात्र और चरित्र-चित्रण
(ग) संवाद अथवा कथोपकथन
(घ) देशकाल अथवा वातावरण
(ङ) भाषा-शैली
(च) उद्देश्य।

(क) वस्तु अथवा कथावस्तु-इसे ही नाटक का ‘प्लॉट’ भी कहा जाता है। नाट्यशास्त्र के अनुसार वह उत्तम नाटकीय कथा है जिसमें सर्वभाव, सर्वकर्म और सर्वरस की प्रवृत्तियाँ और अवस्थाएँ होती हैं। इसमें औदात्य और औचित्य का पद-पद पर ध्यान रखा जाता है। नाटक की विषयवस्तु, प्रसार और अभिनय आदि की दृष्टि से नाटकीय कथावस्तु के भेद किए जाते हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से नाटकीय कथाएँ तीन प्रकार की होती हैं-प्रख्यात, उत्पाद्य और मिश्र।

इतिहास-पुराण या लोक-प्रसिद्ध घटना पर आधारित नाटकीय कथावस्तु को ‘प्रख्यात’ कथावस्तु कहते हैं। नितांत काल्पनिक कथा को ‘उत्पाद्य’ कहते हैं। जिस कथा में इतिहास और कल्पना का योग हो उसे ‘मिश्र’ कहते हैं। अभिनय की दृष्टि से नाटकीय कथावस्तु के दो भेद होते हैं-दृश्य तथा सूच्य और संवाद की दृष्टि से इसके तीन भेद हैं-सर्वश्राव्य, नियतश्राव्य और अश्राव्यं।

प्रसार की दृष्टि से दो प्रकार की कथा होती है-आधिकारिक और प्रासंगिक। प्रासंगिक कथा के भी दो उपभेद होते हैं-पताका और प्रकरी। ऊपर के भेदों के भी अनेक उपभेद होते हैं। किन्तु, मुख्य बात यह है कि चूकि नाटक दृश्यकाव्य है, इसलिए इसकी कथावस्तु का उतना ही विस्तार होना चाहिए जितना एक बैठक में देखा जा सके।

नाटकीय कथावस्तु अनिवार्यतः रोचक होनी चाहिए। उसका समन्वित प्रभाव ऐसा होना चाहिए कि दर्शक लोकमंगल की ओर उन्मुख होते हुए देर तक आनंदमग्न बने रह सकें।

(ख) पात्र और चरित्र-चित्रण-यह बात ध्यान देने योग्य है कि किसी एक नाटक की . सफलता उसकी सजीव और स्वाभाविक पात्र-योजना पर निर्भर करती है। यही कारण है कि संस्कृत आचार्यों ने नेता को नाटक को स्वतंत्र तत्वं मानकर उसके आवश्यक गुणों और भेदों पर विस्तार से विचार किया है। इस दृष्टि से नायक के धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशांत और धीरोद्धत रूप होते हैं।

इसी तरह नायिकाएँ भी अनेक प्रकार की होती हैं; यथा-दिव्या, कुलस्त्री तथा गणिका आदि। नायक के साथ संबंध और अवस्था के आधार पर भी उनके अनेक भेदोपभेद मिलते हैं। . नायक के विरोधी पुरुष पात्र को प्रतिनायक या खलनायक और नायिका के विरोधी स्त्री. पात्र को प्रतिनायिका या खलनायिका कहते हैं। संक्षेप में, नायक को संघर्षशील, चरित्रवान और लोकमंगलोन्मुख होना चाहिए। अत्याधुनिक नाटकों के मूल्यांकन की कसौटी नायक-नायिका नहीं बल्कि उनका समग्र प्रभाव है।

(ग) संवाद अथवा कथोपकथन-संवाद या कथोपकथन नाटक के प्राण होते हैं क्योंकि अव्यकाव्यों में तो लेखकीय वक्तव्य की गुंजाइश रहती है किन्तु दृश्यकाव्य (नाटक और उनके विभिन्न रूपों) में रंग-संकेत को छोड़कर यह नितांत वर्जित है। इसलिए, कथा-विकास और पात्रों के चरित्र-चित्रण का एकमात्र साधन यह संवाद अथवा कथोपकथन तत्त्व ही रह जाता है। इसके सर्वश्राव्य, नियतश्राव्य, अश्राव्य, आकाशभाषित आदि अनेक भेदोपभेद होते हैं। नाटकीय संवाद को संक्षिप्त, सरस, सरल, सुबोध, मर्मस्पर्शी, प्रवाहमय, प्रभावपूर्ण, पात्रोचित और प्रसंगानुकूल होना चाहिए।

(घ) देशकाल अथवा वातावरण-यह नाटक का बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इससे दर्शकों में नाटकीय सफलता के प्रति विश्वास जगता है। किन्तु, नाटक में उपन्यास की तरह इसके विस्तृत वर्णन की गुंजाइश नहीं होती। रंग-संकेत अथवा मंच-सज्जा अथवा पात्रों की वेश-भूषा और संवाद से देशकाल अथवा वातावरण का निर्माण किया जाता है। किन्तु, इसे वर्णित नहीं, व्यजित होना चाहिए।

(ङ) भाषा-शैली-यह नाटक की भाषा सरल, चित्तकर्षक, प्रवाहमय, पात्रानुकूल, प्रसंगानुकूल। और प्रभावपूर्ण होनी चाहिए। नाटक के लिए व्यास-शैली और मिश्र वाक्य-विन्यास वर्जित हैं। नाटक की भाषा मर्मस्पर्शी और उत्सुकता बनाए रखने में सक्षम होनी चाहिए।

(च) उद्देश्य-यह तत्त्व नाटक का मेरुदंड है। यद्यपि नाटक का मूल उद्देश्य रसोद्बोध है तथापि यह तब तक नहीं हो सकता जब तक नाटक का उद्देश्य जनजीवन को सँवारना और सुन्दर बनाना न हो। पूरे ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में यथार्थ का चित्रण इसका उद्देश्य हो सकता है, किन्तु उस उद्देश्य के गर्भ से आदर्श जीवन के प्रारूप को भी झाँकते रहना चाहिए। संक्षेप में, जन-मन-रंजन और लोक-मंगल को हम नाटक का स्थायी उद्देश्य कह सकते हैं।

विषय और उद्देश्य-भेद से नाटक के कई प्रकार होते हैं; यथा-ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक, राजनीतिक, समस्यामूलक आदि।

प्रश्न 4.
नाटक और एकांकी के स्वरूप का विवेचन करते हुए दोनों का अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
नाटक-नाटक ‘दृश्यकाल’ की सर्वप्रमुख विद्या नाटक है। ‘नाटक’ शब्द ‘नट’ से बना है। ‘नट’ का अभिप्राय है-अभिनेता। स्पष्ट है कि जिस साहित्यिक रचना को ‘अभिनय’ के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सके उसे ‘नाटक’ कहते हैं।
प्राचीन साहित्यशास्त्र में ‘दृश्य काव्य’ के दो प्रमुख भेद बताए गए हैं-

  • रूपक,
  • उपरूपक।

रूपक’ के दस भेदों में से एक ‘नाटक’ की गणना भी की गई है। परंतु आजकल मंच पर प्रस्तुत की जा सकने वाली प्रत्येक दृश्य रचना ‘नाटक’ कहलाती है।

उल्लेखनीय है कि वर्तमान युग में प्रत्येक साहित्यिक रचना छपने की सुविधा हो जाने के कारण, ‘पढ़ी’ और ‘सुनी’ भी जा सकती है। फिर नाटक में अन्य साहित्यिक विधाओं की भांति कथा-वर्णन या भाव-संप्रेक्षण नहीं होता। उसकी प्रस्तुत विभिन्न पात्रों के कथनोपकथनों के माध्यम से होती है। उसकी सफलता और सार्थकता इस बात पर निर्भर है कि अभिनेता विभिन्न पात्रों के कथनोपकथनों के विषयवस्तु, प्रसंग, संदर्भ, चरित्र एवं भाव या विचार विशेष के अनुकूल भाव-भंगिमा, मुख-मुद्रा, लहजे तथा चेष्टा आदि के माध्यम से उच्चारित करें। इसलिए ‘नाटक’ अन्य श्रव्य साहित्य की अपेक्षा एक विशिष्ट ‘दृश्य’ साहित्यिक विधा है।

नाटक के तत्त्व-प्रत्येक साहित्यिक रचना कुछ विशेष तत्त्वों के ताने-बाने से गूंथी होती है। उदाहरणतया नाटक के मूलतः कोई-न-कोई कथासूत्र (थीम) होता है। उसी से संबंद्ध घटनाएँ प्रतिघटनाएँ कथानक को विकसित करती हुई लक्ष्य की ओर ले चलती है। यह कथा-विकास पात्रों के कथनोपकथनों के माध्यम से ज्ञात और विकसित होता है। कथनोपकथन नाटक के पात्रों की स्थिति, अवस्था, रुचि आदि के अनुकूल भाषा-शैली में प्रस्तुत किए जाते हैं।

पात्रों के आकार-प्रकार, वार्तालाप और भाषा-प्रयोग के माध्यम से हम जान पाते हैं कि नाटक के कथानक का संबंध किस देश-काल वातावरण अर्थात् युग-परिवेश से है। अंततः इन सभी माध्यमों से स्पष्ट होता है कि नाटक-रचना का मूल उद्देश्य, कथ्य या संदेश क्या है। उसमें नाटककार क्या विचार या दृष्टिकोण व्यक्त करना चाहता है। (उपर्युक्त विवेचना के आधार पर नाटक के सात प्रमुख तत्व माने गए हैं-
(क) कथानक,
(ख) पात्र एवं चरित्र-चित्रण,
(ग) संवाद (कथनोपकथन),
(घ) भाषा-शैली,
(ङ) देश-काल-वातावरण अथवा युग-परिवेश,
(च) उद्देश्य (कथ्य या संदेश),
(छ) रंगमंचीयता अथवा अभिोयता।

(क) कथानक-कथानक को एक प्रकार से नाटक का शरीर (ढाँचा) कहा जा सकता है। विभिन्न घटनाएँ, पात्रों की बातचीत और चेष्टाएँ मूलतः किसी कथात्मक विवरण से ही जुड़ी होती है। अन्य सभी तत्त्व उसी केन्द्रिय कथा-तत्त्व के विकास में सहायक होते हैं।

नाटक का कथानक स्वाभाविक, सुगठित और रोचक होना चाहिए। तभी पाठकों का, दर्शकों का उससे तादात्म्य हो जाता है।

(ख) पात्र एवं चरित्र-चित्रण-कथानक यदि नाटक का शरीर है तो पात्र उस कथानक रूपी शरीर के अंग हैं। कथात्मक घटनाएँ अपने-आप में शून्य में घटित नहीं होती। उनका पता विभिन्न पात्रों के कथनोपकथन, उनकी चेष्टाओं से पता चलता है। नाटक का थीम और उद्देश्य पात्रों के चरित्र के माध्यम से ही स्पष्ट हो जाता है।

नाटक में पात्रों की संख्या जितनी कम हो, उतना वह अधिक प्रभावशाली बन पाता है। पात्रों के चरित्र की रूपरेखा उनके अपने कथनों और उनकी चेष्टाओं के माध्यम से स्पष्ट होनी चाहिए। कई बार किसी एक पात्र के माध्यम से भी अन्य पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का आभास मिल जाता है।

(ग) संवाद (कथनोपकथन)-संवाद नाटक का प्राण-तत्त्व है जैसे प्राण के बिना शरीर का अस्तित्व ही निरर्थक होता है उसी प्रकार संवाद के बिना नाटक का ढाँचागत स्वरूप ही साकार नहीं हो सकता।

विविध प्रकार के कथनोकथन ही कथा-विकास, चरित्र-चित्रण तथा उद्देश्य-सिद्धि का आधार होते हैं।

नाटक के संवाद छोटे, सरल वाक्यों में सुगठित, सार्थक, प्रभावशाली और सशक्त होने चाहिए। लंबे और उबाऊ संवाद पाठकों के मन में नाटक के प्रति अरुचि तथा उकताहट पैदा कर सकते हैं।

(घ) भाषा-शैली-नाटक की भाषा-शैली का सीधा संबंध उसके पात्रों और उनके द्वारा उच्चारित कथनोपकथनों से है। भाषा का स्वरूप नाटक में चित्रित देश-काल अर्थात् युग-परिवेश का अनुकूल होना चाहिए। पात्रों की सामाजिक स्थिति, शिक्षा-दीक्षा, रुचि-अभिरुचि भी भाषा के स्वरूप का निर्माण करती है। सर्वप्रमुख बात यह है कि नाटक की भाषा पाठकों (या दर्शकों) के लिए सहज-सुबोध होनी चाहिए।

शैली का संबंध पात्रों द्वारा किसी कथन के उच्चारण के ढंग, लहजे तथा उसके संशक्त और प्रभावशाली बनाने के लिए अपनाई गई युक्तियों या विधियों से है। जैसे आलंकारिक, चित्रात्मक, प्रतीकात्मक या व्यंग्यात्मक शैली आदि।

(ङ) देश-काल-वातावरण अथवा युग-परिवेश-नाटक के पढ़ते या देखते समय हम यह जान जाते हैं कि उसमें किस युग (जमाने) की किस समयावधि की कथा, स्थितियाँ-परिस्थितियाँ या सामाजिक-राजनैतिक-धार्मिक अवस्था का चित्रण हुआ है। यही तत्त्व युग-परिवेश अथवा नाटक का देश-काल-वातावरण कहलाता है।

(च) उद्देश्य (क्ष्य या संदेश)-कोई भी साहित्यिक रचना बिना किसी विशेष मंतव्य या उद्देश्य के नहीं लिखी जाती। फिर, नाटक तो जन-सामान्य के जीवन और समाज का प्रत्यक्ष प्रतिबिंब होता है। अतः नाटककार उसमें किसी विशेष दृष्टिकोण, विचारधारा अथवा युगीन . समस्याओं तथा उनके समाधान के संकेत विविध पात्रों के माध्यम से करा देता है। वही नाटक का उद्देश्य या संदेश माना जाता है।

(छ) रंगमंचीयता या अभिनेयता-नाटक मूलत: ‘दृश्य’ साहित्य का एक महत्वपूर्ण रूप है इसका रसास्वादन प्रायः मंच (फिल्म के बड़े परदे या दूरदर्शन के छोटे परदे) पर प्रस्तुति के माध्यम से होता है। इसीलिए नाटक में प्रस्तुत किए गए दृश्य असंभव या अकल्पनीय नहीं होने चाहिए। उसकी कथावस्तु में निरंतर जिज्ञासा तथा कौतूहल को बनाए रखने वाली रोचकता हो।

पात्रों के संवाद और अंग-विन्यास आदि सशक्त, प्रभावशाली और भावोतेजक अथवा विचार-प्रेरक हो। यह सब कुछ मंच पर अभिनय द्वारा साकार होता है। अतः नाटक के इस तत्त्व को ‘रंगमंचयिता’ या ‘अभिनेता’ कहा जाता है।

‘नाटक’ के समान ‘एकांकी’ भी ‘दृश्य’ साहित्य का एक प्रमुख रूप या प्रकार है। नाटक में कई अंक होते हैं। पुनः हर अंक के अंतर्गत कई दृश्यों का समावेश होता है। जैसे श्री चिरंजीत द्वारा लिखित नाटक ‘आधी रात का सूरज’ में दो अंक हैं तथा हर अंक में पुन: दो-दो दृश्य हैं। परंतु ‘एकांकी’ (एक + अंक + ई) का अभिप्राय ही यही है-एक वाला दृश्य साहित्य अथवा नाटक। अंग्रेजी में इसे ‘वन एक्ट प्ले’ भी इसीलिए कहा जाता है। स्पष्ट है कि ‘एकांकी’ में नाटक के समान विविधता नहीं होती। इसी आधार पर ‘एकांकी’ की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है

“जिस अभिनय रचना में एक ही अंक हो, सीमित पात्रों के माध्यम से एक ही प्रभाव घटना नाटकीय शैली में प्रस्तुत की गई हो, उसमें कोई एक ही समस्या विचार-दृष्टि प्रतिपादित हुई हो उसे ‘एकांकी’ कहते हैं।

एकांकी के तत्त्व-नाटक के तत्त्वों से अलग नहीं है। ऊपर बताए गए सातों तत्त्वों (कथानक, पात्र और चरित्र-चित्रण, संवाद, भाषा-शैली, देश-काल-वातावरण, उद्देश्य, रंगमंचीयता) का निर्वाह इसमें भी अपेक्षित है।

नाटक एवं एकांकी में अन्तर।
ये दोनों विधाएँ ‘दृश्य’ साहित्य के अंतर्गत आती हैं। दोनों का संबंध मंच अथवा अभिनय से है। दोनों के आधार-भूत तत्त्व भी समान हैं। फिर भी दोनों में वहीं अंतर है जो ‘महाकाव्य’ और ‘खंडकाव्य’ में या ‘उपन्यास’ और ‘कहानी’ में होता है। संक्षेप में, ‘नाटक’ और ‘एकांकी’ का अंतर इस प्रकार है ___(क) नाटक के कई अंक हो सकते हैं, परंतु एकांकी में केवल एक ही अंक होता है।

(ख) ‘नाटक’ में एक कथासूत्र (मुख्य कथानक) के साथ अनेक उपकथाएँ अथवा सहायक कथाएँ या घटनाएँ जुड़ी हो सकती हैं। ‘एकांकी’ के आरंभ से अंत तक केवल एक ही कथा का निर्वाह किया जाता है।

(ग) ‘नाटक’ में पात्रं की संख्या पर्याप्त हो सकती है। ‘एकांकी’ में कम-से-कम . (कभी-कभी तो दो-तीन ही) पात्र होते हैं।

(घ) ‘नाटक’ में पात्रों के चरित्र का विकास क्रमशः धीरे-धीरे होता है। कई बार तो किसी पात्र के चरित्र की वास्तविकता बहुत बाद में जाकर स्पष्ट हो पाती है। जैसे-‘आधी रात का सूरज’ नाटक में ‘जगमोहन’ के चरित्र की असलियत का पता तीसरे-चौथे दृश्य में चल पाता है। ‘सुनीता’ के चरित्र की विशेषताएँ तो अंत तक एक-एक करके उद्घाटित होती हैं। परंतु ‘एकांकी’ के एक-दो दृश्यों में ही पात्रों का चरित्र स्पष्टतया प्रतिबिंबित हो जाता है।

प्रश्न 5.
निबंध के तत्त्वों का उल्लेख कीजिए। अथवा, निबंध के रूप का परिचय दीजिए।
उत्तर-
निबंध का स्वरूप इतना वैविध्यपूर्ण है कि इसके सामान्य तत्त्वों के निर्धारण में प्रायः परस्पर विरोध हो जाता है। दूसरी कठिनाई यह है कि निबंध के आधारभूत सामान्य तत्वों के ओर आज तक सुव्यवस्थित विचार नहीं हुआ है। निबंध के तत्त्वों के संदर्भ में प्रायः लोग निबंध के गुणों की चर्चा करने लगते हैं। इन कठिनाइयों से हम आसानी से बच सकते हैं अगर निबंध को-वस्तुनिष्ठ और आत्मनिष्ठ अथवा ललित-दो भागों में बाँटकर हम इस बात को समझने का प्रयत्न करें। पहले हम वस्तुनिष्ठ निबंध के तत्त्वों पर विचार करेंगे। इसके निम्नलिखित तत्त्व होते हैं-

(क) विषय-वस्तु
(ख) संयोजन अथवा विन्यास
(ग) युक्ति
(घ) तटस्थता
(ङ) भाषा-शैली
(च) उद्देश्य

(क) विषय-वस्तु-विषय-वस्तु से तात्पर्य उस मूल सामग्री से है जो निबंधकार का प्रतिपाद्य होता है। यह खोजपूर्ण, ज्ञानप्रद और जितना ही मौलिक होगा, निबंध उतना ही मानक और उच्चस्तरीय होगा।

(ख) संयोजन अथवा विन्यास-संयोजन अथवा विन्यास का तापर्य वह कौशल है जिसके आधार पर प्रतिपाद्य से संबंधित सकल सामग्री को निबंधकार व्यवस्थित, संक्षिप्त, प्रभावशाली और विश्वास्य बनाता है। कुछ लोग संक्षिप्तता पर बल देते हैं। किन्तु, संक्षिप्तता को दुर्बोधता का साधन नहीं होना चाहिए। संयोजन अथवा विन्यास निबंध का वह तत्त्व है जिसके द्वारा प्रतिपाद्य सामग्री को आदि, मध्य और अंत अथवा उपसंहार में बाँटा जाता है।

(ग) युक्ति-युक्ति वस्तुनिष्ठ निबंधों का वह सामान्य तत्त्वं है जिसके निबंधकार अपने प्रतिपादन को अधिकाधिक आकर्षक, वेगमय, मान्य और प्रभावशाली बनाता है। यह वह तत्व है जो निबंधकार को उसके प्रतिपाद्य की संभावित आलोचनाओं के प्रति सजग रखता है। इसी तत्त्व के द्वारा प्रतिपाद्य से संबंधित सभी अनुमानित शंकाओं का निरन निबंधकार यथास्थान स्वयं करता चलता है।

(घ) तटस्थता-तटस्थता निबंध का वह गुण है जिसके कारण निबंधकार अपनी लेखकीय भूलों और उनके प्रति भविष्य में होने वाले आरोपों से बचता लाता है। किन्तु, इसकी सीमा के निर्धारण की कोई कसौटी नहीं बनाई जा सकती। निबंध का यह तत्त्व निबंध के प्रति पाठकीय प्रतीति (विश्वास) को जगाए रखता है।

(ङ) भाषा-शैली-निबंध की भाषा विषयानुकूल और यथासंभव सुबोध होनी चाहिए। इसके वाक्यों का विन्यास सार्थक और निर्दोष होना चाहिए। पांडित्य प्रदर्शन और व्यास-शैली निबंध के लिए घातक हैं। फिर भी, विचारात्मक निबंधों के लिए व्यास-शैली को संयमपूर्वक अपनाया जा सकता है। निबंध के लिए पद्य का माध्यम भी कभी अपनाया गया था, किन्तु अब इसका प्रचलन उठ गया है।

(च) उद्देश्य-उद्देश्य निबंध का वह तत्व है जिसके माध्यम से अपने प्रतिपाद्य-विषयक सकल सामग्री की खोज निबंधकार करता और अपने उस विषय के ज्ञान का प्रसार अपने पाठकों .. के बीच करता है। ऐसे निबंधों का यही उद्देश्य भी होता है।

व्यक्तिनिष्ठ (आत्मनिष्ठ अथवा ललित) निबंध के निम्नलिखित तत्त्व हैं

  • उपेक्षित विषय
  • बिखरे संदर्भ
  • हास्य और व्यंग्य
  • लेखकीय व्यक्तित्व का उद्घाटन और
  • बिखराव के बीच भी एक कलात्मक संयोजन।

प्रश्न 6.
निबंध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके विभिन्न रूपों (भेदों या प्रकारों) पर संक्षेप में प्रकाश डालें।
उत्तर-
निबंध का स्वरूप-‘निबंध’ का एक प्रमुख गद्य-विद्या है। संस्कृत में कहा गया है कि साहित्यकार की लेखन-कुशलता की वास्तविक परख ‘गद्य’ रचना द्वारा होती है-‘गद्य कवींनां निकर्ष वदति।’ आधुनिक युग के महान निबंधकार एवं आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन है कि-“यदि गद्य कवियों (साहित्यकारों) की कसौटी है, तो निबंध गद्य की कसौटी है।”

“निबंध’ शब्द का अभिप्राय है-‘भली भाँति बाँधना’। ‘निबंध’ नामक रचना में किसी विशेष . विषय में संबंधित विचारों, भावों, शब्दों का एक सूत्रता अर्थात् तारतम्य में समायोजित किया जाता है। अंग्रेजी विश्वकोष (इनसाइक्लोपीडिया) में निबंध की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-“निबंध किसी भी विषय पर अथवा किसी विषय के एक अंग पर लिखित मर्यादित आकार की रचना है।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निबंध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए विस्तार से इसकी व्याख्या की है-“संसार की हर एक बात और बातों से संबंद्ध है। अपने-अपने मानसिक संघटन के अनुसार किसी का मन किसी संबंध-सूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। ये संबंध-सूत्र एक-दूसरे से नथे हुए, पत्तों के भीतर की नसों के समान चारों ओर एक जाल के रूप में फैले रहते हैं। तत्त्वचिंतक या दार्शनिक केवल अपने व्यापक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए उपयोगी कुछ संबंध-सूत्रों को पकड़कर किस ओर सीधा चलता है और बीच के ब्योरे में कहीं नहीं फंसता।

पर निबंध-लेखक अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छंद गति से इधर-उधर फूटी हुई सूत्र-शाखाओं पर विचारता रहता है, यही उसकी अर्थ-संबंधी व्यक्तिगत विशेषता है।” संक्षेप में निबंध की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है “निबंध वह रचना है जिसमें किसी विशिष्ट विषय से संबंधित तर्कसंगत विचार गुंथे हुए हों।” के प्रकार शैली।

निबंध के प्रकार-निबंध के स्वरूप पर ध्यान देने से उसे दो आयाम महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं-
(क) विषयवस्तु,
(ख) शैली।

विषयवस्तु के आधार पर निबंध के दो वर्ग हैं-
(क) विषयनिष्ठ निबंध,
(ख) विषयनिष्ठ निबंध।

(क) विषयनिष्ठ निबंध-जिस निबंध में रचनाकार अपने निजी व्यक्तित्व से अलग, किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति, खोज, समस्या, प्रकृति, आदि के संबंध में विचार संयोजित और प्रस्तुत करता है, वह ‘विषयनिष्ठ निबंध’ कहलाता है।

कुछ निबंधों में ये दोनों तत्त्व समन्वित रूप में विद्यमान रहते हैं। लेखक किसी अन्य विषय पर विचार करते हुए उसमें अपने निजी रागात्मक अनुभवों को भी संस्पर्श प्रदान करते हैं।

शैली की दृष्टि से निबंध के कई रूप संभव है। उनमें से ये छह प्रकार प्रमुख हैं

(क) वर्णनात्मक निबंध,
(ख) विवरणात्मक निबंध,
(ग) विवेचनात्मक या विश्लेषणात्मक निबंध
(घ) भावात्मक निबंध,
(ङ) संस्मरणात्मक निबंध,
(च) ललित निबंध।

(क) वर्णनात्मक निबंध-किसी वस्तु या स्थान आदि का परिचयात्मक वर्णन प्रस्तुत करने वाले निबंध ‘वर्णनात्मक निबंध’ कहलाते हैं। जैसे-दक्षिण गंगा, गोदावारी, हमारी लोकतंत्र का प्रतीक तिरंगा।

(ख) विवरणात्मक निबंध (विवेचनात्मक या विश्लेषणात्मक)-जिन संबंधों में किसी वैज्ञानिक खोज नये आविष्कार, सामाजिक समस्या, दार्शनिक सिद्धांत, साहित्य-समीक्षा, विचार/संजोकर, विविध पहलुओं का विवेचन या विश्लेषण करते हुए विशद विवरण प्रस्तुत किया गया हो उन्हें विवरणात्मक निबंध कहते हैं। जैसे-पर्यटन का महत्त्व, पर्यावरण प्रदूषण-एक अभिशाप, मानव का नया मित्र कंप्यूटर, साहित्य में प्रतीक, राजनीति और विद्यार्थी, दसवीं पंचवर्षीय योजना आदि।

(ग) विवेचनात्मक निबंध-बौद्धिक चिंतन, तर्क-वितर्क और विचार-विमर्श पर आधारित निबंध “विचारात्मक निबंध’ कहलाते हैं। ऐसे निबंधों में प्रायः किसी अमूर्त विषय के विभिन्न … पहलुओं को स्पष्ट किया जाता है। जैसे विश्वशांति, धर्म और विज्ञान, अंतरिक्ष में भारत आदि।

(घ) भावात्मक निबंध-मानव मन की रागात्मक संवेदनाओं, अनुभूतियों, रुचियों-अभिरूचियों आदि से संबंधित निबंध ‘भावात्मक निबंध’ कहलाते हैं। जैसे-सुख-दुःख-एक सिक्के के दो पहलू, भय बिनु होइ न प्रीति, श्रद्धा-भक्ति, जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान इत्यादि।

(ङ) संस्मरणात्मक निबंध-जिन निबंधों में लेखक अपने व्यक्तिगत संपर्क में आने वाले व्यक्तियों यात्रा आदि के अनुभवों, घटना-प्रसंगों आदि से संबंधित निजी-स्मृतियाँ साहित्यिक सौष्ठव के साथ प्रस्तुत करता है वे ‘संस्मरणात्मक निबंध’ कहलाते हैं। जैसे-महादेवी-कृत निबंध रामा, अमृतराय द्वारा लिखित प्रेमचंद आदि।

(च) ललित निबंध-जिस निबंध में किसी भी विषयवस्तु, व्यक्ति, घटना, प्रकृति-सौंदर्य, त्यौहार-पर्व, रोचक अनुभव अथवा सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य आदि के संबंध में एक विशेष आकर्षक, हृदयस्पर्शी और आत्मीय शैली में भाव-प्रवाह संयोजित हो, उसे ‘ललित निबंध’ कहते हैं। जैसे-पीपल के बहाने (विद्या निवास मिश्र), बउरैया कोदो (अमरनाथ), तालाब बाँधता धरम सुभाव (अनुपम मिश्र), रेल-यात्रा (शरद जोशी) आदि।

प्रश्न 7.
‘निबंध की परिभाषा स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं और शैलियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
निबंध की परिभाषा-“निबंध एक ऐसी गद्य-रचना है जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का यथासंभव स्वत: संपूर्ण मौलिक प्रतिपादन सुगठित वाक्य-विन्यास एवं सुष्ठता-युक्त शैली के माध्यम से किया गया हो।”

निबंध की विशेषताएँ निबंध के परिभाषा और उसके स्वरूप पर विचार करने से कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं। जैसे-‘निबंध एक गद्य-रचना’ है। इसमें किसी एक निश्चित, निर्धारित या चुने गए विषय का विवेचन किया जाता है। निर्धारित विषय और उसका विवेचन प्रायः मौलिक होता है अर्थात् उसमें एक नयापन होता है, केवल पहले लिखी या कही जा चुकी बातों का दोहराव नहीं होता।

यह तभी संभव है जब निबंध के लेखक के अपने निजी व्यक्तित्व, चिंतन, सोच-विचार और दृष्टिकोण की उसमें स्पष्ट छाप हो। साथ ही निबंध को प्रभावशाली बनाने के लिए उसकी सुरूचिपूर्ण (रोचक) प्रस्तुति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त निबंध चाहे किसी भी विषय से संबंधित हो, उसमें निर्धारित विषय का समग्र संपूर्ण स्पष्टीकरण हो जाना चाहिए। संबद्ध विषय का कोई भी पहलू अस्पष्ट न रहे।

उपर्युक्त बातों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि निबंध में कुछ विशेषताएँ अपेक्षित हैं जिन्हें साहित्याशास्त्र के संदर्भ में निबंध के गुण या तत्व भी कह सकते हैं। ये विशेषताएँ हैं-
(क) उपर्युक्त विषय का चयन,
(ख) मौलिकता,
(ग) लेखक के व्यक्तित्व की छाप
(घ) रोचकता,
(ङ) स्वतः संपूर्णतया।

(क) उपयुक्त विषय का चयन-निबंध के लिए राई से लेकर पहाड़ तक कोई भी विषय चुना जा सकता है। व्यक्ति, प्राणी, प्राकृतिक, रूप, विचार समस्यात्मक प्रश्न, समाज, साहित्य, इतिहास, विज्ञान-संपूर्ण ब्रह्माण्ड, यहाँ तक कि आत्मा या परमात्मा को भी निबंध का विषय बनाया जा सकता है परंतु निबंध का विषय निर्धारित करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि क्या उसके संबंध में विचार-विर्मश आवश्यक है?

क्या उस संबंध में कोई नई मौलिक अवधारणा स्पष्ट होना जरूरी है। क्या उससे पाठक वर्ग के अधिकतम समुदाय की संतुष्टि संभव है? साथ ही विषय चाहे सीमित हो या व्यापक, निबंध के अंतर्गत उसका संक्षिप्त सुसंबंद्ध, अपने-आप में पूर्ण, रोचक वर्णन-विवेचन होना चाहिए।

(ख) मौलिकता-हम देखते हैं कि किसी एक ही विषय पर, अनेक लेखकों द्वारा, अनेक … निबंध लिखे जाते हैं। परीक्षाओं में प्रायः हजारों या लाखों विद्यार्थी या प्रतियोगी किसी एक ही विषय पर निबंध लिखते हैं। परंतु विभिन्न रचनाकारों द्वारा एक ही विषय पर लिखित निबंध अपने स्वरूप-आकार, प्रतिपादन-शैली एवं विचार-विवेचन में सर्वथा भिन्न हो सकता है। इसका कारण है-निबंध की मौलिकता।

पहले कही या लिखी जा चुकी बातों के भी कई पहलू पुन: नए ढंग से स्पष्ट या व्याख्यायित करने की आवश्यकता हो सकती है। इसके अतिरिक्त हर लेखक की चिंतन-दृष्टि एवं उसकी प्रस्तुति में अपने स्तर और ढंग का कुछ-न-कुछ नयापन होता है जो : निबंध-लेखन की प्रमुख कसौटी है। यही विशेषता. ‘मौलिकता’ कहलाती है।

(ग) लेखक के व्यक्तित्व की छाप-हर लेखक की भाषा अपनी एक विशिष्ट भंगिमा और शैली लिए रहती है। कुछ लेखक संस्कृतिनिष्ठ, तत्सम-प्रधान शब्दावली का प्रयोग अधिक करते हैं, कुछ सहज-सुबोध, व्यावहारिक भाषा का प्रयोग करते हैं। किसी भी विषय को पाठकों के लिए सहज-संवेद्य तथा पठनीय बनाने के लिए लेखक अपनी रूचि-अभिरुचि के अनुकूल विधियाँ अपनाता है। कोई लेखक उदाहरण-दृष्टांत, उद्धरण आदि देकर विषय स्पष्ट करता है, कोई तर्क-वितर्क का सहारा लेता है। हर निबंध के अंतर्गत उसके लेखक के व्यक्तित्व की छाप महसूस कर सकते हैं।

(घ) रोचकता-निबंध-रचना का उद्देश्य तभी सिद्ध हो सकता है जब पाठक-वर्ग उसे पढ़ने में रुचि ले। अथवा-जो निबंध पाठकों के मन में निर्धारित विषय के संबंध में रुचि जागृत करके उन्हें सम्यक् संतोष प्रदान कर सके वही निबंध सफल और सार्थक माना जा सकता है। यह ठीक है कि निबंध को प्रायः गंभीर, गूढ़ सूक्ष्म विषय को भी भाषाप्रवाह, मुहावरे प्रयोग, इतिहास और समाज से संबंद्ध दृष्टांत-उदाहरण शैली अपनाकर पर्याप्त रोचक बना देता है। इस रोचकता नामक तत्त्व के सहारे ही निबंध पठनीय एवं प्रभावशाली बन पाते हैं।

(ङ) स्वत: संपूर्णता-निबंध पढ़ने के बाद यदि पाठक को निर्धारित विषय के संबंध में हर प्रकार की पूरी जानकारी मिल जाय तो समझना चाहिए कि इस निबंध में स्वत: संपूर्णता का गुण विद्यमान है। किसी विषय पर लिखित निबंध के बाद यदि पाठकों को पूरी संतुष्टि न हो, उसके निबंध स्वतः संपूर्ण नहीं है। वास्तव में निबंधकार से यह आशा की जाती है कि वह निर्धारित विषय के संबंध में यथासंभव पूर्ण जानकारी प्रस्तुत करने का प्रयास करे। निर्धारित विषय के प्रत्येक पहलू एवं पक्ष-विपक्ष के संबंध में दिए जा सकने वाले तर्क-वितर्क पर आधारित विमर्श के उपरांत निर्णयात्मक निष्कर्ष से युक्त निबंध ही स्वतः संपूर्ण माना जा सकता है।

प्रश्न 8.
‘निबंध शैली’ का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए, प्रचलित प्रमुख निबंध-शैलियों का संक्षिप्त वर्णन दीजिए।
उत्तर-
निबंध-शैली का अभिप्राय-निबंध के अंतर्गत निर्धारित विषय को स्पष्ट एवं निर्णयक रूप से प्रतिपादित करने के लिए लेखक जिस विशेष विधि और भाषा संबंधी विशेषताओं को अपनाता है उसे “निबंध की शैली’ कहा जाता है।

कोई निबंधकार अपेक्षित विषय को संक्षेप में ही स्पष्ट कर देने में कुशल होता है। किसी लेखक को प्रत्येक विषय को विस्तार से समझने में ही संतोष प्राप्त होता है। कुछ लेखक छोटे-छोटे वाक्यों में भाव-श्रृंखला जोड़कर काव्यमयी शैली में निर्धारित विषय को स्पष्ट करते चले जाते हैं। इसके विपरीत अनेक लेखक अपने गहन दार्शनिक चिंतन के कारण किसी भी विषय को अनेक विधियों से स्पष्ट करते हैं जिसमें सामान्य पाठक निर्धारित विषय पर मन केन्द्रित नहीं रख पाता।

निबंध-रचना की प्रमुख शैलियाँ-उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि निबंध-रचना की अनेक शैलियाँ संभव है। उनमें से प्रमुख हैं-
(क) समास शैली,
(ख) व्यास शैली,
(ग) धाराप्रवाह शैली,
(घ) विक्षेप अथवा तरंग शैली।

(क) समास शैली-‘समाज’ का अभिप्राय है-संक्षेप। किसी विषय के विशेष पहलू को कम-से-कम शब्दों में स्पष्ट कर देना इस शैली की प्रमुख विशेषता है। लेखक सूत्र-रूप में अपनी . बात कहकर, विषय-वस्तु का स्वरूप स्पष्ट करता चला जाता है। इसमें प्रायः समस्त शब्दावली (दो या दो से अधिक शब्दों को एक ही शब्द में पिरोकर शब्द-संख्या कम करने की प्रवृत्ति) अपनाई जाती है। वाक्य भी छोटे-छोटे सुगठित होते हैं। बालमुकुंद गुप्त निबंध ‘हँसी-खुशी’ समास शैली का अच्छा उदाहरण है।

(ख) व्यास शैली-‘व्यास’ का अभिप्राय है-विस्तार या फैलाव। यह शैली ‘समास’ शैली के बिल्कुल उलटा है। इसमें लेखक हर विषय को विस्तारपूर्वक समझाने के लिए, इसे हर पहलू की व्याख्या करता है। एक ही विचार-बिन्दु को स्पष्ट करने के लिए वह कई तर्क, उदाहरण आदि प्रस्तुत करता है। सर्वसामान्य पाठकों के लिए एक ऐसी शैली में लिखित निबंध अधिक ग्राह्य और सुबोध होते हैं। श्री अमृतराय द्वारा रचित ‘प्रेमचन्द’ शीर्षक इसी शैली का नमूना है।

(ग) धाराप्रवाह शैली-ललित निबंधों के लिए यह शैली बहुत उपयुक्त रहती है। इस शैली की पहचान या प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी भाषा प्रवाहमयी, अनुप्रास-युक्त, नाद-सौंदर्य से विभूषित एवं सरस-कोमल शब्दावली पर आधारित होती है। पाठक ऐसे निबंध को बड़ी रुचि के साथ पढ़ता हुआ आंतरिक तृप्ति महसूस करता है। रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘धूल’ और डॉ० विद्यानिवास मिश्र का निबंध ‘पीपल के बहाने’ इस शैली के उत्तम उदाहरण हैं।

(घ) विक्षेप अथवा तरंग शैली-जिन संबंधों में किसी मूर्त, ठोस, प्राकृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक विषय का प्रतिपादन न होकर, केवल सूक्ष्म, अमूर्त रागात्मक अनुभूतियों की अभिव्यंजना अधिक होती है, उनकी शैली में कोई सिलसिलेवार तारतम्य या विचार-प्रवाह प्रतीत नहीं होती, ऐसी अव्यवस्थित सी प्रतीत होने वाली शैली ‘विक्षेप’ या ‘तरंग’ शैली कहलाती है। ‘विक्षेप’ का अभिप्राय है-व्यवधान, बीच-बीच में रुकावट, बाधा या मोड़ आ जाना। जब लेखक एक विचार-बिन्दु को भावावेश के साथ प्रस्तुत कर रहा होता है, तभी कोई और भाव-बिंदु उस विषय की दिशा ही बदलता-सा प्रतीत होता है। बहुत गूढ़ दार्शनिक विषय या भक्ति-वैराग्य, उद्दात्त जीवन-मूल्यों आदि से संबंधित निबंधों में इस प्रकार की शैली देखी जा सकती है। अध्यापक पूर्णसिंह के ‘आचरण की सभ्यता’, ‘प्रेम और मजदूरी’ आदि निबंधों में यही शैली अपनाई गई है।

अन्य उल्लेखनीय निबंध-शैलियाँ-निबंध-रचना की विविध विशेषताओं में एक ‘व्यक्तित्व की छाप’ भी है। हर लेखक की निजी व्यक्तिगत रुचि-अभिरूचि, भाषा-प्रयोग की पद्धति, वाक्य-रचना की विधि अपनी कुछ अलग पहचान लिए रहती है। इसलिए प्रत्येक निबंध में कोई एक सवमाय शैली नहीं अपनाई जा सकती। रचनाकार को अपनी अलग लेखन-विधि के अनुसार किसी निबंध में एक विशेष शैली प्रमुख हो जाती है, पर अन्य शैलियों की झलक भी गौण रूप से उसमें समाविष्ट रहती है। ऐसी विभिनन शैलियों में से चार के नाम उल्लेखनीय हैं-
(क) व्यंग्यात्मक शैली,
(ख) चित्रात्मक शैली,
(ग) आलंकारिक शैली,
(घ) सूक्ति-शैली।

(क) व्यंग्यात्मक शैली-‘व्यंग्य’ का अभिप्राय है-हास्य-विनोद, उपहास या उपालंभ के रूप में ऐसी महत्त्वपूर्ण बात यह देना जो चेहरे पर मुस्कान बिखेरने के साथ ही मन-मस्तिष्क का ध्यान विषय की गंभीरता की ओर आकृष्ट कर सके। बहुत गंभीर विषय को भी कई लेखक चुटीली के माध्यम से ऐसा सरस, रोचक और प्ररणादायक बना देते हैं कि पाठकों के हृदय पर उसकी अमिट एवं अविस्मरणीय छाप अंकित हो जाती है। इस प्रकार शैली ‘व्यंग्यात्मक’ कहलाती है। अमरकाल का निबंध ‘बउरैया कोदो’ तथा शरद जोशी द्वारा रचित ‘रेल यात्रा’ शीर्षक इसी शैली में रचित है।

(ख) चित्रात्मक शैली-किसी भी विषय का स्पष्ट करते समय, उससे संबंधित पहलुओं उदाहरणों, दृष्टातों आदि की ऐसी सजीव प्रस्तुति करना, कि पाठकों के सम्मुख वह विषयवस्तु, स्थिति, दृश्य चित्रवत प्रत्यक्ष-सा हो जाए-‘चित्रात्मक शैली की विशेषता है। इस शैली का उपयोग पूर्णत: स्वतंत्र रूप से नहीं किया जाता। लेखक किसी भी विषय को हृदयस्पर्शी और प्रभावशाली बनाने के लिए बीच-बीच में स्फूट रूप में सचित्रात्मक भाषा और बिंब-योजना आदि का उपयोग करता है। अत: इस शैली की छटा किसी-भी प्रकार के, किसी भी विषय पर आधारित निबंध में देखी जा सकती है। शरद जोशी द्वारा रचित निबंध ‘रेल-यात्रा’ इसका अच्छा उदाहरण है। सुधीर विद्यार्थी द्वारा रचित ‘क्रांति की प्रतमूर्तिः दुर्गा भाभी’ नामक निबंध में भी इस शैली की झलक दिखाई देती है।

(ग) आलंकारिक शैली-वैसे तो अलंकारयुक्त भाषा का प्रयोग प्रायः काव्य-रचना में ही दिखाई देता है, परंतु गद्यकार भी किसी विचार-बिंदु, वस्तुस्थिति अथवा निर्धारित विषय को भली-भाँति स्पष्ट करने के लिए कभी-कभी अलंकारों का सहारा ले लेते हैं। कहीं लेखक सहज प्रवाह के रूप में ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जिनमें किसी विशेष वर्ग की आवृति से ‘अनुप्रास’ और ‘नाद-सौंदर्य’ की सृष्टि अनायास हो जाती है। किसी एक पक्ष को स्पष्ट करने के लिए उसकी समता किसी अन्य विषय से दिखाई जाती है, तब उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की झलक दिखाई देती है। पुनरुक्ति प्रकाश, विप्सा आदि अलंकारों का सौष्ठत तो प्रायः निबंधों में समान शब्दों की आवृत्ति के कारण समाविष्ट होता ही है। यह शैली निबंध को रोचक एवं प्रभावशाली बनाने में बहुत सहायक होती है।

(घ) सूक्ति-शैली-भाषा को प्रवाहमयी, प्रभावशाली, सहज-स्मरण और हृदय स्पर्शी बनाने के लिए, जब निबंधकार मुहावरों, लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का सहारा लेता है तो वह शैली समग्र-रूप से ‘सूक्ति-शैली’ कहलाती है। साहित्यिक और सामाजिक विषयों से संबंधित निबंधों में इस शैली का प्रचुर प्रयोग दिखाई देता है। विचारशील एवं अनुभवी लेखक किसी तथ्य को स्पष्ट करते समय सूत्ररूप में अनायास ही ऐसे संक्षिप्त प्रस्तुत करता है जो जीवन के किसी भी क्षेत्र में उपयोगी एवं ग्रहणीय प्रतीत होते हैं। यही कथन सूक्तियों के रूप में चिरस्मरणीय एवं प्रेरणादायक बन जाते हैं। यह शैली भी पूर्णतः स्वतंत्र रूप में नहीं अपनाई जा सकती। इसका उपयोग एक सहायक या गौण रचना-विधि के रूप में ही होता है। जैसे-“हँसी भीतरी आनंद का बाहरी चिह्न है।” (हँसी-खुशी बालमुकुंद गुप्त), आत्म-शुद्धि अपने अधिकारी के संघर्ष का अविभाज्य अंग है। (प्रेमचंद : अमृतराय) अथवा-‘धर्म को पकड़े रहो, धर्मों को छोड़ दो।” (कबीर साहब की भेंट : दिनकर)।

प्रश्न 9.
‘उपन्यास’ का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके प्रमुख तत्त्वों का विवेचन कीजिए।
उत्तर-
उपन्यास का स्वरूप-‘उपन्यास गद्य-साहित्य की सबसे रोचक एवं लोकप्रिय विधा है। शुष्क विचार-प्रधान गद्य-रचना की अपेक्षा सरस कथा-साहित्य की ओर सर्वमान्य पात्रों की विशेष रुचि होती है। उपन्यास कथा-साहित्य में सर्वप्रमुख है।

साहित्य में ‘उपन्यास’ शब्द अंग्रेजी के ‘नॉवल’ शब्द के पर्याय के रूप में प्रचलित है। ‘नॉवल’ के अभिप्राय है-‘नया’। उपन्यास में प्रचलित सामाजिक घटनाओं, कथाओं या चरित्रों को कल्पना का रंग देकर नए रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसीलिए बंगला शब्दकोश में ‘उपन्यास’ का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया गया है “श्रोताओं और पाठकों के मनोरंजन के निमित्त लिखा गया कल्पित वृत्तांत ‘उपन्यास’ है।”

‘उपन्यास’ शब्द का अभिप्राय है-भलीभाँति निकट रखना। उपन्यासकार जीवन का यथार्थ को पाठक-समुदाय के लिए एकदम समीप से प्रस्तुत कर देता है। इस दृष्टि से बेकर नामक विद्वान ने ‘उपन्यास’ की पर्याप्त संगत परिभाषा दी है-“उपन्यास वह रचना है जिसमें किसी कल्पित गद्य-कथा के द्वारा मानव-जीवन की व्याख्या की गई हों।”

इस तथ्य को हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक बाबू श्यामसुंदर दास ने बहुत संक्षेप में इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है-“उपन्यास मनुष्य के वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा है।”

हिन्दी के उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद उपन्यास में कथा से अधिक चरित्र को महत्व देते हैं। क्योंकि कथा (घटनाएँ) तो वास्तविक में मानवीय स्वभाव और चरित्र के स्पष्टीकरण में सहायक होती है। उनका कथन है कि “मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मान सकता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।”

उपन्यास की उपर्युक्त परिभाषाओं को ध्यान में रखकर, उसके स्वरूप को सरलता से समझा जा सकता है। इस दृष्टि से बाबू गुलाबराय द्वारा उपन्यास के स्वरूप को इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है . “उपर्युक्त कार्य-कारण श्रृंखला में बँधा हुआ वह गद्य-कथानक है जिसमें अपेक्षाकृत अधिक विस्तार तथा पेंचीदगी के साथ वास्तविक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों से संबंधित वास्तविक या काल्पनिक घटनाओं द्वारा मानव-जीवन के साथ रसात्मक रूप से उदघाटन किया जाता है।”

उपन्यास के तत्त्व
उपन्यास हमारे जीवन का ही वास्तविक प्रतिरूप होता है। जीवन में अनेक प्रकार की विविधता होने के कारण उपन्यास में भी वैविध्य होना स्वाभाविक है। किसी भी उपन्यास में यद्यपि घटनाओं-प्रतिघटनाओं का ताना-बाना उसके कथा-विन्यास का ढाँचा बनाता है, परंतु वे घटनाएँ किन्हीं पात्रों के माध्यम से साकार होती हैं। इन घटनाओं, पात्रों तथा उपन्यास में विचारों आदि की प्रस्तुति के लिए उपन्यासकार तदनुसार भाषा एवं अभिव्यंजना-विधियों का सहारा लेता है। साथ ही, उपन्यास की कथा, पात्र-योजना या भाषा किसी स्थान, समय और युग-विशेष का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार उपन्यास-रचना में अनेक पक्ष सहायक होते हैं। इन्हीं को ‘उपन्यास के तत्त्व’ कहते हैं।

उपर्युक्त विवरण के आधार पर मुख्य रूप से उपन्यास के ये सात तत्व साहित्य-समीक्षकों ने बताएँ हैं-
(क) कथानक,
(ख) पात्र एवं चरित्र-चित्रण,
(ग) संवाद (कथनोपकथन),
(घ) भाषा-शिल्प,
(ङ) देश-काल वातावरण,
(च) उद्देश्य,
(छ) नामकरण।

(क) कथानक-विभिन्न घटनाओं-प्रतिघटनाओं और पात्रों के क्रिया-व्यापार आदि के संयोग से उपन्यास की जो ‘कहानी’ बनती है उसे ‘कथानक’ (या ‘कथावस्तु’) कहा जाता है। यही कथानक उपन्यास रचना का मूल आधार होता है। इसीलिए अंग्रेजी में इसे ‘प्लॉट’ कहते हैं।

कथानक में स्वाभाविकता (विश्वसनीयता या संभाव्यता) आवश्यक है। जीवन में जो कुछ जैसा वास्तव में, स्वाभाविक रूप से होता है, या हो सकता है-वैसा ही कथानक उपन्यास को पठनीय और विश्वसनीय बनाता है। इसके अतिरिक्त कथानक की दूसरी कसौटी है-रोचकता। कथा-विकास में पाठकों का कैतूहल निरंतर बना रहे, इसका ध्यान उपन्यासकार अवश्य रखता है।

इसके लिए घटनाओं का नाटकीय मोड़, जिज्ञासा-मूलक तत्व और मार्मिक प्रसंगों का समावेश उसकी रोचकता बनाए रखने में सहायक होता है। कथानक की सर्वप्रमुख कसौटी है उसकी सुगठितता। उपन्यास की हर घटना परस्पर इस प्रकार गुंथी हुई होनी चाहिए कि कथा-विन्यास में सूत्रबद्धता बनी रहे।

(ख) पात्र एवं चरित्र-चित्रण-पात्र उपन्यास के कथानक रूपी शरीर को गति प्रदान करने वाले अवयव (अंग) है। पात्रों के क्रिया-कलाप ही कथानक का स्वरूप तैयार करते हैं। पात्रों की सजीवता और सक्रियता उपन्यास को रोचक एवं प्रभावशाली बनाए रखती है। आवश्यक है कि उपन्यास के पात्र हमारे जाने-पहचाने, आस-पास के सामाजिक व्यक्तियों जैसे होने चाहिए साथ-ही, उपन्यास में पात्रों की सार्थकता उनके चरित्र पर निर्भर होती है।

पात्रों के रागात्मक मनोवेगों के आधार पर निर्मित उनके स्वभाव, आचरण और व्यवहार के माध्यम से उनकी चारित्रिक विशेषताओं की रूपरेखा प्रत्यक्ष होती है। मानव-स्वभाव इन्हीं विविध पहलुओं का यथार्थ चित्रण ही ‘चरित्र-चित्रण’ कहलाता है।

(ग) संवाद (कथनोपकथन)-लेखक उपन्यास के कथानक का एक ढाँचा-सा बनाकर, उसके पूर्णता प्रदान करने के लिए पात्रों के आपसी कथनोपकथनों का संयोजन इस प्रकार करता है जिससे पाठक कथानक तथा पात्रों के चरित्र से भलीभाँति परिचित होते रहते हैं। पात्रों का सही अलाप-संलाप ‘संवाद’ कहलाता है। उपन्यास में वही संवाद सार्थक हो पाते हैं जिनसे या तो कथानक के विकास और विन्यास में सहायक मिले अथवा जिनके माध्यम से किसी पात्र के चरित्र का कोई पहलू उजागर हो सके। उपन्यास में समाविष्ट संवाद, संक्षिप्त, सशक्त और हृदयस्पर्शी होना चाहिए।

(घ) भाषा-शिल्प-उपन्यास की ‘भाषा’ की विफलता इस बात पर निर्भर है कि वह उपन्यास के अंतर्गत समाविष्ट पात्रों के स्तर, स्वभाव आदि के अनुकूल हो। ‘शैली’ का संबंध उपन्यासकार की व्यंजना-पद्धति से है। कोई उपन्यास वर्णनात्मक शैली में रचा जाता है। किसी उपन्यास को लेखक किसी विशिष्ट पात्र की ‘आत्मकथा’ के रूप में प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त कुछ उपन्यासकार को पठनीय और प्रभावशाली बनाने के लिए आलंकारिक, चित्रात्मक प्रतीकात्मक आदि विभिन्न शैलियों का प्रयोग करते हैं।

(ङ) देश-काल वातावरण (युग-परिवेश)-उपन्यास का कथानक जिस परिवेश (पृष्ठभूमि, वातावरण, परिस्थितियों) में घटित होता है उसका संबंध किसी-न-किसी स्थान और समय-विशेष से होता है। कथानक की प्रस्तुति उसी स्थान और समय के अनुरूप होनी चाहिए। कथानक से संबद्ध पात्रों और उनके चरित्र-स्वभाव, भाषा-प्रयोग, दृष्टिकोण आदि भी संबद्ध स्थान और समय अर्थात् युग-परिवेश को समझने में सहायक होते हैं।

(च) उद्देश्य-उपन्यास का कथानक जिन घटनाओं-प्रतिघटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होता है उसकी अन्विति अंततः किसी-न-किसी परिणाम के रूप में होती है। वह परिणाम जिस विचार, दृष्टिकोण अथवा चिंतन का परिचायक होता है वही उस उपन्यास का ‘उद्देश्य’ कहलाता है। साथ ही, उपन्यास के पात्र जो कुछ कहते, करते या सोचते हैं, उसके पीछे उनका कोई-न-कोई मंतव्य रहता है। यही मंतव्य समग्र रूप से उपन्यास के उद्देश्य की ओर संकेत करता है।

उल्लेखनीय है कि उपन्यासकार जिस उद्देश्य या संदेश को पाठक-समुदाय तथा संप्रेषित करने के लिए कोई उपन्यास लिखता है, उसे वह स्वयं उपन्यास में उपदेश के रूप में अपनी ओर से प्रस्तुत नहीं करता। वह जो कुछ भी अपने पास देखता है, अनुभव करता है, उससे जो निष्कर्ष निकलता है, उससे उसके दृष्टिकोण को एक निश्चित दिशा मिलती है। वह चाहता है कि उसकी धारणा, अन्य लोगों तक भी पहुँचे। इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह कुछ घटनाओं और पात्रों का चयन कर, उन्हें अपनी सोच के अनुसार ढालकर, उनके माध्यम से विचार-अभिव्यक्त करता है।

(छ) नामकरण-उपन्यास की शशक्तता, लोकप्रियता और पठनीयता से उसके नाम-विशेष (शीर्षक) का भी विशेष योगदान होता है। प्रेमचन्द के ‘गबन’ या ‘गोदान’ उपन्यास के नाम से ही उसमें चित्रित मूल विचार-सूत्र (थीम) अथवा समस्या का संकेत मिल जाता है। वृंदावनलाल वर्मा का उपन्यास ‘झाँसी की रानी’ भारत का इतिहास की एक वीरांगना का बिंब अनायास ही मन-मस्तिष्क में उभार देता है।

उपन्यास का नामकरण व्यक्ति-विशेष, स्थान-विशेष, घटना-विशेष या विचार-विशेष किसी भी आधार पर हो सकता है। आवश्यक है कि वह नामकरण उपन्यास के कथानक, चरित्र-विन्यास, युग-परिवेश तथा उद्देश्य के अनुरूप पूर्णतया सार्थक हो।

प्रश्न 10.
उपन्यास के प्रमुख प्रकार (भेद या रूप) कौन-कौन से हैं? उनका संक्षेप में परिचय दीजिए।
उत्तर-
प्रत्येक उपन्यास में यद्यपि कथानक, पात्र, चरित्र, युग-परिवेश एवं उद्देश्य आदि तत्व समान रूप से विद्यमान रहते हैं तथापि इसमें से कोई एक तत्त्व प्रमुख होता है तथा अन्य तत्त्व गौण रूप से उसी एक प्रधान तत्त्व के सहायक होते हैं। किसी तत्त्व की इसी प्रमुखता के कारण उपन्यासों के विविध रूप या प्रकार निर्धारित होते हैं।

कथानक की दृष्टि से तीन प्रकार के उपन्यास होते हैं-

  • चरित्रप्रधान
  • मनोवैज्ञानिक
  • आँचलिक।

उद्देश्य की दृष्टि से उपन्यास मुख्यतः तीन प्रकार के हो सकते हैं-
(क) ऐतिहासिक,
(ख) सामाजिक,
(ग) राजनैतिक।

पात्र एवं चरित्र की दृष्टि से प्रायः दो प्रकार के उपन्यास हैं-
(क) समस्या प्रधान
(ख) वैज्ञानिक।

उपर्युक्त विविध उपन्यास रूपों का संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है।

(क) ऐतिहासिक उपन्यास-जिस उपन्यास की मुख्य कथा का स्रोत या आधार कोई ऐतिहासिक प्रसंग या पात्र हो, वह ‘ऐतिहासिक उपन्यास’ कहलाता है। जैसे-वृदावन लाल वर्मा द्वारा रचित गढ़कुंदार, विराट् की पद्मिनी, मृगनयनी। उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक उपन्यास कोरा इतिहास नहीं होता, उसमें लेखक कल्पना एवं मौलिक उद्भावना की भी समुचित प्रयोग नहीं करता है जिससे उपन्यास में इतिहास का कोई विशेष पक्ष एवं रोचक कथानक के माध्यम से विशेष उजागर हो जाता है।

(ख) सामाजिक उपन्यास-उपन्यास के पात्र-रूप में चित्रित व्यक्ति-मूलतः समाज के ही घटक या अवयव होते हैं जब उनके माध्यम से उपन्यासकार कतिपय सामाजिक पहलुओं, पारिवारिक अंत: संबंधों, विभिन्न प्रीति-रिवाजों अथवा परंपराओं, को उपन्यास के कथा-विन्यास या चरित्र-चित्रण का केन्द्र बनाता है तो वह ‘सामाजिक उपन्यास’ पृष्टभूमि पर आधारित नहीं होते। इनका कथानक, पात्र-विन्यास आदि पूर्णतः काल्पनिक होता है।

(ग) राजनैतिक उपन्यास-आधुनिक युग में राजनैतिक कारणों से जीवन और समाज में अनेक बदलाव आए हैं। लोकतंत्र और चुनाव-पद्धति का राजनीति से सीधा संबंध है। जब राजनीति के कारण कथानक की दिशा बदल जाती है, चरित्र का स्वरूप निर्धारित होता है अथवा किसी विशेष राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित विचार जब परे उपन्यास में व्याप्त रहते हैं तब वह उपन्यास ‘राजनैतिक’ वर्ग की कोटि में आ जाता है।

(घ) चरित्र-प्रधान-उपन्यास-जिस उपन्यास में घटनाओं की बहुलता होकर, कुछ विशेष पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को ही उजागर किया गया हो वह ‘चरित्र-प्रधान-उपन्यास’ कहलाता है। इस प्रकार के उपन्यासों का नामकरण भी प्रायः किसी विशेष पात्र के नाम के आधार पर किया जाता है। जैसे-चारु चंद्रलेख, अनामदास का पौधा आदि। चरित्र प्रधान उपन्यास कथानक की दृष्टि से ऐतिहासिक, सामाजिक या राजनैतिक किसी भी प्रकार का हो सकता है।

(ङ) मनोवैज्ञानिक उपन्यास-यह एक प्रकार से चरित्र प्रधान उपन्यासों का ही एक रूप है। इसमें रचनाकार पात्रों के मानसिक द्वंद्व को उभारने का विशेष प्रयत्न करता है। घटनाए गौण होती है। उनका विन्यास पात्रों को किसी मानसिक प्रवृत्ति, विकृत या अंतर्दशा के चित्रण-हेतु सहायक रूप में किया जाता है। जैनेन्द्र-रचित ‘सुनिता’, इलाचन्द्र जोशी का ‘संन्यासी’ तथा अज्ञेय-रचित ‘शेखरः एक जीवनी’ आदि मनोवैज्ञानिक उपन्यास के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।।

(च) आँचलिक उपन्यास-‘अंचल’ का अभिप्राय है-किसी विशेष क्षेत्र के विशेष वर्ग का पूर्णतया स्थानीय परिवेश। जिस उपन्यास में किसी ऐसे अंचल के पात्रों की गतिविधियों, मानसिक स्थितियों आदि की उन्हीं की स्थानीय भाषा-शैली में चित्रण किया गया हो, वह ‘आँचलिक उपन्यास’ कहलाता है। फणीश्वर नाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ उपन्यास इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

(छ) समस्या-प्रधान-उपन्यास-वैसे तो प्रत्येक उपन्यास में किसी न किसी सामाजिक राजनैतिक या धार्मिक समस्या की झलक अवश्य मिल जाती है, परंतु जिस उपन्यास का मूल उद्देश्य ही किसी बहुचर्चित समस्या का वास्तविक उजागर करके, उसके विभिन्न पहलुओं, कारणों, परिणामों एवं तत्संबंधी समाधान के उपायों आदि की चर्चा-परिचर्चा कथा-विन्यास अथवा पात्रों के माध्यम से की गई हो, वह ‘समस्या-प्रधान’ उपन्यास कहलाता है। प्रेमचन्द्र द्वारा रचित उपन्यास ‘गबन’ एक ऐसा ही उपन्यास है।

(ज) वैज्ञानिक उपन्यास-कुछ लेखक अब विज्ञान के विभिन्न आविष्कारों को केन्द्र बनाकर ऐसे उपन्यासों की रचना करने लगे हैं जो चमत्कारी घटनाओं के माध्यम से विशेष शक्तिशाली या ऊर्जावान पात्रों की झलक प्रस्तुत करते हैं। हिन्दी में ऐसे मौलिक उपन्यास लिखने की प्रवृत्ति बहुत कम है। कुछ बाल-उपन्यास अवश्य वैज्ञानिक परिवेश की पृष्ठभूमि पर लिखे जा रहे हैं। अधिकतर वैज्ञानिक उपन्यास अंग्रेजी में प्रस्तुत किए गए है। हाँ, भारत के विज्ञान-पुरुष श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम यद्यपि मूलतः कोई उपन्यासकार नहीं हैं, परंतु उनके द्वारा लिखित ‘अग्नि की उड़ान’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक एक वैज्ञानिक उपन्यास जैसी विशेषताएँ लिए हुए है।

यह भी मूलत: अंग्रेजी में लिखी गई पुस्तक का हिन्दी-अनुवाद है।

प्रश्न 11.
उपन्यास और कहानी में अनार संक्षेप में स्पष्ट करें।
उत्तर-
उपन्यास और कहानी से अंतर-दोनों गद्य-साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय कथात्मक विधाएँ है। दोनों में कथानक, पात्र, संवाद, भाषा-शिल्प, वातावरण और उद्देश्य नामक तत्त्व समान रूप से विद्यमान होते हैं, परंतु स्वरूप, आकार, प्रभावान्विति तथा संवेदता की दृष्टि से इन विधाओं में पर्याप्त अंतर है।

कुछ लोग केवल सुविधा के लिए ‘उपन्यास’ को कहानी का विस्तृत रूप’ अथवा ‘कहानी’ को ‘उपन्यास का लघु रूप’ कह देते हैं जो उचित नहीं। इस संबंध में हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री बाबू गुलाबराय ने लिखा है “कहानी को छोटा उपन्यास और उपन्यास को बड़ी कहानी कहना ऐसा ही अंसगत है जैसा चौपाया होने की समानता के आधार पर मेढ़क को छोटा बैल और बैल को बड़ा मेढ़क कहना। दोनों के शारीरिक संस्कार और संगठन में अंतर है। बैल चारों पैरों पर समान बल देकर चलता है, तो मेढ़क उछल-उछलकर रास्ता तय करता है। उसी प्रकार कहानीकार बहुत-सी जमीन छोड़ता हुआ छलांग मारकर चलता है। दोनों के गतिक्रम में भेद हैं।”

उपर्युक्त कथन के आधार पर उपन्यास एवं कहानी के अंतर को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है

(क) उपन्यास का क्षेत्र और आयाम विस्तृत होता है। कहानी का संबंध बहुत ही सीमित क्षेत्र से होता है। कहानी किसी एक स्थल, गाँव, खेत, नदी-तट, कुटिया तक सीमित हो सकती है। उसमें केवल कोई एक आयाम अथवा उस आयाम का भी कोई एक कोण (पहलू) ध्यान का केन्द्र बनता है।

(ख) उपन्यास के कथानक में मुख्य कथा-सूत्र के साथ-साथ अनेक उपकथाएँ और सहकथाएँ जुड़कर उसके फलक को व्यापक बना देती है। उसमें मानव-समुदाय के विभिन्न वर्ग, व्यक्ति और रूप हो सकते हैं। कहानी में कथा का केवल एक सूक्ष्म-सा बिन्दु होता है। वास्तव में, कहानी के अंतर्गत कथा-विकास या कथा-विन्यास जैसी तो कोई बात ही नहीं होती। केवल कोई एक घटना स्थिति अथवा मनोदशा का ही चित्रण कथा या कथांश का अभास देता है।

(ग) उपन्यास में पात्रों की विविधता तथा चरित्रों की अनेकरूपता आवश्यक है। तभी वह मानव-जीवन की बिहंगम झाँकी प्रस्तुत कर पाता है। कहानी में प्रायः किसी एक पात्र तथा उसके
चरित्र के भी किसी एक पहलू की झलक मात्र होती है।

(घ) उपन्यास में कथा-पटल की विराटता तथा पात्रों एवं चरित्रों की विविधता के कारण बहुत से विचार-बिन्दु बिखरे रहते हैं। उन्हीं बिन्दुओं के परस्पर समीकरण अथवा समन्वय-संयोजन के माध्यम से उपन्यास का बहुआयामी उद्देश्य स्पष्ट हो पाता है। कहानी में उद्देश्य की अपेक्षा किसी मानवीय संवेदना को उभारने का प्रयास रहता है।

(ङ) उपन्यास में देशकाल, और युग-परिवेश का दयरा बहुत विस्तृत होता है। प्रकृति के विविध रूप, सृष्टि के अनेक दृश्य, देश, नगर, गाँव, पर्वत, सागर, वन-उपवन आदि बहुत कुछ उपन्यास की परिधि में समाहित हो सकता है। जबकि कहानी में इतनी गुंजाइश नहीं होती। किसी स्थल का कोई एक छोर या अंचल ही उसमें आधार पटल बन पाता है।

(च) उपन्यास में भाषा के विविध रूप और विविध प्रयोग संभव हैं। पात्रों के वर्ग एवं व्यक्तिगत स्तर के अनुसार भाषा की विभिन्न भंगिमाएँ उपन्यास में प्रदर्शित होना स्वाभाविक है। घटना-वैविध्य तथा परिवेश की व्यापकता के कारण उपन्यास में एक-से अधिक शैलियाँ समन्वित रूप से प्रयुक्त होती दिखाई देती हैं। कहानी में प्रयोगात्मक का कोई अवसर ही नहीं होता। मुख्य संवेदना-बिन्दु के अनुकूल भाषा का सहज-सुबोध रूप ही वस्तुस्थिति के चित्रण का आधार बनता है।

प्रश्न 12.
निम्नलिखित गद्य-विधाओं के संबंध में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, साक्षात्कार (भेंटवार्ता), फीचर, रिपोर्ताज, पत्र-साहित्य, यात्रा-वृत्त, डायरी।
उत्तर
जीवनी
जिस गद्य-रचना में किसी विशेष व्यक्ति का संपूर्ण जीवन-वृत्तांत प्रस्तुत किया गया हो उसे ‘जीवनी’ कहते हैं। इस विधा का साहित्य की दृष्टि से अपना एक विशेष महत्त्व है। गद्य की. अन्य विधाएँ प्रायः मनोरंजन एवं थोड़े-बहुत संदेश के लिए रची जाती है। जबकि ‘जीवनी’ पाठकों के मन में नई-चेतना और स्फूर्ति पैदा करती है। बड़े-बड़े कर्मयोगी महापुरुषों, स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों, वैज्ञानिकों, श्रेष्ठ कलाकारों तथा साहित्य-साधकों, आदियुग-पुरुषों की ‘जीवनी’ हर पाठक को एक नया मार्ग, उत्साह और उद्बोधन प्रदान करती है।

‘जीवनी’ के स्वरूप को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-

“जीवन एक ऐसी साहित्यिक विधा है जिसमें किसी विशिष्ट व्यक्ति के संपूर्ण जीवन अथवा उसके किसी महत्त्वपूर्ण अंग का वृत्तंतत ऐतिहासिक एवं प्रेरक शैली में प्रस्तुत किया गया हो।”

उल्लेखनीय है कि ‘जीवनी’ में किसी विशिष्ट व्यक्ति का केवल सामान्य जीवन-परिचय नहीं होता, उसमें उसका ‘चरित्र’ भी स्वाभाविक रूप से उद्घाटित हो जाता है। वास्तव में ‘जीवनी’ में ‘जीवन’ कम और ‘चरित्र’ अधिक होता है।

जीवनी की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(क) जीवनी मानव-केन्द्रित होती है। क्योंकि जीवनी वास्तव में ‘मानव’ के लिए किया गया मानव का अध्ययन है।

(ख) ‘जीवनी’ एक स्वतः संपूर्ण गद्य रचना होनी चाहिए। जिस व्यक्ति की जीवनी लिखी जाए, उसके संबंध में पहले लेखक को हर प्रकार की पूरी जानकारी गहराई के साथ प्राप्त कर लेनी चाहिए।
अपूर्ण या अनुमानित विवरण ‘जीवनी’ के महत्त्व को समाप्त कर देता है।

(ग) संतुलित विवरण ‘जीवनी’ की एक अन्य विशेषता है। लेखक की जीवनी के नायक के जीवन के वही प्रसंग चुनने चाहिए जो सर्वसामान्य पाठकों के लिए आदर्श, प्रेरक अथवा किसी जीवन-सत्य को उद्घाटित करते हों।

(घ) ‘जीवनी’ का विवरण पूर्णतः ‘क्रमबद्ध’ होना चाहिए। जैसे-जैसे नायक के जीवन का क्रमिक विकास हुआ, उसमें क्रमानुसार जो उल्लेखनीय अनुभव और तथ्य जुड़ते गए, उसी क्रम से ‘जीवनी’ में उनका विवेचन किया जाना उचित है।

(ङ) ‘जीवनी’ की सर्वप्रमुख विशेषता है-‘निपक्षता’ उसमें न तो नायक की अति प्रशंसा के पुल बाँधे गए हों, न ही केवल दोष खोज-खोज कर प्रस्तुत किए गए हों। मानव-जीवन गुण-दोषों का समुच्चय है। मनुष्य भूलों से सीखता है, गुणों के सहारे उत्कर्ष प्राप्त करता है।

‘जीवनी’ में इस प्रकार के उतार-चढ़ाव निष्पक्ष रूप से यथासंभव पूरी सच्चाई के साथ प्रस्तुत किए जाने चाहिए।”

हाल ही में प्रकाशित ‘विकसित भारत के स्वप्नद्रष्टा डॉ. अबुल कलाम “जीवनी” विधा का उत्तम उदाहरण है। युगपुरुष नेहरु, युगचारण ‘दिनकर’, किसान से राष्ट्रपति (राजेन्द्र प्रसाद), कलम का सिपाही (प्रेमचंद) आदि हिन्दी के बहुचर्चित जीवनी-ग्रंथ हैं।

आत्मकथा
‘आत्मकथा’ जीवनी का ही एक अपरूप है। जीवनी में नायक जीवन-वृत्त कोई अन्य तटस्थ लेखक प्रस्तुत करता है, जबकि ‘आत्मकथा’ में लेखक स्वयं अपना जीवन-वृत्तांत, अपने अनुभव और निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए पाठकों को अपना सहचिंतक बनाने का प्रयास करता है।

‘जीवनी’ की अपेक्षा ‘आत्मकथा’ का साहित्यिक और सामाजिक महत्त्व कहीं अधिक है।

आत्मकथा-लेखक अपने संबंध में जितना कुछ जान सकता है कि दूसरों को बता सकता है उतना अन्य लेखक न जान सकता है और न बता सकता है। ‘आत्मकथा’ में लेखक का पाठकों से सीधा संवाद एवं साक्षात्कार संभव है। इसमें आत्मीयता का पुट होने के कारण आद्योपान्त कुतूहल और रोचकता का संस्पर्श बना रहता है।

दूसरी ओर ‘जीवनी’ की अपेक्षा ‘आत्मकथा’ की रचना-प्रक्रिया बड़ी साधनापूर्ण है। स्वयं अपने बारे में लिखना ‘तलवार की धार’ पर चलने के समान है। अपने गुण-ही-गुण बताना जितना अनुचित है उतना ही असंगत केवल अपने दोषों की चर्चा करते रहना है। पं० जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित ‘मेरी कहानी’ नामक आत्मकथा में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-“किसी आदमी का अपने बारे में कुछ लिखना कठिन भी है और रोचक भी। क्योंकि प्रशंसा या निंदा लिखना खुद हमें बुरा लगता है।”

तात्पर्य है कि ‘आत्मकथा’ की श्रेष्ठता की सबसे बड़ी कसौटी है-“संतुलित प्रस्तुति” हिन्दी में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा, हरिवंशराय बच्चन द्वारा लिखित ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ तथा राहुल सांकृत्यायन-कृत ‘मेरी जीवन-यात्रा’ नामक आत्मकथा-ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।

‘जीवनी’ और ‘आत्मकथा’ में अंतर निम्नलिखित है-
(क) ‘जीवन’ में किसी विशेष व्यक्ति का जीवन-वृत्त कोई अन्य लेखक प्रस्तुत करता है। आत्मकथा में नयाक द्वारा स्वयं अपने जीवन के प्रमुख प्रसंग, अनुभव एवं निष्कर्ष प्रस्तुत किए जाते हैं।
(ख) ‘जीवनी’ एक प्रकार से ‘विषयगत’ (ऑब्जेक्टिव) रचना होती है, जबकि ‘आत्मकथा’ को ‘विषयिगत’ (सब्जेक्टिव) रचना माना जा सकता है।।
(ग) ‘जीवनी’ में अधिकतर वर्णनात्मक शैली होने के कारण, अन्य शैलियों का समावेश अधिक नहीं हो सकता। दूसरी ओर ‘आत्मकथा’ में ‘संस्मतरणात्मक’ शैली, ‘चित्रात्मक’ शैली, . ‘पूर्वदीप्ति’ शैली, ‘चेतना-प्रवाह’ शैली आदि का समावेश भी संभव है।

संस्मरण
“स्मृति के आधार पर किसी विषय, व्यक्ति, स्थिति आदि के संबंध में लिखित सरस-गद्य रचना ‘संस्मरण’ कहलाती है।”

‘संस्मरण’ में ‘आत्मकथात्मकता’ का थोड़ा-बहुत संस्पर्श भी रहता है, क्योंकि रचनाकार अपने निजी संपर्क और अनुभव में आए प्रसंग ही प्रस्तुत करता है। परंतु यह तो पूरी आत्मकथा या आत्मचरित न होकर उसके किसी एक अंश मात्र की झलक प्रस्तुत करता है। वैसे तो कई अन्य गद्य-विधाओं में भी ‘संस्मरण’ का उपयोग एक शैली के रूप में हो सकता है। जैसे ‘संस्मरणात्मकं निबंध’ आदि। ‘रेखाचित्र’ और ‘यात्रा-वृत्त’ में भी रचनाकार संस्मरण का सहारा लेता है। परंतु अब ‘संस्मरण’ को एक अलग स्वतः संपूर्ण विधा माना जाता है। श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘पथ के साथी’ संस्मरण-विधा का उत्तम उदाहरण है। रामवृक्ष बेनीपुरी ने गाँधीजी के सान्निध्य में रहकर प्राप्त अनुभवों को विभिन्न मार्मिक एवं प्रेरक संस्मरणों के रूप में प्रस्तुत किया है।

रेखाचित्र
‘रेखाचित्र’ एक ऐसी गद्य-विधा है जिसमें रचनाकार किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान अथवा दृश्य के बहिरंग स्वरूप का एक खाका-सा गिने चुने शब्दों में प्रस्तुत कर देता है। ‘हिन्दी-साहित्य कोश’ में ‘रेखाचित्र’ का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-“रेखाचित्र किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या भाषा का कम-से-कम शब्दों में मर्मस्पशी, भावपूर्ण और सजीव अंकन है।”

‘रेखाचित्र’ की कसौटी के रूप में मुख्य रूप से ये गुण या विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं

(क) एकात्मक विषय-रेखाचित्र में विविधता नहीं होती। केवल किसी एक ही व्यक्ति, एक ही दृश्य, एक ही स्थान, वस्तु आदि का बहिरंग स्वरूप इस प्रकार चित्रित कर दिया जाता है जिससे पाठक उससे आत्मीयता अनुभव करने लगते हैं।

(ख) संवेदनशीलता-रेखाचित्र विधान-प्रधान न होकर प्रायः भावना-प्रधान होता है। उसमें किसी भी विषयवस्तु का चित्रण इस प्रकार किया जाता है जो पाठकों की रागात्मक संवेदनाओं को स्पर्श एवं जागृत करता है।

(ग) संक्षिप्तता-‘रेखाचित्र’ की सर्वप्रमुख कसौटी है। इसका आकार यथासंभव छोटा होना चाहिए तभी प्रतिपाद्य विषय का स्वरूप उसमें सजीवता से आभासित हो सकेगा।

संस्मरण’ और रेखाचित्र’ में अंतर-
(क) ‘संस्मरण’ प्रायः ‘विषयिगत’ (सब्जेक्टिव) होता है। इसमें लेखक के निजी, व्यक्तिगत, अंतरंग अनुभव स्मृतियों के माध्यम से प्रस्तुत किए जाते हैं। दूसरी ओर ‘रेखाचित्र’ में रचनाकार अपने से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि की झलक प्रस्तुत करता है। अत: उसे ‘विषयगत’ (ऑग्जेक्टिव) रचना माना जा सकता है।

(ख) ‘संस्मरण’ में रचनाकार प्रायः किसी विख्यातः लोकप्रिय एवं महान व्यक्ति-संबंधी स्मृतियाँ प्रस्तुत करता है। रेखाचित्र किसी सामान्य व्यक्ति, घटना अथवा स्थिति के संबंध में भी हो सकता है।

(ग) ‘संस्मरण’ में वर्णनात्मक, व्यंग्यात्मक, आलंकारिक अथवा प्रतीकात्मक शैली में से किसी एक का या एकाधिक का समन्वित उपयोग हो सकता है। परंतु ‘रेखाचित्र’ में प्रायः ‘चित्रात्मक’ शैली ही सर्वप्रमुख रहती है।

साक्षात्कार (भेंटवार्ता)
अंग्रेजी पत्रकारिता में प्रचलित ‘इंटरव्यू’ नामक विधा के अनुसरण पर हिन्दी में भी ‘साक्षात्कार’ अथवा ‘भेंटवार्ता’ नामक विधा की परम्परा शुरू हुई। परंतु ‘साक्षात्कार’ केवल ‘भेंटवार्ता’ का अभिप्राय स्पष्ट करता है, जबकि ‘इंटरव्यू’ में ‘व्यू’ (विचार) तत्त्व का भी समावेश है। इसलिए इस विधा के लिए ‘भेंटवार्ता’ शब्द अधिक उपयुक्त है।

इसमें किसी विशिष्ट व्यक्ति से भेंट करके किसी विशेष विषय, विचारधारा, समस्या, चर्चित मुद्दे आदि पर बातचीत की जाती है। इस प्रकार उस विशेष व्यक्ति के तत्संबंधी विचार एवं दृष्टिकोण से पाठकों को अवगत कराना ही इस विधा का लक्ष्य होता है। हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री और समीक्षक डॉ. नागेंद्र ने ‘भेंटवार्ता’ (या ‘साक्षात्कार’) का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है

“साक्षात्कार (भेंटवार्ता) से अभिप्राय उस रचना से है, जिसमें लेखक किसी व्यक्ति-विशेष के साथ भेंट करने के बाद, प्रायः किसी निश्चित प्रश्नमाला के आधार पर उसके व्यक्तित्त्व, विचार और दृष्टिकोण आदि के संबंध में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करता है और फिर गृहीत-प्रभाव या निष्कर्ष को लेखबद्ध रूप दे देता है।”

स्पष्ट है कि इस विद्या के अंतर्गत मुख्यतया चार आयाम (अवयव) समाविष्ट रहता हैं-

(क) वार्ताकार-जो किसी विषय पर, किसी विशेष (प्रख्यात या चर्चित) व्यक्ति से भेंट और बातचीत करता है। वह प्राय: कोई पत्रकार (किसी पत्र या पत्रिका का संपादक, उपसंपादक, संवाददाता या स्तंभ-लेखक) होता है। अब कुछ स्वतंत्र लेखक भी इस विधा के माध्यम से लेखन-कार्य करने लगे हैं।

(ख) भेंटवार्ता को केन्द्र : विशिष्ट व्यक्ति-भेंटवार्ता का नायक सर्वसामान्य नहीं होता। समाज, राजनीति, विज्ञान, प्रशासन, शिक्षा धर्म, कला आदि किसी क्षेत्र में प्रतिष्ठित या चर्चित अथवा किसी विषय के विशेषज्ञ व्यक्ति को ही प्राय: भेंटवार्ता के लिए चुना जाता है। वर्तमान लोकतंत्र में, अब इस धारण में कुछ परिवर्तन आ गया है।

अब भेंटवार्ताकार किसी क्षेत्र के सामान्य लोगों से भी भेंट करके ‘लोक-मत’ की व्यंजना करना उचित मानते हैं। परंतु ऐसी. (सामान्य व्यक्तियों की) भेंटवार्ता का महत्त्व केवल एक समय तक सीमित रहता है-जब तक भेंट के विषय-महँगाई, बिजली-पानी की समस्या, बजट आदि की चर्चा ताजा रहती है। परंतु विशिष्ट व्यक्तियों या विशेषज्ञों से की गई भेंटवार्ताएं स्थायी महत्त्व और दूरगामी प्रभाव वाली होती है।

(ग) वार्ता का विषय या मुद्दा-भेंटवार्ता का आयोजन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना महत्त्वपूर्ण है-भेंटवार्ता से प्राप्त प्रभावों या निष्कर्षों को कम-से-कम शब्दों में, संतुलित रूप से प्रस्तुत करना। भेंटवार्ता संबंधी विवरण में वार्ताकार को अपनी निजी पसंद-नापसंद की अपेक्षा उस व्यक्ति के अभिमत को रेखांकित किया जाना चाहिए जिसके विचार करने के लिए भेंटवार्ता आयोजित हो। उसमें अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए और न ही कोई अदल-बदल। यथातथ्यता का निर्वाह बहुत आवश्यक है। साथ ही प्रस्तुति रोचक एवं सरस हो तो भेंटवार्ता स्थायी साहित्यिक महत्त्व से युक्त हो जाएगी।

फीचर
‘फीचर’ एक अभिनव गद्य-विधा है। यह विधा भी भेंटवार्ता’ की भाँति पत्रकारिता से शुरू हुई और अब एक प्रचलित एवं महत्त्वपूर्ण साहित्य-विधा के रूप में मान्य है। “किसी सत्य घटना अथवा समसामयिक ज्वलंत विषय के संबंध में विचार-प्रधान परंतु रोचक एवं प्रभावशाली वर्णन-विवेचन ‘फीचर’ कहलाता है।”

‘फीचर’ में निबंध और रेखाचित्र आदि विधाओं की भी कुछ झलक हो सकती है। परंतु यह अधिकतर समसामयिक घटनाओं या विषयों पर एक जानकारी पूर्ण, विचारोत्तेजक गद्य-रचना होती है।

इसमें प्रमुख रूप से ये विशेषताएं होती हैं-

(क) तथ्यात्मकता-फीचर में लेखक विभिन्न तथ्यों, वास्तविक वस्तुस्थितियों और आँकड़ों आदि के आधार पर विवेचन एवं निष्कर्ष प्रस्तुत करता है।
(ख) अनुभव-आधारित विवेचन-फीचर-लेखक को प्रतिपाद्य विषय के संबंध में निजी अनुभवों के ही आधार बनाना चाहिए। अन्य लोगों के मत-विमत आदि की तुलनात्मक समीक्षा अथवा उनके पक्ष-विपक्ष में संभावित तर्क-वितर्क-युक्त विवेचना करते हुए लेखक अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करता है।
(ग) रोचकता-फीचर की सर्वप्रमुख विशेषता है रोचकता। फीचर न तो निबंध की भांति शुष्क अथवा नीरस हो, न ही उसमें हल्के हास्य-विनोद, व्यंग्य अथवा उपहास का पुट हो। उसके प्रस्तुति सुरुचिपूर्ण, अर्थप्रवण भाषा एवं प्रभावशाली शैली में होनी चाहिए। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विविध विषयक फीचर नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं।

रिपोर्ताज
यह भी पत्रकारिता के माध्यम से प्रतिष्ठित होने वाली एक आधुनिक गद्य-विधा है। अंग्रेजी शब्द ‘रिपोर्ट’ ही साहित्यशास्त्र में ‘रिपोर्ताज’ के रूप में प्रचलित है। समाचारपत्रों में विभिन्न घटनाओं, आयोजनों, सभा-समितियों आदि की रिपोर्ट’ छपती रहती है। वहाँ ‘रिपोर्ट’ का अभिप्राय है-‘किसी विषय (घटना, प्रसंग आदि) का यथातथ्य. (ज्यों-का-त्यों) विवरण। ‘परंतु उसी रिपोर्ट को जब भावात्मकता और रोचकता का साहित्यिक संस्पर्श प्राप्त हो जाता है तो उसे ‘रिपोर्ताज’ कहते हैं। इस दृष्टि से “किसी सत्य घटना का यथातथ्य वर्णन करते हुए भी उसमें कथात्मक सरसता और रोचकता का समावेश कर देना ‘रिपोर्ताज’ कहलाता है।”

एक सफल ‘रिपोर्ताज’ में दो तत्वों का होना आवश्यक है-
(क) तथ्यात्मकता,
(ख) रोचकता।

रांगेय राघव द्वारा रचित ‘तूफानों के बीच’, ‘भदंत आनंद कौसल्यायन-कृत ‘देश की मिट्टी बोलती है’, धर्मवीर भारती-कृत ‘ब्रह्मपुत्र के मोरचे से’ और कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर-रचित ‘क्षण बोले क्षण मुस्काएँ’ शीर्षक रिपोर्ताज-रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। आजकल तो विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर आधारित नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। इन्हीं में से कुछ स्थायी महत्त्व की कालजयी रचनाएँ अलग-पुस्तक के रूप में संकलित होकर साहित्य की अमूल्य निधि बन जाती है।

पत्र-साहित्य
पत्र लिखना एक सामान्य सी बात है। मानव-समाज के अधिकांश कार्य-कलाप पत्र के माध्यम से संपन्न होते हैं। परंतु साहित्य के क्षेत्र में ‘पत्र’ से अभिप्राय केवल उन्हीं चिट्ठियों से है जो किसी विशेष व्यक्ति द्वारा विशेष उद्देश्य, विचार या मानवीय जीवन-मूल्य के संदर्भ में लिखी गई हों। ऐसे पत्रों में कई बार पत्र-लेखकों द्वारा जीवन और जगत के ऐसे शाश्वत सत्यों का उद्घाटन-विवेचन होता है जो पत्र में संबोधित व्यक्ति के साथ-साथ अन्य सहृदय पाठकों के लिए भी ग्रहणीय और चिरस्मरणीय होते हैं।

ऐसे पत्रों को संकलित करके जब किसी विशेष शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया जाता है तो वह रचना ‘पत्र-साहित्य’ का एक महत्वपूर्ण अंग बन जाती है। महात्मा गाँधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचंद, प्रसाद अथवा निराला आदि युग-पुरुषों द्वारा समय-समय पर विभिन्न व्यक्तियों को लिखे गए पत्रों के अनेक संकलन हिन्दी संकलन हिन्दी गद्य की अमूल्य निधि बन चुके हैं। हिन्दी में साहित्यिक स्तर पर इस विधा को प्रतिष्ठित करने वाले बालमुकुंद गुप्त द्वारा लिखित ‘शिव शंभु का चिट्ठा’ और ‘शाइस्ता खाँ का पत्र प्रसिद्ध है।

विद्यानिवास मिश्र-लिखित ‘भ्रमरानंद के पत्र’ भी उल्लेखनीय हैं। इसी संदर्भ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘पत्रावली’ का नाम उल्लेखनीय है। केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा के एक-दूसरे को लिखे गए साहित्यिक पत्र ‘मित्र-संवाद’ पं. जवाहर लाल नेहरू लिखित ‘पिता का पत्र पुत्री के नाम’ तथा नेमिचंद्र जैन और मुक्तिबोध का पत्र-व्यवहार ‘पाया पत्र तुम्हारा’ के नाम से बहुचर्चित है।

यात्रावृत्त
‘यात्रावृत्त’ वास्तव में ‘आत्मकथा’ का ही एक अपरूप है। ‘आत्मकथा’ में रचनाकार अपनी प्रायः पूरी जीवन-गाथा के विविध प्रकार के प्रसंग प्रस्तुत करता है, परंतु ‘यात्रावृत्त’ में केवल विभिन्न स्थलों, तीर्थों, देशों आदि की यात्रा का रोचक, प्रेरक और प्रभावी विवरण प्रस्तुत किया जाता है।

वर्तमान युग में पर्यटन के प्रति विशेष रुचि होने के कारण ‘यात्रावृत्त’ नामक गद्य-विधा अत्यंत उपयोगी एवं लोकप्रिय होती जा रही है। देश-विदेश के महत्त्वपूर्ण, दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त मानव-समुदाय एवं प्रकृति के विराट रूप का साक्षात्कार ये रचनाएँ करा देती हैं। इस संबंध में राहुल सांकृत्यायन लिखित (घुमक्कड़ शास्त्र, मेरी तिब्बत यात्रा) और अज्ञेय लिखित (अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली) के यात्रावृत्तांत बहुत प्रसिद्ध हैं। सीतेश आलोक-कृत ‘लिबर्टी के देश में’ और अमृतलाल बेगड़-कृत ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’ का नाम भी उल्लेखनीय है। इधर, पिछले कुछ वर्षों से मानसरोवर-यात्रा से संबंधित अनेक प्रभावशाली यात्रावृत्त प्रकाशित हुए हैं।

डायरी
‘डायरी’ नाम गद्य-विधा आत्मकथा से मिलती-जुलती प्रतीत होती है। परंतु यह वास्तव में आत्मकथा न होकर लेखक को प्रतिदिन होने वाले कुछ ऐसे अनुभवों का संक्षिप्त सांकेतिक विवरण होता है जो उसके लिए स्मरणी बन जाते हैं। इसमें लेखक तिथि-क्रमानुसार, किसी एक दिन में अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों, प्रसंगों, अनुभवों आदि के उस विशेष प्रभाव को अंकित करता है, जो लेखक के अतिरिक्त अन्य पाठकों के लिए भी स्मरणीय और महत्त्वपूर्ण जीवन-सत्य के रूप में ग्राह्य बन जाता है।

उदाहरण के लिए, महादेव भाई द्वारा संपादित महात्मा गाँधी की डायरी उल्लेखनीय है। इसी प्रकार मोहन राकेश, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन एवं जयप्रकाश नारायण की डायरी-परक रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।

प्रश्न 13.
‘आलोचना’ का स्वरूप करते हुए उसके प्रमुख भेदों का विवेचन कीजिए।
अथवा,
‘समीक्षा’ का स्वरूप बता कर, हिन्दी में प्रचलित विविध समीक्षा-पद्धतियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
‘आलोचना’ अथवा ‘समीक्षा’ का स्वरूप-साहित्यशास्त्र में ‘आलोचना का अभिप्राय है-“किसी साहित्यिक कृति के गुण-दोषों को विभिन्न दृष्टियों से परख कर उसका सम्यक् विवेचन करना।”

इसे ‘समालोचना’ अथवा ‘समीक्षा’ भी कहा जाता है। आजकल ‘आलोचना’ की बजाय ‘समीक्षा’ शब्द अधिक प्रचलित है।

हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री और समीक्षक डॉ. श्यामसुंदर दास ने आलोचना (समीक्षा) का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है

“साहित्यिक क्षेत्र में ग्रंथों को पढ़कर, उनके गुणों एवं दोषों का विवेचन करना और उनके संबंध में अपना मत प्रकट करना ‘आलोचना’ कहलाता है।”

एक अन्य विदेशी समीक्षक ड्राइव ने आलोचना का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है-“आलोचना वह कसौटी है जिसकी सहायता से किसी रचना का मूल्यांकन किया जाता है।”

आलोचना के प्रमुख प्रकार (समीक्षा की विविध पद्धतियाँ या शैलियाँ)-समय-समय पर साहित्यिक रचनाओं की आलोचना अथवा समीक्षा करने के लिए आलोचकगण भिन्न-भिन्न शैलियाँ अपनाते रहे हैं। संस्कृत में ‘टीका’ पद्धति प्रचलित रही। साथ ही साहित्यशास्त्र के विभिन्न सिद्धांतों को आधार बनाकर संस्कृत और हिन्दी में आलोचना की परंपरा चलती रही है। कभी-कभी संक्षेप में ही किसी रचनाकार का साहित्य में स्थान निर्धारित करने के लिए किसी निर्णयात्मक सूक्ति का प्रयोग कर लिया जाता था।

जैसे-‘सूर-सूर तुलसी ससी” अथवा और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया’ इत्यादि। आधुनिक युग में पाश्चात्य समीक्षा-पद्धतियों का हिन्दी आलोचना पर विशेष प्रभाव पड़ा। उसके परिणामस्वरूप आलोचना के अनेक रूप या प्रकार प्रचलित हैं। हिन्दी-आलोचना में वस्तुतः प्राचीन भारतीय एवं आधुनिक पाश्चात्य-शैलियों का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। इस आधार पर, आजकल प्रमुख रूप से आलोचना के ये प्रकार (समीक्षा की पद्धतियाँ या शैलियाँ) प्रचलित हैं

(क) सैद्धांतिक आलोचना,
(ख) व्याख्यात्मक आलोचना,
(ग) निर्णयात्मक आलोचना,
(घ) ऐतिहासिक आलोचना,
(ङ) तुलनात्मक आलोचना,
(च) मनोवैज्ञानिक आलोचना,
(छ) सौष्ठववादी आलोचना,
(ज) प्रगतिवादी (मार्क्सवादी) आलोचना,
(झ) रूपवादी (संरचनावादी) आलोचना या नई समीक्षा।

(क) सैद्धांतिक आलोचना-इस आलोचना-पद्धति के अंतर्गत कुछ आधारभूत शास्त्रीय सिद्धांत अथवा नियम सामने रखकर किसी कृति की समीक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए रस, अलंकार, रीति, ध्वनि आदि के शास्त्रीय नियमों के निर्वाह का आकलन करना। इस प्रकार की आलोचना पालोचना का वाल्यांकन कि आलोचना में आलोचक पहले पूर्व-रचित कृतियों के आधार पर कुछ सिद्धांत सामने रख लेता है, . फिर उनकी कसौटी पर किसी रचना की परीक्षा करता है।

(ख) व्याख्यात्मक आलोचना-इसके अंतर्गत उपस्थित रचना की सम्यक् व्याख्या अथवा विवेचना करके, उसमें विद्यमान साहित्यिक सौंदर्य और मूल भाव का उद्घाटन तथा विवेचन किया जाता है। इसमें आलोचक प्रायः रचना की मूल भावना, उसके प्रतिपाद्य विषय और अभिव्यंजना-कौशल पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। इसे पाठक के सम्मुख आलोच्य कृति का एक समग्र भाव-चित्र स्पष्ट हो जाता है।

(ग) निर्णयात्मक आलोचना-किसी साहित्यिक रचना के अध्ययन के उपरांत उसके संबंध में सत-असत, सुंदर-असुंदर, पूर्ण-अपूर्ण, उपयोगी-अनुपयोगी आदि का स्पष्ट निर्णय दे देने की . प्रवृत्ति ‘निर्णयात्मक आलोचना’ कहलाती है। आवश्यक यह है कि आलोचना निर्णयात्मकता की प्रवृत्ति में संतुलन बनाए रखें। उसमें किसी प्रकार के पूर्वाग्रह, कटुता अथवा केवल प्रशंसा या – केवल निन्दा की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए।

(घ) ऐतिहासिक आलोचना-इस आलोचराद्धति के अंतर्गत, आलोचक लेखक के युग की परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए, उन्हीं के संदर्भ में रचना एवं रचनाकार का साहित्यिक मूल्यांकन करता है। हर रचनाकार जिस युग में जन्म लेता है, उसकी प्रवृत्तियों, परिस्थितियों, रुचियों, समस्याओं आदि से अवश्य प्रभावित होता है। युगीन धर्म, समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि से संबंधित परिप्रेक्ष्य किसी रचना में कितना और किस प्रकार अभिव्यजित हो पाया है-ऐतिहासिक आलोचना इसका मूल्यांकन करती है।

(ङ) तुलनात्मक आलोचना-इस आलोचना-पद्धति के अंतर्गत दो या अधिक रचनाकारों के द्वारा रचित साहित्य की परस्पर तुलना करके उनका वैशिष्ट्य रेखांकित किया जाता है। मध्ययुग के कवि सूर और तुलसी अथवा देव और बिहार के काव्य की तुलना करते हुए उनके काव्य-कौशल एवं साहित्यिक योगदान के मूल्यांकन की एक लंबी परंपरा चलती रही है। इस प्रकार की आलोचना में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि या तो दोनों कवि एक ही युग के अर्थात् लगभग समकालीन हों, या फिर उनकी रचना का प्रतिपाद्य एक-सा हो।

तुलसी (भक्त) और बिहारी (रीति या शृंगारी कवि) की तुलना असंगत होगी। कई बार एक ही विषय से संबंधित, आगे-पीछे (समय के अंतराल में) रचित कृतियों की समीक्षा की तुलनात्मक दृष्टि से की जाती है। जैसे-संस्कृत और हिन्दी रामकाव्य का, मध्यकालीन और आधुनिक रामकाव्य का, द्विवेदी युग और स्वातंत्र्योत्तर युग के ऐतिहासिक (यां मनोवैज्ञानिक) उपन्यासों के तुलनात्मक अध्ययन आदि।

(च) मनोवैज्ञानिक आलोचना-किसो साहित्यिक रचना में अंतर्मन के उद्घाटन द्वारा व्यक्ति, परिवार या समाज के जीवन-व्यापार के संगतियों-विसंगतियों, कुंठाओं-वर्जनाओं, द्वंद्वों, विरोधों आदि के मूल में निहित प्रवृत्तियों के विश्लेषण की प्रक्रिया ‘मनोवैज्ञानिक’ आलोचना कहलाती है। आधुनिक युग के मनोविज्ञान-शास्त्री फ्रॉयड के सिद्धांत इस प्रकार की आलोचना-पद्धति का मूल आधार है।

(छ) सौष्ठववादी आलोचना-इस आलोचना-पद्धति में मानवीय सौंदर्य-बोध की कसौटी पर किसी कृति की समीक्षा की जाती है। इसमें सौंदर्यानुभूति के साथ-साथ आत्माभिव्यक्ति को भी एक मानदंड माना जाता है। अधिकांश छायावादी कवियों तथा उनकी कृतियों की समीक्षा इसी पद्धति के आधार पर की गई। इसमें भाषा-लालित्य, कोमल रागात्मक संवेदनाओं के चित्रण तथा बिम्ब, प्रतीक आदि के निर्वाह पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

(ज) प्रगतिवादी आलोचना-इसका मूल आधार मार्क्सवादी सिद्धांत है। इसलिए इसे कभी-कभी ‘मार्क्सवादी आलोचना भी कह दिया जाता है। इस समीक्षा-पद्धति के अंतर्गत समाज की आर्थिक परिस्थितियों तथा वर्ग-संघर्ष के परिपेक्ष्य में किसी साहित्यिक-रचना का मूल्यांकन किया जाता है।

(झ) रूपवादी (संरचनावादी) आलोचना (नई समीक्षा)-यह एक अभिनव समीक्षा-पद्धति है। इसमें साहित्य के परंपरागत प्रतिमानों की बजाय नए प्रतिमानों की कसौटी पर रचना का मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति रहती है। यह साहित्य जगत में ‘नई समीक्षा’ के नाम से अधिक प्रचलित है। इस आलोचना-पद्धति के अंतर्गत पद्य अथवा गद्य कृतियों के रूप-विधान पर विशेष ध्यान दिया जाता है। ‘रूपवादी’ अथवा ‘संरचनावादी’ समीक्षा के अनुसार कोई भी साहित्यिक सृजन एक ‘वस्तु’ है। विचार या भाव तो हम उसके साथ जोड़ देते हैं।

रूपवादी आलोचक रचना के मूल रूप-विधान तथा उसके विभिन्न अंगों के अंत:संबंधों की विवेचना करते हुए उसकी रूपगत जटिल संरचना का उद्घाटन एवं आकलन करता है। रचनाकार ने ‘क्या कहा?’-यह जानने के लिए रूपवादी आलोचक यह तलाश करता है कि उसने ‘कैसे कहा है?’ अर्थात् अभिव्यक्ति-प्रक्रिया के विश्लेषण के माध्यम से काव्य का उद्घाटन ‘नई समीक्षा’ का प्रमुख वैशिष्टय है। इसके अनुसार कोई भी साहित्यिक ‘रचना’ नहीं, ‘संरचना’ है जिसके अवयव हैं-भाषागत विविध प्रयोग। शब्द-संरचना, बिम्ब-विधान प्रतीक-योजना आदि इसके प्रमुख प्रतिमाण हैं।


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