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Monday, June 20, 2022

BSEB Class 11 Hindi सहजोबाई के पद Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi सहजोबाई के पद Book Answers

BSEB Class 11 Hindi सहजोबाई के पद Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi सहजोबाई के पद Book Answers
BSEB Class 11 Hindi सहजोबाई के पद Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 11th Hindi सहजोबाई के पद Book Answers


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Bihar Board Class 11th Hindi सहजोबाई के पद Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
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सहजोबाई के पद पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर।

कविता के साथ

प्रश्न 1.
सहजोबाई के मन में उनके आराध्य की कैसी छवि बसी हुई है।
उत्तर-
हिन्दी के ज्ञानश्रयी की शाखा की संत कवियित्री सहजोबाई के प्रस्तुत काव्य में श्रीकृष्ण उनके आराध्य प्रतीत होते हैं। सहजोबाई के मन में कृष्ण की शैशवावस्था का अलौकिक सौन्दर्य प्रतिबिम्बित है। लीलाधारी श्रीकृष्ण के माथे पर मुकुट, कान में मोतियों के कुण्डल, बिखड़े हुए बाल, होठ का मटकाना, भौंह चलाते हुए ठुमक ठुमुक कर धरती पर चलते हुए उनका सौन्दर्य अनुपम और अद्वितीय है।

श्रीकृष्ण के घुघरूं की कर्णप्रिय ध्वनि मन के तारों को सहज ही झंकृत करती है। सहजोबाई ने अपने आराध्य नटवर नागर, लीलाधर कृष्ण का सगुण स्वरूप की छवि अपने मन में बसायी हुई है जो दिव्यातिदिव्य और अनुपमेय है। उनकी इस सुन्दरता की बराबर करोड़ो कामदेव की सम्मिलित शोभा भी नहीं कर सकती।

प्रश्न 2.
सहजोबाई ने किससे सदा सहायक बने रहने की प्रार्थना की है?
उत्तर-
ज्ञानाश्रयी संत कवयित्री सहजोबाई ने बाल श्रीकृष्ण से सदा सहायक बने रहने की प्रार्थना की है।

प्रश्न 3.
“झुनक-झुनक नूपूर झनकारत, तता थेई रीझ रिझाई।
चरणदास हिजो हिय अन्तर, भवन कारी जित रहौ सदाई।
इन पंक्तियों को सौन्दर्य स्पष्ट करें।
उत्तर-
निर्गुण ब्रह्म उपासिका कवयित्री सहजोबाई की सगुण भक्ति शिरमौर श्रीकृष्ण के प्रति भाव-विहलता, भाव-प्रवणता इन पंक्तियों में उपस्थित है।

बालक कृष्ण अपने पैरों को बलात् इस तरह पटक रहे हैं कि उनके पैरों में बंधी पायल के र (घुघरू) एक लय विशेष में झंकृत हो रहे हैं और यह लय है तो ता थैया जिसके इंगित १: कृष्ण न सिर्फ रीझ गये हैं बल्कि अपने चतुर्दिक उपस्थित लोगों को भी मंत्रमुग्ध किये हुए है। कृष्ण की यह विश्वमोहिनी छवि के स्वामी को सहजोबाई अपने हृदय में भवन बनाकर सदा के लिए रखना चाहती हैं। कबीरात्मा भी अपने राम को कुछ इसी तरह अपनी आँखों में बसाना

“नैनन की करि कोठरी पुतरी पलंग बिछाय,
पलकनि कै चिक डारि कै पिय को लिया रिझाय।”

सम्ममा भक्त अपने भगवान से शाश्वत सायुज्यता का आकांक्षी होता है। उसे वह अपने व्यक्तित्व के कोमलतम, पवित्रतम स्थान में रखना चाहता है। भक्त भगवान पर एकाधिकार चाहता है। यही सौन्दर्य यहाँ जित है।

प्रश्न 4.
सहजोबाई ने हरि से उच्च स्थान गुरु को दिया है। इसके लिए वे क्या-क्या तर्क देती हैं?
उत्तर-
कवयित्री सहजोबाई ने अपने गुरु चरणदास के प्रति सहज और पावन भक्तिभावना का परिचय दिया है। कवियित्री ने सच्ची गुरु भक्ति के रूप में अपने गुरु की महिमा की अद्वितीयता का विवेचन एवं विश्लेषण किया है। गुरु के प्रति पूर्णरूप से समर्पित कवयित्री के निश्छल हृदय के पवित्र उद्गार मिलते हैं। सहजोबाई ने गुरु के दिव्यातिव्य मार्गदर्शन के प्रति समर्पिता का भाव सहज ही दृष्टिगोचार होता है। गुरु ने अपने दिव्य ज्ञान से अज्ञानता के तिमिर को हटाकर ज्ञान से प्रकाशित किया, जिससे सांसरिक आवागमन (जन्म-मृत्यु) के बन्धन से मुक्त कराया।

ईश्वर ने पाँच चोर मद, लोभ, मोह, काम और क्रोध को शरीर रूपी मन्दिर में बिठाया, गुरु ने उससे छुटकारा पाने की युक्ति सिखाई। ईश्वर ने सांसारिक राग-रंग, अपना-पराया का भ्रम में उलझाया, गुरु ने ज्ञान रूपी दीपक के प्रकाश से अलोकित कर तमाम बन्धनों से मुक्ति दिलाने के लिए आत्म ज्ञान से साक्षात्कार कराया है। गुरु ने सांसारिक भवसागर से निकलने का मार्ग प्रशस्त कराया। सहजोबाई की गुरुभक्ति उत्कट और अपूर्व है। गुरु के प्रति परमात्मा से भी बढ़कर प्रेम भक्ति तथा कृतज्ञता का उत्कट और अपूर्व भाव प्रदर्शित कवयित्री ने किया है। गुरु ही ज्ञान का सागर तथा सच्चा पथ-प्रदर्शक है। गुरु का स्थान हरि से भी ऊँचा है।

प्रश्न 5.
“हरि ने पाँच चोर दिये साथा,
गुरु ने लई छुटाय अनाथा।”
यहाँ किन पाँच चोरों की ओर संकेत है? गुरु उससे कैसे बचाते हैं।
उत्तर-
संत साहित्य में अवगुणों को चोर से संज्ञायित किया गया है। पाँच चोर निम्नलिखित हैं-काम, क्रोध, मोह, मद और लोभ। शरीर तक सीमित होना, इन्द्रित सुख की पूर्ति की इच्छा काम है। अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ होते देख गुस्सा होना क्रोध है। अनाधिकृत वस्तु के प्रति आसक्ति मोह अथवा लोभ है।

किसी भी प्रकार की प्रभुता प्राप्त कर लेने का भाव मद से प्रदर्शित होता है। दूसरे को किसी भी रूप में सम्पन्न देखकर ईर्ष्या का भाव डाह का भाव मत्सर है।

सद्गुरु संसार की नश्वरता, असारता, क्षणभंगुरता का निदर्शन करारकर अपने शिष्य को प्रबोध देता है। ध्यान, समाधि जीवमात्र की निष्काम सेवा आदि के द्वारा गुरु इन पाँच चोरों से शिष्य को बचाते हैं।

प्रश्न 6.
“हरि ने कर्म भर्म भरमायौ। गुरु ने आतम रूप लखायौ ॥
हरि ने मोरूँ आप छिपायौ। गुरु दीपक दै ताहि दिखायो॥”
इन पंक्तियों की व्याख्या करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पद्यांश ज्ञानाश्रयी कवयित्री सहजोबाई द्वारा विरचित है। कवियित्री ने गुरु महिमा और गरिमा की श्रेष्ठता का बेबाक चित्रण किया है। वह कहती है कि हरि ने उन्हें सांसारिक . कर्म के भर्म में उलझा कर रख दिया है और गुरु ने आत्मज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर उसके ‘स्व’ के अस्तित्व का ज्ञान कराया है : गुरु ने ‘स्वयं’ से साक्षात्कार कराकर सांसारिक अज्ञानता से छुट्टी दिलाई है, गुरु अपने ज्ञान के दीपक से प्रकाशित करते हैं।

प्रश्न 7.
पठित पद में सहजोबाई ने गुरु पर स्वयं को न्योछावर किया है। वह पंक्ति लिखें।
उत्तर-
प्रस्तुत पद में सहजोबाई गुरु की महानता और महिमा के आगे सर्वोत्तम समर्पण किया है जो उसकी उत्कृष्ठ गुरु भक्ति की पराकाष्ट है। वह कहती है

“चरणदास पर तन मन वारूँ। गुरु न तनँ हरि तजि डारूँ।।”

प्रश्न 8.
पठित पद के आधार पर सहजोबाई की गुरुभक्ति का मूल्यांकन करें।
उत्तर-
संत कवयित्री सहजोबाई का पाठ्यपुस्तक में संकलित पद ‘गुरु भक्ति’ का उत्कृष्ट और दुर्लभ उदारिण है। सहजो द्वारा गुरु भक्ति की उत्कट और अपूर्व अभिव्यक्ति हुई है। गुरु के प्रति परमात्मा से भी बढ़कर प्रेम-भक्ति तथा कृतज्ञता की आत्मिक अनुभूति इस पद में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है।

सहजोबाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया। ज्ञान आधारित गुरु भक्ति सहजो में अविचल संकल्प और समर्पण की स्पृहणीय शक्ति बनकर प्रकट होती है।

वह हरि को त्याज्य समझती है परन्तु गुरु को त्यागने की वह कल्पना भी नहीं करना चाहती है

“राम तर्जे पर गुरु न बिसारूँ।
गुरु के सम हरि न निहारूँ॥

सहजोबाई ने गुरु की महिमा और ज्ञान के अस्तित्व को स्वीकारते हुए उसे उच्छल आनंदानुभूति होती है। वह गुरु को ही सांसरिक आवागमन, मर्म तथा आत्म ज्ञानसे साक्षात्कार कराने के लिए अपनी सारी सत्ता को हृदय, प्राण, बुद्धि कल्पना, संकल्प इत्यादि सारी वृत्तियों को समाहित और घनीभूत करके बड़े वेग के साथ स्वयं को गुरुभक्ति में समाहित कर दिया है। अपनी केवल व्यक्तिगत सत्ता की भावना को पूर्ण विसर्जन कर केवल गुरु को ही ध्येय स्वरूप आत्मसात करती है। गुरु के प्रति परमात्मा से भी बढ़कर प्रेम-भक्ति तथा कृतज्ञता को प्रकट करते हुए कहती है

“चरणदास पर तन मन वारूँ।
गुरु न तनूं हरिः जि डारूँ॥

कवयित्री सहजोबाई एक सच्ची गुरुभक्त के रूप में गुरू की प्रार्थना करती हैं ताकि उसे मोह-माया के बन्धन से मुक्त होकर अपने आराध्य की पूर्ण चरणगति और शरणगति प्राप्ति हो। गुरु के वरदहस्त की छाया में दिव्य ज्ञान प्राप्त कर सकल संताप को दूर करने की क्षमता सम्पन्न होती है।

सहजोबाई के पद भाषा की बात

प्रश्न 1.
पठित पदों में अनुप्रास अलंकार है। ऐस उदाहरण को छांट कर लिखें।
उत्तर-
सहजोबाई रचित पदों की निम्नांकित पंक्तियां में अनुप्रास अलंकार हैं-
“मुकुट लटक अटकी मन माहीं ‘म’ वर्ण की आवृति
नृत तन नटवर मदन मनोहर ‘न’ और ‘म’ वर्ण की आवृति
ठुमक ठुमुक पग धरत धरनि पर ‘प’ और ‘ध’ वर्ण की आवृति
झुनुक झुनक नुपुर झनकारत
तथा थेई थेई रीझा रिझाई में ‘झ’ त, थ और ‘र’ वर्ण आवृति
हरि ने जन्म दियो जग माहीं ‘ज’ वर्ण की आवृति
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ में ‘भ’ वर्ण की आवृति।

प्रश्न 2.
“भौंह चलाना” का क्या अर्थ है?
उत्तर-
आँखों के ऊपर की रोमावली भौंह कहलाती है। व्यक्ति जब कुछ देने से कतराना चाहता है, उसके भीतर चुहल करने की इच्छा होती है, तब भौंहों को ऊपर नीचे करता है। आनन्ददायी आश्र्चचकित करने वाली घटना से साक्षात्कार करने के समय तथ्यों गोपन में भौंह चलाया जाता है। बिहारी ने तो कृष्ण की मुरली चोरी प्रसंग में गोपियों को “भौहनि हँसौ” की स्थिति में प्रस्तुत किया

“बतरस लालच ताल की मुरली धरि लुकाय”
सौं करै भौहनि हंसे दैन कहै नटि जाय।
भौंक चलना का अर्थ सौहार्द्रपूर्ण कुटिलता का अवाक् ज्ञापन करना है।

प्रश्न 3.
चतुराई, रिझाइ जैसे शब्दों में ‘आई’ प्रत्यय लगा है। पठित पदों से अलग ‘आई’ प्रत्यय से पाँच शब्द बनाएँ।।
उत्तर-
लखाई, बिलगाई, मचिलाई, बिलखाई और मुस्काई।

प्रश्न 4.
कर्म-भर्म रोग-भोग मं कौन-सा सम्बन्ध है?
उत्तर-
कर्म-धर्म तथा रोग-भाग दोनों ही द्वन्द्व समास है।

प्रश्न 5.
इनका शुद्ध रूप लिखें नृत, गुर, हरिपू, बेरी, मर्म, आतम
उत्तर-

  • अशुद्ध – शुद्ध
  • नृत्य – नृत
  • गुरु – गुरु
  • हरिकूं – हरि को
  • बेरी – बेड़ी
  • भ्रम – भर्म
  • आतम – आत्म, आत्मा

प्रश्न 6.
पठित पदों से क्रिया पद चुनएि।
उत्तर-
सहजोबाई रचित पदां में निम्नलिखत क्रियापद आये हैं
अटकी, बिथुराई, हलत, मटक, चलाई, धरत, करत, झनकारत रहौ, बिसारू, तनँ बिसारू, निहारूँ दियो छुटाहीं, दिये, छटाय, गेरी, काटी, उरझायी, भरमायौ, लखायौ, छिपायो, लाये, मिटायै, वारूँ और डारूँ।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

सहजोबाई के पद लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सहजोबाई द्वारा वर्णित सगुण रूप या कृष्ण के रूप पर प्रकाश डालें
उत्तर-
सहजोबाई ने ‘नटवर’ शब्द का प्रयोग किया है जिससे स्पष्ट होता है कि सगुण ईश्वर से उनका तात्पर्य कृष्ण से है। द्वितीय, ठुमक ठुमुक चलने और पैरों में झुमुक झुमुक कर नृपुर बजने से स्पष्ट है कि कृष्ण के बाल रूप का वर्णन है। कवयित्री ने सुन्दर मुकुट, नृत्यशील शरीर, कान के कुंडल तथा बिखर केश का वर्णन किया है। क्रिया सौन्दर्य के अन्तर्गत ठुमुक ठुमुक चलने नूपूर झनकारने, होठ फड़काने, भौहे चलाने, नाचने और भुजाएँ उठाकर भाव-मुद्रा प्रदर्शित करने का वर्णन है।

प्रश्न 2.
सहजोबाई की गुरु-भक्ति भावना का वर्णन संक्षेप में करें।
उत्तर-
सहजोबाई की गुरु-भक्ति अनन्य है। वह गुरु को सदैव हृदय में बसाये रखना चाहती हैं। उसके गुरु संत चरणदास जी आत्मज्ञानी है, उनके पास ज्ञान का दीपक है। ईश्वर ने मानव-तन देकर अपनी प्राप्ति में जितनी बाधाएँ खड़ी की हैं उन सबका निदान गुरु ने किया है, इसलिए सहजोबाई अपने गुरु को गोविन्द से श्रेष्ठ मानती है। उसका दृढ़ विश्वास है कि गुरु की कृपा से ईश्वर मिल सकता है मगर ईश्वर की कृपा से गुरु नहीं। अत: वह अपने गुरु के प्रति समर्पण पूर्ण भक्ति-भावना व्यक्त करती है।

सहजोबाई के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सहजोबाई गुरु को हरि से श्रेष्ठ क्यों मानती हैं?
उत्तर-
उनकी दृष्टि से ईश्वर ने अपने को छिपाने के लिए प्रपंचों का सृजन किया है जबकि गुरु उन प्रपंचों को ज्ञान के प्रकाश से काटकर भक्त को ईश्वर से मिला देता है, अत: गुरु ईश्वर से श्रेष्ठ है।

प्रश्न 2.
ईश्वर ने जीव को अपने से अलग रखने और छिपाने के लिए क्या-क्या किया है?
उत्तर-
ईश्वर ने पंचेन्द्रिय रूपी पाँच चोर साथ लगा दिया है रोग और भोग में उलझाया है, कुटुम्ब्यिों के रूप में ममता का जाल देकर उलझाया है तथा कर्म-फल का भ्रम पैदा किया है।

प्रश्न 3.
गुरु ने क्या किया है?
उत्तर-
गुरु ने जन्म-मरण के आवागमन से मुक्ति दिलाई है। ममता का बन्धन काटा है। योग और आत्मज्ञान दिया है तथा ज्ञान-रूपी दीपक के प्रकाश में ईश्वर के दर्शन कराये हैं।

प्रश्न 4.
पाँच चोर से कवयित्री का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
पाँच चोर से तात्पर्य पंच ज्ञानेन्द्रियों-आँख, कान, नाक, मुँह और मन से है जो व्यक्ति को संसार के प्रति आसक्त बनाते हैं। इन इन्द्रियों के कारण मनुष्य संसार के प्रति लगाव रखता है।

प्रश्न 5.
सहजोबाई किस प्रकार की कवयित्री है?
उत्तर-
सहजोबाई निर्गुण और सन्त विचार की दोनों विचारधारा की कवयित्री है।

प्रश्न 6.
सहजोबाई के प्रथम पद में किसकी व्यंजना की गयी है?
उत्तर-
सहजोबाई ने अपने प्रथम पद में कृष्ण की सगुण लीलानुभूति की व्यंजना की है।

प्रश्न 7.
सहजोबाई ने द्वितीय पद में किस पर प्रकाश डाला है?
उत्तर-
सहजोबाई ने अपने द्वितीय पद में गुरु की महत्ता और उसके व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है।

सहजोबाई के पद वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग, या घ) लिखें।

प्रश्न 1.
सहजोबाई का जन्म कहाँ हुआ था?
(क) मध्यप्रदेश
(ख) राजस्थान
(ग) पंजाब
(घ) हरियाणा
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 2.
सहजोबाई के गुरु कौन थे।
(क) चरनदास
(ख) हरिप्रसाद भार्गव
(ग) तुकाराम
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

प्रश्न 3.
सहजोबाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन किसको समर्मित किया है?
(क) गुरु चरणदास को
(ख) ईश्वर को
(ग) गुरु और उनके माध्यम से ईश्वर को
(घ) किसी को नहीं
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 4.
सहजोबाई किसको नहीं छोड़ सकती है।
(क) भगवान को
(ख) गुरु चरनदास को
(ग) अपने पिता को
(घ) अपनी माता को।
उत्तर-
(ख)

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न:
1. सहजोबाई निर्गुण …………….. भक्ति के अन्तर्गत आती है।
2. राम तर्जे पै …………. न बिसारूँ।
3. गुरु ने काटा …………….. बेरी।
4. मुकुट लटक ……………. मन माहीं।
उत्तर-
1. ज्ञानाश्रयी
2. गुरु
3. माया
4. अटकी।

सहजोबाई पद कवि परिचय – (1725)

कवि परिचय-साहित्य में कोई भी प्रवृत्ति किसी भी काल में किसी न किसी अंश में जीवित रहती है। जैसे रीति काल के घोर विकास-वैभवपूर्ण वातावरण में भी भूषण वीरस के पुनः प्रस्तोता कवि हुए उसी तरह सहजोबाई भी निर्गुण संतमत की अलग जगाती दीखती हैं।

“हरिप्रसाद की सुता नाम है सहजोबाई।
दूसर कुल में सदा गुरु चरन सहाई।”

की एक मात्र स्वीकारोक्ति के अनसार इनके पिता का नाम हरिप्रसाद भार्गव था। प्रसिद्ध संत कवि चरणदास की ये शिष्या बन आजीवन ब्रह्मचारिणी बन इन्हीं की सेवा में रहीं।

इनके चिन्तन में कुछ चीजें ऐसी हैं जो अन्य संत कवियों से इन्हें अलग करती हैं। निर्गुण ज्ञानाश्रयी भक्तिधारा की होकर भी कृष्ण के प्रति जो इनका रागानुरक्ति है वह इन्हें मीरा की तरह प्रस्तुत करती है और गुरु के प्रति जो इनका उद्गार है वह इन्हें कबीर की कोटि में पहुंचा देता प्रस्तुत करती है और ना होकर भी कृष्ण के प्रति जात कवियों से इन्हें अलग सहजों के व्यक्तित्व और काव्य में अटूट गुरुभक्ति सहज ध्यानाकृष्ट करती है। वे ईश्वर से कहीं अधिक महत्त्व अपने गुरु को देती हुई कहती हैं-

राम तजूं पै गुरु न बिसारूं। गुरु के सम हर कूँ न निहारूँ।।
चरणदास पर तन मन वारूं। गुरु न तजूं हरिः तजि डारूँ।।

सहजोबाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन गुरुचरण दास और उनसे प्राप्त ईश्वरी अनुराग को समर्पित कर दिया। जैसा कि आचार्य शुक्ल का कथन है- ब्रह्म के स्वरूप में भावुक भक्त ध्यान या भाव-मग्नता के समय अपनी सारी सत्ता को हृदय प्राण, बुद्धि, कल्पना, संकल्प इत्यादि सारी वुत्तियों को समाहित और घनीभूत करके बड़े वेग के साथ लीन कर देता है। भावुक भक्त की एकांत अनुभूति प्रत्यक्ष दर्शन के ही तुल्य होती है। सहजोबाई ने कृष्ण के स्वरूप को निर्गुण ज्ञानमार्गी का चोल उतार कर जिस सहज और प्रकृत रूप में प्रस्तुत किया है, उसे विस्मृत करना कठिन है

“मुकुट लटक अटकी मन माहीं।
नृत तन नटवर मदन मनोहर कुडल झलक अलक बिथुराई।”

सहजोबाई की रचनाओं में इनकी प्रगाढ़ गृरुभक्ति, संसार की ओर से पूर्ण विरक्ति तथा साधु, मानव-जीवन, प्रेम, निर्गुण सगुण भेद, नाम स्मरण जैसे परंपरित विषय ही हैं। विषय पुराने हैं उद्भावनाएं ये बहुत मार्मिक नहीं हैं कहीं-कहीं, भाव विह्वलता के निदर्शन अवश्य हो जाते हैं

“बबा काया नगर बसावौ।
ज्ञान दृष्टि से सैं घट में देखौं, सूरति निरति लौ लौवौ।
पाँच मारि मन बस करि अपने तीनों ताप नसावौ।
सत संतोष गहौ दृढ़ सेती दुर्जन मारि भजावौ।
सील, छिमा धीरज धारौ, अनहद बंब बजावौ।
पाप बनिया रहन न दीजै, धरम बजार लगावौ।।
सुबस बास होवै तब नगरी, बैरी रहै न कोई।
चम्न दास गह अमल बतायो, सहजो संभान्न सोई।।

सहजोबाई ने अपनी रचनाओं में सांसारिकता से विराग, नामजप तथा निर्गुण-सगुण ब्रह्म अभेद भाव की अभिव्यंजना की है। सहजोबाई में जो भक्ति है वह ज्ञान आधारित है लेकिन उसका प्रकटीकरण अविचल संकल्प और समर्पण की स्पृहणीय शक्ति के रूप में हुआ है।

मीरा के बाद सहजोबाई ही हमारे सामने आती हैं जो नारी होकर भी अपने अस्तित्व और सतीत्व दोनों बिन्दुओं पर मुखर हैं। उस जमाने में कुँवारी और ब्रह्मचारिणी बनकर गुरु की सेवा में समर्पित हो जाना एक कठोर कार्य था!

इन्होंने दोहे, चौपाई और कुंडलियाँ छंद में अपनी रचनाएँ की हैं। इनकी एकमात्र उपलब्ध रचना “सहज प्रकाश” है।

पदों का भावार्थ।

सहजोबाई के प्रथम पद

रीतिकाल के घोर शृंगारिक वातावरण में निर्गुण ज्ञानमार्गी भक्ति की अलख जगानेवाली सहजोबाई, कृष्ण के स्वरूप पर इस तरह से मुग्ध हुई कि निर्गुण का पद-पाठ भूल कर कृष्ण सौन्दर्य का वर्णन कर बैठी। इनके अनुसार शिशु कृष्ण के माथे पर जो मुकुट है उसमें झालर हैं, फुदने के उनके हिलने-डुलने से गजब का सौन्दर्य वर्द्धन होता है। सहजो का मन चित्त उसी लटकन में अटक कर रह गया है। छोटे कृष्ण अपने छोटे पैरों के बल नाचने में व्यस्त हैं और इस क्रम में उनके कानों के कुण्डल श्यामल धुंघराले बालों को तितर-बितर करते हुए बार-बार झलक मारते हैं और श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को और वर्धित करते हैं।

उनकी नाक में मुक्ता जड़ित बुलाक है जो होठों के हिलने पर हिलता है। कृष्ण की भौंहे भी कमान सी हैं जिनके गतिशील होने से इनका स्वरूप और प्रभविष्णु हो उठता है। धरती पर तो थाह-थाह कर ठुमक-ठुमक कर चलते हैं किन्तु अपनी बांहें उठाकर पलक झपकते कोई-न-कोई बाल सुलभ चपलता कर बैठते हैं। इनकी चतुराई भी बड़ी मोहक है। जब इन्हें ताता-थैया की लय पर नाचने के लिए कहा जाता है तो इनके पैरों में बंधी पायल के नुपूर झंकृत हो उठते हैं। पहले ये दुलार, मनुहार पर रीझते हैं और फिर आनन्द में डूबकर हम सबको रिझाते हैं।

सहजोबाई अपने गुरु चरणदास की कृपा से यह लीला देखने में सफल हुई है। कृष्ण का यह स्वरूप हृदय को भवन बनाकर सदा सर्वदा के लिए बसाने योग्य है। वह कृष्ण से प्रार्थना करती है कि इसी विश्व मोहन स्वरूप में वे उसके हृदयरूपी भवन में सदा के लिए बस जाएँ।

प्रस्तुत घद में वात्सल्य रस का वर्णन हुआ है। अनुप्रास, वीप्सा, उपमा आदि अलंकारों का सुन्दर विनियोग प्राप्त होता है।

इस पद के वर्णन से सहजोबाई के भीतर सगुण-निर्गुण भक्ति का जो अन्तर्विरोध है उसका एक तरह से निरसन हुआ है। यह उनकी निर्गुण भक्ति की उच्छल आनन्दानुभूति का ही प्रकट रूप है।

सहजोबाई के द्वितीय पद

ज्ञानी, संत, निर्गुणपंथी सहजोबाई अपने गुरु (श्रीचरणदास) और परमब्रह्म राम के बीच प्राथमिकता के प्रश्न पर गुरु के साथ हैं। उनके मत से ब्रह्म राम की उपलब्धि हो जाने के बाद भी गुरु का महत्त्व अक्षुण्ण है। यदि कोई अब उनसे गुरु को छोड़ने, विस्मृत करने को कहेगा तो मै उपलब्ध राम (ब्रह्म) को ही तजना, त्यागना श्रेयष्कर समझूगी। गुरु यदि मेरे सामने हैं तो उनके रहते मैं राम को देखन भी नहीं चाहूँगी।

यह सही है कि हरि की कृपा से मेरा संसार में जन्म हुआ है। लेकिन ईश्वर तो चौरासी। लाख योनियों में असंख्या जीवों को प्रतिदिन जन्म देते हैं और मृत्यु के द्वारा उसे अपने पास बुला लेते हैं। लेकिन यह कृपा गुरु की ही है जिससे आवागमन से, जेन्म-मरण के चक्र से मुझे (जीव को) मुक्ति मिल गयी है। ईश्वर ने न सिर्फ हमें पैदा किया बल्कि चलते समय पाँचा चोर भी मेरे साथ लगा दिये। ये हैं-काम, क्रोध, मोह, मद और मत्सर।

जो कुछ भी कमायी होती, पुण्यार्जन होता, ये चोर चुरा लेते थे। मै इनके रहते अनाथ थी। गुरु ने इन चोरों (दुर्गुणों) से मुक्त कराया। हरि ने पैदा होने के लिए एक परिवार रूपी कारा में भेज दिया। जहाँ माया-ममता की बहुस्तरीय बेड़ियों ने मुझे जकड़ लिया। गुरु ने इन बेड़ियों को काटकर मुझे मुक्त किया। यही नहीं, ईश्वर ने जन्म देकर रोग और भोग में, सुख और दुःख में उलझा दिया। सांसारिक आकर्षण भोग के लिए प्रवृत्त करते और भोगोपरान्त अनेक रोग झेलने पड़ते थे। योगी गुरु ने योग के द्वारा रोग और भोग दोनों से मुक्त कराया। ईश्वर ने अनेक तरह के कर्म के मकड़जाल में उलझा दिया।

मै वास्तव में क्या हूँ, इसका स्मरण ही भूल गया। गुरु ने मुझे आत्म रूप का दर्शन कराया। ईश्वर ने मेरे साथ धोखा किया। मेरा निजत्व उसने मुझसे ही छिपा लिया, जिसे गुरु ने अपने ज्ञान के दीपक की लौ में मुझे दिख दिया। ईश्वर ने मुझे फिर भरमाने की चेष्टा की कि बंधन में ही, पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन में ही जीव की मुक्ति है। किन्तु मेरे गुरु ने ईश्वर के इस तिलस्म को भी मिटा डाला। अत: जिन गुरु चरणदास ने मेरा कायाकल्प किया उन पर मै स्वयं को तन-मन से न्योछावर करती हूँ। गुरु को किसी भी परिस्स्थिति में नहीं तज सकती भले ही हरि को तजना पड़ जाए तो उसे छोड़ने के लिए मै सर्वदा तैयार हूँ। मेरी गति राम में ही, गुरु में लीन होने में ही है।

प्रस्तुत पद में सहजोबाई ने परमपिता जगत् नियामक के अवगुणों का वर्णन किया है। ऐसा दुः साहस आज तक शायद ही किसी कवि ने किया हो। ईश्वर ने जन्म देकर भटकने के लिए बाध्य कर दिया, अपने इंगित पर नाचने के लिए बाध्य कर दिया किन्तु गुरु ने ईश्वर के विधान को ही मेरे लिए उलट-पुलट कर रख दिया।

स्वाभाविक रूप से अनुप्रास अलंकार यत्र-तत्र उपलब्ध है। शांत रस का यह पद अपूर्व प्रभाव क्षमता से सम्पन्न है।

सहजोबाई के पद कठिन शब्दों का अर्थ

नृत-नृत्य। भवनकारी-हृदय की भवन बनाकर रहने वाले। नटवर-लीलाधारी कृष्ण। सदाई-सदा ही, सर्वदा, हमेशा। अलक-केश, लट। बिसाऊँ-भूलूँ। बिथुराई-बिखरा हुआ। माही-में। बुलाक-नाक का आभूषण जाल में डोरी-जाल में डालना। हलत-हिलना। बेरी-बेड़ी, जंजीर। मुक्ताहल-मोती। लखादौ-दिखाया। नूपूर-धुंघरू। आप छिपायौ-आत्मरूप। छिया-दिया। रीझ-मोहित। तजि डारूँ-छोड़ दूं। धनरि (धरणी)-धरती। मोरूँ-मुझसे। हिय-हृदय।

सहजोबाई के पद काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. मुकुट लटक अटकी …………..बिथुराई।
व्याख्या-
सहजोबाई ने प्रस्तुत पंक्तियों में सगुण रूप ईश्वर श्री कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन किया है। उनके अनुसार कृष्ण के माथे का शोभाशाली मुकुट और उसमें लगे लटकन मेरे मन में अटक गये हैं। अर्थात् मेरा मन कृष्ण के सौंदर्य पर रीझ गया है। उनका शरीर नृत्य कर रहा है। चंचल स्वभाव के कारण हर समय गतिशील लगता है जो अपनी लयात्मकता के कारण नृत्य करता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे नटवर श्री कृष्ण का मर्दन अर्थात् कामदेव के समान मनोहर रूप मन को मुग्ध कर लेता है। उनके कानों में पड़ा कुंडल डोलने पर कौधता है और छितरायी, हुई केश-राशि की शोभा मन को मुग्ध कर देती है।

2. नाक बुलाक हलत ………… करत चतुराई।।
व्याख्या-
सहजोबाई ने प्रस्तुत पंक्तियों में नटवर श्री कृष्ण की आंगिक शोभा का वर्णन किया है। इसमें नाक में धारण किये गये बुलाक का वर्णन है जिसमें मुक्ताहल अर्थात् मोती जड़े हुए हैं। उनके मनोरम ओठ विशिष्ट सुन्दर ढंग से मटकते हैं और भौंहो की भौगमा सौन्दर्य की छवि बिखेरती है। वे ठुमुक-ठुमक कर धरती पर पैर रखते है अर्थात् चलते हैं और हाथों को उठा-उठाकर विभिन्न मुद्राओं के द्वारा भाव-चातुर्य व्यक्त करते हैं। अर्थात् उनके हस्त-परिचालन के माध्यम से विविध भावों की भी अभिव्यक्ति होती है वह कोरा हस्तपरिचालन नहीं होता है। यहाँ कवयित्री ने कृष्ण के आभूषण तथा उनके औठ, भौंह, पग, हाथ आदि की गति मुद्रा का सजीव चित्र खींचा है।

3. झुनुक झुनुक नूपूर झनकारत ……………. रहौ सदाई।
व्याख्या-
श्री कृष्ण चलते हैं तो पैरों के नूपुर बजते हैं। इससे उनके बाल-मन को आनन्द आता है, अतः वे जान-बूझकर नूपूर को झनकारते चलते हैं। इससे वातावरण में लयबद्ध झनकार उत्पन्न होती है। यह सुनने वालों का मन मोह लेता है। इतना ही नहीं कृष्ण ताता थेई की मुद्रा में नाचते भी हैं और उनका नृत्य मन को मोह लेता है। इतना ही नहीं कृष्ण ताता थेई की मुद्रा में नाचते भी है और उनका नृत्य मन को मोह लेता है। सहजोबाई कहती हैं कि मै तुम्हारे चरणों की दासी हूँ, तुम मेरे हृदय में निवास करो और सदा मुझ पर कृपा रखो। इन पंक्तियों में ‘चरणदास’ शब्द का दो अर्थो में प्रयोग हुआ है। प्रथम चरणों का दास और द्वितीय सहजोबाई के गुरु चरणदास। अतः यहाँ श्लेष अलंकार है।

4. राम तनँ पै गुरु न बिसारूँ ……………… आवागमन छुटाहीं।
व्याख्या-
सहजोबाई ने प्रस्तुत पंक्तियों में अपनी यह प्रतिज्ञा व्यक्त की है कि वह राम को छोड़ सकती हैं मगर गुरु को नहीं। इसका कारण बतलाती हुई कहती है कि हरि ने जन्म देकर संसार में भेज दिया। मै यहाँ जीवन-धारण करने की सारी व्यथा, सारा प्रपंच और सारा विकार झेल रही हूँ। मगर गुरु ने ज्ञान देकर इस आवागमन अर्थात् जन्म लेने और मरने के क्रम से छुटकारा दिला दिया है। इसीलिए मैं गुरु के समान हरि को नहीं मानती हूँ। अर्थात् गुरु हरि से श्रेष्ठ हैं। हाँ ‘राम’ शब्द का प्रयोग ईश्वर के लिए हुआ है दशरथसुत के अर्थ में नहीं।

5. हरि ने पाँच चोर दिये साथा …………….. काटी ममता बेरी।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में सहजोबाई कहती है कि हरि ने हमारे साथ कोई उपकारा नहीं किया है। उलटे कई समस्याएँ साथ लगा दी हैं। इन पंक्तियों के अनुसार गुरु ने पाँच चोरो से मुक्ति दिलाने का कार्य किया है। अर्थात् उनके उपेदश में इन्द्रियों के प्रति आसक्ति घटाने में सहायता मिली है। इसी तरह हरि ने ‘सूत-वि:-नारी भवन परिवारा’ के कुटुम्ब-जाल में फंसा दिया है, उलझा दिया है ताकि ईश्वर की ओर उन्मुख होने का अवसर ही न मिले। यहाँ गुरु ने ममता की डोर काटकर इस कुटुम्ब जाल से मुक्त होने में मदद की है। अत: ईश्वर सांसारिकता और आसवित में फैलाकर अपने से दूर करता है जबकि गुरु मोहपाश काटकर ईश्वर के समीप पहुँचाता है। अतः गुरु ईश्वर से श्रेष्ठ है।

6. ‘हरि ने रोग भोग उरझायौ ……………. आंतम रूप लखायौ।’
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में सहजोबाई हरि और गुरु का अन्तर स्पष्ट करती हुई कहती है कि हरि ने जीवन तो दिया लेकिन रोग और भोग में उलझा दिया। इससे जीवन कठिन और जटिल हो गया। इसके विपरीत गुरु ने योग की शिक्षा देकर मुक्ति दिलाई। योग के विषय में कहा गया है कि कर्म-कौशल और चित्तवृत्ति के निरोध के उपाय नाम योग है। इन दोनों अर्थात् कौशल और चित्त निरोध से जीवन संयमशील बनता है और तब स्वभावतः रोगमुक्त हो जाता है। इसी तरह हरि ने कर्म मार्ग पर डालकर कर्मफल की अनिवार्यता बतलाई जिससे कर्म का दुनिया में भटक गया। गुरु ने आत्मरूप का ज्ञान देकर बताया है कि अपने भीतर देखने पर आत्मज्ञान पाने से ही कर्म फल और कर्म-बन्धन से मुक्ति मिलती है। इस गुरु योग और आत्मज्ञान देता है जबकि ईश्वर कर्म भोग और रोग। अत: गुरु ही श्रेष्ठ हैं।

7. हरि ने मोसं आप छिपायौ …………….. हरि . तजि डारूँ।
व्याख्या-
चौपाई छन्द में रचित प्रस्तुत पंक्तियों में सहजोबाई कहती हैं कि पंच ज्ञानेन्द्रिया, भोग, रोग, कर्म परिवार, धन आदि सांसारिक आकर्षण के अनेक प्रपंचो के द्वारा ईश्वर ने एक परदा जैसा हमारे और अपने बीच डाल दिया और अपने को छिपया, ताकि हम उसे प्राप्त नहीं कर सकें। सहजो की दृष्टि में उपयुक्त तत्त्व अंधकार के परदे की तरह थे जिसके कारण हम ईश्वर को देखने में असमर्थ रहे। तब गुरु ने ज्ञान का दीपक जलाकर इस अन्धकार को दुर कर दिया और ईश्वर के दर्शन करा दिया फिर हरि से जोड़कर हमारे लिए मुक्ति रूपी गति ले आये।

इस प्रकार गुरु ने ईश्वर द्वारा फैलाए सारे प्रपचों को मिटा दिया जिससे हमारा अज्ञानजनित भ्रम दूर हो गया। मै अपने गुरु. चरणदास पर तन-मन न्योछावर करती हूँ। मै ऐसा ज्ञान देने वाले गुरु को नहीं तनँगी, अकर ईश्वर और गुरु में से किसी एक को छोड़ना होगा तो ईश्वर को ही छोडूंगी। सहजोबाई के इस कथन का अभिप्राय यह है कि गुरु की कृपा से ईश्वर मिल जाता है लेकिन ईश्वर की कृपा से गुरु नहीं। यदि ईश्वर को छोड़ भी दूंगी तो उनकी कृपा से पुनः प्राप्त कर लूँगी, कवयित्री ने चरण की दासी और गुरु चरणदास-इन दो अर्थो में ‘चरणदास’ शब्द का प्रयोग किया है अतः इसमें श्लेष अलंकार है।


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