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Monday, June 27, 2022

BSEB Class 10 Hindi Godhuli Chapter 7 परंपरा का मूल्यांकन Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 10th Hindi Godhuli Chapter 7 परंपरा का मूल्यांकन Book Answers

BSEB Class 10 Hindi Godhuli Chapter 7 परंपरा का मूल्यांकन Textbook Solutions PDF: Download Bihar Board STD 10th Hindi Godhuli Chapter 7 परंपरा का मूल्यांकन Book Answers
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Bihar Board Class 10th Hindi Godhuli Chapter 7 परंपरा का मूल्यांकन Textbooks Solutions PDF

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Bihar Board Class 10th Hindi Godhuli Chapter 7 परंपरा का मूल्यांकन Books Solutions

Board BSEB
Materials Textbook Solutions/Guide
Format DOC/PDF
Class 10th
Subject Hindi Godhuli Chapter 7 परंपरा का मूल्यांकन
Chapters All
Provider Hsslive


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बोध और अभ्यास

पाठ के साथ

Parampara Ka Mulyankan Question Answer Bihar Board Class 10 Hindi Chapter 7 प्रश्न 1.
परंपरा का ज्ञान किनके लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है और क्यों ?
उत्तर-
जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, क्रांतिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य की परंपरा का ज्ञान आवश्यक है। क्योंकि साहित्य की परंपरा से प्रगतिशील आलोचना का ज्ञान होता है जिससे साहित्य की धारा को मोड़कर नए प्रगतिशील साहित्य का निर्माण किया जा सकता है।

Parampara Ka Mulyankan Bihar Board Class 10 Hindi Chapter 7 प्रश्न 2.
परंपरा के मूल्यांकन में साहित्य के वर्गीय आधार का विवेक लेखक क्यों महत्त्वपूर्ण मानता है ?
उत्तर-
साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्य निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरूद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित करता है। इसके साथ हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता श्रम है। और यह देखने का प्रयत्न करते हैं कि वह वर्तमान काल में जनता के लिए कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस तरह हो सकता है।

परंपरा का मूल्यांकन Bihar Board Class 10 Hindi Chapter 7 प्रश्न 3.
साहित्य का कौन-सा पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होना है ? इस संबंध में लेखक की राय स्पष्ट करें।
उत्तर-
साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से संबद्ध है। आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी अपना जीवन बिताता है। साहित्य में उसकी बहुत-सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित होती हैं जो उसे प्राणी मात्र से जोड़ती हैं। इस बात को बार-बार कहने में कोई हानि नहीं है कि साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है। उसमें मनुष्य का इन्द्रिय बोध, उसकी भावनाएँ भी व्यजित होती हैं। साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है।

परम्परा का मूल्यांकन Bihar Board Class 10 Hindi Chapter 7 प्रश्न 4.
“साहित्य में विकास प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती जैसे समाज में ‘लेखक का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
लेखक कहते हैं कि साहित्य में विकास प्रक्रिया सामाजिक विकास-क्रम की तरह नहीं होती है। सामाजिक विकास-क्रम में पूँजीवादी सभ्यता और समाजवादी सभ्यता में तुलना किया जा सकता है और एक-दूसरे को श्रेष्ठ एवं अधिक प्रगतिशील कहा जा सकता है। लेकिन साहित्य के विकास में इस तरह की बात नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि सामन्ती समाज के कवि की अपेक्षा पूँजीवादी समाज का कवि श्रेष्ठ है।

कवि अपने-अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं लेकिन अनुकरण नहीं करके स्वयं नई परम्पराओं को जन्म देते हैं। औद्योगिक उत्पादन और कलात्मक सौंदर्य ज्यों-का-त्यों नहीं बना रहता। अमेरिका ने एटम बम बनाया, रूस ने भी बनाया पर शेक्सपीयर के नाटकों जैसे चीज का उत्पादन दुबारा इंग्लैंड में भी नहीं हुआ। अतः साहित्य और समाज के विकास-क्रम में समानता नहीं हो सकती है।

परम्परा का मूल्यांकन Pdf Bihar Board Class 10 Hindi Chapter 7 प्रश्न 5.
लेखक मानव चेतना को आर्थिक संबंधों से प्रभावित मानते हुए भी उसकी स्वाधीनता किन दृष्टांतों द्वारा प्रमाणित करता है ?
उत्तर-
लेखक के अनुसार आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित होना एक बात है, उनके द्वारा चेतना का निर्धारित होना और बात है। परिस्थिति और मनुष्य दोनों का संबंध द्वन्द्वात्मक है। यही कारण है कि साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है। अमरीका और एथेन्स दोनों में गुलामी थी किन्तु एथेन्स की सभ्यता से यूरोप प्रभावित हुआ और गुलामों के अमरीकी मालिकों ने मानव संस्कृति को कुछ भी नहीं दिया। सामन्तवाद दुनिया भर में कायम रहा पर इस सामन्ती दुनिया में महान कविता के दो ही केन्द्र थे-भारत और ईराना पूँजीवादी विकास यूरोप के तमाम देशों में हुआ पर रैफेल, लेओनार्दो दा विंची और माइकेल एंजेलो इटली की देन हैं। इन दृष्टांतों के माध्यम से कहा गया है कि सामाजिक परिस्थितियों में कला का विकास सम्भव होता है। साथ ही यह भी देखा जाता है कि समान सामाजिक परिस्थितियाँ होने पर भी कला का समान विकास नहीं होता।

परंपरा का अर्थ Bihar Board Class 10 Hindi Chapter 7 प्रश्न 6.
साहित्य के निर्माण प्रतिभा की भूमिका स्वीकार करते हुए लेखक किन खतरों से अगाह करता है?
उत्तर-
लेखक साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक मानते हैं। लेकिन उन्होंने इस संबंध में सावधान किया है कि मनुष्य जो करते हैं वह सब अच्छा ही होता है, ये आवश्यक नहीं। उनके श्रेष्ठ रचना में दोष नहीं हो सकते ऐसी कोई बात नहीं। इनके कृतित्व को दोषमुक्त मान लेना साहित्य के विकास में खतरनाक सिद्ध हो सकता है। प्रतिभाशाली मनुष्य की अद्वितीय उपलब्धियों के बाद कुछ नया और उल्लेखनीय करने की गुंजाइश बनी रहती है।

प्रश्न 7.
राजनीतिक मूल्यों से साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी कैसे होते हैं?
उत्तर-
लेखक कहते हैं कि साहित्य के मूल्य राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी हैं। इसकी पुष्टि में अंग्रेज कवि टेनिसन द्वारा लैटिन कवि वर्जिल पर रचित उस कविता की चर्चा करते हैं जिसमें कहा गया है कि रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया। पर वर्जिल के काव्य सागर की ध्वनि तरंगें हमें आज भी सुनाई देती हैं और हृदय को आनन्द-विह्वल कर देती है। कह सकते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य के पतन के बाद जब उसका नाम लेने वाला नहीं रह जाएगा तब भी शेक्सपियर, मिल्टन और शेली विश्व संस्कृति के आकाश में पूर्व की भाँति जगमगाते नजर आएंगे और उनका प्रकाश पहले की अपेक्षा करोड़ों नई आँखें देखेंगी। इस प्रकार राजनीतिक मूल्य कालान्तर में नष्ट हो जाते हैं। पर साहित्य के मूल्य उत्तरोत्तर विकासोन्मुख रहते हैं।

प्रश्न 8.
जातीय अस्मिता का लेखक किस प्रसंग में उल्लेख करता है और उसका क्या महत्त्व बताता है ?
उत्तर-
साहित्य के विकास में जातियों की भूमिका विशेष होती है। जन समुदाय जब एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश करते हैं, तब उनकी अस्मिता नष्ट नहीं हो जाती। मानव समाज बदलता है और अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है जो तत्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हैं, उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परम्परा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जातीय अस्मिता साहित्यिक परम्परा के ज्ञान का वाहक है।

प्रश्न 9.
जातीय और राष्ट्रीय अस्मिताओं के स्वरूप का अंतर करते हुए लेखक दोनों में क्या समानता बताता है ?
उत्तर-
लेखक ने जातीय अस्मिता एवं राष्ट्रीय अस्मिता के स्वरूप का अन्तर करते हुए दोनों में कुछ समानता की चर्चा की है। जिस समय राष्ट्र के सभी तत्वों पर मुसीबत आती है, तब राष्ट्रीय अस्मिता का ज्ञान अच्छा हो जाता है। उस समय साहित्य परम्परा का ज्ञान भी राष्ट्रीय भाव जागृत करता है। जिस समय हिटलर ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया, उस समय यह राष्ट्रीय अस्मिता जनता के स्वाधीनता संग्राम की समर्थ प्रेरक शक्ति बनी। इस युद्ध के दौरान खासतौर से रूसी जाति ने बार-बार अपनी साहित्य परम्परा का स्मरण किया। समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर जातीय अस्मिता खण्डित नहीं होती वरन् और पुष्ट होती है।

प्रश्न 10.
बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से कोई भी देश भारत का मुकाबला क्यों नहीं कर सकता?
उत्तर-
संसार का कोई भी देश बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से, इतिहास को ध्यान में रखे, तो भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई। वह मुख्यतः संस्कृति और इतिहास की देन है। इस देश की तरह अन्यत्र साहित्य परंपरा का मूल्यांकन महत्वपूर्ण नहीं है। अन्य देश की तुलना में इस राष्ट्र के सामाजिक विकास में कवियों की विशिष्ट भूमिका है।

प्रश्न 11.
भारत की बहुजातीयता मुख्यत: संस्कृति और इतिहास की देन है। कैसे?
उत्तर-
भारतीय सामाजिक विकास में व्यास और वाल्मीकि जैसे कवियों की विशेष भूमिका रही है। महाभारत और रामायण भारतीय साहित्य की एकता स्थापित करती है। इस देश के कवियों ने अनेक जाति की अस्मिता के सहारे यहाँ की संस्कृति का निर्माण किया है। भारत में विभिन्न जातियों का मिला-जुला इतिहास रहा है। अर्थात् भारत के कवियों द्वारा निर्मित संस्कृति बहुजातीयता स्थापित करती है। साथ ही इतिहास भी बताता है कि यहाँ कभी एक जाति दूसरी जातियों पर प्रभुत्व स्थापित नहीं किया। यहाँ की संस्कृति ने एकता का पाठ पढ़ाया है। समरसता स्थापित करना सिखाया है। यही भाव राष्ट्रीयता की जड़ को मजबूत किया है।

प्रश्न 12.
किस तरह समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है ? इस प्रसंग में लेखक के विचारों पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
लेखक के अनुसार पूँजीवादी व्यवस्था में शक्ति का अपव्यय होता है। देश के साधनों का सबसे अच्छा उपयोग समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर जारशाही रूस नवीन राष्ट्र के रूप में पुनर्गठित हो गया। अनेक छोटे-बड़े राष्ट्र समाजवादी व्यवस्था कायम करने के बाद पहले की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हो गए। समाजवादी व्यवस्था जिस राष्ट्र में कायम है वहाँ की प्रगति की रफ्तार पूँजीवादी देश की अपेक्षा तेज है। भारत की राष्ट्रीय क्षमता का पूर्ण विकास समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है। वास्तव में समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है।

प्रश्न 13.
निबंध का समापन करते हुए लेखक कैसा स्वप्न देखता है ? उसके साकार करने में परंपरा की क्या भूमिका हो सकती है ? विचार करें।
उत्तर-
लेखक भारत में अधिक-से-अधिक लोगों के साक्षर होने का स्वप्न देखता है। जब हमारे देश की जनता साक्षर होगी, साहित्य पढ़ने का उसे अवकाश होगा, सुविधा होगी तब रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ के करोड़ों नए पाठक होंगे। इस देश में बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान होगा। भाषा की सीमा में लोग नहीं बँधेगे बल्कि एक भाषा-भाषी दूसरे भाषा-भाषी की रचना को भी अभिरुचि लेकर पढ़ेंगे। यहाँ की विभिन्न भाषाओं में लिखा हुआ साहित्य जातीय सीमाएँ लाँधकर सारे देश की सम्पत्ति बनेगा। मानव संस्कृति की विशद् धारा में भारतीय साहित्य की गौरवशाली परम्परा का नवीन योगदान होगा। साहित्य की परम्परा के योगदान से एशिया की भाषाओं के साहित्य से गहरा परिचय होगा।

प्रश्न 14.
साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है। इस मत को प्रमाणित करने के लिए लेखक ने कौन-से तर्क और प्रमाण उपस्थित किए हैं?
उत्तर-द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक सम्बन्धों से प्रभावित मानते हुए उएसको सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है। भौतिकवाद का अर्थ भाग्यवाद नहीं है। सब कुछ परिस्थितियों द्वारा अनिवार्यतः निर्धारित नहीं हो जाता। मनुष्य और परिस्थितियों का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक है। यही कारण है कि साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है। इसे प्रमाणित करने हेतु लेखक ने कहा है कि गुलामी अमरीका और एथेन्स दोनों में भी किन्तु एथेन्स की सभ्यता ने सारे यूरोप को प्रभावित किया और गुलामों के अमरीकी मालिकों ने मानव संस्कृति को कुछ भी नहीं दिया। पूँजीवादी विकास यूरोप के तमाम देशों में हुआ पर रैफेल, लेओनार्दो दा विंची और माइकेल एंजेलो इटली की देन हैं।

अंततः यहाँ प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका देखी जा सकती है। जब हम विचार करें तो पाते हैं कि साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका होते हुए भी साहित्य वहीं तक सीमित नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में हमेशा कुछ नया करने की गुंजाइश बनी रहती है। अतः साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है।

15. व्याख्या करें।
विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए, तो ज्ञात हो जाएगा कि साहित्य की परंपरा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है, कहाँ कम है और इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते हैं।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘परंपरा का मूल्यांकन’ नामक पाठ से ली गयी हैं। इन पक्तियों का संदर्भ इतिहास और संस्कृतिक परंपरा से जुड़ा हुआ है।

लेखक का कहना है कि जब मानव समाज बदलता है और वह अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है तो जो तत्त्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हैं, उनमें इतिहास और संस्कृति का अद्भुत योगदान है। इतिहास और संस्कृति परंपरा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का ज्ञान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

बंगाल विभाजित हुआ है, किन्तु पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के लोगों को जबतक अपनी साहित्यिक परंपरा का ज्ञान रहेगा तब तक बंगाली जाति सांस्कृतिक रूप से अविभाजित रहेगी।

विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए, तो ज्ञात हो जाएगा कि साहित्य की परंपरा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है, कहाँ कम है और इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते हैं।

उपर्युक्त पंक्तियों का मूल आशय यह है कि इतिहास और संस्कृति किसी भी जाति को संगठित तथा प्रगतिशील बनने में सहायक होती है। सांस्कृतिक परंपरा से जुड़कर ही अस्मिता की रक्षा की जा सकती है।

भाषा की बात

प्रश्न 1.
पाठ से दस अविकारी शब्द चुनिए और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
उत्तर-
इसका = इसका अर्थ बड़ा है।
यह = यह सुन्दर है।
ये = ये मनुष्य अच्छे हैं।
ऐसी = ऐसी कला श्रेष्ठ है।
इसीलिए = इसीलिए मोहन खेलता है।
कुछ = कुछ पुस्तक लाओ।
आजकल = आजकल व्यक्ति की पूजा होती है।
काफी = काफी निन्दा की जाती है।
किन्तु = किन्तु मदन व्यक्तिपूज्य का प्रचार करते हैं।
इसमें = इसमें अच्छी कविता का संग्रह है।

प्रश्न 2.
निम्नांकित पदों में विशेष्य का परिवर्तन कीजिए
उत्तर-
बुनियादी परिवर्तन = बुनियादी सुधार
मूर्त ज्ञान = मूर्तरूप
अभ्युदयशीलवर्ग = अभ्युदयशील समाज
समाजवादी व्यवस्था = समाजवादी लोग
श्रमिक जनता = श्रमिक शिक्षक
प्रगतिशील आलोचना = प्रगतिशील लेखक
अद्वितीय भूमिका = अद्वितीय उदाहरण
राजनीतिक मूल्य = राजनीतिक ज्ञाना

प्रश्न 3.
पाठ से संज्ञा के भेदों के चार-चार उदाहरण चुनें।
उत्तर-
जातिवाचक संज्ञा = मनुष्य, साहित्य, इन्द्रिय, भाषा।
व्यक्तिवाचक संज्ञा = शेक्सपियर, अमरीका, रूस, इंग्लैंड
समूहवाचक संज्ञा = समाज, वर्ग, कारखाना, जनसमुदाय।
भाववाचक संज्ञा = भावनाएँ, स्वाधीनता, कलात्मक, सर्वोच्चय।
द्रव्यवाचक संज्ञा = लकड़ी, चावल, पानी, दूध।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित सर्वनामों के प्रकार बताते हुए उनका वाक्य में प्रयोग करें-
उत्तर-
im

गद्यांशों पर आधारित अर्थग्रहण-संबंधी प्रश्नोत्तर

1. जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लकीर के फकीर नहीं हैं, जो रूढ़ियाँ तोड़कर क्रांतिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है। जो लोग समाज में बुनियादी परिवर्तन करके वर्गहीन शोषणमुक्त समाज की रचना करना चाहते हैं; वे अपने सिद्धान्तों को ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से पुकारते हैं। जो महत्त्व ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का है, वही आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है। साहित्य की परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है।

प्रगतिशील आलोचना के ज्ञान से साहित्य की धारा मोड़ी जा सकती है और नए प्रगतिशील साहित्य का निर्माण किया जा सकता है। प्रगतिशील आलोचना किन्हीं अमूर्त सिद्धान्तों का संकलन नहीं है, वह साहित्य की परम्परा का मूर्त ज्ञान है और यह ज्ञान उतना ही विकासमान है जितना साहित्य की परम्परा।

प्रश्न
(क) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है? और इसके रचनाकार कौन हैं?
(ख) साहित्य-परंपरा का ज्ञान किनके लिए अत्यन्त आवश्यक है? (ग) नये प्रगतिशील साहित्य का निर्माण कैसे किया जा सकता है ?
(घ) प्रगतिशील आलोचना क्या है ?
उत्तर-
(क) प्रस्तुत गद्यांश ‘परम्परा का मूल्यांकन’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक रामविलास शर्मा हैं।
(ख) जो लोग साहित्यिक युग परिवर्तन करना चाहते हैं, रूढ़ियों को तोड़कर क्रांतिकारी साहित्य का सृजन करना चाहते है, उनके लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।
(ग) नये प्रगतिशील साहित्य का निर्माण आलोचना के माध्यम से किया जा सकता है। जिस तरह ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का महत्त्व है उसी तरह आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है।
(घ) साहित्य की परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है प्रगतिशील आलोचना साहित्य की परंपरा का मूर्त ज्ञान है।

प्रश्न 2.
साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से संबद्ध है। आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी अपना जीवन बिताता है। साहित्य में उसकी बहुत-सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित होती हैं जो उसे प्राणिमात्र से जोड़ती हैं। इस बात को बार-बार कहने में कोई हानि नहीं है कि साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है। उसमें मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ भी व्यजित होती हैं। साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है।
प्रश्न-
(क) साहित्य का कौन-सा पक्ष स्थायी होता है ?
(ख) साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से संबद्ध है। कैसे?
(ग) साहित्य में कौन-कौन-से भाव व्यंजित होते हैं ?
(घ) साहित्य विचारधारा मात्र ही नहीं है। इसे स्पष्ट करें।’
उत्तर-
(क) साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य की वैसी विचारधाराएँ जिसमें इन्द्रिय बोध, भावनाएँ आदि सन्निहित रहती हैं वह साहित्य का स्थायी पक्ष होता है।
(ख) साहित्य का महल समाज की पृष्ठभूमि पर ही प्रतिष्ठित होता है। जिस काल में जिस प्रकार की सामाजिक परिस्थितियाँ थीं। उसी के अनुरूप ही साहित्य का सृजन हुआ। प्रत्येक युग के उत्तम और श्रेष्ठ साहित्य ने अपने प्रगतिशील विचारों-संस्कारों एवं भावात्मक संवेदनाओं का स्वरूप प्रदान किया है।
(ग) साहित्य में इन्द्रिय बोध एवं भावनाओं का स्वरूप व्यजित होता है।
(घ) साहित्यकार मस्तिष्क और हृदय संपन्न प्राणी है। जब कभी वह भावों और विचारों को प्रकट करना चाहता है, तब उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के रूप में होती है। साहित्य युग एवं समाज का होकर भी युगांतकारी जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित कर, सुंदरतम समाज का रेखाचित्र प्रस्तुत करता है। इसमें रंग भरकर जीवंतता प्रदान कर देना पाठकों का कार्य होता है।

3. साहित्य में विकास-प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती जैसे समाज में। सामाजिक विकास-क्रम में सामन्ती सभ्यता की अपेक्षा पूँजीवादी सभ्यता को अधिक प्रगतिशील कहा जा सकता है और पूँजीवादी सभ्यता के मुकाबले समाजवादी सभ्यता को। पुराने चरखे और करघे के मुकाबले मशीनों के व्यवहार से श्रम की उत्पादकता बहुत बढ़ गई है।

पर यह आवश्यक नहीं है कि सामन्ती समाज के कवि की अपेक्षा पूँजीवादी समाज का कवि श्रेष्ठ हो। यह भी सम्भव है कि आधुनिक सभ्यता का विकास कविता के विकास का विरोधी हो और कवि स्वयं बिकाऊ माल बन रहा हो। व्यवहार में यही देखा जाता है कि 19वीं और 20वीं सदी के कवि-क्या भारत में क्या यूरोप में पुराने कवियों को घोटे जा रहे हैं और कहीं उनके आस-पास पहुँच जाते हैं तो अपने को धन्य मानते हैं। ये जो तमाम कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं, वे उनका अनुकरण नहीं करते, उनसे सीखते हैं, और स्वयं नई परम्पराओं को जन्म देते हैं।

जो साहित्य दूसरों की नकल करके लिखा जाए, वह अधम कोटि का होता है और सांस्कृतिक असमर्थता का सूचक होता है। जो महान साहित्यकार है, उनकी कला की आवृत्ति नहीं हो सकती, यहाँ तक कि एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने पर उनका कलात्मक सौन्दर्य ज्यों-का-त्यों नहीं बना रहता। औद्योगिक उत्पादन और कलात्मक उत्पादन में यह बहुत बड़ा अन्तर है। अमेरिका ने एटमबम बनाया, रूस ने भी बनाया, पर शेक्सपियर के नाटकों जैसी चीज का उत्पादन दुबारा इंग्लैंड में भी नहीं हुआ।

प्रश्न
(क) औद्योगिक उत्पादन तथा कलात्मक उत्पादन में क्या अन्तर है?
(ख) किस तरह का साहित्य अधमकोटि की श्रेणी में रखा गया है ?
(ग) अनुदित भाषा का सौन्दर्य घट जाता है क्यों?
(घ) लेखक आज के कवियों को बिकाऊ क्यों मानता है?
उत्तर-
(क) औद्योगिक उत्पादन एवं कलात्मक उत्पादन दोनों एक-दूसरे से सौन्दर्यबोध में भिन्न है। औद्योगिक उत्पादन में सौन्दर्य की प्रधानता नहीं रहती है जबकि कलात्मक उत्पादन में सौन्दर्य ही उसका सब कुछ है। औद्योगिक उत्पादन अपनी उत्पादन क्षमता को प्रकट करता है तो कलात्मक उत्पादन सौन्दर्य एवं विस्तार को प्रकट करता है।
(ख) नकल का लिखा गया साहित्य अधम कोटि का होता है। वह सांस्कृतिक असमर्थता का सूचक होता है।
(ग) भाषा की लावण्यता ही उसका सौन्दर्यबोध है। अनुदित भाषा में लावण्यता क्षीण हो जाती है। बार-बार पढ़ने पर कोई-न-कोई एक नया रूप दिखाई देता है। उस साहित्य की लावण्यता अक्षुण्ण होती है। अनुदित भाषा में ये गुण नहीं दिखाई पड़ते हैं। यही कारण है कि अनुदित भाषा का सौंदर्य घट जाता है।
(घ) पुराने चरखे और करघे की अपेक्षा मशीनों के व्यवहार में उत्पादन क्षमता बढ़ गई है। ठीक इसी प्रकार आज के कवि सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप अपनी रचनाओं का सृजन नहीं करते हैं बल्कि पूँजीपतियों को आधार बनाकर या किसी रचना की नकल करते हैं। इसी कारण लेखक आज के कवियों को बिकाऊ मानता है।

4. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक संबंधों को प्रभावित मानते हुए उसकी सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है। आर्थिक संबंधों से प्रभावित होना एक बात है, उनके द्वारा चेतना का निर्धारित होना और बात है। भौतिकवाद का अर्थ भाग्यवाद नहीं है। सब कुछ परिस्थितियों – द्वारा अनिवार्यतः निर्धारित नहीं हो जाता। यदि मनुष्य परिस्थितियों का नियामक नहीं है तो परिस्थितियाँ भी मनुष्य की नियामक नहीं है। दोनों का संबंध द्वन्द्वात्मक है। यही कारण है कि साहित्य सापेक्ष रूप से स्वाधीन होता है।

प्रश्न
(क) पाठ और लेखक का नामोल्लेख करें।
(ख) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में मनुष्य की क्या स्थिति है ?
(ग) क्या मनुष्य की चेतना आर्थिक संबंधों से निर्धारित होती है ?
(घ) मनुष्य और परिस्थितियों का संबंध कैसा है ? इसका प्रभाव साहित्य पर क्या पड़ता है ?
उत्तर-
(क) पाठ-परम्परा का मूल्यांकन। लेखक-रामविलास शर्मा।
(ख) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक संबंधों से प्रभावित मानते हुए उसकी सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है।
(ग) मनुष्य की चेतना केवल आर्थिक संबंधों से निर्धारित नहीं होती।
(घ) मनुष्य परिस्थितियों का नियामक है, न परिस्थितियाँ मनुष्य का। दोनों का संबंध द्वन्द्वात्मक है। इस कारण ही साहित्य सापेक्ष रूप से स्वाधीन होता है।

5. साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक है। इसका यह अर्थ नहीं कि ये मनुष्य जो करते हैं, वह सब अच्छा ही अच्छा होता है, या उनके श्रेष्ठ कृतित्व में दोष नहीं होते। कला का पूर्णतः निर्दोष होना भी एक दोष है। ऐसा कला निर्जीव होती है। इसीलिए प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय उपलब्धियों के बाद कुछ नया और उल्लेखनीय करने की गुंजाइश बनी रहती है। आजकल व्यक्ति पूजा की काफी निन्दा की जाती है। किन्तु जो लोग सबसे ज्यादा व्यक्ति पूजा की निन्दा करते हैं, वे सबसे ज्यादा व्यक्ति पूजा का प्रचार भी करते हैं।

प्रश्न-
(क) साहित्य के निर्माण में किनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है ?
(ख) कैसी कला निर्जीव होती है ?
(ग) साहित्य का मूल्य राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी क्यों है?
(घ) व्यक्ति पूजा का प्रचार कौन लोग करते हैं?
उत्तर-
(क) साहित्य निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका महत्त्वपर्ण है।
(ख) जिस कला में कोई दोष नहीं होता है वह निर्जीव होती है। दोषरहित कला में लावण्यता नहीं रहती है।
(ग) राजनीतिक मूल्य जीवन के सम-विषम परिस्थितियों से अवगत नहीं होते हैं। इनमें आलोचना सकारात्मक नहीं होती है। वे परस्पर एक-दूसरे का विरोध करते हैं किन्तु धरातल स्तर पर एक है। साहित्यिक मूल्य जीवन से जुड़ा हुआ रहता है। जीवन से इसका गहरा संबंध होता है। इसकी आलोचना न हो तो जीवन की सार्थकता ही समाप्त हो जायेगी। यही कारण हैं कि साहित्य का मूल्य राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी है।
(घ) व्यक्ति पूजा की निन्दा करनेवाले लोग ही व्यक्ति पूजा का अधिक प्रचार-प्रसार करते हैं। वर्तमान परिस्थिति में यदि कोई महान बनना चाहे तो वह और कुछ नहीं किसी महान व्यक्ति की आलोचना करना शुरू दे। उसका आलोचनात्मक रूप ही महानता की सीढ़ी साबित होगा।

6. यदि कोई साहित्यकार आलोचना से परे नहीं है, तो राजनीतिज्ञ यह दावा और भी नहीं कर सकते, इसलिए कि साहित्य के मूल्य, राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी है। अंग्रेज कवि टेनीसन ने लैटिन कवि वर्जिल पर एक बडी अच्छी कविता लिखी थी। इसमें उन्होंने कहा है कि रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया पर वर्जिल के काव्य-सागर की ध्वनि-तरंगें हमें आज भी सुनाई देती हैं और हृदय को आनन्द विह्वल कर देती है। कह सकते हैं कि जब ब्रिटिश साम्राज्य का कोई नामलेवा और पानीदेवा न रह जाएगा, तब शेक्सपियर, मिल्टन और शेली विश्व संस्कृति के आकाश में वैसे ही जगमगाते नजर आएंगे जैसे पहले और उनका प्रकाश पहले की अपेक्षा करोड़ों नई आँखें देख सकेंगी।

प्रश्न
(क) पाठ और लेखक का नाम लिखें।
(ख) राजनीतिज्ञ आलोचना से परे होने का दावा क्यों नहीं कर सकते?
(ग) टेनीसन कौन थे? उन्होंने क्या लिखा है ?
(घ) गद्यांश का आशय लिखिए।
उत्तर-
(क) पाठ-परम्परा का मूल्यांकन। लेखक-रामविलास शर्मा।
(ख) राजनीतिज्ञ आलोचना से परे होने का दावा नहीं कर सकते।
(ग) टेनीसन अंग्रेज कवि थे। उन्होंने लिखा है कि रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया पर लैटिन कवि वर्जिल के काव्य-सागर की ध्वनि की तरंगें आज भी सुनाई देती हैं और आनन्द प्रदान करती हैं।
(घ) राजनीति की अपेक्षा साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी होते हैं। आज रोमन साम्राज्य नहीं है किन्तु लैटिन कवि वर्जिल की कविताएँ आज भी लोगों को आनंदित करती हैं। इसी प्रकार, अंग्रेजों का राज्य संसार से मिट गया किन्तु शेक्सपियर और मिल्टन तथा शेली विश्व-संस्कृति , के आकाश में जगमगा रहे हैं।

7. संसार का कोई भी देश, बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से, इतिहास को ध्यान में रखे तो, भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई। वह मुख्यतः संस्कृति और इतिहास की देन है। इस संस्कृति के निर्माण में इस देश के कवियों का सर्वोच्च स्थान है। इस देश की संस्कृति से रामायण और महाभारत को अलग कर दें, तो भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता टूट जाएगी। किसी भी बहुजातीय राष्ट्र के सामाजिक विकास में कवियों की ऐसी निर्णायक भूमिका नहीं रही, जैसी इस देश में व्यास और वाल्मीकि की है। इसलिए किसी भी देश के लिए साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना इस देश के लिए है।

प्रश्न
(क) पाठ और लेखक का नाम लिखें।
(ख) संसार का कोई भी देश बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से भारत का मुकाबला क्यों नहीं कर सकता?
(ग) भारत की संस्कृति के निर्माण में किनका योगदान है ?
(घ) गद्यांश का आशय लिखें।
उत्तर-
(क) पाठ-परम्परा का मल्यांकन। लेखक-रामविलास शर्मा।
(ख) बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से संसार का कोई देश भारत का मुकाबला नहीं कर सकता क्योंकि इसकी राष्ट्रीयता किसी दूसरी जाति पर राजनीतिक प्रमुख कायम करके नहीं, इतिहास और सांस्कृतिक सामंजस्य पर स्थापित हुई हैं।
(ग) भारत की संस्कृति के निर्माण में यहाँ के कवियों-संतों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। वस्तुतः भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता के आधार रामायण और महाभारत हैं। बहुजातीय राष्ट्र के सामाजिक विकास में वाल्मीकि और वेद व्यास की अनन्य भूमिका हैं। इसलिए यहाँ की साहित्यिक परम्परा का मूल्यांकन सबसे ज्यादा है।
(घ) संसार का कोई भी बहुजातीय देश भारत का मुकाबला नहीं कर सकता क्योंकि यहाँ की राष्ट्रीयता का आधार राजनीतिक प्रभुत्व नहीं रहा है। यहाँ की राष्ट्रीय एकता इतिहास और संस्कृति की देन है। इसके निर्माण में रामायण और महाभारत का तथा इनके रचयितों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसलिए, यहाँ की साहित्यिक परम्परा का मूल्यांकन बहुत महत्त्वपूर्ण है।

8. और साहित्य की परम्परा का पूर्ण ज्ञान समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। समाजवादी संस्कृति पुरानी संस्कृति से नाता नहीं तोड़ती, वह उसे आत्मसात करके आगे बढ़ती है। अभी हमारे देश की निरक्षर, निर्धन जनता नए और पुराने साहित्य की महान उपलब्धियों के ज्ञान से वंचित है। जब वह साक्षर होगी, साहित्य पढ़ने का उसे अवकाश होगा, सुविधा होगी, तब व्यास और वाल्मीकि के करोड़ों नए पाठक होंगे। वे अनुवाद में ही नहीं, उन्हें संस्कृत में भी पढ़ेंगे।

और तब इस देश में इतने बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान होगा कि सुब्रह्मण्यम भारती की कविताएँ मूलभाषा में उत्तर भारत के लोग पढ़ेंगे और रवीन्द्रनाथ की रचनाएँ मूलभाषा में तमिलनाडु के लोग पढ़ेंगे। यहाँ की विभिन्न भाषाओं में लिखा हुआ साहित्य जातीय सीमाएँ लाँघकर सारे देश की सम्पत्ति बनेगा। जिस भाषा के बोलनेवाले अधिकतर निरक्षर हैं और अपने साहित्यकारों का बहुत-से-बहुत नाम सुनते हैं, वे तो इनकी रचनाएँ पढ़ेंगे ही। और तब अंग्रेजी भाषाप्रभुत्व जमाने की भाषा न होकर वास्तव में ज्ञान-अर्जन की भाषा होगी। और हम केवल अंग्रेजी नहीं, यूरोप की अनेक भाषाओं के साहित्य का अध्ययन करेंगे, और एशिया की भाषाओं के साहित्य से हमारा परिचय गहरा होगा। तब मानव संस्कृति की विशद धारा में भारतीय साहित्य की गौरवशाली परम्परा का नवीन योगदान होगा।

प्रश्न-
(क) समाजवादी संस्कृति की क्या विशेषता है ?
(ख) साहित्य परम्परा का पूर्ण ज्ञान कहाँ संभव है ?
(ग) लेखक आशान्वित क्यों है ?
(घ) एशिया की भाषाओं से हमारा गहरा संबंध कब होगा?
उत्तर-
(क) समाजवादी संस्कृति पुरानी संस्कृति से अपना नाता नहीं तोड़ती है बल्कि उसे आत्मसात करके आगे बढ़ाती है।
(ख) साहित्य परम्परा का पूर्ण ज्ञान समाजवादी व्यवस्था में संभव है। ‘
(ग) लेखक भलीभांति जानता है कि भारत के अधिकांश लोग निरक्षर हैं। महान रचनाकारों के नाम जानते हैं किन्तु उनकी रचना को पढ़ नहीं पाते हैं। जिस दिन ये साक्षर हो जायेंगे उस दिन ही ब्यास, कालिदास आदि जैसे रचनाकारों को जानेंगे ही नहीं बल्कि समृद्ध भारत की परिकल्पना करेंगे। किसी एक भाषा का नहीं प्रत्युत सभी भाषाओं का अवलोकन कर भारतीय साहित्य की गौरवशाली परम्परा का यथेष्ट सम्मान देंगे।
(घ) जब हम साक्षर होकर देश के सभी हिस्सों में साहित्य का प्रचार करेंगे, अंग्रेजी प्रभुत्व की भाषा न रहकर ज्ञान-अर्जन की भाषा होगी, यूरोप आदि की भाषाओं का अध्ययन करेंगे तब एशिया की भाषाओं से हमारा गहरा संबंध स्थापित होगा।

9. यदि समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर जारशाही रूस नवीन राष्ट्र के रूप में पुनर्गठित हो सकता है, तो भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर यहाँ की राष्ट्रीय अस्मिता पहले से कितना पुष्ट होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है। वास्तव में समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है। पूँजीवादी व्यवस्था में शक्ति का इतना अपव्यय होता है कि उसका कोई हिसाब नहीं है। देश के साधनों का सबसे अच्छा उपभोग समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। अनेक छोटे-बड़े राष्ट्र, जो भारत से ज्यादा पिछड़े हुए थे, समाजवादी व्यवस्था कायम करने के बाद पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा शक्तिशाली हो गए हैं, और उनकी प्रगति की रफ्तार किसी भी पूँजीवादी देश की अपेक्षा तेज है। भारत की राष्ट्रीय क्षमता का पूर्ण विकास समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है।

प्रश्न
(क) पाठ तथा लेखक का नाम लिखें।
(ख) किस व्यवस्था में शक्ति का अपव्यय होता है ?
(ग) देश के साधनों का सबसे अच्छा उपभोग किस व्यवस्था में संभव हैं?
(घ) किस व्यवस्था में भारत की राष्ट्रीय क्षमता का पूर्ण विकास सम्भव है ?
(ङ) समाजवादी व्यवस्था से अनेक पिछड़े हुए राष्ट्र को क्या लाभ हुआ?
उत्तर-
(क) पाठ का नाम- परम्परा का मूल्यांकना ।
लेखक का नाम-रामविलास शर्मा।
(ख) पूँजीवादी व्यवस्था में शक्ति का अत्यधिक अपव्यय होता है।
(ग) देश के साधनों का सबसे अच्छा उपभोग समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है।
(घ) समाजवादी व्यवस्था में ही भारत की राष्ट्रीय क्षमता का पूर्ण विकास संभव है।
(ङ) समाजवादी व्यवस्था से अनेक छोटे-बड़े राष्ट्र शक्तिशाली हो गए। उनका पिछड़ापन दूर हो गया और उनकी प्रगति की रफ्तार तेज हो गयी।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

I. सही विकल्प चुनें-

प्रश्न 1.
रामविलास शर्मा निम्नांकित में क्या हैं?
(क) आलोचक
(ख) कवि
(ग) नाटककार
(घ) साहित्यकार
उत्तर-
(क) आलोचक

प्रश्न 2.
‘परम्परा का मूल्यांकन’ के लेखक कौन हैं ?
(क) नलिन विलोचन शर्मा
(ख) अशोक वाजपेयी
(ग) रामविलास शर्मा
(घ) भीमराव अम्बेदकर
उत्तर-
(ग) रामविलास शर्मा

प्रश्न 3.
‘परम्परा का मूल्यांकन’ निबंध किस पुस्तक से संकलित है ?
(क) भाषा और समाज
(ख) परम्परा का मूल्यांकन
(ग) भारत की भाषा समस्या
(घ) प्रेमचन्द और उन का युग
उत्तर-
(ख) परम्परा का मूल्यांकन

प्रश्न 4.
दूसरों की नकल कर लिखा गया साहित्य कैसा होता है?
(क) उत्तम
(ख) मध्यम
(ग) अधम
(घ) व्यग्य
उत्तर-
(ग) अधम

प्रश्न 5.
रैफल, लेअनार्दो दा विंची और ऐंजलो किसकी देन हैं ?
(क) इंग्लैंड की
(ख) फ्रांस की
(ग) इटली की
(घ) यूनान की
उत्तर-
(ग) इटली की

प्रश्न 6.
शेक्सपीयर कौन थे?
(क) नाटककार
(ख) कहानीकार
(ग) उपन्यासकार
(घ) निबन्धकार
उत्तर-
(क) नाटककार

II. रिक्त स्थानों की पर्ति

प्रश्न 1.
साहित्य का मनुष्य के ………… जीवन से संबंध है।
उत्तर-
सम्पूर्ण

प्रश्न 2.
गुलामों के…………..मालिकों ने मानव संस्कृति को कुछ नहीं दिया।
उत्तर-
अमरीकी

प्रश्न 3.
कला का पूर्णतः ……. होना भी एक दोष है।
उत्तर-
निर्दोष

प्रश्न 4.
मानव-समाज बदलता है और अपनी पुरानी…………….कायम रखता है।
उत्तर-
अस्मिता

प्रश्न 5.
टॉलस्टाय………..समाज के लोकप्रिय है।
उत्तर-
रूसी, साहित्यकार

प्रश्न 6.
…………हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है।
उत्तर-
समाजवाद

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
साहित्य में युग-परिवर्तन चाहनेवालों के लिए क्या जरूरी है ?
उत्तर-
साहित्य में युग-परिवर्तन चाहनेवालों के लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान आवश्यक है।

प्रश्न 2.
प्रगतिशील आलोचना का विकास कैसे होता है ?
उत्तर-
साहित्य की परम्परा के ज्ञान से प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है।

प्रश्न 3.
साहित्य का कौन-सा पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है?
उत्तर
साहित्य जिसमें मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ व्यजित होती हैं, वह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है।

प्रश्न 4.
मनुष्य और परिस्थितियों का संबंध कैसा है ?
उत्तर-
मनुष्य और परिस्थितियों का संबंध द्वन्द्वात्मक है।

प्रश्न 5.
शेली और बायरन की देन क्या है ?
उत्तर-
शेली और बायरन ने 19वीं सदी में स्वाधीनता के लिए लड़नेवाले यूनानियों की एकात्मकता की पहचान करने में बहुत परिश्रम किया।

प्रश्न 6.
इतिहास का प्रवाह कैसा होता है ? ,
उत्तर-
इतिहास का प्रवाह विच्छिन्न होता है और अविच्छिन्न भी।

प्रश्न 7.
भारतीय संस्कृति के निर्माण में किसका सर्वाधिक योगदान है?
उत्तर-
भारतीय संस्कृति के निर्माण में भारत के कवियों का सर्वाधिक योगदान है।

प्रश्न 8.
रामविलास शर्मा की दृष्टि से देश के साधनों का सबसे अच्छा उपयोग किस व्यवस्था में होता है ?
उत्तर-
रामविलास शर्मा की दृष्टि से देश के साधनों का सबसे अच्छा उपयोग समाजवादी व्यवस्था में ही हो सकता है।

परंपरा का मूल्यांकन लेखक का परिचय

हिन्दी आलोचना के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर डॉ० रामविलास शर्मा का जन्म उन्नाव (उ० प्र०) के एक छोटे-से गाँव ऊँचगाँव सानी में 10 अक्टूबर 1912 ई० में हुआ था । उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से 1932 ई० में बी० ए० तथा 1934 ई० में अंग्रेजी साहित्य में एम० ए० किया। एम० ए० करने के बाद 1938 ई० तक शोधकार्य में व्यस्त रहे । 1938 से 1943 ई० तक उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापन कार्य किया । उसके बाद वे आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज चले आए और 1971 ई० तक यहाँ अध्यापन कार्य करते रहे । बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर वे के० एम० हिंदी संस्थान के निदेशक बने और यहीं से 1974 ई० में सेवानिवृत्त हुए । 1949 से 1953 ई० तक रामविलास जी भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री भी रहे । उनका निधन 30 मई 2000 ई० को दिल्ली में हुआ।

हिंदी गद्य को रामविलास शर्मा का योगदान ऐतिहासिक है । तर्क और तथ्यों से भरी हुई साफ पारदर्शी भाषा रामविलास जी के गद्य की विशेषता है। उन्हें भाषाविज्ञान विषयक परंपरागत दृष्टि को मार्क्सवाद की वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषित करने तथा हिंदी आलोचना को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करने का श्रेय प्राप्त है, । देशभक्ति और मार्क्सवादी चेतना रामविलास जी का केंद्र-बिंदु है। उनकी लेखनी से वाल्मीकि और कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ है । उन्हें न केवल प्रगति विरोधी हिंदी आलोचना की कला एवं साहित्य विषयक भ्रांतियों के निवारण का श्रेय है, बल्कि स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अंतर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।

रामविलास जी ने हिंदी में जीवनी साहित्य को एक नया आयाम दिया । उन्हें ‘निराला की साहित्य साधना’ पुस्तक पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हो चुका है । उनकी अन्य प्रमुख रचनाओं के नाम हैं – ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’, ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र’, ‘प्रेमचंद और उनका युग’, ‘भाषा और समाज’, ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ ‘भारत की भाषा समस्या’, ‘नयी कविता और अस्तित्ववाद’, ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’, ‘भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’, ‘विराम चिह्न’, ‘बड़े भाई’ आदि ।

पाठ के रूप में यहाँ रामविलास जी का निबंध प्रस्तुत है – ‘परंपरा का मूल्यांकन’ । यह निबंध इसी नाम की पुस्तक से किंचित संपादन के साथ संकलित है । यह निबंध समाज, साहित्य और परंपरा के पारस्परिक संबंधों की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक मीमांसा एकसाथ करते हुए रूपाकार ग्रहण करता है । परंपरा के ज्ञान, समझ और मूल्यांकन का विवेक जगाता यह निबंध साहित्य की सामाजिक विकास में क्रांतिकारी भूमिका को भी स्पष्ट करता चलता है । नई पीढ़ी में यह निबंध परंपरा और आधुनिकता की युगानुकूल नई समझ विकसित करने में एक सार्थक हस्तक्षेप करता है।

परंपरा का मूल्यांकन Summary in Hindi

पाठ का सारांश

जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लकीर के फकीर नहीं है, जो रूढ़ियाँ तोड़कर क्रांतिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य परम्परा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है। जो लोग समाज में बुनियादी परिवर्तन करके वर्गहीन शोषणमुक्त समाज की रचना करना चाहते हैं; वे अपने सिद्धान्तों को ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से पुकारते हैं।

प्रगतिशील आलोचना किन्हीं अमूर्त सिद्धान्तों का संकलन, नहीं है, वह साहित्य की परम्परा का मूर्त ज्ञान है। और यह ज्ञान उतना ही विकासमान है जितना साहित्य की परम्परा।

साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्य निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित करता है।
साहित्य में मनुष्य की बहुत-सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित होती हैं जो उसे प्रतिमात्र से जोड़ती हैं। उसमें मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ भी व्यजित होती है। साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है।

साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक है। इसका यह अर्थ नहीं कि ये मनुष्य जो करते हैं, वह सब अच्छा ही अच्छा होता है, या उनके श्रेष्ठ कृतित्व में दोष नहीं होते। कला का पूर्णतः निर्दोष होना भी एक दोष है। साहित्य के मूल्य, राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी है। अंग्रेज कवि टेनीसन ने लैटिन कवि वर्जिल पर एक बड़ी अच्छी कविता लिखी थी। इसमें उन्होंने कहा कि रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया पर वर्जिल के काव्य सागर की ध्वनि-तरंगें हमें आज भी सुनाई देती हैं और हृदय को आनन्द-विह्वल कर देती है। कह सकते हैं कि जब ब्रिटिश साम्राज्य का कोई नामलेवा और पानी देने वाला न रह जाएगा, तब शेक्सपियर, मिल्टन और शैली विश्व संस्कृति के आकाश में वैसे ही जगमगाते नजर आएँगे जैसे पहले, और उनके प्रकाश पहले की अपेक्षा करोड़ों नई आँखें देखेंगी।

संसार का कोई भी देश, बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से, इतिहास को ध्यान में रखें तो भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई। वह मुख्यत: संस्कृति और इतिहास की देन है। इस संस्कृति के निर्माण में इस देश के कवियों का सर्वोच्च स्थान है। इस देश की संस्कृति से रामायण और महाभारत को अलग कर दें, तो भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता टूट जाएगी। किसी भी बहुजातीय राष्ट्र की सामाजिक विकास में कवियों की ऐसी निर्णायक भूमिका नहीं रही, जैसी इस देश में व्यास और वाल्मीकि की है।

समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकत्ता है। पूँजीवादी व्यवस्था में शक्ति का इतना अपव्यय होता है कि उसका कोई हिसाब नहीं है। देश की साधनों का सबसे अच्छा उपीोग समाजवादी व्यवस्था कायम करने के बाद पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा शक्तिशाली हो गए हैं और उनकी प्रगति की रफ्तार किसी भी पूँजीवादी देश की अपेक्षा तेज है। साहित्य की परम्परा का पूर्ण ज्ञान समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। समाजवादी संस्कृति पुरानी संस्कृति से नाता नहीं तोड़ती, वह उसे आत्मसात करके आगे बढ़ती है।

अभी हमारे निरक्षर निर्धन जनता नए और पुराने साहित्य की महान उपलब्धियों के ज्ञान से वंचित है। जब वह साक्षर होगी, साहित्य पढ़ने का उसे अवकाश होगा, सुविधा होगी, तब व्यास और वाल्मीकि के करोड़ों नए पाठक होंगे। तब मानव संस्कृति की विशद धारा में भारतीय साहित्य की गौरवशाली परम्परा का नवीन योगदान होगा।

शब्दार्थ

प्रगतिशील आलोचना : जो आलोचना सामाजिक विकास को महत्त्व देती हो
भौतिकवाद : वह विचारधारा जो चेतना या भाव का मूल पदार्थ को मानती हो
अमूर्त : जो मूर्त न हो, जो दिखाई न पड़े, भावमय
विकासमान : विकास करता हुआ
प्रतिबिंबित : झलकता हुआ, जिसकी छाया दिखलाई पड़े
अभ्युदयशील : तरक्की करता हुआ, उन्नतिशील
ह्रासमान : नष्ट होता हुआ, छीजता हुआ, मरता हुआ
यथष्ट : पर्याप्त
आत्मि : अतिप्राचीन, सबसे पहला
व्यजित : प्रकट, ध्वनित, अभिव्यक्त
पूर्ववर्ती : जो पहले से विद्यमान हो, पहले से मौजूद रहनेवाला, पूर्वज
नियामक : निर्मित और नियमबद्ध करनेवाला
द्वंद्वात्मक : जिसमें दो परस्पर विरोधी स्थितियों या पक्षों का संघर्ष हो
नामलेवा : नाम लेने वाला, उत्तराधिकारी
अस्मिता : अस्तित्व, पहचान
एकात्मकता : एकता, आत्मा की एकता
अविच्छिन्न : लगातार, निरंतर, अटूट
न्यूनाधिक : कमोबेश
समर्थ : सक्षम, सुयोग्य
वंचित : अभावग्रस्त
प्रभुत्व : अधिकार, स्वामित्व
विशद : व्यापक, विस्तृत
पुनर्गठित : फिर से व्यवस्थित
अपव्यय : फिजूलखर्ची
आत्मसात् : अपना हिस्सा बनाना, अपने में समाहित कर लेना


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